फव्वारा द्वारा सिंचाई एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। पानी का दबाव पम्प द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमें-धीमें की जाती है, इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं।
यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। देश में लगभग सात लाख हैक्टर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। यह विधि बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा गेहूँ, कपास, मूंगफली, तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं।
फव्वारा और सतही सिंचाई पद्धतियों की तुलना
तालिका 4 में फव्वारा और सतही सिंचाई पद्धतियों की तुलना की गई है।
� सतही सिंचाई की अपेक्षा छिड़काव सिंचाई द्वारा जल प्रबन्धन आसान होता है।
� छिड़काव सिंचाई पद्धति में फसल उत्पादन के लिए लगभग 10 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल उपलब्ध होता है क्योंकि इसमें नालियां बनाने की आवश्यकता नहीं होता।
� छिड़काव सिंचाई विधि में पानी का लगभग 80 प्रतिशत भाग पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है, जबकि पारम्परिक विधि में सिर्फ 30 प्रतिशत पानी का ही उपयोग होता है।
तालिका 1 : सिंचाई की विभिन्न प्रणालियों द्वारा फसलों का उत्पादन औरजलोपयोग दक्षता
सिंचाई प्रणाली |
उत्पादन |
जलोपयोग दक्षता |
|
मूंगफली |
|
बॉर्डर (सीमान्त पट्टी) |
23.2 |
25.85 |
चैक (क्यारी) |
23.8 |
26.45 |
फव्वारा |
28.9 |
46.80 |
|
मिर्च |
|
कूँड़ |
18.87 |
45.03 |
फव्वारा |
25.23 |
81.57 |
इस विधि में पम्प यूनिट, रेणु छत्रक, दाबमापी, मुख्य लाइन, उप-मुख्य लाइन, दाव नियंत्रक पेंच, राइजर लाइन, फव्वारा शीर्ष तथा अन्तिम पेंच प्रयोग किए जाते हैं। इस विधि में इस्तेमाल होने वाली मशीन के सभी भागों को चित्र 2 में प्रदर्शित किया गया है।
जहां पर सिंचाई के लिए खारा जल ही उपलब्ध हो, वहां पर इस प्रणाली द्वारा ज्यादा पैदावार ली जा सकती है।
फव्वारा सिंचाई के फायदे
� सिंचाई के परम्परागत तरीकों के मुकाबले इस विधि से सिंचाई करने पर मात्र 50-70 प्रतिशत पानी की आवश्यकता होती है।
� जमीन को सममतल करने की जरूरत नहीं होती। ऊंचे-नीचे और मुश्किल माने जाने वाले भू-भागों में भी खेती की जा सकती है।
� बजाय इस बात के इंतजार में बैठे रहने के कि स्वाभाविक वर्षा या फिर सतही सिंचाई के बाद जमीन ठीक से नम हो तो जुताई की जाए, फव्वारा पद्धति से उचित समय पर जुताई और पौध रोपाई का काम किया जा सकता है।
� पाले और अत्यधिक गर्मी से फसल की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस सिंचाई से फसल को बचाया जा सकता है।
� पौधों की रक्षा पर होने वाला खर्च कम हो जाता है क्योंकि कीड़े-मकोड़े और बीमारियां जैसी समस्याएं कम पैदा होती हैं। छिड़काव की पद्धति के जरिए कीटनाशकों अथवा पौधों को पौष्टिकता देने वाली दवाएं बेहतर ढंग से छिड़की जा सकती हैं।
� फव्वारा के जरिए की जाने वाली सिंचाई का लाभ लगभग हर किस्म की फसल को पहुँचाया जा सकता हैं।
� नालियों या बांध बनाने की जरूरत नहीं पड़ती जिससे खेती के लिए ज्यादा जमीन उपलब्ध हो जाती है।
� इस विधि के द्वारा घुलनशील खाद भी लगाई जा सकती है, जिससे खाद की बचत होती है।
फव्वारा सिंचाई की सीमाएं
� अधिक हवा होने पर पानी का वितरण समान नहीं रह पाता है।
� पके हुए फलों को फुहारे से बचाना चहिए।
� पद्धति के सही उपयोग के लिए लगातार जलापूर्ति की आवश्यकता होती है।
� पानी साफ हो, उसमें रेत, कूड़ा करकट न हो और पानी खारा नहीं होना चाहिए।
� इस पद्धति को चलाने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।� चिकनी मिट्टी और गर्म हवा वाले क्षेत्रों में इस पद्धति के द्वारा सिंचाई नहीं की जा सकती।
उपयुक्तता
यह विधि सभी प्रकार की फसलों की सिंचाई के लिए उपयुक्त है। कपास, मूंगफली तम्बाकू, कॉफी, चाय, इलायची, गेहूँ व चना आदि फसलों के लिए यह विधि अधिक लाभदायक हैं।
यह विधि बलुई मिट्टी, उथली मिट्टी ऊंची-नीची जमीन, मिट्टी के कटाव की समस्या वाली जमीन तथा जहां पानी की उपलब्धता कम हो, वहां अधिक उपयोगी है।
छिड़काव सिंचाई पद्धति की अभिकल्पना एवं रूपरेखा के लिए सामान्य नियम
� पानी का स्त्रोत सिंचित क्षेत्रफल के मध्य में स्थित होनी चाहिए जिससे कि कम से कम पानी खर्च हो।
� ढलाऊ भूमि पर मुख्य नाली ढलान की दिशा में स्थित होनी चाहिए।
� पद्धति की अभिकल्पना और रूप रेखा इस प्रकार होनी चाहिए जिससे कि दूसरे कृषि कार्यों में बाधा न पड़े।
� असमतल भूमि में अभिकल्पित जल वितरण पूरे क्षेत्रफल पर समान रहना चाहिए, अन्यथा फसल वृद्धि असमान ही रहेगी।
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