आज के इस आधुनिक युग में प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े जल,थल और नभ में इतना प्रसारित हो चुके हैं कि कोई भी जीव इनसे बचा नहीं है। यूरोप एक्वाकल्चर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक हमारे द्वारा गरम पानी में डाले गए टी-बैग से भी ऐसे प्लास्टिक के कण हमारे शरीर में पहुंचकर रक्त में मिलते हैं।
डॉ. अजय कुमार सोनकर, जो एक प्रतिष्ठित भारतीय वैज्ञानिक हैं और उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, ने एक शोध पत्र में लिखा है कि हमारे रक्त में प्लास्टिक के कणों का स्तर हमारी कल्पना से भी अधिक है। उन्होंने समझाया कि प्लास्टिक एक कृत्रिम पदार्थ है, जो समय के साथ अपनी नमी खोता है और छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता है। सूर्य की किरणें और कुंडलनी (कोरोसिव) परिसर में, यह प्रक्रिया और भी जल्दी होती है, और प्लास्टिक के कण माइक्रॉन और नैनो पार्टिकल में परिवर्तित होकर हवा, पानी, मिट्टी, पौधे, पशु, मनुष्य, सबमें मिलते-जुलते हैं। और बारिश के कारण हर पानी का स्रोत में पहुंच जाते हैं। फिर वे उष्मांतरण के जरिए बादलों में चले जाते हैं और उन्हें भी स्पर्श करते हैं, जिनको अस्पृश्य क्षेत्र (पर्वत-हिमनद) माना गया है। इसका मतलब है कि यह हमारी आहार श्रेणी में शामिल हो चुका है। ये प्लास्टिक हमारे शरीर में प्रवेश करके कई जीविक प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं और मनुष्य के यकृत, वृक्क यानि गुर्दे ,लीवर सहित सभी अंगों को नुकसान पहुंचाते हैं।
यदि दुनिया जहाँ के हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर पिछले सात दशकों में प्लास्टिक का उत्पादन कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान तकरीबन 8.3 अरब मीट्रिक टन प्लास्टिक उत्पादन हुआ। इसमें से 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरे का ढेर लग चुका है जिसका महज 9 फीसदी ही रिसाइकिल किया जा सका है। इससे भी ज्यादा मात्रा में प्लास्टिक कचरे का ढेर दुनिया में जगह-जगह इकट्ठा हो चुका है। देखा जाये तो साल 1950 में दुनिया में प्लास्टिक का उत्पादन केवल 20 लाख मीट्रिक टन था जो 65 साल में यानी 2015 तक बढ़कर 40 करोड़ मीट्रिक टन हो गया है। जब बात समुद्री जीव-जन्तुओं की आती है, तो गौर करने लायक तथ्य यह है कि साल 2010 तक करीब 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा महासागरों में इकट्ठा हो चुका है या इसे यदि यूँ कहें कि इतना कचरा 2010 तक पाया गया है तो कुछ गलत नहीं होगा। आगे दिन-ब-दिन हालात और भयावह होंगे, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। 2050 तक यह 12 अरब मीट्रिक टन का आंकड़ा पार कर जायेगा। चूँकि इसका जैविक क्षरण नहीं होता लिहाजा आज कचरा आने वाले सैकड़ों साल तक हमारे साथ रहेगा। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।
अब जरा अपने देश का जायजा लें, हमारे यहाँ हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। 9205 टन प्लास्टिक रिसाइकिल किया जाता है। यही नहीं 6137 टन प्लास्टिक हर साल फेंकी जाती है। पूरे देश के हालात की बात तो दीगर है, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानें तो देश के अकेले चार मेट्रो शहरों यथा- दिल्ली में 690 टन, चेन्नई में 429 टन, कोलकाता में 426 टन और मुम्बई में 408 टन प्लास्टिक कचरा हर रोज फेंका जाता है। देश की राजधानी दिल्ली को ही लें, यहाँ प्लास्टिक की थैली रखने पर पाँच हजार रुपये जुर्माना देने की व्यवस्था है। एनजीटी ने यहाँ 50 माइक्रोन से भी कम मोटाई वाली प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल किये जाने प्रतिबंध लगाया हुआ है। यदि किसी व्यक्ति के पास से इस तरह की प्रतिबंधित प्लास्टिक पाई जाती है तो उसे 5000 रुपये की पर्यावरणीय क्षति-पूर्ति देनी होगी। एनजीटी ने आदेश दिया था कि ऐसे भंडारों को तत्काल जब्त करने व डम्प किये हुए प्लास्टिक कचरे को कम करने की कार्यवाही की जाये। इसके बावजूद पूरे राजधानी क्षेत्र में प्लास्टिक का व्यापक और अंधाधुंध इस्तेमाल जारी है। उस पर अंकुश केवल कागजों तक ही सीमित है। इसमें दो राय नहीं है। यह जानते-समझते हुए कि यह जलभराव और पानी को प्रदूषित करने का बड़ा कारण है। प्लास्टिक के इस्तेमाल से नाले बंद हो जाते हैं। जलभराव से डेंगू और चिकनगुनिया के मच्छर पनपते हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार का मौन समझ से परे है।
गौरतलब है कि इस मामले में हमारा देश बांग्लादेश, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया और फ्रांस से बहुत पीछे हैं। बांग्लादेश ने तो अपने यहाँ 2002 में ही प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया था। कारण वहाँ के नाले प्लास्टिक के चलते जाम हो गए थे। आयरलैंड ने प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर अपने यहाँ 90 फीसदी तक टैक्स लगा दिया। नतीजतन प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल में काफी कमी आयी। प्लास्टिक पर बंदिश के कारण मिले टैक्स से प्लास्टिक के रिसाइकलिंग के काम में तेजी आयी। ऑस्ट्रेलिया में वहाँ की सरकार ने अपने देशवासियों से स्वेच्छा से प्लास्टिक के इस्तेमाल में कमी लाने का अपील की। नतीजतन वहाँ इसके इस्तेमाल में 90 फीसदी की कमी आयी। फ्रांस ने अपने यहाँ इसके इस्तेमाल पर 2002 से पाबंदी लगाने का काम शुरू किया जो 2010 तक देश में पूरी तरह लागू हो गया।
दुनिया में समय-समय पर हुए अध्ययन और शोधों ने यह साबित कर दिया है कि प्लास्टिक हमारे दैनंदिन इस्तेमाल के मामलों में हमारे समाज में बड़े पैमाने पर घुस चुका है। यह हर जगह है। इसने हमारे पर्यावरण में भी व्यापक रूप से पैठ बना ली है। इन हालात में हमें इसके उत्पादन, निस्तारण को लेकर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा, साथ ही आने वाले खतरों के मद्देनजर प्लास्टिक रहित दुनिया के विषय में भी सोचना होगा। तभी कुछ बात बनेगी। दुख इस बात का है कि इस दिशा में सरकारों की बेरुखी समझ से परे है। लगता है सरकारों को मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य की चिंता ही नहीं है। ऐसी स्थिति में प्लास्टिक कचरे में वृद्धि को रोक पाना बेमानी सा लगता है।
अंडमान के समुद्री सीप में भी प्लास्टिक के कण मिले हैं, जो उनके टिशू में समाहित हो गए हैं। माइक्रोस्कोप में उनका विश्लेषण करने पर पता चला कि वे प्लास्टिक के सूक्ष्म कण हैं, जो उनके खून में भोजन के ज़रिए पहुंचते हैं।लेखक ने कहा, प्लास्टिक का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि सिर्फ सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध से इसका समाधान नहीं हो सकता है। एक वैज्ञानिक अध्ययन के मुताबिक, एक सामान्य व्यक्ति हर सप्ताह पांच ग्राम प्लास्टिक के कण अपने शरीर में ले रहा है। प्लास्टिक में बिस्केनाल ए, बीपीए, थैलेट्स, परपालीफ्लोरो अल्काइल सब्सटांस जैसे तमाम जहरीले रसायन होते हैं, जो कैंसर जैसे गंभीर रोगों का कारक हैं। इससे कैंसर के साथ-साथ कई और बीमारियां हो सकती हैं।
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