प्राकृतिक आपदायें - एक सिंहावलोकन

प्राकृतिक आपदायें - एक सिंहावलोकन,फोटो क्रेडिट:- IWPFlicker
प्राकृतिक आपदायें - एक सिंहावलोकन,फोटो क्रेडिट:- IWPFlicker

भागीरथी और ब्रहमपुत्र नदियों में न जाने कहां से इतना पानी आया कि देखते ही देखते उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, असम, का बड़ा भू -भाग जल मग्न हो गया । ऐसा अथाह जल न देखा ना सुना। कालाहांडी का जल कहां चला गया ? मालूम नहीं । वहाँ सूखा हो गया । समुद्र में लहरों का ऐसा उछाल आया कि सारे तटीय क्षेत्र में जल प्रलय का दृश्य उत्पन्न हो गया । हजारों गांव डूब गये, लाखों बेघर हो गये करोड़ों लोगों को भुखमरी और बेहाली ने आ घेरा । सागर की उद्गम लहरों पर समूचे प्रदेश को अपने आगोश में ले लिया । प्राचीन काल से ही प्राकृतिक विपदायों ने हाहाकार मचाकर जान माल की भारी क्षति करती रही है। वर्तमान समय में जनसंख्या की असीम वृद्धि ने मानव की भौतिक सुख-सुविधाओं के चलते ऐसी विपदा के समय अमूल्य मानव जीवन व पशु धन की क्षति हुई है । प्राकृतिक आपदाओं में सूखा, बाढ़, भूकम्प, ज्वालामुखी, चक्रवात, समुद्री तूफान, वनों में आग ज्वार भाटा, बादल फटना आदि प्रमुख दैवी विपदाएं हैं, जिससे प्रतिवर्ष हमारे देश में किसी न किसी बड़े भू-भाग को जूझना पड़ता है ।

प्राकृतिक प्रकोपों के विषय में सामान्य विचारों के भौतिक परिवर्तन की आवश्यकता है। यद्यपि बाढ़ और भूकम्प जैसी प्राकृतिक घटनाओं से इनका आरम्भ होता है फिर अधिकतर प्रकोप मानवकृत हैं । कुछ प्रकोप जैसे भूस्खलन, सूखा, वनों में आग आदि अपेक्षाकृत पर्यावरण और साधनों के कुप्रबन्ध के कारण अधिक होते हैं। अन्य प्रकोपों, भूकम्प, ज्वालामुखी, बादल फटना मूर्खता पूर्ण आचरण से और भी भीषण हो जाते हैं। इन सबमें बाढ़ और सूखा आपदायें मुख्य हैं । बाढ़ या सूखा आने से हर क्षेत्र में प्रभाव पड़ता है। इससे मानव जीवन, पशुधन, कृषि, जल संसाधन तथा अर्थ-व्यवस्था पर सीधे प्रभाव पड़ता है।

प्राकृतिक आपदाएं प्रायः आकस्मिक होती हैं, सभ्यता के लम्बे समय में जो कुछ विकास एवं निर्माण मानव ने किया है, प्राकृतिक प्रकोप कभी-कभी उसे एक ही झटके में तहस-नहस कर देता है । भूकम्प आये या ज्वालामुखी विस्फोट हो, बाढ़ आये या सूखा, समुद्री तूफान आये या जंगल में आग  निःसन्देह ये विनाशकारी घटनाएं मानव कल्याण के लिये विनाशकारी सिद्ध होती हैं किन्तु मनुष्य इनसे हार स्वीकार नहीं करता और इन विपत्तियों का सामना करते हुए पुनः निर्माण कार्य में जुट जाता है। वस्तुतः मानव की दो अन्तर्निहित विशेष क्षमताएं सदैव उसकी सहायता करती हैं। अतः हम देखते हैं कि प्राकृतिक आपदाओं में दो प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

बाढ़

अधिक वर्षा के कारण जब नदी या जलाशय का जल बहुत तेजी के साथ और अधिक मात्रा में बढ़ता है, तो उसे 'बाढ़' कहते हैं। बाढ़ वह जल अवस्था है जिसमें पानी का तल अपने प्राकृतिक तथा कृत्रिम किनारों के ऊपर से बहता हुआ आस-पास की शुष्क भूमि को जल मग्न कर देता है। मानव के लिए बाढ़ का प्रभाव महाविपत्तिकारक होता है। भूतलीय जल से प्राचीन काल में अनेक बार बाढ़ के रूप में अपार धन की हानि होती है, और कृषि योग्य भूमि नष्ट हो जाती है। आवागमन अवरुद्ध होना आम बात है। भारत में अनेकों नदियां बाढ़ से पीड़ित हैं कोसी नदी ( बिहार ), ब्रहमपुत्र (असम) आदि अपनी विनाशकारी लीलाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। गंगा, यमुना, सतलुज, नर्मदा, गंडक, चम्बल, आदि नदियों ने अपने प्रवाह क्षेत्र में अपरिमित क्षति पहुंचाई है । बाढ़ से कुछ लाभ भी होता है जैसे नदियों में मिली बारीक मिट्टी जल के साथ बेसिन में काफ़ी दूर तक फैल जाती है, जो कृषि के लिये बहुत उपजाऊ होती है।
बाढ़ का कारण कुछ भी हो जैसे बांध या तटबन्ध टूटना, मैदानी क्षेत्रों का बहाव क्षमता से अधिक वर्षा होना, तूफानी व मूसलाधार वर्षा होना, तेजी से वर्षा पिछलना या बर्फ खण्डों द्वारा नदी जल में अवरोध उत्पन्न करना भूस्खलन आदि बाढ़ के मुख्य कारण हैं, परन्तु तृतीय विश्व में तेजी से बाढ़ प्रकोपों का मुख्य कारण मनुष्य द्वारा अपनी भूमि को बाढ़शील बनाना व स्वयं को बाढ़ पीड़ित होने की स्थिति में लाना ही है। बाढ़ का प्रकोप मानवजीवन के लिये अभिशाप बन जाता है। । जब तक वर्षा का जल पृथ्वी तक नहीं पहुंचता उस पर मानव नियंत्रण बहुत कम होता है । 1974 की यूनेस्को रिपोर्ट के अनुसार जब एक बार पानी पृथ्वी पर बरस जाता है तो चाहे यह एक उत्पादक स्रोत बने या विनाशकारी विपदा, यह अधिकतर इस बात पर निर्भर करता है कि मानव भूमि तथा वनस्पति का प्रबंधन किस प्रकार करता है।

हमारे देश में कुल बाढ़ द्वारा होने वाली 60% हानि नदियों में आने वाली बाढ़ व 40% अधिक वर्षा तथा चक्रवातों द्वारा होती है। सारे देश में होने वाली हानि का 60% हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा होता है। पांचवीं पंचवर्षीय योजना के मदों में अधिक जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि का अधिकाधिक उपयोग कृषि के लिए किया जाना, व्यापक रूप से भवन निर्माण, पारम्परिक रूप से निचले भागों, खादर भूमि अथवा तालाबों में खेती करना, सड़कें व रेलमार्ग बनाते समय ढाल का ध्यान न रखना तथा अतिरिक्त जल को बांधों के रूप में संग्रहित करने की पूर्ण अवस्था का अभाव आदि कारण सम्मिलित रूप में बाढ़ को जन्म देते हैं। किसी विशेष धारा द्वारा उत्पन्न बाढ़ प्रायः एक माह से दूसरे माह तथा एक वर्ष से दूसरे वर्ष तक अत्यधिक परिवर्तनशील हो सकती है। इस परिवर्तिता का एक सुस्पष्ट व प्रभावी उदाहरण है आकस्मिक बाढ़ जो कि एक अचानक, अप्रत्याशित कीचड़युक्त विध्वंसकारी पानी का तीव्र गति से किसी ऊंचे स्थान से बहाव होता है। अपेक्षाकृत यह थोड़े समय के लिए होता है और साधारणतया पहाड़ों पर ग्रीष्मकालीन गरजने वाले तूफान के फलस्वरूप होता है। आकस्मिक बाढ़ एक सहायक नदी में आ सकती है जबकि सिंचाई बेसिन शुष्क ही रह सकता है। अचानक ही आने के कारण आकस्मिक बाढ़ अत्यधिक विनाशकारी सिद्ध होती है।

सूखा

सूखा प्राकृतिक आपदाओं का अभिन्न अंग है। सदियों से संसार के अनेकों देश सूखे से प्रभावित हैं। किसी भी देश के विकास पर इस अनावृष्टि का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सूखा पड़ने से वैसे प्रत्येक क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है, लेकिन मुख्य रूप से कृषि, जल संसाधन तथा अर्थव्यवस्था पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है। इस प्रकार समाज, वातावरण एवं पर्यावरण तथा अर्थव्यवस्था पर सूखे का प्रभाव पड़ना मानव के लिये बहुत महत्व रखता है क्योंकि सूखे से जीव-जन्तु एवं मानव सर्वप्रथम प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। सूखे की समस्या मूलतः जल की कमी या अभाव से उत्पन्न होती है। सामान्यतया कम वर्षा होना ही सूखे का मुख्य कारण है। कम वर्षा होने से या बार-बार सूखा पड़ने से नदियों, धाराओं एवं झरनों आदि के जल प्रवाह में कमी होना तथा इसी कारण झीलों, तालाबों एवं जलाशयों के जल स्तर में गिरावट तथा भूजल - तल में गिरावट आ जाती है, जिससे मूलतः जलाशय में जल की मात्रा में भारी कमी और मिट्टी में नमी की मात्रा कम हो जाती है।

सूखे के बारे में कोई निश्चित या सर्वमान्य परिभाषा नहीं है सूखे की अनेक परिभाषाएं हैं और सब इस बात की सूचक हैं कि जल की कमी से सूखा होता है। सूखे की लगभग 60 परिभाषाएं विभिन्न स्तरों पर सूचीबद्ध की गयी हैं लेकिन स्पष्ट रूप से कोई भी पूर्ण नहीं हैं । कुछ परिभाषाओं की चर्चा निम्न है:

कृषिविज्ञानीय सूखा

जब मिट्टी में नमी की मात्रा इतनी घट जाये कि उस विस्तार में आने वाले पौधें को बढ़ने में बाधा पड़े व भूमिगत जल स्तर भी नीचे चला जाये, उसे कृषि विज्ञानीय सूखा कहते हैं।

जल विज्ञानीय सूखा 

जब नदियों,झीलों, तालाबों के सूखने  से धरातलीय जल की सामान्य मात्रा में कमी आ जाएं, हिम खंड भी पिघल कर घटने लगे, उससे हम जल विज्ञानीय सूखा कहते है 

सूखे का प्रभाव

सूखा एक ऐसी प्राकृतिक विपदा है, जिसका सभी क्षेत्रों पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता है। कुछ क्षेत्रों पर कम प्रभाव होता है तो कुछ क्षेत्रों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। सूखे का प्रभाव जिसके दौरान जीव-जन्तु मानव जन साधारण, वातावरण एवं प्रकृति आदि प्रभावित हो जाते हैं तो सूखे का प्रभाव जाना जाता है। कृषि बुरी तरह प्रभावित होती है। मौसम शुष्क हो जाता है, तापमान में वृद्धि हो जाती है। जीव-जन्तु जानवरों की जाति का विनाश हो जाता है तथा वनों में जीवन दुष्कर हो जाता हैं जल गुणता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा तरह-तरह की बीमारियां हो जाती हैं । वनस्पति आवरण समाप्त होने लगता है। जमीन में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जाती हैं। भावी फसलों को हानियां, कीटाणुओं की उत्पत्ति से फसलों को बीमारियां,फलों के वृक्षों में आर्थिक हानियां व इमारती लकड़ी का नुकसान आदि होता है। सूखे के दौरान विद्युत उत्पादन में कमी, राज्य की खर्च सीमा में बढ़ोतरी व अर्थव्यवस्था क्षतिग्रस्त हो जाती है। देश का विकास रूक जाता है।

सूखे की वर्तमान राजनैतिक व प्रशासनिक स्थिति

राहत प्रशासन अध्ययन केन्द्र के निदेशक अमृता रंगास्वामी ने कहा कि सूखा राहत कार्यक्रम का लाभ कुल प्रभावित जनता को 8-10% हिस्से का ही मिल पाता है जब अकाल की स्थिति होती है तो हमारे राजनीतिक अधिकारी और समाजसेवी संस्था सभी सक्रिय हो उठते हैं अपनी प्रकृति और रूचि के अनुसार परिस्थितियों से लाभ उठाने से भी नहीं चूकते।

बादल फटना

बादल फटने का अर्थ बादल फटने से नहीं बल्कि जब किसी स्थान पर एक विशेष प्रकार का बादल होने तथा गर्म ठण्डी हवाओं के विपरीत दिशाओं से आने पर अचानक बहुत भारी वर्षा हो जाने से है, जिसे प्रायः 'बादल फटना' कहते हैं। बादल फटने के समय मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार वर्षा का मापन कठिन होता है । परन्तु फिर भी यदि एक घण्टे में 100 मिलीमीटर से अधिक वर्षा हो तब इसे 'बादल फटना' कहते हैं। बादल फटने की घटना प्रायः मानसून सत्र में ही होती है। बादल फटने के समय वर्षा की बूदों का आकार 5 मिलीमीटर से बड़ा होता जाता है तथा वर्षा की ये बड़ी बूँदे तीव्र वेग से पृथ्वी पर गिरती हैं। यह अक्सर देखा गया है कि बादल फटने की घटना उस स्थान पर होती है, जहां एक ओर पर्वत और ऊपर गर्म हवाएं तथा दूसरी ओर ठण्डी हवाएं बहती हैं। 'बादल फटना', 'वृष्टि-प्रस्फोट' शब्द साधारणतया कपासी वर्षी मेघों द्वारा जनित तीव्र वर्षा के लिये प्रयुक्त किया जाता है। कभी-कभी अल्पकाल में ही अत्यन्त मूसलाधार वृष्टि होती है, जो अधिकतर पहाड़ी प्रदेशों में पाई जाती है। विकसित संवाहनिक मेघों में जब ऊर्ध्व धाराएं किन्हीं कारणों में एकाएक रूक जाती हैं तो वर्षा की बड़ी-बड़ी बूँदें भार के कारण तेजी से गिरने लगती हैं और बहुत कम समय में तीव्र वर्षा के रूप में भूमि पर आ जाती है।

बादल फटने की घटना भारत में प्रायः मानसून के महीनों में होती है। अभी तक मौसम वैज्ञानिकों का बादल फटने के स्थान और समय के घेरे में दृढ़ मत नहीं है। इस प्राकृतिक घटना का कोई आकार निश्चित नहीं है तथा विज्ञान के क्षेत्र में इसके मापन की कोई तकनीक नहीं है। भारत में से भारत में अधिकांश घटनायें मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्र में देखी गयी है। 6-9 अगस्त 1995 को जम्मू कश्मीर के डोडा जिले में बादल फटने से 14 लोगों की जान चली गई। 19 जुलाई, 1994 को हिमालय की पहाड़ियों पर टिहरी गढ़वाल जिले में बादल फटने से 100 गांव की फसल नष्ट हो गई। जुलाई 1981 में जयपुर जिले में बादल फटने की घटना से आस-पास की नदियों में भयंकर बाढ़ आ गई थी।

बिजली गिरना

प्रकृति का प्रकोप है आकाश की बिजली आसमान में गरजते बादल और चमकती बिजली को तो सभी ने देखा होगा। यह बिजली वातावरण में किस तरह तैयार होती हैं, इसकी एकदम सही व्याख्या तो नहीं की जा सकती, लेकिन एक सिद्धांत के अनुसार जब किसी तूफानी बादल से बरसती हुई पानी की बूंद अपने से छोटी बूंद से टकराती है तो छोटी बूंद की ऊर्जा का कुछ भाग धनात्मक आवेश के रूप में बड़ी बूंद के पास आ जाता है। परिणामस्वरूप इसके पास की वायु में विपरीत ऋणात्मक आवेश फैल जाता है। इस बूंद के नीचे की ओर बढ़ने पर छोटी बूंदों के साथ सम्मिलित होने के कारण उसका आकार बढ़ने लगता है। एक इंच के पांचवे भाग तक जब इसका आकार हो जाता है तब यह दो हिस्सों में विभक्त हो जाती है। साधारण स्थिति में जब यह सीधी धरती पर गिरे, तब कोई विद्युत पैदा नहीं होती किन्तु एक आवेशित बादल के बीच हवा के कई निर्वात स्थल होने के कारण यह ऊर्जा युक्त बूंद काफी देर तक इधर-उधर घूमती रहती है और इस पर मौजूद विद्युतीय आवेश भी बढ़ता जाता है। करीब पन्द्रह मिनट तक विचरण के बाद यह आवेश आवरण को तोड़कर ऊर्जा में बदल जाती है। जब ऊर्जा का स्फुरण बादल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की तरफ जाता है तो सीधी सपाट और चौड़ी विद्युतीय रेखाएं बनती हैं।  लाखों मील की तीव्र गति से इस स्फुरण के जमीन की ओर पर यह हमें बहुत शक्तिशाली रेखाओं के रुप में नजर आती हैं।


सोर्स - राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान,रुड़की 

Path Alias

/articles/prakritik-aapdayen-ek-simhavalokan

Post By: Shivendra
×