फूड बैंक की स्थापना से क्या हासिल होगा

इन योजनाओं के व्यापक फलक के बावजूद देश में अधिकाधिक गरीब भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। यूनिसेफ के अनुसार कुपोषण से भारत में रोजाना पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। यदि गहराई से देखा जाए तो अनाज भण्डारण की केंद्रीकृत व्यवस्था के कारण ही एक ओर अनाज का पहाड़ खड़ा है तो दूसरी ओर भुखमरी से मौतें हो रही हैं। इसकी जानकारी हमें रमेश कुमार दुबे दे रहे हैं।

सैम पित्रोदा के प्रयासों से दिल्ली फूड बैंक की स्थापना के साथ ही भारत में इंडिया फूड बैंकिंग नेटवर्क का आगाज हो गया। दरअसल इंडिया फूड बैंकिंग नेटवर्क शिकागो स्थित ग्लोबल फूड नेटवर्क (जीएफएन) का भारतीय चैप्टर है। जीएफएन की स्थापना 2006 में अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको और अर्जेंटीना के चार राष्ट्रीय फूड बैंकों ने की थी। यह विश्व भर में लोगों से खाद्यान्न दान में लेकर फूड बैंक बनाता है ताकि दुनिया के माथे पर से भुखमरी का कलंक मिटाया जा सके। दुनिया के तीस देशों में इसने फूड बैंक बना रखे हैं जिनके जरिए गरीब व जरूरतमंद लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है। इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी बॉय फोर्नी हैं और निदेशक बोर्ड में बीस सदस्य हैं जिसमें भारत के प्रधानमंत्री के विशेष सलाहकार सैम पित्रोदा भी हैं।

सैम पित्रोदा 2020 तक भारत से भुखमरी समाप्त कर देने के उद्देश्य से देश भर में फूड बैंक खोलने की योजना पर काम कर रहे हैं। दरअसल फूड बैंक अनाज आदि का दान करने वाले और भूख से जूझ रहे लोगों के बीच कड़ी का काम करता है। भारत में ऐसे प्रयासों की सुदीर्घ परंपरा रही है। 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत देश भर में 50 क्षेत्रीय खाद्यान्न बैंक स्थापित करने की योजना बनी थी, लेकिन संसाधनों की कमी के कारण योजना को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका।

दरअसल, भूख और कुपोषण मिटाने की सरकारी योजनाओं की विफलता ही फूड बैंकों की स्थापना के लिए मजबूर कर रही है। इस समय केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा गरीबी व भुखमरी उन्मूलन की 22 योजनाएं चल रही हैं। इन योजनाओं के व्यापक फलक के बावजूद देश में अधिकाधिक गरीब भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। यूनिसेफ के अनुसार कुपोषण से भारत में रोजाना पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा तैयार किए गए वैश्विक भूख सूचकांक के आधार पर 88 देशों को सूची में भारत का 67वां स्थान है। भारत का कोई भी राज्य कम भूख या सहनीय भूख की श्रेणी में नहीं आता।

यदि इस व्यवस्था को एक बार फिर लागू कर दिया जाए तो न केवल भंडारण बल्कि भुखमरी की समस्या का भी समाधान हो जाएगा। इससे गेहूं, चावल की देशव्यापी परिवहन लागत में भी कमी आएगी। फूड बैंकों की स्थापना इसलिए भी जरूरी है कि आर्थिक विकास के चढ़ते आंकड़ों से गरीबी की स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है।

यदि गहराई से देखा जाए तो अनाज भण्डारण की केंद्रीकृत व्यवस्था के कारण ही एक ओर अनाज का पहाड़ खड़ा है तो दूसरी ओर भुखमरी से मौतें हो रही हैं। आज से दस साल पहले (2002 में) भी एक ओर गोदामों में अनाज सड़ रहा था तो दूसरी ओर उड़ीसा के गरीब आदिवासी आम की गुठली खाकर मौत के मुंह में जा रहे थे। सरकार ने उस घटना से कोई सबक नहीं सीखा उसी का परिणाम है कि एक ओर गेहूं की रिकार्ड तोड़ सरकारी खरीद से सरकार के हाथ-पांव फूल रहे हैं तो दूसरी ओर 32 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो पा रहा है। इन दस वर्षों में सरकार ने न तो भंडारण क्षमता में बढ़ोत्तरी के ठोस उपाय किए और न ही वितरण तंत्र में सुधार किया। हां उसने भंडारण क्षमता में बढ़ोत्तरी के दावे जरूर किए।

उदाहरण के लिए पिछले तीन साल से सरकार भंडारण क्षमता में 1.50 करोड़ टन बढ़ोत्तरी करने का दावा कर रही है लेकिन हैरानी की बात यह है कि 2012 तक मात्र 89 लाख टन क्षमता के गोदामों के टेंडर फाइनल किए गए हैं। इन गोदामों के तैयार होने में अभी कई साल लगेंगे। सरकार ने चीन की भांति 20 लाख टन क्षमता वाले आधुनिक गोदाम (साइलोज) बनाने की भी घोषणा की है लेकिन उसके लिए कोई तैयारी नहीं दिख रही है।

भंडारण क्षमता बढ़ाने में सरकार की नाकामी ने ही खाद्यान्न बैंकों को प्रासंगिक बना दिया है। गौरतलब है कि पहले हर घर में अनाज भंडारण के लिए कोठार आदि के साथ-साथ भण्डारण की समुदाय आधारित विकेंद्रित व्यवस्था भी थी। यदि इस व्यवस्था को एक बार फिर लागू कर दिया जाए तो न केवल भंडारण बल्कि भुखमरी की समस्या का भी समाधान हो जाएगा। इससे गेहूं, चावल की देशव्यापी परिवहन लागत में भी कमी आएगी। फूड बैंकों की स्थापना इसलिए भी जरूरी है कि आर्थिक विकास के चढ़ते आंकड़ों से गरीबी की स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है। उल्टे आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की नीतियों की सफलता के दावों के बावजूद बीते दशक के दौरान गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुई है।

(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

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