फूलों के देश में पतझड़ के रंग

न्यूजीलैंड की नदी
न्यूजीलैंड की नदी


न्यूजीलैंड धरती के उन गिने-चुने देशों में है जिसकी सुंदरता बेमिसाल है। मनोरम झीलें, हरे-भरे चरागाह, कुदरती फव्वारे किसी भी सैलानी का मन मोह लेते हैं। वहां से लौट कर इस देश का यात्रा-वृत्त प्रस्तुत कर रहे हैं अरुणेंद्रनाथ वर्मा।

धरती के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में मौसम और ऋतुएं विपरीत होती हैं। जब उत्तरी ध्रुव और आर्कटिक क्षेत्र में सूरज छह महीने तक क्षितिज के ऊपर धरना देकर बैठ जाता है तब हिमाच्छादित दक्षिणी ध्रुव और अंटार्कटिक अंधेरे-धुंधलके में टकटकी लगाए उसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। इतना जानने के बावजूद पहली बार भूमध्य रेखा पार करने वालों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव विस्मित करता है। विशेषकर, ऐसे सुंदर देशों की यात्रा करके जो प्रकृति की गोद मैं बैठी उसकी सबसे लाडली संतान लगे, जिनका सूर्यकिरणों की ऊष्मा से प्रफुल्लित रंग-बिरंगे फूलों का परिधान भी सुंदर लगे और जहां पतझड़ का उत्पात भी दर्शनीय हो।

न्यूजीलैंड में पहली बार सितंबर में गया था, जब वसंत अपने यौवन पर था।

तस्मान सागर की बाईस किलोमीटर चौड़ी कुकस्ट्रेट्स से बंटे न्यूजीलैंड के दो टुकड़ों को उत्तरी और दक्षिणी द्वीप के नाम मिले हैं। अंटार्कटिक वृत्त से केवल पांच हजार तीन सौ किलोमीटर दूर धुर दक्षिण के इस देश में वसंत के साक्ष्य स्वरूप उत्तरी द्वीप के आकलैंड शहर से लेकर दक्षिणद्वीप के अंतिम शहर क्राइस्ट चर्च तक हरी घास के लंबे चौड़े, मैदानों, चरागाहों के साथ-साथ तब फूलों की चादर बिछी हुई थी। उसी न्यूजीलैंड की यात्रा पर इस साल अप्रैल के महीने में दोबारा गया तो लगा जैसे किसी सुंदरी ने सौंदर्य प्रतियोगिता के रैंप पर दूसरी बार चलने के लिए बिल्कुल भिन्न वस्त्राभूषण पहन लिए हों।

पतझड़ का उत्पात देखने गया था, पर वह भी इतना सुंदर हो सकता है, नहीं सोचा था। पूरे देश में पसरे हुए घास के मीलों लंबे चरागाह अभी भी वसंत ऋतु के जितने ही हरे-भरे थे, पर धरातल से फूलों की चादर उठ चुकी थी और उनके रंग ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर धराशायी होने से बची हुई पत्तियों पर बिखरे हुए थे। भारत में होली अभी-अभी मनाकर गए थे हम। न्यूजीलैंड के पेड़ों की झड़ती पत्तियों पर होली के वे सारे रंग बिखरे हुए मिले। पीले, सुनहले, गुलाबी, रक्ताभ से लेकर गहरे तांबे के रंग में रंगे पत्ते पेड़ों पर उनसे न बिछुड़ने के अंतिम प्रयास में टंके हुए थे, जिन पेड़ों पर यह बिछोह रुक नहीं पाया था। उनकी नंगी डालें और टहनियां अपनी सूनी बाहें उठाएं जैसे आकाश को अपने वैधव्य के लिए दोषी ठहरा रही थी। पर उनके सूनेपन में भी अद्भुत सौंदर्य था। अनगिनत सुरम्य झीलों, विस्तृत समुद्र तटों, अनंत विस्तार में फैले हरे-भरे समतल चरागाहों, ज्वालामुखी पर्वतों को फोड़ कर बहे हुए लावा से बने पठारों के बीच-बीच धधकते हुए गर्म जल और भाप की उच्छवास भरते गंध की सोते और प्राकृतिक फव्वारों का अप्रतिम सौंदर्य न्यूजीलैंड को सुंदर ही नहीं, अद्भुत और अनूठा बनाता है। इकतालीस डिग्री दक्षिणी अक्षांश पर होने के कारण केवल पांच-छह हजार फीट की ऊंचाई पर ही उसके पर्वत हिममंडित हो जाते हैं।

12,500 फीट का सबसे ऊंचा शिखर माउंट कुक हिमालय के सामने बौना है, पर इन हिमधवल पर्वत श्रृंखलाओं से सुसज्जित न्यूजीलैंड प्रकृति की विविधता और पर्यावरण की स्वच्छता के चलते विश्व के सुंदरतम देशों में सर्वोपरि कहलाने का हकदार है।

अलास्का और स्विटजरलैंड की हिमधवल सुंदरता अगर सर्वोपरि हैं तो न्यूजीलैंड की नैसर्गिक सुंदरता में बेजोड़ विविधता है। उसकी सुंदरता को अक्षुण्ण बनाए रखने में उसकी कुल पैंतालीस लाख की छोटी-सी; केवल 22 व्यक्ति प्रति वर्गकिलोमीटर घनत्व वाली, जनसंख्या मदद करती है। उसकी सुंदरता के मूल में है उसके नागरिकों की पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता। बस इसी बिंदु पर हम भारत की प्राकृतिक संपदा के विस्तार और विविधता की न्यूजीलैंड से तुलना करने में हिचक जाते थे। भारत की तुलना में बहुत छोटे से इस झीलों के देश में सागर के किनारे घने जंगलों से आच्छादित धरती उष्ण और भीगी हुई भूमध्यरेखीय जलवायु वाली लगती है तो उनसे केवल कुछ सौ किलोमीटर दूर पर्वतों पर छह-सात हजार फुट की उंचाई पर ही वे दृश्य दीखते हैं जो हिमालय की इससे दोगुनी ऊंचाई वाली चोटियों और ढलानों पर हैं। उसके दक्षिणी आल्पस की पर्वत श्रृंखला को चारों तरफ से घेरे हरे भरे चरागाह आल्पस पर्वत को घेरे स्विट्जरलैंड की याद दिलाते हैं। नार्वे स्वीडेन की तरह पहाड़ों के बीच कटे-फटे समुद्र तट के अंदर गहराई से घुसे हुए फियोर्ड भी हैं जिनसे पर्वतों तक के थोड़े से विस्तार में ही बहुत थोड़ी-थोड़ी दूरियों पर विविध जलवायु-पट्टियों के विविध पेड़ पौधे दिखते हैं। जंगल चरागाहों के बीच अनेक पशु पक्षी तो हैं ही पर, किवी पक्षी वहां की विशेष संपदा है। आदमी से सहज मैत्री कर लेने वाला किया नामक तोता और चटक शोख लाल, हरे, नीले और सफेद रंग के तोते हर जगह मिलते हैं पर किवी पक्षी जो न्यूजीलैंड की ऐसी पहचान है कि वहां के लोगों को भी इस नाम से पुकारते हैं। बहुत शर्मीला निशाचर पक्षी है और बहुत कम दिखता है किवी।


न्यूजीलैंड में मशहूर पर्यटनस्थल : कीचड़ कुंड से निकलती गंध की भाप न्यूजीलैंड में मशहूर पर्यटनस्थल : कीचड़ कुंड से निकलती गंध की भाप आस्ट्रेलिया से न्यूजीलैंड तक की सीधी जेट विमान यात्रा में साढ़े तीन घंटे समय लगा हम मेलबोर्न से एअर न्यूजीलैंड के विमान से आकलैंड पहुंचे थे। आकलैंड पहुंचने के बाद लगभग पूरा न्यूजीलैंड हम कार किराए पर लेकर घूमे। सड़क पर भारत की तरह बाईं तरफ से चलने के नियम, सड़कों पर बेहद कम यातायात और सब चालकों द्वारा अनुशासित ड्राइविंग ने कार से घूमना बहुत आसान बना दिया था। न्यूजीलैंड पहुंचकर यात्रा हमने उत्तरी छोर पर बसी आर्थिक राजधानी आकलैंड से शुरू की थी। शहर के केंद्र से बहुत निकट बंदरगाह के सी-फ्रंट पर रात के झिलमिल प्रकाश में सजे अनेक रेस्टारेंट और मनोरंजन केंद्र घूमने, खाने-पीने के लिए आकर्षक विकल्प दे रहे थे। अब तो विश्वभर में हर बड़े शहर में भारतीय खाना आसानी से मिलता है और बहुत लोकप्रिय भी है। न्यूजीलैंड में भारतीयों के स्वामित्व वाले बहुत से रेस्टारेंट हैं।

आकलैंड में कई संग्राहलय, आर्ट गैलरी वगैरह हैं, पर न्यूजीलैंड जाने वाले अधिकांश पर्यटकों क लिए सांस्कृतिक पर्यटन उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना प्राकृतिक सौंदर्य और जोखिम भरे खेल पर्यटन। हां, माओरी संस्कृति को देखने समझने का अवसर देने वाले संग्रहालयों और संस्थाओं की महत्ता नकारी नहीं जा सकती, जिन्हें देखे बिना इस देश की यात्रा अधूरी रहेगी।

न्यूजीलैंड शाम के साढ़े सात बजे खा-पीकर, आठ बजे तक सो जाने वाला देश है। डेयरी फार्मिंग, विश्वप्रसिद्ध मैरिनो भेड़ों की ऊन और खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश में पर्यटन भले आमदनी का महत्वपूर्ण स्रोत हो, पर न्यूजीलैंड आने वाले पर्यटक ‘नाइटलाइफ’ की तलाश में नहीं आते। न्यूजीलैंड की पहाड़ी ढलानों पर उतरती हुई तेज गति वाली नदियों में वाइट वाटर रैफ्टिंग और जेटबोट की सैर रोमांचक होती है। पर्वतारोहण बर्फीली ढलानों पर स्कीइंग और आइस स्केटिंग ऊंचाइयों की तरफ उन्हें बुलाते हैं और इन सबसे जिनका मन न भरा हो वे बंगीजंपिंग यानी मजबूत रस्से से किसी पुल आदि से अपने पैर बांधकर ऊंचाइयों से किसी गहरे खड्ड में कूद पड़ने का जोखिमभरा खेल खेलने निकल पड़ते हैं। बंगीजंपिंग का तो आविष्कार ही न्यूजीलैंड में हुआ था।

आकलैंड में अगले दिन एकाध रूटीन दर्शनीय स्थानों को देखने के बाद हम कार से रोटोरुआ के लिए रवाना हो गए। वहां कार से पहुंचने में डेढ़ घंटा लगता है। रोटोरुआ ज्वालामुखी पर्वतों से निकले हुए लावा के पठार पर स्थित एक अद्भुत जगह। वहां गंधक के गर्म पानी के सोतों और बुद-बुद ध्वनि के साथ कीचड़ के कुंड से उठती भाप और रह-रह कर क्रोधित सांड़ के नथुनों से निकलने वाली गर्म फुफकार जैसी गर्म फुहारें देखने के लिए दुनिया भर से दर्शक आते हैं। पोहुटू नामक गर्मपानी का फव्वारा (गीजर) तो हवा में तीस मीटर तक की ऊंचाई तक अपनी फुहार उछाल देता है।

पथरीली चट्टानें भूमि के नीचे की गर्मी से तप रही थीं। ऐसी जगहों में जाकर ही मानव ने नरक की परिकल्पना की होगी। पर रोटोरुआ के इन नजारों में भी एक अनूठी खूबसूरती थी। नरक अगर कहीं हैं तो किसी-न-किसी कोण से शायद वह भी इतना ही खूबसूरत होगा।

वहां एग्रोड्रोम में विश्वप्रसिद्ध मैरिनो ऊन वाली भेंड़ के अतिरिक्त कई अन्य प्रजातियों की भेड़ों और उनकी रखवाली करने वाले शीप डोंग के मनोरंजक करतब देखने को मिले और साथ ही देखने को मिला कि भेंड़ से ऊन उतारने की मशीन चलाने में भी मानव मांसपेशियां कितना महत्वपूर्ण रोल आदि करती हैं। रोटोरुआ न्यूजीलैंड में हर पर्यटक के लिए अपरिहार्य आकर्षण है। कारण है उसका माओरी संस्कृति की विरासत के अध्ययन और प्रदर्शन का मुख्य केंद्र होना। माओरी न्यूजीलैंड की आदिम जनजाति है। वैसे इनके उद्गम के स्रोत भी हाइटी, रिपोनुई, आऊतीयारोरा आदि पोलिनेशियाई द्वीप थे, जहां से सैकड़ों वर्ष पूर्व जाने कितने संघर्ष और साहस के साथ पेड़ों के खोखले तनो से बनी डोंगियों और बेड़ों के भरोसे लंबी समुद्र यात्राएं करके वे न्यूजीलैंड पहुंचे थे। रोटोरुआ क्षेत्र की उष्ण और भारी बारिश वाली जलवायु में इन्हें अपने आदि स्थान जैसी जलवायु मिली होगी। इसलिए वे सबसे पहले यहीं बसे थे।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध अंग्रेज धर्मप्रचारक यहां आए। पाश्चात्य सभ्यता के आग्नेय अस्त्रों के आगे बेचारी जनजातियां कैसे टिकतीं। फिर भी आरंभिक जनसंहार में माओरियों के पूरी तरह लुप्त हो जाने से पहले ही उन निर्दय आक्रमकों के मन में भी करुणा उपजी। वाईतोंगो संधि के बाद माओरी जाति का संहार बंद हो गया। आज उनकी संख्या न्यूजीलैंड की जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत है। माओरी भाषा और संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन के लिए अब वहां की सरकार प्रतिबद्ध है। नतीजतन विश्वविद्यालय स्तर तक माओरी भाषा का अध्ययन होता है और माओरी भाषा में दो-दो टीवी चैनल कार्यक्रम दिखाते हैं। रोटोरुआ के माओरी संग्रहालय में हमने भी माओरी संस्कृति की झांकियां देखीं।

तामाकी माओरी ग्राम में उनके बुनाई, पाककला और काष्ठकला का प्रदर्शन भी देखा। माओरी काष्ठकला में चटक सिंदूरी, भगवा और हरे रंगों में रंगे हुए टोटम पोल, तोरणद्वार और कुटिया देखने योग्य होती हैं। पर सबसे जोरदार प्रदर्शन रहा माओरी वार डांस-हाका का जिसने हमें अपने केरल के बेहद ओजस्वी कलारीपट्ट नृत्य की याद दिला दी। आज भी न्यूजीलैंड की क्रिकेट टीम मैदान में उतरने से पहले हाका की टेर लगाती है। माओरी भाषा और संस्कृति के लुप्त होने से बचाने का एक प्रभावशाली तरीका यह भी दिखा कि शहरों के नाम तो आकलैंड, वेलिंगटन और क्विंसलैंड जैसे हैं। पर नदियों, झीलों, पर्वतों, ग्रामों वगैरह के मूल्य माओरी नाम ही प्रचलित हैं। जैसे वाकरेवारेवा, रोटोरुआ, ताईपाओ और वाईतोमो वगैरह हैं। वाईतोमो वह विश्वप्रसिद्ध जगह है जहां एक भूमिगत जलस्रोत वाली कंदरा में लाखों जुगनुओं को उसकी छत पर आकाशगंगा की तरह जगमगाते देखा जा सकता है। गुफा के अंदर उतरने में पूर्ण निस्तब्धता बनाए रखनी पड़ती है। सीढ़ियों से उतरने के लिए बैटरी वाली लालटेन मिलती है जिन्हें जुगनुओं तक पहुंचने से पहले बुझा दिया जाता है। तब दिखती है धरती पर उतरी हुई व्योमगंगा। गुफा के अंदर बहने वाली जलधारा में नौका में बैठकर गुफा की छत पर तारों के नीराजन जैसे इस दृश्य की मनमोहक सुंदरता आजीवन याद रहने वाली चीज हैै।

हमारा अगला पड़ाव था क्राइस्ट चर्च शहर। अफसोस कि क्राइस्ट चर्च जिस भव्य गिरजाघर के नाम से जाना जाता है वह कुछ वर्ष पहले आए भयानक भूकंप में बहुत क्षतिग्रस्त हो गया। पूरे शहर में पुनर्निर्माण के कार्य में लगे हुए सुदूर देशों के श्रमिक देखने को मिले। न्यूजीलैंड के अपने सुशिक्षित और सुयोग्य युवा अधिक समृद्धि शाली पड़ोसी आस्ट्रेलिया और सुदूर अमेरिका जाने के चक्कर में दिखे। वैसे तो क्राइस्ट चर्च में बहुत से रमणीक उद्यान हैं पर उनके पूरे निखार का सौंदर्य हमने सितंबर के महीने वाली अपनी यात्रा में देखा था। इसलिए हम अगले ही दिन क्वींसलैंड के लिए रवाना हो गए। रास्ते में फेंजजोसेफ के पर्वतीय पर्यटन स्थल में ग्लेशियर भी देखना था। पर चलने के पहले ही टीवी पर चेतावनी मिली कि उत्तरी द्वीप में भयंकर चक्रवात आ रहा था। उसका मुख्य असर हमारे रास्ते से कुछ सौ किलोमीटर दूर तक होगा। पर हमारा रास्ता भी अछूता नहीं बचेगा। विचित्र स्थिति थी। हमने मनाया कि मौसम वैज्ञानिक हमेशा की तरह गलत साबित हों और चल दिए राम का नाम लेकर। पहले सौ किलोमीटर तो हल्की वर्षा हुई। फिर उसने वेग पकड़ा। अगले सौ किलोमीटर पूरे होने के पहले ही हवा ने तूफानी रफ्तार पकड़ ली। सड़क के सूनेपन पर अब तक हम फिदा थे। उसी से अब खीझ होने लगी। राष्ट्रीय राजमार्ग होते हुए भी यातायात नगण्य था। न्यूजीलैंड में शहरों की छोड़िए, गांवों के बीच भी मीलों का फासला होता है। ऐसे में मौसम से जूझते हुए हम एक लक्ष्मण झूले सरीखे हैंगिंग ब्रिज तक पहुंचे। राष्ट्रीय राजमार्ग पर इस तरह के पुल क्यों थे, पता नहीं। शायद यातायात कम होने, नदियों के आधिक्य और आर्थिक कमजोरी के कारण पक्के पुल न बनाए गए हों। जो भी हो, उस पुल के पास पहुंचे तो उसे तूफानी हवाओं के प्रहार से धड़-धड़ करके कूदते-फांदते देखा।


न्यूजीलैंड की झीलन्यूजीलैंड की झीलप्रवेश पर खड़ी पुलिस की लालबत्ती वाली गाड़ी ने बताया कि पुल अगले दिन सुबह निरीक्षण के बाद उपयोग योग्य घोषित किया जा सकेगा। रात घिर आई थी। मीलों तक किसी आश्रय का अता पता नहीं था। जब तक हम सोच पाते कि क्या करें हमारे पीछे-पीछे अगले दस मिनटों में पांच सात कारें और आ गईं। पुलिस वाले ने बताया कि पंद्रह मील पीछे जाने पर एक बी एंड बी (बेड एंड ब्रेकफास्ट) मिलेगा पर उसमें तीन चार कमरे ही थे। पूरे क्षेत्र में बिजली भी फेल हो गई थी। और कोई चारा न था। हम वापस लौटे तो हमारे साथ उन सब कारों के लगभग पंद्रह और यात्री थे। जहां आश्रय ढूंढने हम पहुंचे वहां के तीन कमरे पहले ही भरे हुए थे और एक में मालिक और उसकी पत्नी थी। अंधेरा फैला हुआ था। खाने का कोई प्रबंध नहीं था। फिर भी उस होटलवाले की सहृदयता हमें आजीवन याद रहेगी। उसने हर कमरे में और रसोईघर तक में फर्श पर गद्दे बिछाए और तीन सोफा सेट भी उपलब्ध कराए। ओढ़ने के लिए खिड़कियों के परदे उतार दिए। खाने के लिए सबको एक-एक ब्रेड और बिस्कुट के दो-दो पैकेट दिए और हम सबके बीच दो तीन मोमबत्तिां बांट दी। रात हमने किसी तरह कुड़कुड़ाते हुए काटी। अगले चार घंटों में तूफान शांत हो गया।

सुबह हमने बिल अदा करने की कोशिश की तो उसने कहा मैं अपने कमरों का किराया पहले आए हुए लोगों से ले चुका हूं। रहा सवाल ब्रेड और बिस्कुट का। इनका क्या दाम लूं। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न था। केदारनाथ में बादल फटने पर सुना एक-एक रोटी मुंह मांगे दाम पर बिकी थी।

चल पड़े तो पुल खुला हुआ मिला पर सड़क दर्जनों पेड़ों के गिरने से अवरुद्ध थी। अगले सौ किलोमीटर तक की सड़क दो घंटों में साफ कर दी गई। एक पुरुष ड्राइवर और एक लड़की की टीम ने दो घंटों में लगभग बीस धराशयी पेड़ हटा दिए।

क्वींलैंड पहुंचकर हमने एक पूरा दिन मिल्फोर्ड साउंड की अद्भुत सुंदर झील-इनलैंड समुद्र में दिन भर क्रूज पर बिताया, जिस पर खाने पीने का भी चारसितारा प्रबंध था। नियाग्रा प्रपात की फुहार में जो लोग बड़ी नाव में जाकर भीगने का आनंद ले चुके हों उनके लिए आनंद के अगले सोपान पर चढ़ने का अद्भुत अवसर था यह। यात्रा के अंतिम चरण में हमने क्वीसलैंड की झीलों के अलावा सौ वर्ष पहले सोने की खानों में काम करने वाले खनिकों का एक शांत स्वप्निल गांव ग्लेनाका देखा। वहां पहुंचाने वाली वाकाटीपू झील के किनारे चलने वाली अड़तालीस किलोमीटर लंबी सड़क यात्रा विश्व की अतिदर्शनीय सड़क यात्राओं में से एक मानी जाती है।

अगले दिन जब हम सिडनी के लिए रवाना हुए तो मन यही कहता रहा कि कामदेव भी फूलों के इस देश में पतझड़ का सौंदर्य देख लेते तो केवल फूलों से ही नहीं, पतझड़ के उन रंगीन झरते हुए पत्तों से भी शरसंधान करते।

ईमेल : arungraphicsverma@gmail.com
 

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Post By: Shivendra
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