फसल में बदलाव से बनेगी बात


जरूरत इस बात की है कि किसान जो फसल पैदा कर रहा है उसकी खरीद सुनिश्चित की जाये और उसका नकद भुगतान दिया जाये। कई बार देखने में आया है कि किसान ने बम्पर फसल तो पैदा कर ली लेकिन उसके खरीदार नहीं मिल रहे है। इसके लिये काफी हद तक किसान भी जिम्मेदार हैं। लम्बे अरसे से किसान गेहूँ, धान और गन्ना जैसी परम्परागत फसलों पर ही जोर देते आ रहे हैं। इससे पैदावार और जमीन की सेहत दोनों ही प्रभावित होती हैं। किसानों की माली हालत में फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का काफी अहम योगदान होता है। पिछले दो साल में इसमें अच्छा खासा इजाफा हुआ है। एमएसपी का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश के आधार पर किया जाता है। मूल्य का आकलन फसल की प्रति एकड़ लागत और उससे होने वाली आमदनी के आधार पर किया जाता है।

फसल की लागत में भूमि का किराया, खाद, बीज, पानी और दवा के खर्च को मुख्य रूप से शामिल किया जाता है। साथ ही किसान के परिवार के श्रम और मजूदरों को किये गए भुगतान को भी जोड़ा जाता है। इसके बाद प्रति एकड़ पैदावार को मानक मानकर मूल्य तय किया जाता है। इसमें किसान के लिये कुछ फीसद लाभ भी जोड़ा जाता है। जो विभिन्न फसल के लिये अलग-अलग होता है। फिलहाल किसी फसल के लिये एमएसपी का निर्धारण राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है।

किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना होना चाहिए, यह एक बड़ी बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन हकीकत यह है कि सिर्फ एमएसपी बढ़ाने से किसानों का भला नहीं हो सकता है। अपनी माली हालत सुधारने के लिये किसानों को भी पहल करनी होगी। सिर्फ गेहूँ, धान और गन्ना की फसल से नियमित आय नहीं बढ़ेगी। इसके लिये फसलचक्र में बदलाव करना होगा।

क्या है व्यवस्था


इसमें कोई दो राय नहीं कि एमएसपी तय करने में गहन पड़ताल की जाती है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के सदस्य किसानों से जुड़े हर एक पहलू का बारीकी से अध्ययन करते हैं। इस दौरान किसानों के हितों का पूरा ख्याल रखा जाता है। हमारे समय में न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते समय किसानों के लिये कम-से-कम 10 फीसद मुनाफे का प्रावधान किया जाता था। मुनाफे की दर फसल के लिये अलग-अलग होती है। इनमें से कुछ एक फसल के लिये यह मुनाफा 50 फीसद तक भी रखा जाता था। लेकिन हकीकत यह है कि तमाम पहलुओं की बारीकी से पड़ताल के बाजवूद कुछ इलाकों के किसानों को इसमें नुकसान भी हो सकता है।

बानगी के तौर पर गेहूँ की फसल की ही बात करें तो पंजाब और हरियाणा में प्रति एकड़ 25 क्विंटल पैदावार हो सकती है जबकि आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में पैदावार की दर काफी कम है। इसके अलावा जहाँ भूजल स्तर काफी ऊपर है और नहरों की व्यवस्था है वहाँ सिंचाई के मद में बहुत ही कम खर्च आएगा। इसके विपरीत मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जहाँ नहरों की संख्या कम है और भूस्तर भी काफी नीचे हैं वहाँ सिंचाई के लिये काफी खर्च बढ़ जाता है। इस स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर एमएसपी होने की वजह से किसानों का मुनाफा कम और ज्यादा हो सकता है।

किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मू्ल्य कितना होना चाहिए, इस मुद्दे पर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। तमाम संगठन एमएसपी में भारी वृद्धि की माँग करते रहे हैं। कृषि विशेषज्ञ एस. स्वामीनाथन ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में कुल लागत में 50 फीसद मुनाफा जोड़ने का प्रावधान करने का सुझाव दिया है। मौजूदा परिदृश्य में सभी फसल पर इस फार्मूले को लागू कर पाना किसी भी सूरत में सम्भव नहीं है।

यह हकीकत है कि किसानों की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। उस हिसाब से उनकी आमदनी नहीं बढ़ पा रही है। लेकिन इस भरपाई को न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए पूरा नहीं किया जा सकता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब जिंसों के भाव नियंत्रण बाजार से जुड़े हुए हैं। बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव आने पर बाजार का सन्तुलन बिगड़ सकता है। यदि मान लीजिए कि किसानों के हित में गेहूँ का समर्थन मूल्य 3000 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया जाये तो यह अनुमान लगा पाना मुश्किल हो जाएगा कि इसका बाजार की महंगाई पर क्या असर पड़ेगा? इस स्थिति में आटे के भाव 50 रुपए प्रति किलोग्राम से ऊपर चला जाएगा। ऐसे में आम जनता की मुश्किलें बढ़ जाएँगी।

फसलों का चयन


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिंचाई के पर्याप्त साधन होने के कारण यहाँ गन्ने की फसल लाभकारी साबित हो सकती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सिंचाई के कम संसाधनों के बावजूद पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान गन्ना की फसल पैदा नहीं करते हैं। कई बार किसान अपनी जरूरत के लिये भी मनचाही फसल उगाते हैं। इस स्थिति में उनका एमएसपी से कोई लेना-देना नहीं होता।

इसी तरह, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और लखनऊ के आसपास के इलाकों में आम की जोरदार पैदावार होती है। कम पैदावार के बावजूद अन्य प्रदेशों में भी आम के बाग लगाए जाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग यदि संतरा और मौसमी पैदा करेंगे तो उन्हें कोई फायदा नहीं होगा। इसी तरह मुनाफा कमाने के लिये असम और पश्चिम बंगाल में गेहूँ की पैदावार करने में कोई समझदारी नहीं है। कहने का आशय यह है कि किसानों को मौसम, बाजार की माँग और संसाधनों के अनुरूप ही फसल उगानी चाहिए।

क्या हैं उपाय


यदि देखा जाये तो सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से ही किसानों की माली हालत नहीं सुधारी जा सकती है। जरूरत इस बात की है कि किसान जो फसल पैदा कर रहा है उसकी खरीद सुनिश्चित की जाये और उसका नकद भुगतान दिया जाये। कई बार देखने में आया है कि किसान ने बम्पर फसल तो पैदा कर ली लेकिन उसके खरीदार नहीं मिल रहे है। इसके लिये काफी हद तक किसान भी जिम्मेदार हैं। लम्बे अरसे से किसान गेहूँ, धान और गन्ना जैसी परम्परागत फसलों पर ही जोर देते आ रहे हैं। इससे पैदावार और जमीन की सेहत दोनों ही प्रभावित होती हैं। अब समय की जरूरत है कि किसानों को अपने फसल चक्र में बदलाव करना चाहिए।

आजकल हार्टीकल्चर और डेयरी सेक्टर में अच्छे विकल्प हैं। उन्हें आमदनी बढ़ाने के लिये इस ओर रुख करना चाहिए। हालांकि सरकार के स्तर पर किसानों की आय बढ़ाने के तमाम तरह के उपाय किये जा रहे हैं। इनमें फसल बीमा योजना और मंडी व्यवस्था में सुधार के लिये ई-राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) अच्छी पहल है। मंडी व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये विशेष जोर दिया जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इन उपायों से किसानों की माली हालत अच्छा सुधार देखने को मिलेगा।

(लेखक कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अध्यक्ष रहे हैं)

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