नदियां रातों रात कहीं से निकल कर नहीं आती हैं। सैकड़ों साल से वो हमें बताती रही हैं कि उनका रास्ता तय है और बारिश के दिनों में वो कहां तक बहा करेंगी, वो भी तय है। जब तक उनके रास्तों पर मकान, दुकान नहीं बने थे तब तक बाढ़ से तबाही नहीं होती थी। हमें स्कूलों में भी यही पढ़ाया जाता है कि जब-जब बाढ़ आती है, तो खेती के लिए अच्छी मिट्टी ले आती है। पहाड़ हमें बार-बार बताता है कि हम पानी, मिट्टी और चट्टानों के साथ खेल सकते हैं। प्रकृति अपने साथ हुए अत्याचारी मानवीय व्यवहार को कभी अपने चित्त से नहीं उतारती। एक बार फिर उसने मानव के द्वारा खेली गई अमानवीयता से तंग आकर आखिरकार यह बता दिया कि अगर तुम हमको इसी तरह से छेड़ते रहोगे तो मैं एक न एक दिन तुम्हें भी बर्बाद कर दूंगी। इन सारी तबाही से जो एक बात निकलकर बाहर आई वो यह कि राजनीति किसी भी आपदा से कुछ नहीं सीखती। वो इन आपदाओं को भी सिर्फ मौके के रूप में इस्तेमाल करती है। हम अलग-अलग दलों के अलग-अलग नेताओं के यह बयान सुनते आ रहे हैं कि केदारनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए इनकी-उनकी सरकारें इतना-उतना देंगी। किसी ने नहीं कहा इनकी-उनकी सरकार आम लोगों के ढहे हुए मकानों को बनाने के लिए भी कुछ देंगी। यह भी नहीं कहा कि इस आपदा में जो स्कूल बह गए हैं, उन्हें बनाने के लिए भी कुछ धन मुहैया कराया जाएगा। यह सारा मामला चूंकि मंदिर से जुड़ा हुआ है इसलिए सारे नेता इससे जुड़ा ऐलान कर रहे हैं।
हमारी भावनाओं के साथ खेलने की भयंकर होड़ मची हुई है। शायद राजनीतिक दलों को यह मालूम है कि हमें भी यही सब अच्छा लगता है। आप अगर खंड-खंड हुए उत्तराखंड कभी गए होंगे तो उस दिन के और आज के नजारे एकदम बदले हुए लगेंगे। हम देख रहे हैं कि इनके-उनके राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेताओं और संतों के अवैध धर्मशालाओं और होटलों की भरमार है। इस आरोप-प्रत्यारोप में भी राजनीतिक दल एक-दूसरे की सूची नहीं निकाल रहे हैं कि इनके-उनके दलों के लोगों ने क्या-क्या किया है, पहाड़ के साथ। हमारे देश में अरबों-खरबों की सम्पत्ति वाले अनेक धार्मिक ट्रस्ट हैं। वो इस विषम परिस्थिति में कहां हैं? उनमें क्यों नहीं अरबों-खरबों देने की होड़ मची? कहां है वो मंदिर जहां लाखों रुपए के मुकुट से लेकर करोड़ों रुपए के सिंहासन तक की गिनती दान के समय हम देखते हैं।
हम सभी को याद होना चाहिए कि महाराष्ट्र के गणपति महोत्सव के दौरान लालबाग के राजा को लाखों-करोड़ों रुपए का चढ़ावा चढ़ता है। जिनकी गिनती हफ्तों से लेकर महीनों तक चलती है। शिरडी के चढ़ावे के किस्से तो हम रोज सुनते और पढ़ते हैं। दक्षिण भारत के तिरुपति मंदिर में तो आए दिन एक से बढ़कर एक दानवीर कर्ण आते रहते हैं और करोड़ों रुपए चढ़ाते हैं। इन मंदिरों के अपने सामाजिक कार्य होते होंगे, खर्चे भी होते होंगे और क्या पता इस आपदा के लिए भी इन मंदिरों ने दान दिया भी होगा, लेकिन केदारनाथ मंदिर के लिए यह उत्सुक क्यों नहीं है? वह नेता ही क्यों हैं, जिन्हें 2014 चुनावों में वोट मांगने हैं? आखिर मंदिर को दान देने के लिए सरकारी तत्परता क्या है? कहने का तात्पर्य हम इस आपदा के बहाने भी समस्या के मूल में जाने के बजाय ऐसे तमाशों में लगे हैं, जिनसे जैसे-तैसे किसी का नाम हो जाए और मासूम जनता को लगे कि यही महान नेता हैं। हम अगर पहाड़ों की बात करें तो वह चाहे उत्तराखंड के हो या शिमला, सोलन अथवा दार्जिलिंग के, हर जगह बिना किसी योजना के निर्माण कार्य हो रहा है। अगर हम शिमला की पहाड़ियों को देखे तो हमें साफ नजर आएगा कि किस तरह से मकानों और दुकानों ने वहां कि पहाड़ियों को ढक लिया है। हम आए दिन सुनते हैं कि पहाड़ों से जंगल गायब हो रहे हैं, तब क्या किसी भी राजनीतिक दल के नेता ने यह बयान दिया कि हम जंगल को बचाएंगें और पेड़ लगाएंगे। शायद उनको मालूम है कि जनता के लिए मंदिर जैसे मुद्दे ज्यादा भावुक करते हैं। इसलिए वो इन मसलों पर तुरंत बोलते हैं। क्या केदारनाथ मंदिर का बनना या उसके बनाने को लेकर मची होड़ ही पहली प्राथमिकता है?
इस पूरे संकट में केदारनाथ मंदिर को भावुकता का प्रतीक बनाकर राजनीति हो रही है। यहां-वहां से नेता आकर झट आरोप लगा रहे हैं। वीआईपी बनकर फोटो खिंचवाने के लिए हवाई यात्राएं कर रहे हैं। कोई भी वहां राहत एवं बचाव कार्य में लगे लोगों की हौसला फजाई नहीं कर रहा। कोई भी वहां फंसे लोगों को ढांढ़स नहीं बंधा रहा है। मारे गए लोगों के परिवारों के लिए मदद की मांग किसी ने नहीं की। मंदिर आसान है, मंदिर बनवा दीजिए। पहाड़ मुश्किल है, पहाड़ को छोड़ दीजिए। इस आपदा से हम क्या-क्या सीख सकते थे, लेकिन हमने कैसी-कैसी बातों में इसे गंवा दिया।
जिस नदी ने उत्तराखंड में तबाही मचाई है, उस मंदाकिनी का उद्गम स्थल है केदारनाथ सरोवर। मंदाकिनी केदारनाथ सरोवर से निकलकर रामबाड़ा, चंद्रचट्टी और गौरीकुंड से होते हुए अलकनंदा में मिलती है। इसका रास्ता सदियों से तय है, इसकी रफ्तार सब जानते हैं। इससे मिलने वाली सहायक नदी की भयावहता के किस्से सब ने सुने हैं। आपदा के वक्त नदियां और समुद्र भयावह लगने लगते हैं। यह भी सभी जानते हैं, और सामान्य दिनों में मंदाकिनी अपनी खुबसूरती से सभी के दिलों को बहलाने वाली नदी मानी जाती है। ये नदियां क्या अपनी रफ्तार के कारण भयावह लगती हैं या इन्हें देखते हुए हम अपनी गुस्ताखियों को याद करते हुए डरे जा रहे हैं। होटल, पार्किंग, धर्मशाला हमने इनके रास्ते में बनाए हैं। आम लोग हो या सभी दल के नेता या हमारी सरकारें कौन नहीं जानता था कि यह मंदाकिनी का रास्ता है। वो तो अपने बनाए रास्ते पर आ गई जो इसके बीच में आया, वो सब बह गए, ढह गए, उलट गए। मंदाकिनी का यह हमला हमें सचेत करता है कि अब अगर कोई आपदा आई तो पहले से ज्यादा तबाही मचाने के लिए तैयार रहेगी यह नदी। पर्यावरण के जानकर बताते हैं कि नदी के तट यानी रिवर बेल्ट पर जितना कम निर्माण हो उतना अच्छा है।
नदियां रातों रात कहीं से निकल कर नहीं आती हैं। सैकड़ों साल से वो हमें बताती रही हैं कि उनका रास्ता तय है और बारिश के दिनों में वो कहां तक बहा करेंगी, वो भी तय है। जब तक उनके रास्तों पर मकान, दुकान नहीं बने थे तब तक बाढ़ से तबाही नहीं होती थी। हमें स्कूलों में भी यही पढ़ाया जाता है कि जब-जब बाढ़ आती है, तो खेती के लिए अच्छी मिट्टी ले आती है। पहाड़ हमें बार-बार बताता है कि हम पानी, मिट्टी और चट्टानों के साथ खेल सकते हैं। दो दशक पहले या थोड़ा पहले की बात की जाए तो बदरीनाथ मार्ग पर 3 से 4 हजार गाड़ियां चलती थी, पर अगर हम आज के परिप्रेक्ष्य की बात करें तो प्रतिदिन 50 से 60 हजार गाड़ियां इस मार्ग पर सरपट दौड़ रही है हैं। इन गाड़ियों से निकलने वाले धुंए का क्या असर हो रहा है? इस पर विचार करना होगा। कुछ वर्षों से वहां पर हेलीकॉप्टर पर्यटन शुरू हुआ है। प्रतिदिन 150 उड़ानें भरी जाती हैं। इससे भी पहाड़ के तापमान में वृद्धि हुई है। अगर हम अपनी हद को इसी तरह तोड़ते रहेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब पूरी धरती पहाड़मय हो जाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और पत्रकारिता व जनसंचार के प्रवक्ता हैं)
हमारी भावनाओं के साथ खेलने की भयंकर होड़ मची हुई है। शायद राजनीतिक दलों को यह मालूम है कि हमें भी यही सब अच्छा लगता है। आप अगर खंड-खंड हुए उत्तराखंड कभी गए होंगे तो उस दिन के और आज के नजारे एकदम बदले हुए लगेंगे। हम देख रहे हैं कि इनके-उनके राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेताओं और संतों के अवैध धर्मशालाओं और होटलों की भरमार है। इस आरोप-प्रत्यारोप में भी राजनीतिक दल एक-दूसरे की सूची नहीं निकाल रहे हैं कि इनके-उनके दलों के लोगों ने क्या-क्या किया है, पहाड़ के साथ। हमारे देश में अरबों-खरबों की सम्पत्ति वाले अनेक धार्मिक ट्रस्ट हैं। वो इस विषम परिस्थिति में कहां हैं? उनमें क्यों नहीं अरबों-खरबों देने की होड़ मची? कहां है वो मंदिर जहां लाखों रुपए के मुकुट से लेकर करोड़ों रुपए के सिंहासन तक की गिनती दान के समय हम देखते हैं।
हम सभी को याद होना चाहिए कि महाराष्ट्र के गणपति महोत्सव के दौरान लालबाग के राजा को लाखों-करोड़ों रुपए का चढ़ावा चढ़ता है। जिनकी गिनती हफ्तों से लेकर महीनों तक चलती है। शिरडी के चढ़ावे के किस्से तो हम रोज सुनते और पढ़ते हैं। दक्षिण भारत के तिरुपति मंदिर में तो आए दिन एक से बढ़कर एक दानवीर कर्ण आते रहते हैं और करोड़ों रुपए चढ़ाते हैं। इन मंदिरों के अपने सामाजिक कार्य होते होंगे, खर्चे भी होते होंगे और क्या पता इस आपदा के लिए भी इन मंदिरों ने दान दिया भी होगा, लेकिन केदारनाथ मंदिर के लिए यह उत्सुक क्यों नहीं है? वह नेता ही क्यों हैं, जिन्हें 2014 चुनावों में वोट मांगने हैं? आखिर मंदिर को दान देने के लिए सरकारी तत्परता क्या है? कहने का तात्पर्य हम इस आपदा के बहाने भी समस्या के मूल में जाने के बजाय ऐसे तमाशों में लगे हैं, जिनसे जैसे-तैसे किसी का नाम हो जाए और मासूम जनता को लगे कि यही महान नेता हैं। हम अगर पहाड़ों की बात करें तो वह चाहे उत्तराखंड के हो या शिमला, सोलन अथवा दार्जिलिंग के, हर जगह बिना किसी योजना के निर्माण कार्य हो रहा है। अगर हम शिमला की पहाड़ियों को देखे तो हमें साफ नजर आएगा कि किस तरह से मकानों और दुकानों ने वहां कि पहाड़ियों को ढक लिया है। हम आए दिन सुनते हैं कि पहाड़ों से जंगल गायब हो रहे हैं, तब क्या किसी भी राजनीतिक दल के नेता ने यह बयान दिया कि हम जंगल को बचाएंगें और पेड़ लगाएंगे। शायद उनको मालूम है कि जनता के लिए मंदिर जैसे मुद्दे ज्यादा भावुक करते हैं। इसलिए वो इन मसलों पर तुरंत बोलते हैं। क्या केदारनाथ मंदिर का बनना या उसके बनाने को लेकर मची होड़ ही पहली प्राथमिकता है?
इस पूरे संकट में केदारनाथ मंदिर को भावुकता का प्रतीक बनाकर राजनीति हो रही है। यहां-वहां से नेता आकर झट आरोप लगा रहे हैं। वीआईपी बनकर फोटो खिंचवाने के लिए हवाई यात्राएं कर रहे हैं। कोई भी वहां राहत एवं बचाव कार्य में लगे लोगों की हौसला फजाई नहीं कर रहा। कोई भी वहां फंसे लोगों को ढांढ़स नहीं बंधा रहा है। मारे गए लोगों के परिवारों के लिए मदद की मांग किसी ने नहीं की। मंदिर आसान है, मंदिर बनवा दीजिए। पहाड़ मुश्किल है, पहाड़ को छोड़ दीजिए। इस आपदा से हम क्या-क्या सीख सकते थे, लेकिन हमने कैसी-कैसी बातों में इसे गंवा दिया।
जिस नदी ने उत्तराखंड में तबाही मचाई है, उस मंदाकिनी का उद्गम स्थल है केदारनाथ सरोवर। मंदाकिनी केदारनाथ सरोवर से निकलकर रामबाड़ा, चंद्रचट्टी और गौरीकुंड से होते हुए अलकनंदा में मिलती है। इसका रास्ता सदियों से तय है, इसकी रफ्तार सब जानते हैं। इससे मिलने वाली सहायक नदी की भयावहता के किस्से सब ने सुने हैं। आपदा के वक्त नदियां और समुद्र भयावह लगने लगते हैं। यह भी सभी जानते हैं, और सामान्य दिनों में मंदाकिनी अपनी खुबसूरती से सभी के दिलों को बहलाने वाली नदी मानी जाती है। ये नदियां क्या अपनी रफ्तार के कारण भयावह लगती हैं या इन्हें देखते हुए हम अपनी गुस्ताखियों को याद करते हुए डरे जा रहे हैं। होटल, पार्किंग, धर्मशाला हमने इनके रास्ते में बनाए हैं। आम लोग हो या सभी दल के नेता या हमारी सरकारें कौन नहीं जानता था कि यह मंदाकिनी का रास्ता है। वो तो अपने बनाए रास्ते पर आ गई जो इसके बीच में आया, वो सब बह गए, ढह गए, उलट गए। मंदाकिनी का यह हमला हमें सचेत करता है कि अब अगर कोई आपदा आई तो पहले से ज्यादा तबाही मचाने के लिए तैयार रहेगी यह नदी। पर्यावरण के जानकर बताते हैं कि नदी के तट यानी रिवर बेल्ट पर जितना कम निर्माण हो उतना अच्छा है।
नदियां रातों रात कहीं से निकल कर नहीं आती हैं। सैकड़ों साल से वो हमें बताती रही हैं कि उनका रास्ता तय है और बारिश के दिनों में वो कहां तक बहा करेंगी, वो भी तय है। जब तक उनके रास्तों पर मकान, दुकान नहीं बने थे तब तक बाढ़ से तबाही नहीं होती थी। हमें स्कूलों में भी यही पढ़ाया जाता है कि जब-जब बाढ़ आती है, तो खेती के लिए अच्छी मिट्टी ले आती है। पहाड़ हमें बार-बार बताता है कि हम पानी, मिट्टी और चट्टानों के साथ खेल सकते हैं। दो दशक पहले या थोड़ा पहले की बात की जाए तो बदरीनाथ मार्ग पर 3 से 4 हजार गाड़ियां चलती थी, पर अगर हम आज के परिप्रेक्ष्य की बात करें तो प्रतिदिन 50 से 60 हजार गाड़ियां इस मार्ग पर सरपट दौड़ रही है हैं। इन गाड़ियों से निकलने वाले धुंए का क्या असर हो रहा है? इस पर विचार करना होगा। कुछ वर्षों से वहां पर हेलीकॉप्टर पर्यटन शुरू हुआ है। प्रतिदिन 150 उड़ानें भरी जाती हैं। इससे भी पहाड़ के तापमान में वृद्धि हुई है। अगर हम अपनी हद को इसी तरह तोड़ते रहेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब पूरी धरती पहाड़मय हो जाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और पत्रकारिता व जनसंचार के प्रवक्ता हैं)
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