![हर्बलिज़्म जड़ी-बूटी चिकित्सा,PC-Wikipedia](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-08/images%20%283%29.jpg?itok=oHqlBt6L)
प्रत्येक व्यक्ति में प्रकृति ने स्वयं ठीक होने की ताकत भरी है। अच्छे स्वास्थ्य की सबसे अच्छी दवा है पानी, ताजी हवा, सूरज की रोशनी और नींद, जिसे समृद्धशाली प्रकृति ने बिना किसी कीमत के हमें मुफ्त में दिया है। स्वयं को सेहतमंद रखना जटिल काम नहीं है। सबसे आसान काम यानि चलना भी सबसे अच्छी औषधि है। अगर प्रतिदिन सूर्य की रोशनी लें, पानी पिएं, सही तरीके से सांस लें और अच्छी नींद सोएं तो दुनिया में चिकित्सकों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। मानव प्रकृति भी प्रकृति के खजानें का ही एक हिस्सा है जिसमें बिमारियों से निपटने की अद्भुत क्षमताएं छिपी हैं जो रोगों को पनपने ही नहीं देती हैं।
"वह व्यक्ति जो स्वयं को दवाइयों के माध्यम से बचा लेता है, बुद्धिमान होता है, लेकिन वह व्यक्ति जो अपनी जीवन शैली बदलकर व प्रकृति का सदुपयोग कर स्वयं को बीमार ही ना पड़ने दे, वह सबसे सुरक्षित चिकित्सक होता है"।
मानव स्वयं सेहत और रोग का वाहक होता है तथा यह बात प्रमाणित है कि अधिकांश रोग जीवन जीने के गलत तरीके से उत्पन्न होते हैं। जैसे कोई बहुत ज्यादा ब्रेड खाकर रहता है, कोई बहुत ज्यादा मीठा या नमक खाता है, कोई बहुत ज्यादा पानी पीता है, कोई बहुत ज्यादा सोता है, बहुत ज्यादा व्यायाम करता है या इन सब का उल्टा करता है तो अवश्य ही वह बीमार पड़ेगा। हमेशा याद रखना चाहिए कि जो भी काम अति में होता है, वह प्रकृति के विरूद्ध हो जाता है। लेकिन यह भी तथ्य सत्य है कि किसी भी काम की अल्पता भी उतनी ही हानिकारक होती है, जितनी कि अधिकता अक्रियता और काम की कमी हमें नकारात्मक दिशा में खींचती हुई बीमारी के करीब ले जाती है। यानि दोनों ही स्थितियां खतरनाक व गलत हैं और इस स्थिति का समाधान है 'संतुलन' अगर प्रत्येक व्यक्ति सही मात्रा में पोषण ले और व्यायाम करें, न बहुत ज्यादा और न बहुत कम तो वह सेहतमंद रहने का सबसे सुरक्षित तरीका हासिल कर लेगा ।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी बीमारी का जनक स्वयं होता है। रोग कहीं बाहर से नहीं आते, वे आपके भीतर से ही जन्म लेते हैं और आपकी स्वयं की शारीरिक क्षमताएं ही उनकी समाप्ति का कारण बनती हैं। दरअसल, मानव शरीर में रक्त, श्लेष्मा, पीली पित्त और काली पित्त जैसे तत्व होते हैं जो दर्द या सहेतमंद होने का आभास कारवाते हैं। एक अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन प्राकृतिक तत्वों का सही मात्रा में शरीर में उपलब्ध रहना जरूरी है। इनकी क्षमता और मात्रा एक बराबर होती हैं और ये आपस में घुले-मिले रहते हैं। इन प्राकृतिक तत्वों की क्रिया प्रणाली में असंतुलन के कारण ही हमारे शरीर में रोगों का जन्म होता है और इनके कारण हमारे शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी कष्ट मिलता है। रोग एक शारीरिक प्रक्रिया है जो सहज रूप से शुरू होती है और परिणामस्वरूप अंत में जीवन समाप्ति के अंत तक पहुंच जाती है। लेकिन इन परिणाम से लड़ा जा सकता है और वापस उस दुनिया में लौटा जा सकता है, जहां शरीर के साथ आत्मा भी सुखद अनुभवों से परिपूर्ण होती है।
हमारे हिस्से में सुखद अनुभव बढ़ते हैं या घटते हैं, यह पूरी तरह हमारी जीवन शैली पर निर्भर करता है। अगर हम रोगों से ग्रस्त हैं, तो पहले अपनी जीवन शैली से जुड़ी गलतियों पर ध्यान देना होगा, जो अक्सर हमें बीमार बना देती हैं। हम कैसे जीते हैं, क्या खाते हैं, कैसा व्यवहार करते है और क्या सोचते हैं, जैसी बातें सेहत का निर्धारण करती हैं। किसी भी व्यक्ति को कैसा रोग है, जानने से पहले यह जानना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि किस तरह के व्यक्ति को रोग हुआ है।
अगर हम अस्वस्थ हैं तो पहले ये देखना होगा कि हमारी प्रकृति कैसी है उसके बाद अपने आहार का आंकलन करना होगा। फिर अपने रहन-सहन का अपनी उम्र और आस-पास के लोगों का आंकलन भी करना होगा, अंत में हमारी भाषा, तौर-तरीकों, चुप्पी, विचार, सोने या उठने की आदतें कैसी हैं। हमारे सपने और उनकी प्रकृति और समय क्या है जैसे तथ्यों पर भी ध्यान देना होगा, जिस भी कारक में असंतुलन होगा, वही हमारे रोग या अस्वस्थता का कारण होगा।
एक बुद्धिमान व्यक्ति वह होता है जो यह जानता है कि सेहत सबसे महत्वपूर्ण चीज है और हमेशा यह सीखने का प्रयास करता है कि अपने निर्णय से वह अपनी बीमारी को कैसे ठीक कर सकता है। वह व्यक्ति जो स्वयं को दवाइयों के माध्यम से बचा लेता है, बुद्धिमान होता है, लेकिन वह व्यक्ति जो अपनी जीवन शैली बदलकर व प्रकृति का सदुपयोग कर स्वयं को बीमार ही न पड़ने दे, वह सबसे सुरक्षित चिकित्सक होता है। सुनने पर तो यह बहुत अनोखी बात लगती हैं, लेकिन यही सच है। दरअसल हर व्यक्ति के अंदर स्वयं एक चिकित्सक होता है। हमें तो बस उस चिकित्सक को सुचारू रूप से काम करने में मदद करनी है।
अगर हम मन में साहस और दया भाव रखें तो सेहत फलती-फूलती है और अगर नफरत व गुस्सा पालें तो बीमारियां अपनी जड़ें गहरी फैला लेती हैं। अगर रोग रूपी दैत्य से बचना है तो दो आदतें डाले, पहली सहायता करने की और दूसरी दूसरों को नुकसान न पहुंचाने की। इससे मन संतुष्ट रहता है, और आयु बढ़ती है। संतोष एक ऐसा घटक है जो लंबी उम्र व बीमारियों से मुक्त जीवन देता है साथ ही चिंताओं से भी दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि चिंताओं में किसी भी समस्या को सुलझाने की ताकत नहीं होती है अपनी इच्छाओं पर भी हमें नियंत्रण रखना चाहिए। हालांकि अपनी इच्छाओं के विरूद्ध जाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन यदि हम अपनी इच्छाओं पर जीत हासिल कर ले तो रोग की परछाई भी हमें छू नहीं पाएगी।
स्रोत-राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की, 24 प्रवाहिनी अंक 21 (2013-2014)
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