फसल उत्पादकता के लिये परिवर्तनात्मक तकनीकियाँ

समय के साथ कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी मुख्यतः अधिक पैदावार देने वाली किस्मों/नस्लों को अपनाने तथा उनके उचित पालन-पोषण, सिंचित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी, कृषि रसायनों के अधिक उपयोग, कृषि प्रौद्योगिकी अपनाने, सरकार की कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु विभिन्न योजनाओं एवं कृषक हितकारी नीतियों तथा कृषकों के अथक परिश्रम से प्राप्त हुई। पिछले लगभग एक-डेढ़ दशक में ऐसी संसाधन संरक्षण तकनीकियों का विकास हुआ है जिन्हें अपनाने से फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी, खेती लागत में कमी तथा किसानों की शुद्ध आय में वृद्धि के साथ-साथ संसाधनों की मात्रा तथा गुणवत्ता में भी सुधार होता है। प्रस्तुत लेख में संरक्षण खेती की इन्हीं तकनीकियों का उल्लेख किया गया है।

हरित क्रान्ति के बाद देश 1975 के दशक से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। खाद्यान्न का उत्पादन 1950 में 50 मिलियन टन था, वह 2013-14 में लगभग 5 गुना बढ़कर 264.57 मिलियन टन तक पहुँच गया है।

देश में खाद्यान्नों के उत्पादन के साथ-साथ तिलहन उत्पादन में 4-5 गुना, कपास में 6 गुना, गन्ने में 7.5 गुना, सब्जियों एवं फलों में 4 गुना, दुध में 8 गुना, मछली में 10 गुना तथा अण्डे के उत्पादन में 30 गुना तक की वृद्धि हुई है।

समय के साथ कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी मुख्यतः अधिक पैदावार देने वाली किस्मों/नस्लों को अपनाने तथा उनके उचित-पालन-पोषण, सिंचित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी, कृषि रसायनों के अधिक उपयोग, कृषि प्रौद्योगिकी अपनाने, सरकार की कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु विभिन्न योजनाओं एवं कृषक हितकारी नीतियों तथा कृषकों के अथक परिश्रम से प्राप्त हुई।

पेड़-पौधे, जलवायु, मृदा तथा पानी हमारे मुख्य प्राकृतिक संसाधन हैं, जिनके उचित उपयोग पर हमारी कृषि का विकास निर्भर करता है। पिछले वर्षों में विभिन्न कृषि उत्पादों की उत्पादकता बढ़ाने हेतु इन प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक तथा अनुचित प्रयोग किया गया है, जिसके कारण इन संसाधनों की मात्रा तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूिल प्रभाव पड़ा है।

इन सबके चलते, आज कई तरह की समस्याएँ हमारी खेती में आ गई हैं, जिनमें प्रमुख हैं फ़सलों की पैदावार बढ़ोत्तरी की दर में तथा गुणवत्ता में निरन्तर गिरावट, मृदा में पोषक तत्वों की कमी, भूजलस्तर में निरन्तर गिरावट, मृदा में कार्बन अंश तथा जैविक विविधता में कमी, संसाधन उपयोग दक्षता में लगातार गिरावट, मृदा, जल तथा वायु प्रदूषण, कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का अधिक प्रकोप इत्यादि।

इसके अलावा किसानों की आय में भारी गिरावट और मौसम परिवर्तन सबसे अधिक चिन्तनीय विषय है। इन सबके चलते, आने वाली पीढ़ियों का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

अतः इन समस्याओं को ध्यान में रखकर, हमें ऐसी मृदा, पानी तथा फसल प्रबन्धन तकनीकियों का प्रयोग करना होगा जिससे फसलों की पैदावार तथा गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा तथा गुणवत्ता में भी सुधार लाना होगा, ताकि वर्तमान पीढ़ी की ज़रूरतों को पूरा करते हुए, भावी पीढ़ियों के लिये भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके।

भारत के पास विश्व की 2 प्रतिशत भूमि, 4.2 प्रतिशत जल-संसाधन, 17 प्रतिशत जनसंख्या व 11.6 प्रतिशत पशु हैं। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 46 प्रतिशत भाग में कृषि की जाती है। कृषि की जाने वाली खेती का यह प्रतिशत विकसित देशों की तुलना में काफी अधिक है।

दशक 1950-51 में शुद्ध कृषि क्षेत्र 119 मिलियन हेक्टेयर था जो 1970-71 में बढ़कर 140 मिलियन हेक्टेयर हो गया और उसके बाद से यह लगभग यह स्थिर ही है। इसी तरह, शुद्ध सिंचाई क्षेत्र जो 1950-51 में 21 मिलियन हेक्टेयर था, वह अब 2008-09 में 58 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। परन्तु सिंचित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होने से सम्भावित व उपयोगी सिंचाई क्षेत्र में अन्तर अब 20 प्रतिशत तक बढ़ गया है, जिस कारण जलभराव व मृदा में लवणता तथा क्षारीयपन जैसी समस्याएँ आ रही हैं।

प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता जहाँ 1950 में 5.3 घनमीटर थी, वह एक अनुमान के अनुसार 2025 तक केवल 1.5 घनमीटर ही रह जाएगी। इसी तरह अगर सारे जल संसाधनों को पूरी तरह से उपयोग किया जाये तो भी पूरे फसल क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा बारानी रह सकता है। अभी तक 29 प्रतिशत ही वर्षा के जल का संरक्षण किया जा रहा है बाकी का जल समुद्र में जाकर मिल रहा है।

भारत में सिंचाई के पानी की उपयोग क्षमता 40 प्रतिशत तक ही सीमित हो गई है। मृदा में कार्बन, जैविक विविधता, उर्वरता व स्वास्थ्य में ह्रास बढ़ता जा रहा है। उर्वरकों द्वारा फसलों को दिये जाने वाले पोषक तत्वों में मुख्यतः नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटेशियम की मात्रा तथा फसलों द्वारा इनके अवशोषण में अब 10-12 मिलियन टन की अन्तर हो गया है। साथ ही में अनेक पोषक तत्वों की मृदा में कमी व्यापक रूप से उभरकर आने लगी है। दशक 1950 में मृदा में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, वह समय के साथ अब 9 पोषक तत्वों तक पहुँच गई है।

पोषक तत्वों के मूल्यों में भी लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इन सबके चलते, जहाँ 1974-79 में फसल में 1 किग्रा. नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश देने से 15 किग्रा. फसल की उपज ली जाती थी वह अब 2007-2012 तक लगभग 6 किग्रा. ही रह गई है।

इसी तरह बढ़ती आबादी के कारण औसतन भूमि जोत इकाई जो 1970-71 के दशक में 2.30 हेक्टेयर थी वह 2000-01 में 1.32 हेक्टेयर तक सीमित हो गई है। आज देश में लगभग 85 प्रतिशत सीमान्त एवं छोटे किसान हैं, जिनके प्रतिशत में आने वाले समय में और बढ़ोत्तरी होगी। शहरीकरण के कारण, शहरों में रहने वाली जनसंख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है और साथ ही में उनके खानपान में भी बदलाव आ रहा है।

एक अनुमान के अनुसार बदलते मौसम के प्रतिकूल प्रभाव के कारण 2070 तक फसलों की उत्पादकता में 10-40 प्रतिशत की कमी आ सकती है। गेहूँ में 1 सेल्सियस तापमान में बढ़ोत्तरी से 4-5 मिलियन टन उत्पादन में कमी आ सकती है।

सारांश में देखा जाये तो प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत में कमी आने से फसल उत्पादन में स्थिरता आ रही है। इसके अलावा डीजल व श्रमिकों के दामों में वृद्धि होने से कृषि में लागत निरन्तर बढ़ती जा रही है और शुद्ध लाभ में कमी आ रही है। कम आय के कारण किसानों के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है।

इन सब समस्याओं के चलते 40 प्रतिशत सीमान्त व छोटे कृषक आज कृषि को छोड़ना चाहते हैं। किसानों के बीच आत्महत्या में वृद्धि भी कृषि में कर्जे की बढ़ोत्तरी के कारण हो रही है। इन सब समस्याओं के बीच, हमें दशक 2030 तक 350 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन करना है।

इसके सन्दर्भ में नोबेल विजेता स्व. डाॅ. बारलौग ने कहा था कि इस भंगुर संसार में सबसे बड़ी दुविधा अत्यधिक प्रजनन क्षमता वाली आबादी को बंजर मृदा से पैदा करके खिलाने की है। इन सभी समस्याओं के कारण व बदलते वातावरण के सन्दर्भ में, प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की नितान्त आवश्यकता है, जिससे भविष्य में टिकाऊ फसल उत्पादन किया जा सके।

इसी दिशा में संसाधन संरक्षण तकनीकें एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। संसाधन संरक्षण तकनीकियों को अपनाने से जल उपयोग क्षमता में 10 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी की जा सकती है, जिसके चलते देश में मौजूद कृषि क्षेत्र से 50 मिलियन टन अधिक खाद्यान्न का उत्पादन किया जा सकता है। इसी तरह से पोषक तत्व उपयोग क्षमता को 10 प्रतिशत बढ़ाने से फसल उत्पादन में वृद्धि व कम रसायनों के उपयोग से वातावरण को दूषित होने से बचाया जा सकता है।

संसाधन संरक्षण तकनीकियाँ


धान-गेहूँ फसल चक्र के लिये संसाधन संरक्षण तकनीकियाँ

प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता जहाँ 1950 में 5.3 घनमीटर थी, वह एक अनुमान के अनुसार 2025 तक केवल 1.5 घनमीटर ही रह जाएगी। इसी तरह अगर सारे जल संसाधनों को पूरी तरह से उपयोग किया जाये तो भी पूरे फसल क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा बारानी रह सकता है। अभी तक 29 प्रतिशत ही वर्षा के जल का संरक्षण किया जा रहा है बाकी का जल समुद्र में जाकर मिल रहा है।हरित क्रान्ति के बाद भारत के उत्तर-पश्चिम में धान-गेहूँ और पूर्वी-दक्षिण में धान फसल चक्र अधिक उपजाऊ व लाभदायक पाया गया, जिसके कारण इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर इन दोनों फसल-चक्रों के क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी हुई।

भारत में धान 44 मिलियन हेक्टेयर, गेहूँ 28 मिलियन हेक्टेयर व धान-गेहूँ चक्र 10.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है। भारत में उपलब्ध कुल सिंचाई क्षमता का 40 प्रतिशत पानी केवल धान में ही दे दिया जाता है। भारत में एक किग्रा. धान उत्पन्न करने के लिये लगभग 3000-5000 लीटर पानी का प्रयोग होता है।

सिन्धु-गंगा मैदानों में लगातार धान-गेहूँ फसलचक्र की उपज बढ़ोत्तरी दर में कमी आ रही है व पानी एवं मृदा की गुणवत्ता में ह्रास भी देखा जा रहा है। उर्वरकों की प्रति इकाई उत्पादकता में कमी व पम्पिंग द्वारा गहराते जलस्तर जैसे समस्याएँ अब उभर कर सामने आने लगी हैं। वहीं दूसरी ओर पोषक तत्वों की कमी भी निरन्तर बढ़ती जा रही है।

धान के फसल अवशेषों को जलाने से वातावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है। निरन्तर धान-गेहूँ प्रणाली से खरपतवार मुख्यतः फेलेरिस माइनर (गुल्ली डंडा या गेहूँ का मामा) की समस्या बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ धान-गेहूँ फसल प्रणाली के विविधीकरण के प्रमाण अभी तक अप्रभावी ही रहे हैं।

विविधीकरण के अन्तर्गत धान की जगह खरीफ में सोयाबीन, अरहर, कपास व प्याज तथा रबी में गेहूँ को सरसों, आलू, मटर, रबी मक्का और चने से विस्थापित किया जाता है। परन्तु धान-गेहूँ से ज्यादा मुनाफा प्राप्त होने के कारण किसान इस चक्र को छोड़ना नहीं चाहते हैं।

दूसरी तरफ, यह प्रणाली देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है एवं इस प्रणाली के विविधीकरण से देश की खाद्यान्न सुरक्षा को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अतः धान-गेहूँ फसलचक्र में धान और गेहूँ की उत्पादकता को स्थिर व टिकाऊ बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है। उत्पादकता में स्थिरता व टिकाऊपन संसाधन संरक्षण तकनीकों को अपनाने से प्राप्त किया जा सकता है।

धान की सीधी बुवाई


धान की सीधी बुवाई या एरोबिक धान एक विकल्प है जिसमें रोपित धान की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। बुवाई की इस विधि को अपनाने से मृदा की उथल-पुथल कम की जाती है, जिससे मृदा की सुधरी हुई भौतिक संरचना अगली फसल को प्राप्त होती है।

इस विधि में पडलिंग नहीं की जाती है तथा पानी का लगातार भराव भी नहीं किया जाता है, जिसके कारण धान के खेत से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैस कम निष्कासित होती है। धान की सीधी बुवाई के लिये दो विधियाँ अपनाई जाती हैं सूखी बुर्वा में सूखे बीज की बुवाई असन्तृप्त मृदा में सीड ड्रिल या छिड़काव विधि से की जाती है। वहीं दूसरी तरफ, आर्द्र बुवाई में अंकुरित धान के बीजों को पडलिंग की हुई मृदा में बीजा जाता है।

इस विधि से श्रम, पानी व ईंधन की बचत होती है जिससे संसाधनों की क्षमता बढ़ती है। इस विधि में धान की फसल, रोपित पडलिंग धान की तुलना में बिना उपज में कमी के 10 दिन पहले पककर तैयार हो जाती है। सीधी बुवाई धान में सबसे बड़ी समस्या खरपतवार प्रबन्धन, पोषक तत्वों की कमी व सूत्रकृमियों का अधिक प्रकोप है। सीधी बुवाई धान के लिये पीएचबी-71, पीआरएच-10, पूसा-1121, पन्त धान-4 व साकेत-4 जैसी किस्में उपयुक्त पाई गई हैं।

सीधी बुवाई धान में भूरी खाद का प्रयोग


हरी खाद से प्राप्त होने वाले लाभों के बावजूद भी किसान हरी खाद की खेती कम करते हैं, क्योंकि इससे किसानों को सीधी आय प्राप्त नहीं होती है। इसके अतिरिक्त कई बार ग्रीष्म ऋतु में हरी खाद की खेती के लिये पानी भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। अतः धान में भूरी खाद एक विकल्प है, जिसे अपनाकर हरी खाद के सारे लाभ प्राप्त हो जाते हैं।

इस विधि में ढैंचा के बीजों को धान के बीजों के साथ मिलाकर बुवाई की जाती है। बुवाई के 30-35 दिन बाद 2,4-डी खरपतवारनाशी का 0.4-0.5 किग्रा/हेक्टेयर की दर से 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाता है। इस छिड़काव से ढैंचा मर जाता है और उसके बायोमास की जमीन पर एक परत बन जाती है।

किसान इस प्रक्रिया से बिना किसी अतिरिक्त सिंचाई के नाइट्रोजन की 20-30 किग्रा./हेक्टेयर बचत कर सकते हैं। भूरी खाद धान में प्रयोग करने से खरपतवारों की संख्या में आधी से ज्यादा कमी आती है। नष्ट की गई भूरी खाद धान की सतह को ढँककर रखती है जिससे मृदा में कार्बन के अंश में बढ़ोत्तरी होती है और वाष्पीकरण में कमी आती है।

धान गहनता प्रणाली (श्री)


श्री का विकास फ्रेंच हेनरी डी लेनुमी ने 1983 में मेडागास्कर में किया था। इस विधि का मूल तथ्य किसी बाह्य स्रोत पर निर्भर न रहकर धान का उत्पादन करना है। श्री प्रक्रिया मुख्यतः मृदा के वातावरण को अच्छा करती है इससे मृदा में जीवांशों की बढ़ोत्तरी होती है। धान के पौधे का जड़ तंत्र श्री विधि में बहुत सुविकसित होता है जिसका प्रभाव धान की अधिक उत्पादन क्षमता पर दिखाई देता है। आज श्री पूरे विश्व में महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।

श्री में कम मात्रा में बीज, पानी व रसायनों की आवश्यकता होती है जिससे धान की खेती की लागत में कमी आती है। धान को लगातार पानी भराव अवस्था में नहीं रखने से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में भी कमी आती है। श्री का मुख्य उद्देश्य सुविकसित जड़तंत्र का विकास करके स्वस्थ पादप का निर्माण करना है।

स्वस्थ पौधों पर कीटों तथा रोगों का प्रकोप भी कम होता है। श्री धान की जड़ें काफी मजबूत होती हैं जो पौधे को पानी की कमी व हवा के नुकसान से बचाती हैं। श्री को अपनाने से 25-30 प्रतिशत धान की उपज तथा संसाधन दक्षता में बढ़ोत्तरी होती है।

धान के बाद खाली क्षेत्रों में उत्तेरा बुवाई की तकनीक


बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम, उत्तर प्रदेश व पश्चिमी बंगाल इत्यादि प्रान्तों में लगभग 11.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ धान की कटाई के उपरान्त, मृदा में अधिक नमी होने के कारण रबी फसल की बुवाई नहीं हो पाती है।

रबी या सर्दियों के मौसम में बहुत ही देर बाद किसान अपने खेत की जुताई कर पाते हैं और तब तक रबी फसल लेने का समय जा चुका होता है। इन क्षेत्रों में तिलहनी एवं दलहनी फसलों के उत्तेरा विधि या सतह पर बुवाई की तकनीक से किसान धान के बाद रबी मौसम में खेती कर सकते हैं। इस तकनीक में बिना किसी लागत के दलहनी (चना, मसूर, लोबिया व मूँग) एवं तिलहनी फसलों (सरसों, कुसुम, नाइजर और अलसी) को अत्यधिक आर्द्र मृदा पर धान के बाद बीजों को सतह पर छिड़काव करके खेती कर सकते हैं।

इस तकनीक में मुख्यतः कम अवधि में पकने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए। वैसे तो यह प्रक्रिया आदिकाल से प्रचलित है परन्तु इस विधि में उन्नत सस्य तकनीकों का विकास किये जाने की अभी भी आवश्यकता है, जिससे इन क्षेत्रों में रह रहे गरीब किसानों की आर्थिक अवस्था में सुधार हो सके। इन क्षेत्रों में किसान सही किस्म का चुनाव, समय पर बुवाई, गोबर खाद का उपयोग, बीज की अधिक मात्रा, बीज उपचार, खड़ी फसल में यूरिया का 2 प्रतिशत छिड़काव और समन्वित कीट-रोग प्रबन्धन से अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं।

शून्य जुताई से गेहूँ की खेती


इस तकनीक द्वारा खेतों की बिना जुताई किये एक विशेष प्रकार की सीडड्रिल द्वारा फसलों की बुवाई की जाती है। इस तरह की बुवाई मुख्यतः रबी फसलों खासकर गेहूँ में काफी कामयाब सिद्ध हुई है। कभी-कभी देर से मानसून आने, नहर से पानी न मिलने वह श्रमिकों के समय से न आने पर धान की रोपाई देर से हो पाती है।

ऐसी अवस्था में धान के बाद गेहूँ की बुवाई भी देर से हो पाती है जिसका प्रभाव सीधा उपज पर दिखाई देता है। देर से बुवाई होने पर गेहूँ की उपज पूर्वी-पश्चिम क्षेत्रों में 32-35 किग्रा./दिन व पश्चिम-सिन्धु तटीय इलाकों में 40-45 किग्रा./दिन प्रभावित होती है। ऐसी अवस्था में धान की कटाई के समय यदि मृदा में नमी कम है तो तुरन्त एक सिंचाई करके बिना जुताई के गेहूँ की बुवाई शीघ्र कर देनी चाहिए।

फसल विविधीकरण तीसरा महत्त्वपूर्ण घटक है। इसके अन्तर्गत ऐसी फसलचक्र या प्रणाली का चुनाव होता है जो लाभकारी व साथ ही वैज्ञानिक सिद्धान्तों जैसे कि अंतःफसलीय, अदलहनी फसलों में दलहनी फसलों का समावेश, पोषक तत्व व जल दक्षता बढ़ाने वाली किस्में, मिट्टी कटाव प्रतिरोधी फसलें, गहरी जड़ वाली फसलें, खरपतवार से स्पर्धा करने वाले फसलचक्र व कृषि वानिकी पर आधारित फसलचक्रों को अपनाया जाता है।गेहूँ की बुवाई शून्य जुताई से करने से 50-60 लीटर डीजल/हेक्टेयर की बचत होती है। गेहूँ की समय से बुवाई होने से गुल्ली-डंडे का कम प्रकोप होता है। शून्य जुताई में कार्बनिक कार्बन का अपघटन नहीं हो पाता है जिससे जैविक व जीवांशों की मात्रा में विविधता, मृदा के उपजाऊपन व उर्वराशक्ति में सुधार होता है। इस तरह समय पर गेहूँ की बुवाई करने पर, जुताई के बाद देर से बुवाई करने की तुलना में 5-10 प्रतिशत अधिक उपज मिलती है और साथ ही किसान आसानी से गर्मियों में मूँग की फसल भी ले सकता है।

रोटरी जुताई तकनीक


इस तकनीक में ट्रैक्टर-चालित रोटावेटर में पावर टिलर जोड़कर मृदा को भुरभुरी किया जाता है। इस विधि में खाद, बीज व फसल की बुवाई एक ही समय में एक ही बार में कर दी जाती है। इस तकनीक द्वारा गेहूँ की धान की कटाई के तुरन्त बाद समय से बुवाई की जा सकती है। अतः इस तकनीक से उपज में वृद्धि व साथ ही में समय की भी बचत होती है।

धान-गेहूँ फसलचक्र में मूँग का समावेश


हरी खाद सामान्यतः बहुआयामी लाभ देती है जिनमें मृदा की संरचना व गुणवत्ता में सुधार मुख्य है। हरी खाद को मृदा में मिलाने से 30-40 किग्रा./हेक्टेयर नाइट्रोजन में बढ़ोत्तरी होती है। हरी खाद भूमि की निचली परतों से पोषक तत्वों जैसे कि लोहा व जिंक इत्यादि को अवशोषित कर मृदा की सतह पर भी चक्रीकरण करती है। लेकिन हरी खाद किसानों के मध्य इतनी प्रचलित नहीं है।

इसलिये यदि हरी खाद की खेती के बजाय गेहूँ के बाद मूँग की फसल का समावेश किया जाये तो हरी खाद से होने वाले लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। इसके अलावा 0.5-1.2 टन/हेक्टेयर मूँग की उपज भी प्राप्त कर सकते हैं। मूँग के पत्तों और डंठलों को फलियों की तुड़ाई के बाद धान रोपण से पहले मिट्टी में मिलाया जाये तो इसका धान की उपज व मृदा की गुणवत्ता पर अनुकूल प्रभाव देखा जा सकता है। ग्रीष्मकालीन मूँग की फसल के लिये किसान एस.एस.एम.-668, पूसा-672 पूसा रतना व पूसा विशाल जैसी किस्में ले सकते हैं।

संरक्षण कृषि


खाद्य व कृषि संगठन रोम के अनुसार संसाधन संरक्षण तकनीकियों से प्राकृतिक संसाधनों की दक्षता बढ़ती है। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि को लम्बे समय के लिये टिकाऊ और लाभकारी बनाना है व साथ ही में लघु कृषक के जीविकायापन को भी सुरक्षित करना है।

यह मुख्यतः चार सिद्धान्तों पर आधारित है। कम-से-कम मृदा का उथल-पुथल इसका पहला सिद्धान्त है जोकि शून्य या कम जुताई से प्राप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया से मृदा में कार्बनिक कार्बन का उपघटन कम होता है जिसके फलस्वरूप मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में बढ़ोत्तरी होती है। सूक्ष्म जीवाणुओं व जन्तुओं की संख्या में वृद्धि होने से मृदा की गुणवत्ता में सुधार होता है।

इस प्रक्रिया से अत्यधिक श्रम, ईंधन व मशीन के रखरखाव में होने वाले खर्चे से भी बचाव होता है। मृदा को फसल अवशेषों से ढँककर रखना संरक्षण कृषि का दूसरा महत्त्वपूर्ण आधार है। इस तरह से मृदा में कार्बनिक पदार्थ का निर्माण होता है व जैविक गतिविधियों में बढ़ोत्तरी बनी रहती है।

फसल अवशेष को मृदा सतह पर बनाए रखने से भी नमी का संरक्षण और अनुचित तापमान बना रहता है, जिस कारण फसल को पोषक तत्व तथा पानी उचित मात्रा में उपलब्ध होते हैं। मृदा की सतह पर फसल अवशेषों की परत होने के कारण मृदा अपरदन कम होता है और जल का अंतःरिसाव व जलधारण क्षमता में सुधार होता है।

फसल विविधीकरण तीसरा महत्त्वपूर्ण घटक है। इसके अन्तर्गत ऐसी फसलचक्र या प्रणाली का चुनाव होता है जो लाभकारी व साथ ही वैज्ञानिक सिद्धान्तों जैसे कि अंतःफसलीय, अदलहनी फसलों में दलहनी फसलों का समावेश, पोषक तत्व व जल दक्षता बढ़ाने वाली किस्में, मिट्टी कटाव प्रतिरोधी फसलें, गहरी जड़ वाली फसलें, खरपतवार से स्पर्धा करने वाले फसलचक्र व कृषि वानिकी पर आधारित फसलचक्रों को अपनाया जाता है। चौथे सिद्धान्त में कम-से-कम मशीनों का उपयोग भूमि पर किया जाता है। इससे मृदा की निचली सतह पर दबाव नहीं पड़ता है जिसके कारण मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है।

यह पाया गया है कि परम्परागत फसलचक्र लम्बे समय के आधार पर टिकाऊ व लाभकारी नहीं है। यदि फसलों को बेहतर तरीके से फसलचक्र में बदलकर या फसल विविधीकरण करके लिया जाये तो ज्यादा उपज के साथ-साथ टिकाऊपन व लाभ भी प्राप्त होता है। आज पूरे विश्व में संरक्षण कृषि को टिकाऊ कृषि करने का रास्ता माना जा रहा है। इस कारण यह बहुत लोकप्रिय भी होती जा रही है। विश्व में संरक्षण कृषि का कुल क्षेत्र 116 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें आधे से ज्यादा भाग दक्षिण अमेरिका में है।

इसी सन्दर्भ में एक अध्ययन के दौरान भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली में यह पाया गया कि परम्परागत जुताई-मेड़ के बजाय गेहूँ की ज्यादा उपज शून्य जुताई-समतल क्यारी फसल अवशेष में प्राप्त होती है।

जुताई व फसल स्थापन तकनीक का गेहूँ की उपज पर प्रभाव


(दो साल का औसतन)


उपजार

दाने की उपज (टन/हेक्टेयर)

परम्परागत जुताई- समतल क्यारी

3.78

परम्परागत जुताई- उभरी हुई मेड़

3.78

शून्य जुताई- समतल क्यारी

3.97

शून्य जुताई- उभरी हुई मेड़

3.97

शून्य जुताई- समतल क्यारी+फसल अवशेष

4.23

शून्य जुताई- उभरी हुई मेड़ + फसल अवशेष

4.08

 

भूमि की विन्यास संरचना में बदलाव


इस विधि के द्वारा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल व मृदा का संरक्षण होता है जबकि अत्यधिक वर्षा के इलाकों में ज्यादा वर्षा के पानी को आसानी से निष्कासित कर दिया जाता है। भूमि की विन्यास संरचना में बदलाव मुख्यतः कंटूर फार्मिंग, अंतःकतार मेड़ व नाली चौड़ी मेड़ व नाली, अंतः प्लाट जल संचयन, गड्ढे या स्कूप, गहरी नाली इत्यादि है।

इन विधियों से वर्षा के पानी एवं पोषक तत्वों की दक्षता में बढ़ोत्तरी होती है, जिससे बारानी क्षेत्रों में फसल उत्पादन को टिकाऊ व बेहतर बनाया जा सकता है। चौड़ी मेड़ पर फसल की बुवाई करने से वर्षा के समय में अत्यधिक जल के कारण फसल को पानी के भराव से होने वाली क्षति से बचाया जा सकता है वहीं दूसरी तरफ कम वर्षा के इलाकों में जल की उपयोग क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है।

चौड़ी मेड़ संकरी नाली विधि को अन्तरराष्ट्रीय अर्द्ध-शुष्क फसल अनुसन्धान संस्थान ने भारत के सूखे प्रान्तों के लिये विकसित किया था। इस विधि में मेड़ को 100 सेमी. चौड़ी व नाली को 50 सेमी. संकरा रखा जाता है। यह तकनीक पहले बारानी क्षेत्रों की काली मिट्टी के लिये विकसित की गई थी किन्तु बाद में यह सभी सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिये उपयोगी पाई गई।

भूमि में विन्यास की तकनीक मुख्यतः मेड़ पर बुवाई आजकल सिंचित क्षेत्रों में संसाधन संरक्षण की तकनीक बन गई है। इसी के तहत अन्तरराष्ट्रीय मक्का व गेहूँ अनुसन्धान संस्थान द्वारा स्थायी उठी हुई मेड़ तकनीक का विकास किया। यह तकनीक सब्जियों व दलहनी फसलों में काफी लोकप्रिय होती जा रही है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में गन्ना-गेहूँ प्रणाली में, गन्ने को गेहूँ की अप्रैल में कटाई के पश्चात बोया जाता है जबकि सामान्यतः गन्ने की बुवाई का उचित समय 15 फरवरी से 15 मार्च के मध्य है।

देर से बुवाई करने से गन्ने की उपज में काफी कमी आती है। परन्तु चौड़ी मेड़ व संकरी नाली विधि में यदि गेहूँ की तीन पंक्तियाँ उठी हुई मेड़ पर (80 सेमी.) व तीन आँख सेट वाले गन्ने की फरवरी में नाली में रखकर बुवाई की जा सकती है। इस चौड़ी मेड़ नाली विधि से औसतन गेहूँ की उपज 5.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी पाई गई है व पोषक तत्वों की दक्षता में 35 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई।

इसके अतिरिक्त इस विधि में 25-40 प्रतिशत पानी व 20-30 प्रतिशत बीज की बचत होती है। सामान्यतः इस तकनीक में खरपतवार, कीट व बीमारियों का कम प्रकोप होता है। समतल बुवाई में जहाँ पौधे को उचित वातावरण नहीं मिल पाता है वहीं मेड़-नाली विधि में जड़ों की वृद्धि के लिये अच्छा वातावरण भी मिलता है। इन सबके कारण यह तकनीक किसानों के मध्य काफी लोकप्रिय हो रही है।

फसल के अवशेषों का उचित प्रबन्धन


बेहतर व टिकाऊ कृषि के लिये फसल अवशेषों का चक्रीकरण एक आवश्यक घटक है जिसके द्वारा भी पोषक तत्वों का प्रबन्धन किया जा सकता है धान-गेहूँ प्रणाली से 15 टन के लगभग सूखा भूसा/हेक्टेयर प्राप्त होता है। इसी तरह दूसरी फसलों से भी काफी मात्रा में अवशेष प्राप्त होते हैं। इन अवशेषों का चक्रीकरण करने से, फसलों की पोषक तत्वों की माँग की 50 प्रतिशत पूर्ति के साथ-साथ मृदा की गुणवत्ता व वातावरण में सुधार लाया जा सकता है।

एक टन धान अवशेष में लगभग 6.1 किग्रा नाइट्रोजन, 0.8 किग्रा फास्फोरस एवं 11.4 किग्रा पोटाश पाया जाता है। गेहूँ के अवशेषों में यह मात्रा 4.8 किग्रा नाइट्रोजन, 0.7 किग्रा फास्फोरस व 9.8 किग्रा पोटाश है। यदि फसल अवशेषों का उचित विधि से प्रबन्धन किया जाये तो कुछ हद तक रासायनिक खाद की आवश्यकता को कम किया जा सकता है।

इस विधि के द्वारा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल व मृदा का संरक्षण होता है जबकि अत्यधिक वर्षा के इलाकों में ज्यादा वर्षा के पानी को आसानी से निष्कासित कर दिया जाता है। भूमि की विन्यास संरचना में बदलाव मुख्यतः कंटूर फार्मिंग, अंतःकतार मेड़ व नाली चौड़ी मेड़ व नाली, अंतः प्लाट जल संचयन, गड्ढे या स्कूप, गहरी नाली इत्यादि है। इन विधियों से वर्षा के पानी एवं पोषक तत्वों की दक्षता में बढ़ोत्तरी होती है, जिससे बारानी क्षेत्रों में फसल उत्पादन को टिकाऊ व बेहतर बनाया जा सकता है।धान के अवशेषों को जलाने से वातावरण पर बहुत बुरा प्रभाव देखने के मिल रहा है। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि एक टन भूसे को जलाने से 60 किग्रा कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किग्रा कार्बन डाइऑक्साइड, 199 किग्रा राख व दो किग्रा सल्फर डाइऑक्साइड उत्पन्न होती है। यदि खेत में पड़े धान अवशेष में ही शून्य जुताई सीडड्रिल से अगली फसल की बुवाई की जाये तो ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या को कम किया जा सकता है।

गेहूँ भूसे का उपयोग अधिकतर जानवरों के लिये किया जाता है। अतः गेहूँ भूसा चक्रीकरण के लिये उपलब्ध नहीं होता है। ऐसी अवस्था में किसान दोहरे उद्देश्य वाली किस्मों जैसे कि वी.एल.-616, 738 व 829 गेहूँ की बुवाई कर सकता है। ये किस्में बिना दाने की उपज को प्रभावित किये 5-8 टन/हेक्टेयर हरा चारा उत्पन्न करती हैं।

लेजर विधि द्वारा भूमि का समतलीकरण


संसाधन संरक्षण की यह एक नई वैज्ञानिक तकनीक है जिसमें एक विशेष उपकरण द्वारा खेत की मिट्टी को पूरी तरह समतल किया जा सकता है। इस तकनीक को अपनाने से किसान 2 प्रतिशत तक सिंचित क्षेत्र व 3-4 प्रतिशत फसल क्षेत्र में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं।

लेजर द्वारा समतलीकरण करने पर सिंचाई पानी की मात्रा, समय व लागत में कमी की जा सकती है। लेजर-चालित यंत्र के प्रयोग से ऊबड़-खाबड़ ज़मीन का 20 मिमी ढलान के साथ समतलीकरण किया जाता है। इस तरह से पानी व पोषक तत्वों की क्षमता 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है व साथ ही में फसल एक साथ पककर तैयार होती है। कुछ राज्यों में लेजर चालित यंत्र कस्टम पर भी उपलब्ध होने से यह तकनीक छोटे किसानों में भी काफी लोकप्रिय होती जा रही है।

दबाव विधि से सिंचाई


दवाब विधि से सिंचाई में मुख्यतः फव्वारा व ड्रिप विधियाँ आती हैं। इन विधियों से सिंचाई करने से 30-70 प्रतिशत तक पानी की बचत, फसल की उपज और गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी होती है। यह तकनीक ऊबड़-खाबड़ जगह व बलुई मिट्टी में काफी उपयोगी सिद्ध होती है। राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश व गुजरात में ड्रिप पर सब्सिडी देने से किसानों के बीच यह तकनीक बहुत ही लोकप्रिय होती जा रही है।

पोषक तत्वों के संरक्षण की तकनीकियाँ


फसल में पोषक तत्वों की प्रयोग दक्षता, मुख्यतः उर्वरकों के स्रोत, मृदा की गुणवत्ता, फसल, खाद व उर्वरक देने के समय व विधि पर निर्भर करती है। समेकित तत्वों के प्रबन्धन व जैविक खाद के उपयोग से पोषक तत्वों की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। उर्वरकों के उचित प्रबन्धन से कृषि की लागत व पर्यावरण पर दूषित प्रभाव को कम किया जा सकता है।

फसल माँग संचालित पोषक तत्व प्रबन्धन विधि से पौधे की आवश्यकता के अनुसार सही समय पर पोषक तत्व दिये जाते हैं। इस विधि में मृदा में पोषक तत्वों की जाँच कर मृदा की क्षमता के अनुसार पोषक तत्व दिये जाते हैं। इसी सिद्धान्त के अन्तर्गत एल.सी.सी (लीड कलर चार्ट) पट्टी की सहायता से पत्ती के हरे रंग को जाँच करके पौधे को नाइट्रोजन दी जाती है।

एल.सी.सी. पट्टी सस्ती पड़ती है व किसान आसानी से इसका प्रयोग कर खड़ी फसल में सही समय पर नाइट्रोजन का छिड़काव कर सकते हैं। यदि धान की पत्ती का एल.सी.सी. पट्टी के चौथे खाने में आता है तो 1.4-1.5 कि.ग्रा. नाइट्रोजन/हेक्टेयर से छिड़काव करना चाहिए।

इसका प्रयोग हर 7-10 दिन के अन्तराल पर बुवाई के 20-25 दिन बाद से लेकर धान के कल्ले निकलने तक करना चाहिए। एल.सी.सी पट्टी का उपयोग करने से किसान 25-30 किग्रा. नाइट्रोजन/हेक्टेयर की बचत के साथ-साथ अधिक उपज व लाभ कमा सकते हैं।

सारांश


संसाधन संरक्षण तकनीकों के उपयोग से टिकाऊ फसल उत्पादन व मृदा के स्वास्थ्य में सुधार लाया जा सकता है। इन तकनीकों से पानी की उपयोग और मृदा में धारक क्षमता बढ़ती है। इस तकनीक से फसल उत्पादन हेतु फसल अवशेष का उचित प्रयोग होने से मृदा में कार्बन व जैविक विविधता बढ़ती है। अतः संसाधन संरक्षण तकनीकें पूरे विश्व में टिकाऊ, उपजाऊ और लाभकारी कृषि तथा बदलते मौसम के प्रभाव को सही करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।

किसान अपनी समस्याओं के लिये किसान कॉल सेंटर में भी फोन कर सकते हैं।

Kisan Call Center Toll Free Number
1800-180-1551

(लेखक भारती कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के सस्य विज्ञान सम्भाग में प्रधान वैज्ञानिक हैं।) ई-मेल : ysshivay@gmail.com

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