प्रकृति का बढ़ता प्रकोप : कारण एवं निवारण (Increasing Fury Of Nature:Causes & Remedies)

प्राकृतिक आपदा,PC-विकिपीडिया
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प्रकृति का बढ़ता प्रकोप : कारण एवं निवारण 

प्रकृति अथवा 'Nature' जिसमें ब्रह्मांड समाया हुआ है। हमारी पृथ्वी इस अनादि अनन्त ब्रह्माण्ड का एक ऐसा पिण्ड है जो खगोलीय अन्य पिण्डों की भाँति ही अपने पर लगाने वाले मूलभूत बलों के प्रभव से प्रभावित होती रहती है। पृथ्वी पर इसके बाहरी पिण्डों एवं स्थितियों के प्रभाव के फलस्वरूप विद्युत चुम्बकीय एवं गुरुत्वीय बलों में परिवर्तन आम बात है, जिसका प्रभाव पृथ्वी पर प्रत्यक्ष अथत परोक्ष रूप से पड़ता रहता है। इन बाह्य बलों के पारस्परिक विभेद ही अनेक ऐसी विलोम परिस्थितियों को जन्म दे देते हैं जो पृथ्वी पर जन, धन, ईधन स्वास्थ्य इत्यादि के लिए घातक एवं प्रलयंकारी सिद्ध होते हैं जिन्हें हम प्राकृतिक आपदाएं कहते हैं। यहीं प्रकृति के प्रकोप के रूप में भी समझा एवं जाना जाता है।

आपदाओं या प्राकृतिक प्रकोप में मुख्यतया बाढ़, सूखा जिसे कभी-कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि का पर्याय माना जाता है, भूकम्प, हिमपात, आँधी, तूफान, चक्रवात, समुद्री चक्रवात, बादल फटना, बिजली गिरना, भूस्खलन, कीट उपद्रव, महामारी, सौर चुम्बकीय उत्पात, ज्वार भाटा इत्यादि है। किन्हीं-किन्हीं स्थानों में भूचक्रवात को हरिकेन अथवा सुनामी इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं का कारण 

खगोलीय अथवा ब्रह्माण्डीय के साथ समय एवं स्थानपरक परिस्थितियों के परिवर्तनों से भी संभव है। बढ़ती हुई जनसंख्या, वायु एवं जल प्रदूषण भी अवांक्षित जीव जन्तु एवं सूक्ष्य जीवाणुओं की वृद्धि में सहायक होते हैं, जो अन्ततः प्रकृति के प्रकोप के रूप में निखर कर आते हैं। ज्योतिष के मतानुसार कहते है कि जल सूर्य के साथ अन्य ग्रह 90° अथवा 180° पर रहते हैं तो ग्रहों का संयुक्त प्रभाव पृथ्वी पर दैवी आपदाओं का जन्मदात्री हो जाती है। परन्तु यदि 60° आवा 120" पर रहे तो उनका प्रभाव आंशिक रहता है। चन्द्रमा की कलाओं के प्रभव के कारण ज्वार, भाटाओं का आना सामान्य घटनाएं हैं। प्रकृति में CO2 की बढ़ती मात्रा के चलते Global warning ( पृथ्वी की तापवृद्धि ) भी प्राकृतिक प्रकोप बढ़ाने में मदद कर रही है।

बाढ़

हमारे देश में वर्ष 1951 एवं 1984 की तथा 1994 की इस वर्ष की बाढ़ का प्रकोप कितना भयानक रहा है यह सर्वविदित है। जहां 1951 में एक करोड़ हेक्टेयर भूमि जलमग्न हुई, वर्ष 1984 में सात करोड़ हेक्टेयर और अब लगभग दस करोड़ हेक्टेयर भूमि के जलप्लावित होने के अंदेशा हैं। इससे जन-धन की व्यापक क्षति हुई। इस शताब्दी का आया चीन का वर्ष 1973 का भूकंप एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया। जिसमें कोई 50 हजार से ज्यादा लोग काल-कवलित हो गये। हमारे देश का 1993 का लातूर एवं अभी हाल का आया मध्य प्रदेश का भूकम्प इस सदी के ताजा उदाहरणों में से हैं।

सूखा

सूखे की विभीषिका से भी सभी परिचित हैं। कहते हैं कि वर्ष 1987 का सूखा इतना व्यापक था कि देश के 407 जिलों में 287 जिलें इसके चपेट में थे। एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार लगभग 20 वर्षो में एक बार अत्यन्त भीषण सूखा होता है। सूखे भी कई प्रकार के है जैसे वर्षा का कम होना, जिससे कृषि उत्पादकता प्रभावित होती है, नदियों में जल की कम मात्रा का : उपलब्ध होना अथवा भौम-जल स्तर की कमी के कारण उत्पन्न सूखा। ये सभी प्राकृतिक प्रकोप में आते है तथा किसी न किसी प्रकार जन जीवन को प्रभावित करते हैं। देश में आये वर्ष 1904 का अकाल तथा उड़ीसा का इस वर्ष का अकाल इसके उदाहरण हैं।

उल्कापात

यों तो यह उल्कापात दृष्टव्य नहीं होता और इसका प्रभाव बहुत कम देखने को मिलता है। परन्तु यदि कहीं होता है तो प्रकृति को पूर्णतया परिवर्तित करके ‘पवित्राणाम् साधुनाम् विनाशाय दुष्कृताम्’ की कहावत चरितार्थ करती है। कहते है कि अफ्रिका के एरिजोन नामक स्थल पर उल्कापात से एक क्रेटर निर्मित हो गया है। Ice Age ( हिम युग) की कल्पना भी इसी की परिणति है जिसमें डायनासोर सहित अनेकानेक दीर्घजीव सदा सदा के लिए विलुप्त हो गये। इनकी वृष्टि प्रकृति के महाविनाश का कारण बन सकती हैं और आदि में बनी भी है। Small Ice Age (लघु हिम-युग ) वर्ष 1551-1640 तक रहा जिसमें सम्पूर्ण यूरोप प्रभावित हुआ। यों तो इसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं जान पड़ता परन्तु उल्कापात हो सकता है।

हिमपात

हिमपात एक अन्य प्रकोप है जो आये दिन पहाड़ों पर होता रहता है। दिसम्बर 1997 का शिमला का हिमपात अद्भुत रहा तथा वहां-कहां कहर ढाया।

हरिकेन

हरिकेन चक्रवातों की विभिसिका से कौन नहीं परिचित है। पूर्वांचल में 1 दिसम्बर 1997 का चक्रवात आया जो लगभग 10 कि० मी० चौड़ी पट्टी में तथा 100 कि०मी० विस्तार के साथ पेड़ पोधों, भवनों, जनधन इत्यादि का व्यापक विनाश किया।

सुनामी

सुनामी अथवा समुद्री चक्रवातों का जन्मदाता सूर्य द्वारा समुद्रों पर पड़ने वाली विकिरण है जिसकी विषमता के कारण ऐसे भयंकर चक्रवात की उत्पत्ति होती है जिनमें 15 मीटर तक ऊंची समुद्री लहरें चलती हैं और समुद्री तटीय क्षेत्रों में भयंकर विनाश लीला का तांडव करती हुई जन जीवन को समाप्त अथवा मृतप्राय कर देती है। इसके चपेट में आये देशों में मालदीव, बांग्लादेश, जापान तथा भारत (आन्ध्र प्रदेश) हैं ।

एलनीनों

वर्ष 1982-83 के एलनीनों का प्रभाव अमेरिका के केलिफोर्निया में देखने को मिला तथा 1996 में भी दृष्टिगोचर हुआ जिसके फलस्वरूप अतिवृष्टि तथा बाढ़ का भयंकर तांडव रहा।

आकाशीय तडित, बज्रपात

आकाशीय तड़ित, बज्रपात अथवा बिजली गिरना यों तो स्थानीय घटनाएं है परन्तु जो इसके प्रभाव क्षेत्र में आते हैं उनमें अनेकों के प्राण पखेरू हो जाते हैं तथा बड़े-बड़े भवन बांधों को इससे हानि का अंदेशा रहता है।

भूस्खलन

भूस्खलन पहाड़ो पर ऐसी आम घटनाएं है जिनके चपेट में गाँव के गाँव समाप्त हो जाते हैं । वर्ष 1993 एवं 1998 का मालपा गाँव का भूस्खलन इतना भीषण रहा जो पूर्ण गाँव को निगल गया। कहीं कहीं जमीन धसने की घटनायें भी प्राकृतिक प्रकोप का हिस्सा बन जातीं हैं। इस वर्ष सहारनपुर मार्ग भी कहीं-कहीं धस गया तथा इसके चलते अनेक मोटर दुर्घटनाएं हुईं।

सौर तूफान

सौर चुम्बकीय तूफान के फलस्वरूप अनेकानेक नये कीट-पतंगों का जन्म एवं वृद्धि होती है तथा संचार माध्यम बहुत प्रभावित होता है तथा लगभग ठप हो जाता है अथवा इससे महामारी फैलती है और सार्वजनिक जीवन में दुर्घटनाओं में वृद्धि भी प्राकृतिक प्रकोप की श्रेणी में आते हैं।

दावानल

वनों में आग लग जाना जो सामान्यतया एक प्राकृतिक दुर्घटना है इससे भी अत्यंत हानि होती है।

अतः हमने देखा कि प्राकृतिक प्रकोप अनेकानेक रूप से हमारे समक्ष आते हैं तथा अनेकानेक महामारियों की जन्मदायी भी बन जाते हैं। एक प्रकोप दूसरे प्रकोप को जन्म देता है, जिसे बाढ़ के बाद महामारी में चेचक, हैजा, चर्मरोग इत्यादि का उद्भव ।

इन प्राकृतिक प्रकोपों से निवारण के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने होगें।

  •  प्रकोपों के पुर्वानुमान हेतु वैज्ञानिक एवं कम्पयूटरों का अधिक प्रयोग जन-सामान्य में इनके कारणों की विस्तृत जानकारी लेखों, कविताओं, फिल्मों, पत्रिकाओं के साथ-साथ संगोष्ठियों, विचार गोष्ठियों के आयोजन में किसानों, महिलाओं की भागीदारी। 
  •  संसाधनों का उचित प्रबंधन।
  •  प्राकृतिक प्रकोप से बचने के पूर्वाभ्यास स्वरूप दैहिक एवं स्वास्थ्य परक जानकारी की कार्यशालाएं।
  •  सुदूर संवेदन तकनीकी एवं दूरसंचार व्यवस्था में वृद्धि उचित मॉनिटरिंग हेतु समुचित यंत्र में बढ़ोत्तरी।
  •  अधिकाधिक स्वचालित क्षेत्रों के उपयोग जिससे पूर्वाज्ञान हो सके ।
  •  दैविक अथवा प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए स्थानीय स्तर पर ब्रिगेड (संगठनों) की स्थापना जिसमें समर्पित एवं कर्मठ नौजवान अपनी भूमिका निभा सकें।
  •  संरक्षण के व्यापक एवं समुचित उपाय।
  •  स्वास्थ्य सुविधाओं का समुन्नत विकास आदि ।
  •  घाटि परियोजनाओं / बांधों, सड़कों, भवनों का नवीन वैज्ञानिक पद्धतियों से निर्माण किया जाना तथा संचालन परिचालन की त्रुटियों में सुधार किया जाना ।

उपसंहार

यों तो प्राकृतिक प्रकोप अवश्यम्भावी हैं। इन्हें पूर्णतया रोकपाना मानव समर्थ के बाहर है परन्तु इनकी तीव्रता तथा बारम्बारता से प्रभाव को न्यून तो किया ही जा सकता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि हमें सूचना तंत्र, वैज्ञानिक शोध प्रक्रिया और उत्तम माडलों के अनुप्रयोग से विकास की प्रक्रिया निरंतर जारी रखें और नवीन अनुसंधानों को नीति निर्धारण एवं भावी योजनाओं में स्थान दें। जहां हम संसाधनों की उचित प्रबन्धन की चर्चा करते हैं वहां प्रदूषण से बचने के भी उपाय करने चाहिए जिससे भविष्य में आने वाली हिमयुग जैसे संभावित प्रकोपों से बचा जा सके। CO2 की अधिकता से धुन्ध और वातावरणीय परिवर्तन एक अन्य प्रकार का प्राकृतिक प्रकोप लाने वाला है जिससे समुद्र का तल और वातावरण की गर्मी बढ़ जायेगी जिसके कारण अति गर्मी एवं अति ठंड से जूझना पड़ेगा। आइए हम सब मिलकर ऐसे उपायों को करने में अपना योगदान करें।


स्रोत - प्रवाहिनी, 2011-2012, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की


 

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