प्रकृति-कल और आज

प्रकृति-कल और आज
प्रकृति-कल और आज

प्राचीन काल में मनुष्य ने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता माना था अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त भी में लिखा गया है "हे धरती मां, जो कुछ भी मैं तुझसे लूंगा, वह उतना ही होगा, जिसे तू पुनः पैदा कर सके, तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा" परंतु आधुनिक मानव और पृथ्वी के मध्य शोषक और शोषित के संबंध बन गए हैं। मनुष्य आकाश और सौर मंडल में भी अतिक्रमण कर चुका है। तमाम प्राकृतिक आपदाएं विकराल रूप में सामने आ रही हैं। ऋतुचक्र अव्यवस्थित हो गया है। हिमखंड पिघलने लगे हैं। समुद्र अपनी वर्जनाएं तोड़ रहा है उसका जल स्तर उछाल मार रहा है और संकट की ओर सीधा संवाद कर रहा है। आकाश में ओजोन परत अपना धैर्य खो रही है। सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएं कहर ढाने लगी हैं। केदार नाथ और जम्मू-कश्मीर का जल प्रलय सैकड़ों जिंदगियों को निगल चुका है।

कृषि में उर्वरकों और कीटनाशकों के बेतहाशा प्रयोग से कृषि-चक्र गड़बड़ा गया है। खाद्यान्नों का उत्पादन तो बढ़ा है परंतु उसकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है। हाइब्रिड बीजों के कारण खाद्यान्नों के नैसर्गिक गुण लुप्तप्राय हो गए हैं। मेथी और धनियां जैसे पौधों से निकलने वाली विशेष गंध समाप्त हो गई है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण कैंसर जैसी बीमारियों में बढ़ोतरी हुई है।

हमारी मानसिकता उपभोगवादी बन गई है। हम मान चुके हैं कि नदियां, समुद्र, वायु, ग्रह, नक्षत्र सब हमारी संपदा हैं और हम मनचाहे ढंग से इनका उपयोग और उपभोग कर सकते हैं। ऐसा करके हम अपने ही अस्तित्व को समाप्त करने की ओर अग्रसर हैं। वनस्पतियां, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी सभी हमारे आहार के साधन बन गए हैं। क्या इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है ? क्या मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी, जीव या वनस्पति को अपना जीवन जीने का अधिकार नहीं है? क्या कभी सोचा है कि हम अपनी दवाइयों का परीक्षण चूहों, बिल्लियों, बंदरों आदि जैसे निरीह जीवों पर ही क्यों करते हैं?
आधुनिक मानव अपने बुद्धि-बल से सब पर विजय प्राप्त करना चाहता है वह प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व को छिन्न-भिन्न करने में लगा हुआ है और यह भूल गया है कि वह स्वयं प्रकृति का ही एक अंग है। उससे छेड़-छाड़ करके वह अपना अस्तित्व संकट में डाल रहा है। यह प्रक्रिया तीव्र से तीव्रतर हो रही है। इस पर तत्काल अंकुश लगाया जाना आवश्यक है।
प्रकृति का अपना अनुशासनबद्ध, क्रमबद्ध और लयबद्ध संतुलन हुआ करता था जो अब दिनों-दिन बिगड़ रहा है। सर्दी, गर्मी या वर्षा प्रकृति के ऋतु-चक्र हैं जो समय पर या थोड़ा आगे पीछे आते रहते थे लेकिन अब इनका क्रम गड़बड़ा रहा है। मनुष्य विज्ञान के रथ पर सवार होकर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अग्रसर है। मौसम विभाग द्वारा ऋतुचक्र का पूर्वानुमान काफी हद तक तथ्यगत हो रहा है। लोगों के पास धन- संपदा और साधनों में लगातार वृद्धि हो रही है, उनका जीवन स्तर ऊंचा उठा है और उसी अनुपात में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में भी बढ़ोतरी हुई है।

2. पक्षियों पर मंडराते खतरे

बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र तथा अन्य कई राज्यों में स्थित पक्षियों के पर्यावास राज्य सरकारों द्वारा संरक्षित होने के बावजूद गंभीर खतरे की चुनौती का सामना कर रहे हैं। इन्हें आईबीए अर्थात् 'इम्पोटेंट बर्ड एरिया' कहा जाता है। बीएनएचएस के अनुसार यदि राज्य सरकारों ने पर्याप्त ध्यान न दिया तो मध्य प्रदेश में रतलाम के पास सैलाना में पाया जाने वाला दुर्लभ खरमोर पक्षी, सरदार पुर (धार) का छोटा फ्लोरिकन या गुजरात की फ्लेमिंगों सिटी (कच्छ) अथवा सोलापुर - अहमदनगर (महाराष्ट्र) में लगातार कम हो रहे ग्रेट इंडियन बस्टार्ड उन प्रजातियों में शामिल हैं, जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

विश्व प्रसिद्ध संस्था 'बर्ड लाइफ इंटरनेशनल' और 'बीएनएचएस' की संयुक्त रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि गलत संरक्षण नीतियों, अवैध शिकार, शहरीकरण और खेतों में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पक्षी लगातार घट रहे हैं। डाइक्लोफेनाक जैसी दवा के कारण 'प्रकृति की सफाई कर्मचारी कही जाने वाली गिद्ध प्रजाति विलुप्ति के कगार पर है।

3. समुद्र का बढ़ता जल स्तर खतरे की घंटी

वैश्विक तापन के कारण समुद्र के जल स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है जिससे यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि एक दिन मॉरीशस, लक्षद्वीप व अंडमान द्वीपसमूह ही नहीं श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों का अस्तित्व भी संकट में होगा। एक आकलन के अनुसार अब तक द्वीपों के डूबने के कारण पूरे विश्व में 2.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं।

समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण पूरे विश्व में 18 द्वीप जलमग्न हो चुके हैं। हमारे देश के 54 द्वीपों के समूह सुंदरबन पर खतरा मंडरा रहा है। यहां पिछले 30 वर्षों से कटाव के कारण 7000 लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। पिछले 25 वर्ष में बंगाल की खाड़ी में स्थित घोड़ामारा द्वीप नौ वर्ग किलोमीटर से घटकर 4.7 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

असम राज्य में ब्रहमपुत्र नदी के बीच स्थित विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली बाढ़ और भूमि- कटाव के कारण खतरे में है। इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किलोमीटर से घटकर केवल 557 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि अगर वैश्विक तापन के कारण समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी की यही गति रही तो वर्ष 2020 तक 14 द्वीप पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि समुद्र के बढ़ते जल स्तर से छोटे द्वीपों पर रहने वाले करीब दो करोड़ लोग वर्ष 2050 तक विस्थापित हो चुके होंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि 21वीं सदी के अंत तक समुद्र के जल स्तर में एक मीटर की बढ़ोतरी हो जाएगी।

4. जलवायु परिवर्तन और भारत

जलवायु परिवर्तन एक दीर्घावधिक घटना है। भारत के पांच जलवायु संवेदी क्षेत्रों नामतः हिमालयी क्षेत्र, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, तटीय क्षेत्र और पूर्वोत्तर क्षेत्र में भारतीय अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख क्षेत्रों नामतः कृषि, जल, प्राकृतिक पारितंत्र एवं जैव-विविधता और स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए एक अध्ययन किया गया है।

इसके आधार पर, वर्ष 2010 में "जलवायु परिवर्तन और भारत' 4x4 आकलन- वर्ष 2030 हेतु 'प्रादेशिक और क्षेत्रीय आकलन' नामक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इस अध्ययन में समग्र उष्णता, परिवर्ती जल-प्राप्ति सहित अवक्षेपण में वृद्धि, वनों में संघटन में परिवर्तन, नए क्षेत्रों में मलेरिया के फैलने, मानव-जीवन पर इसके दुष्प्रभाव और इसके दीर्घावधिक संचरण के खतरे का अनुमान लगाया गया है।

जलवायु परिवर्तन की संभावना से अवगत होने के कारण सरकार ने जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) तैयार की और 30 जून, जारी किया। एनएपीसीसी में सौर ऊर्जा, संवर्धित ऊर्जा- दक्षता, सतत पर्यावास, जल, हिमालयी पारितंत्रों का संपोषण, हरित भारत, सतत कृषि और जलवायु परिवर्तन हेतु कार्यनीति के विशिष्ट क्षेत्रों में आठ मिशनों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।

ये राष्ट्रीय कार्य योजना के केंद्र-बिंदु है, जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में प्रमुख लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु बहुउद्देशीय, दीर्घावधिक और समेकित कार्यनीतियां निरूपित करते हैं। इसके अतिरिक्त सभी राज्यों से जलवायु परिवर्तन संबंधी राज्य विशिष्ट मुद्दों को रेखांकित करते हुए एनएपीसीसी के लक्ष्यों के समनुरूप जलवायु परिवर्तन संबंधी राज्य कार्य योजना तैयार करने का अनुरोध किया गया है।

वर्तमान केंद्र सरकार ने जलवायु परिवर्तन मुद्दे पर विशेष जोर देते हुए सार्थक प्रयास शुरू किए हैं। पर्यावरण और वन मंत्रालय के साथ जलवायु परिवर्तन को शामिल कर इसका नाम पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय कर दिया गया है। नदियों को प्रदूषण मुक्त करना और उनके जल को पुनः निर्मल बनाने के लिए जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय बनाया गया है  .  
 

स्रोत:- हिंदी पर्यावरण पत्रिका, पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 
 

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Post By: Shivendra
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