राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के भारी विरोध के बावजूद दिल्ली में विश्व सांस्कृतिक उत्सव सम्पन्न हो चुका है। यमुना के किनारे इतने बड़े आयोजन के बाद पर्यावरण को कितना नुकसान हुआ, इसका लेखा-जोखा न तो पहले हुआ और न ही बाद में किया गया। पर्यावरणविदों का अनुमान है कि कार्यक्रम के लिये जितने पेड़-पौधे काटे गए और वाटरबॉडी में कचरा भर कर समतल किया गया। उसका खामियाजा दिल्ली की जनता और यमुना को लम्बे समय तक चुकाना पड़ेगा।
आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर ने 11 से 13 मार्च तक यमुना के किनारे विश्व स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया। जिसमें लगभग 150 देशों के प्रतिनिधि भाग लिये। कार्यक्रम में लाखों लोग आये। यमुना के बाढ़ क्षेत्र में ऐसे आयोजन को लेकर पर्यावरणविदों ने विरोध किया। पर्यावरण को होने वाले सम्भावित हानि को देखते हुए एनजीटी ने कार्यक्रम को रोकने का प्रयास भी किया। लेकिन सत्ता समीकरण के चलते एनजीटी सफल नहीं हो सका।
आर्ट ऑफ लिविंग ने एनजीटी द्वारा लगाए गए हर्जाने को भी अब देने से मना करते हुए सुप्रीम कोर्ट की शरण में है। एनजीटी ने इतने बड़े सांस्कृतिक उत्सव के लिये यमुना के किनारे अस्थायी निर्माण का विरोध किया था। लेकिन सरकार कदम-कदम पर इस कार्यक्रम को हरी झंडी देती रही। एनजीटी के निर्देश पर दायर हलफनामे में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि यमुना किनारे अस्थायी निर्माण के लिये उसकी मंजूरी की जरूरत नहीं है।
लेकिन कार्यक्रम का विरोध बढ़ता गया। देश की संसद में भी इस कार्यक्रम से पर्यावरण को होने वाली क्षति का मामला उठा। लेकिन सत्ता पक्ष ने इस आवाज को दरकिनार कर दिया। सरकार श्री श्री रविशंकर के पक्ष में मजबूती से खड़ी रही। इसका मिशाल केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू के बयानों से जाहिर होता है। वेंकैया नायडू ने इसका विरोध करने वालों की आलोचना करते हुए कहा कि भारत में हिन्दुओं और भारतीयों की आलोचना करना फैशन बन गया है। जाहिर है वह श्रीश्री और उनके आर्ट ऑफ लिविंग को देश और भारतीयों की अस्मिता मानकर चल रहे हैं। क्योंकि देश के आगे पर्यावरण सम्भवत: गौण हो जाता है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कार्यक्रम को लेकर सारे विवाद को ही खारिज कर दिया। सिंह ने कहा, 'कोई विवाद नहीं है। श्री श्री रविशंकर तो विवादास्पद मुद्दों को हल करने के लिये जाने जाते हैं।'
दिल्ली की आम आदमी पार्टी भी इस कार्यक्रम के पक्ष में दिखी। केन्द्र और दिल्ली सरकार अपने राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जुट गए थे। तभी तो अरविंद केजरीवाल और वित्त मंत्री अरुण जेटली कार्यक्रम में साथ-साथ दिखे। दिल्ली के पर्यावरण मंत्री कपिल मिश्र शुरू में जहाँ कार्यक्रम के विरोध में थे। वहीं कार्यक्रम हो जाने के बाद उन्होंने जो खुलासा किया वह सरकारों के पर्यावरण प्रेम पर घड़ियाली आँसू को दिखाता है। कपिल मिश्र कहते हैं कि विश्व सांस्कृतिक उत्सव को लेकर आम आदमी पार्टी दो धड़ों में बँट गई थी। एक धड़ा चाहता था कि कार्यक्रम हो। जबकि दूसरा चाहता था कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते हुए इसका विरोध करना चाहिए।
फिलहाल, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही इस कार्यक्रम को भारत की अस्मिता से जोड़ रखा था। कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस आयोजन से दुनिया में भारत की अलग छवि बनेगी। आर्ट ऑफ लिविंग का मतलब मैं से हम होना है, दूसरों के काम आना है। मैं सभी कलाकारों को, सभी साधकों को, सभी कार्यकर्ताओं को दुनिया तक भारत की छवि पहुँचाने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। सुविधाओं के बीच रहना आर्ट ऑफ लिविंग नहीं है। मैं ऐसे आयोजन के लिये श्री श्री रविशंकर जी का अभिनन्दन करता हूँ। हमें अपने देश पर, अपनी संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। अच्छा काम करना हो तो विघ्न आते ही हैं।
एनजीटी ने यमुना किनारे श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम को लेकर कड़ा रुख अपनाया। ट्रिब्यूनल ने कार्यक्रम को पाँच करोड़ रुपए हर्जाने के साथ सशर्त मंजूरी तो दे दी थी। लेकिन यह भी साफ किया था कि पर्यावरण मानकों की अनदेखी और नुकसान अब किसी हाल में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर आध्यात्मिक और मानवतावादी धर्मगुरू हैं। इस संस्था के 35 साल पूरे होने के मौके पर यह आयोजन हुआ।
कार्यक्रम के लिये करीब 1000 एकड़ क्षेत्र को अस्थायी गाँव बसाया गया। इसमें सैकड़ों शौचालय, पार्किंग और यमुना नदी पर कुछ पीपा पुल भी बनाए गए। समारोह की भव्यता का अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि सात एकड़ में फैले विशाल मंच पर करीब 150 देशों के 35 हजार कलाकार सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किया। यहाँ दुनिया भर से लाखों लोग आये।
यह कार्यक्रम यमुना के पिछले 10 साल के बाढ़ क्षेत्र के भीतर है, जबकि एनजीटी ने बीते 25 वर्ष के बाढ़ क्षेत्र के अन्दर किसी भी आयोजन और निर्माण को प्रतिबन्धित कर रखा है। एनजीटी में अपील दायर करने वाले पर्यावरणविद मनोज मिश्रा कहते हैं कि कार्यक्रम के लिये यमुना के डूब क्षेत्र की हरियाली को जलाकर और मलबा डालकर पूरे क्षेत्र को समतल कर दिया गया। इससे यमुना के किनारों की वनस्पतियों और जलीय जीवों के पर्यावरण का नुकसान हुआ है। यह दूरगामी क्षति की तरफ भी इशारा है।
मानव सभ्यता और संस्कृति का विकास नदियों के किनारे हुआ है, यह सर्वज्ञात तथ्य है। इंसान और नदी का रिश्ता माँ और बच्चे की तरह है। यूँ तो पूरे विश्व में अपने-अपने तरीके से नदियों के प्रति कृतज्ञता दिखलाई जाती है, लेकिन भारत इस मामले में भी अनूठा है। हमने नदियों को माँ ही नहीं देवी का दर्जा दिया। नदियों की आरती करना, उनके नाम के साथ जी लगाना, उनके नामों की सौगन्ध उठाना, यह सब इस देश में खूब होता है।
हमारे पुरखे दूरदृष्टि रखने वाले रहे होंगे, उन्हें अन्देशा होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ नदियों के साथ बदसलूकी कर सकती हैं, इसलिये उन्होंने ऐसी परम्पराएँ बनाई होंगी कि कम-से-कम धर्मभीरू होकर ही सही, पर भावी पीढ़ियाँ नदियों की रक्षा करेंगी, उनका अनुचित दोहन, शोषण नहीं करेंगी। पुरखों की बनाई धार्मिक परम्पराओं को हमने खूब निभाया और प्रकृति की रक्षा की उपेक्षा करते रहे।
आज नियम से नदियों की आरती होती है, उनकी पौराणिक कथाएँ सुनाई जाती हैं, नदियों से जुड़े तमाम कर्मकाण्डों को पूरा किया जाता है और बताया जाता है कि यह सब मानवता का उद्धार करने के लिये है। देश की राजधानी में यमुना नदी के किनारे होने वाले भव्य विश्व सांस्कृतिक महोत्सव को लेकर भी ऐसे ही तर्क दिये जा रहे हैं कि इससे दुनिया में देश की सांस्कृतिक छवि का नवनिर्माण होगा, दुनिया को भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा।
श्री श्री रविशंकर के अनुयायी पूरे विश्व में हैं और वे चाहते तो कहीं भी ऐसा सांस्कृतिक महोत्सव कर लेते। लेकिन उन्होंने यमुना का किनारा ही चुना। कुछ वर्ष पहले उन्होंने यमुना का सफाई अभियान अपनी संस्था के जरिए चलवाया था। अब यमुना पहले से अधिक गन्दी हो गई है, इसमें उनका कोई कसूर नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि सफाई अभियान का मेहनताना इस सांस्कृतिक उत्सव के जरिए लिया गया।
यमुना के डूब वाले क्षेत्र में इस कार्यक्रम को मंजूरी देने से लेकर, लोकनिर्माण विभाग, पुलिस और सेना के इस्तेमाल तक कई सवाल उठाए गए हैं। सबसे गम्भीर सवाल है यमुना नदी के साथ हो रहे खिलवाड़ का। इस आयोजन से यहाँ की जैव पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान का। पर्यावरण का। किसानों की उजाड़ी गई फसल का। बहुत दुख होता है यह देखकर कि कैसे कार्यक्रम के आयोजक, समर्थक और कानूनी पैरोकार इन सवालों के एवज में जवाबों और तर्कों को इस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं मानो यमुना नदी कुछ लोगों की जागीर है, जिसका वे मनमाना उपयोग कर सकते हैं। अगर वे इसे अपनी जागीर मान रहे हैं, तब तो उन्हें इसके साथ और सावधानी से बर्ताव करना चाहिए। मौजूदा माहौल तो ऐसा है, मानो नदी से पुरानी दुश्मनी निकाली जा रही हो।
यमुना के डूब वाला क्षेत्र भूकम्प और बाढ़ दोनों के लिहाज से काफी संवेदनशील है। प्राकृतिक आपदाएँ बोलकर नहीं आती, लेकिन मानव अपनी सावधानी से उनसे बच सकता है। जब सावधानियाँ नहीं बरती गईं तो उसका नुकसान कितना जानलेवा साबित हुआ यह सुनामी और बाढ़ के प्रसंगों में देखा जा सकता है।
यमुना किनारे एक बार फिर विश्व सांस्कृतिक महोत्सव के बैनर तले नदी और इंसानी जीवन से खिलवाड़ की आलीशान तैयारी की गई है। आयोजकों का कहना है कि पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाया जा रहा है। लेकिन खबरें हैं कि कई एकड़ की फसल नष्ट कर दी गई है और लगभग 200 किसान इससे प्रभावित हुए हैं। बहुत सा कचरा डालकर नदी किनारे के वाटरबॉडी को भरा गया है और जमीन समतल की गई है।
35 लाख लोगों समेत कई अतिविशिष्ट मेहमानों के लिये भव्य मंच, दर्शकदीर्घा इत्यादि का निर्माण किया गया है। लगभग 650 मोबाइल शौचालय आयोजन स्थल पर होंगे, जो नदी किनारे ही है। कई गाड़ियों की पार्किंग की व्यवस्था है। तीन दिनों के कार्यक्रम के लिये आसपास के कई इलाकों की यातायात व्यवस्था प्रभावित होगी और इन सबसे जो ध्वनि प्रदूषण होगा, सो अलग। क्या यह सब पर्यावरण के लिये घातक नहीं है। शायद इसी वजह से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आयोजकों पर पाँच करोड़ का जुर्माना लगाया है, जिससे श्री श्री रविशंकर सहमत नहीं हैं। अगर वे इतना जुर्माना भर भी देते हैं तो क्या यह नदी की कीमत तय करने जैसा नहीं है।
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