सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट, कहानीकार, उपन्यासकार, कवि और अब एक्टिविस्ट डब्बूजी यानी आबिद सुरती इन दिनों पानी बचाने की रचनात्मक मुहिम में लगे हैं। उनके नजरिये से यह सृजनधर्मिता का वास्तविक दाय है। अपने में समूचे समय और विशद अनुभवों को समेटे डब्बूजी एक खुली किताब की तरह हैं। यहाँ प्रस्तुत है संजय सिंह से हुई विस्तृत बातचीत के प्रमुख सम्पादित अंश-
अपने शुरुआती जीवन के बारे में कुछ बतायें।
देश के विभाजन से पहले हमारा परिवार सूरत शहर में था। वहीं पर मेरा जन्म 1935 में हुआ था। मेरे परिवार पर पहला हादसा मेरी पैदाइश के बाद हुआ था, जब हम करोड़पति से सड़क पर आ गए थे। मेरे दादा का शिपिंग का कारोबार था। एक के बाद एक जहाज डूबने लगे। हम हवेली से फुटपाथ पर आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था। हमारा कुनबा माइग्रेट करके बॉम्बे (अब मुम्बई) आ गया। देश उस समय विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था। मुसलमान यहाँ से जा रहे थे। पर मेरी दादी नेशनलिस्ट थीं और गाँधी जी के साथ जुड़ी थीं। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के बीच चरखा मूवमेंट शुरू किया था।
दादी की जिन्दगी की कमाई यह थी कि जब डांडी कूच के लिये गाँधी जी चले तो सुबह 4-5 बजे सूरत से गुजरने वाले थे। उन्हें देखने और स्वागत करने के लिये रात-रात भर लोग जागे। दादी भी खड़ी थीं। दादी ने कहा कि गाँधी जी तो चल रहे थे, लेकिन लोग पीछे दौड़ रहे थे (गाँधी जी बहुत तेज चलते थे)। सारे हिन्दुओं की दौड़ में एक मुस्लिम महिला खड़ी थी। उनको ब्रेक लग गया। गाँधी जी आए और 10 सेकेंड तक हाथ जोड़े खड़े रहे। बहरहाल… मेरा जो कुनबा सूरत से मुम्बई आया पाकिस्तान जाने के लिये, दादी ने कहा कि मैं इस माटी में मरूँगी। दादी रुकीं तो हम दस लोग रुक गए। पर 20-25 लोग चले गए। मुम्बई में घर के नाम पर हमारे पास किराये पर एक छोटा कमरा था। उस वक्त मेरी उम्र सात साल थी। पैसे तो थे नहीं। मम्मी करोड़पति की बहू थीं पर वक्त की मार देखिए कि घर-घर पड़ोस में बर्तन मांजती थीं। उन्होंने एक-एक पैसा जोड़कर मुझे कक्षा दस तक पढ़ाया। फिर बोलीं कि अगर आगे पढ़ना है तो काम करो।
जब हम फुटपाथ पर थे, तो हमलोग यानी छह सात बच्चों का गैंग भीख माँगने निकल जाता था। डॉकयार्ड में एक ट्रेन रुकती थी, दरअसल, वो द्वितीय विश्व युद्ध की सैनिक ट्रेन होती थी, जो वीटी स्टेशन तक जाती थी। बहुत स्लो चलती थी। उसमें ब्रिटिश-यूएस सैनिक होते थे। हम उनसे डॉलर और ब्रेड माँगते थे। एक दिन एक सैनिक ने एक कॉमिक्स फेंक दी। उस पर हम सब झपट पड़े। मेरे हाथ में एक पन्ना आया। पन्ना देखकर लगा कि इसे तो मैं भी बना सकता हूँ। नकलकर 100 के करीब कार्टून बना डाले। और यहाँ से मैं कार्टूनिस्ट बन गया स्कूल डेज में। पर कार्टून कहाँ बेचूँ यह समझ में नहीं आ रहा था।
पॉकेट कार्टून लक्ष्मन से पहले मैंने बनाया। तब मैं स्काउट में था। साल में एक दिन ‘खरी कमाई डे’ मनाया जाता था। उस डे में होता यह था कि सभी स्काउट वाले अपनी मेहनत की कमाई ही खाएँगे। वह शायद 1952-53 का वक्त रहा होगा। कोई फ्लावर बनाता था, तो कोई शू पॉलिस करता था। मुझे अपना कार्टून बेचने का ख्याल आया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार के दफ्तर में कार्टून बेचने के लिये गया। केबिन में धक्का मारकर घुस गया। जल्दी से अपने कार्टून्स को एडिटर के टेबल पर रख दिया। एडिटर देखकर मुस्कराए। उन्हें कार्टून पसन्द आया। इस तरह मेरा पहला कार्टून ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपा। बेसिकली आई एम अ पेंटर। पेंटर सर्विस करने के लिये कार्टून और राइटिंग भी करना पड़ा।
‘कार्टून कोना ढब्बू जी’ कैसे साकार हुआ?
ढब्बू जी को मैंने ओरिजनली गुजराती में शुरू किया था। वीकली पत्रिका चेत मछन्दर (नाथ सम्प्रदाय के गुरु गोरखनाथ से सम्बन्धित) में फ्रीलान्सिंग शुरू की तो निगेटिव मैसेज आने लगे। सम्पादक ने कहा कि बन्द करो। मैंने कहा दो-तीन माह तो देखो। पर दूसरे माह और गाली आने लगी। उसी समय बच्चों की पराग पत्रिका में डॉ. चिन्चू के चमत्कार बनाता था। वो पॉपुलर हो गया। डॉ. धर्मवीर भारती उस वक्त ‘धर्मयुग’ पत्रिका के सम्पादक बनकर आए तो उन्होंने कार्टून के लिये बड़े-बड़े नाम ट्राई किए। सब फेल हो गए। मुझे जब बुलावा आया तो तीन माह का गुजराती वाला कार्टून लिपि बदलकर उन्हें दे दिया। ‘धर्मयुग’ में एक माह में ही वह कार्टून (कार्टून कोना-ढब्बू जी) चल पड़ा।
आप कार्टूनिस्ट हैं...चित्रकार हैं। कथाकार, उपन्यासकार, कवि और नाटककार हैं। एक्टिविस्ट भी हैं। इतनी विधाओं में एक साथ काम कैसे कर लेते हैं?
दिमाग की सेटिंग अगर आप कर लो तो सारी विधाओं पर काम कर सकते हैं। दिमाग के दराज में सब कुछ है। जो चाहा, वो दराज खोल लिया। उपन्यास लिखने का मन किया तो वही दराज खुला। पहले तो एक महीने में 10 लिख लेता था। अब एक ही हो जाए तो बहुत है।
पानी की एक-एक बूँद बचाने के लिये जनता को जागरूक करने के लिये जो आपने ‘ड्रॉप डेड फाउंडेशन’ बनाई है, उसके बारे में कुछ बताएँ
‘ड्रॉप डेड फाउंडेशन’ वनमैन एनजीओ है। एनजीओ का मतलब ऑफिस, तामझाम और स्टाफ। पर मैं अकेले करता हूँ। यह उन पर थप्पड़ है। मुझे एसी कमरा नहीं चाहिए। पानी की किल्लत हमने बचपन से झेली है। एक-एक बाल्टी पानी के लिये लड़ाई हुई है। ‘वन ड्रॉप सिनेमा’ नामक कम्पटीशन एनाउंस किया था फेसबुक पेज पर। एक मिनट की फिल्म बनाओ, पानी बचाओ आन्दोलन पर। प्रथम, द्वितीय और तृतीय इनाम भी रखा। यह क्रमशः एक लाख, 50 हजार और 25 हजार रुपये का था। निर्णायक मंडल में जूही चावला भी थीं। 100 के आस-पास प्रविष्टियाँ आईं। जूही ने पाँच हजार के पाँच-पाँच इनाम इम्प्रेस होकर एनाउंस कर दिए।
इस आन्दोलन के तहत आप क्या करते हैं, लोगों को कैसे जागरूक करते हैं?
प्रत्येक सोमवार के दिन मुम्बई में किसी एक बिल्डिंग को टार्गेट करते हैं। सोसाइटी सेक्रेटरी से अनुमति लेकर सभी घरों के नलों को चेक करते हैं और जिसमें पानी टपकता मिलता है, उसे ठीक करते हैं। यह काम मैं खुद भी करता हूँ। टार्गेट की गई बिल्डिंग या सोसाइटी के घरों में शनिवार को ही पानी की बूँद बचाने से सम्बन्धित लिटरेचर वाला फोल्डर भेज देता हूँ। उसके पहले पोस्टर भी लगाते हैं। अब यह आन्दोलन का रूप ले चुका है।
बहुत कुछ आप करते रहते हैं!
क्या कुछ बाकी रह गया है?
एक प्रोजेक्ट लॉच किया है अभी जो मरते दम तक चलेगा- ‘सेव वॉटर : सेव गॉड’। उसके लिये पोस्टर बना रहा हूँ। पोस्टर में पैगम्बर मोहम्मद साहब के उस कोटेशन का जिक्र किया हूँ, जिसमें उन्होंने कहा है, ‘नहर के किनारे भी बैठे हैं, तो एक बूँद पानी भी जाया नहीं करना है।’ सारे मस्जिदों में पोस्टर लगा दिए। दुनिया भर में एक बिलियन मस्जिद, मन्दिर, गिरजाघर और गुरुद्वारों को कवर करने का लक्ष्य है। हिन्दू लोगों के लिये अलग पोस्टर बना रहा हूँ, जिसमें गणेश भगवान कह रहे हैं कि पानी नहीं होगा तो हमारा विसर्जन कहाँ होगा?
आपने पिछले सालों आई एक फीचर फिल्म ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ के निर्माता पर कोर्ट केस किया था। उसके पीछे क्या वजह थी?
‘अतिथि तुम कब जाओगे’ मेरे नॉवेल ‘72 साल का बच्चा’ को चुराकर बनाई गई है। कोर्ट में केस चल रहा है तीन साल से।
इस उम्र में भी आप इतने स्वस्थ, चुस्त-दुरुस्त और फुर्तीले हैं। इसका राज क्या है?
(हँसते हुए) बचपन में मेरे सारे दोस्त बूढ़े थे। इस उम्र में टीन एजर हमारे दोस्त हैं। उनसे एनर्जी (Suck) करता हूँ। ‘हंस’ में मेरी कहानी ‘कोरा कैनवास’ छपी थी, जो मेरी ट्रू लाइफ पर थी। उसे पढ़कर समझा जा सकता है कि मेरे अन्दर अभी भी एक बच्चा ही है।
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