प्रकृति ने पौधों की सुरक्षा व वृद्धि के लिए जमीन में नाना प्रकार के सूक्ष्म जीवों को दिया है। ये सूक्ष्म जीव जमीन की उर्वराशक्ति के द्योतक हैं। जमीन की उपरी सतह (लगभग 1.5 फुट तक की गहराई) में जड़ों के आस-पास के क्षेत्र में ये सक्रिय रहते हैं और पौधे की सुरक्षा व वृद्धि में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
इन लाभकारी सूक्ष्म जीवों में राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरीयलम, एसीटोबैक्टर वायुमंडल से निष्क्रिय नाइट्रोजन को लेकर नाइट्रेट/नाइट्राइट में बदल कर पौधों को देते हैं तो पी.एस.बी. (फास्फेट सोलबिलाइजींग बैक्टीरिया) अघुलनशील फास्फेट को घोल कर पौधों को प्रदान करता है। पी.जी.पी.बी. (प्लांट ग्रोथ प्रोमोटिंग रिजोबैक्टिरिया) एक विशेष प्रकार की जाति का बैक्टीरिया है जो कि जड़ों के आस-पास के क्षेत्र में क्रियाशील रहता है। यह पौधों की बढ़वार में सहायक होता है। प्रकृति के इन सूक्ष्म जीवों में आपस में कोई रस्साकसी नहीं होती। सभी इकट्ठे रहते हुए इकट्ठे कार्य करते हैं और सभी पौधों के प्रति हितकारी कार्य करते हैं। इसी शृंखला में माइकोराइजा नाम की फफूंदी भी होती है जो कि राइजोबियम की तरह जड़ के अंदर रहकर मुख्यत: जड़ों के आस-पास के क्षेत्र में अघुलनशील फास्फेट को घोल कर पौधों को देती है और अपने जीवन के निर्वाह के लिए पौधे से कार्बोहाइड्रेट प्राप्त करती है। लगभग 20 साल के निरंतर व गहन अनुसंधान करने के पश्चात् पहले टाटा इनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट नाम से जाने वाली अनुसंधान संस्थान द्वारा आज माइकोराईजा को बनाने की तकनीक विकसित की गई। इसी संस्था के तीन नीजी संस्थानों – कैडिला (गुजरात, 70 टन), के.सी.पी. शुगर इंडस्ट्रीज एंड कारपोरेशन, (वयूर, आन्ध्र प्रदेश, 250 टन) एवं मैजेस्टीक एग्रोनोमिकस प्रा.लि. (ऊना, हिमाचल प्रदेश, 1400 टन) प्रतिवर्ष माइ को राईजा बना रहे हैं और किसानों को उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
इसी अनुसंधान की शृंखला में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली जिसे पूसा संस्थान के नाम से जानते हैं, के वैज्ञानिकों ने भी काफी अच्छा अनुसंधान किया और पैथोलोजी विभाग की भूतपूर्व अधयक्ष डा. विनिता सेन ने अपने कार्यकाल में एक नई फफूंदी को प्राप्त किया जिसका नाम एसपरजीलस नाईजर है, इस पर गहन व सम्पूर्ण अधययन करके इसे व्यावसायिक स्तर पर तैयार करने की टेक्नोलोजी/प्रोद्योगिकी पहली बार छह साल पूर्व कैडिला को बेची। यमुना के पुस्ते के साथ सब्जियों के खेती करने वाले किसानों के खेतों से खीरा जाति के पौधों की जड़ों के आस-पास के क्षेत्र से इस फफूंदी की खोज की गई। वैसे तो यह फफूंदी प्राय: वर्षा काल में घरों की दीवारों पर काले काले चक्कतों के रूप में देखने को मिल जाती हैं और यह फफूंदी टी.बी. जैसी बिमारी फेफड़ों में पैदा कर देती है परन्तु पौधों को लाभ पहुंचाने वाली यह फफूंदी इसी परिवार की है जिसे प्रो. विनिता सैन ने ”काली सेना” का नाम दिया क्योंकि जब यह फैलती है तो पूरी फौज की तरफ फैलती है। इस फफूंदी में न केवल जैविक खाद के गुण हैं, बल्कि इसमें विशेषत: जैविक फफूंदी विरोधक गुण भी मौजूद हैं और अनेक प्रकार का नुकसान पहुंचाने वाली जमीन की फफूंदियां जैसे फीथियम, फ्यूजैरियम, राइजोक्टीनिया, स्कैलीरोटीना, मैकरोफोमीना आदि को समाप्त करती है। यह बीजों के जल्दी अंकुरित होने में सहायक है, पौधों को अधिक मजबूत/सुदृढ़ बनाती है और अधिक उपज में सहायक है। बीज में गलन, जड़ गलन, वील्ट, चारकोल गलन और अन्य प्रकार के रोगों से पौधों को मुक्त रखती है।
सभी प्रकार के पेड़-पौधों में इसका बहुत लाभ देखा गया है। केवल मूंगफली व सूरजमुखी के पौधों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता है। इन सभी अनुसंधानों में वैज्ञानिकों को लगभग 15 वर्ष लगे और अब कैडिला नाम की कम्पनी इसका व्यावसायिक उत्पादन कर रही है। परन्तु उसके द्वारा तैयार माल तो गुजरात के कुछ क्षेत्र में ही खप जाता है। यह जैविक खाद भारत के हर प्रांत में उपलब्ध हो और हर किसान इसका प्रयोग कर सके, इसके लिए कई उद्योगपतियों को यह प्रोद्योगिकी आई.ए.आर.आई. से खरीदनी होगी और अपने अपने क्षेत्रों में इसका अपनी क्षमता के अनुसार उत्पादन करके किसानों तक पहुंचाना होगा। इसकी प्रोद्योगिकी लेने के लिए निदेशक, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली-110012 से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है।
काली सेना से पौधों की उपचार विधि:
कालीसेना एस.डी. -
(क) बीज उपचार के लिए -
मात्रा : बोने के तुरन्त पहले 8 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज। बीज को प्लास्टिक अथवा कागज पर फैला लें। बीज को थोड़ा गीला करने के लिए पानी का छिड़काव करें (ज्यादा नहीं)।
इन बीजों पर सही मात्रा में कालीसेना एस.डी. छिड़कें और हाथ से अच्छी तरह मिला लें। मिलाने के तुरन्त बाद (दो घंटे के अंदर ही) बीज बो दें।
(ख) पौधे और कटिंग के जड़ों को डुबोने के लिए (मात्र 8 ग्राम लीटर पानी)
खेत में पौध रोपाई करने के तुरन्त पहले जड़ों को इस घोल में डुबो लें। घोल 2 घंटे तक 2-3 गुच्छे पौधों के लिए दुबारा प्रयोग किया जा सकता है। घोल को काठी के बीच-बीच में हिला लें।
काली सेना एस.एल. खेतों के लिए -
उपचार से पहले इसको 7 से 10 दिन तक गोबर की खाद में 20 ग्राम प्रति मिट्रिक टन की दर से मिलाकर रखना पड़ता है।
गोबर की खाद का ढेर (6 फुट, 3 फुट, 1 फुट ऊंचाई) बनाएं।
ढेरों पर थोड़ा सा पानी का छिड़काव करें जिससे नमी बनी रहे।
ढेरों को प्लास्टिक या तिरपाल से ढक कर रखें।
ढेर अगर छांव में न हो तो प्लास्टिक के ऊपर कागज ढक दें, जिसमें खाद का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जाये।
ढेरों को हर तीसरे दिन फावड़े से अच्छी तरह मिलाएं, जिससे कालीसेना की बढ़त ठीक ढंग से हो। ढेर को हर बार ढक दें।
यह स्पेशल कालीसेना मिश्रित खाद 10 दिन बाद खेतों में डालने के लिए तैयार हो जायेगी।
खाद डालने की मात्रा -
पौधशाला (नर्सरी) हेतु:
1 किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर मिट्टी की उपरी (6 सेंटीमीटर) सतह में बीज बोने के 7 से 10 दिन पहले मिलायें।
खेतों (गेहूं, चना, अरहर, सरसों, मक्का, मूंग, सब्जियां इत्यादि) के क्यारियों पर 500 ग्राम प्रति मीटर बीज बोने के 7 दिन पहले डालें। जो फसलें दूरी पर बोई जाते हैं जैसे खरबूज, तरबूज, खीरा, लौकी, भिंडी, बैंगन इत्यादि, उनमें बुआई या रोपाई के हर जगह पर 200 ग्राम से 300 ग्राम डालें। बुआई/रोपाई से 7-10 दिन पहले डालना बेहतर होगा।
फलों के बगीचों में रोपाई के 15 दिन पहले हर गढ्ढे पर 10 किलोग्राम उपरी 6 सेंटीमीटर में मिलाएं।
वृक्षों के लिए तनों से एक फुट दूरी में 6 सेंटीमीटर गहरी खाई बनाएं और उसमें चारों ओर से 10 किलोग्राम डालें।
फसल उत्पादन पर प्रभाव :
मूंगफली एवं सूरजमुखी को छोड़ कर प्राय: सभी प्रकार की फसलों पर इस जैविक खाद व जैविक फफूंदीनाशक के बहुत ही अच्छे परिणाम आए हैं। इसमें 92 प्रतिशत तक रोग से मुक्ति दिलाने की क्षमता हैं (गोभी में डैम्पींग आफ), 95 प्रतिशत तक की कमी उन सभी सूक्ष्म जीवाणुओं की जो जमीन में रोग पैदा करते हैं (फयू. आक्सीसपोरम मैलोनिस) और इन सभी के कारण फसल उत्पादकता 37 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इस तरह से यह न केवल रोगों को रोकने का एक जैविक योग है बल्कि फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जैविक खाद भी है।
कालीसेना अन्य जैविक खादों से क्यों भिन्न हैं :
1. यह एक फफूंदी है और इसको 2.5 वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
2. जैविक रूप से अनेक प्रकार के रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता।
3. वायुमंडल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से भी मुक्ति।
4. निमेटोड के प्रभाव को भी निष्क्रिय करता है।
5. केवल किसी खास फसल के प्रति लागू नहीं, प्राय: सभी फसलों पर प्रभावशाली।
6. 43 डिग्री सेल्सियस तक काम करता है।
7. फास्फेट को घोल कर पौधे को प्रदान करता है।
8. पौधों में रोगनिरोधक क्षमता पैदा करता है।
9. पौधों को अधिक शक्तिशाली बनाकर फसल की उत्पादकता बढ़ाता है।
10. यह एकमात्र सूक्ष्म जीव है जिसमें जैविक खाद एवं कीटनाशक, दोनों के गुण हैं।
आज के बदलते परिप्रेक्ष्य में जब जैविक खेती को प्रोत्साहन मिल रहा है, औषधीय पौधों की खेती का क्षेत्रफल प्रति वर्ष बढ़ रहा है, अन्य जैविक खादों के साथ-साथ भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित प्रोद्योगिकियों को भारत के उद्योगपतियों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। केवल एक कम्पनी पूरे भारतवर्ष की मांग को पूरा नहीं कर सकती। कैडिला काली सेना का जितना उत्पादन कर रहा है। उससे तो गुजरात की मांग भी पूरी नहीं हो पा रही। बेरोजगार कृषि स्नातकों, वैज्ञानिकों और किसानों के क्लबों को आगे आना चाहिए। सभी मिलजुल कर रासायनिक खादों की तरह जैविक खादों और जैविक कीटनिरोधकों का उत्पादन शुरू करें। ये सभी करते समय गुणवत्ता नियंत्रण का धयान रखना आवश्यक है। इसके अच्छे परिणाम आगे आएंगे, किसान को भी लाभ होगा, सभी को खाने के लिए अच्छे फल, सब्जियां, अनाज व औषधीय पौधे मिलेंगे।
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