फरक्का एक यक्ष प्रश्न

फरक्का बैराज
फरक्का बैराज


गंगा पर बना फरक्का बैराज एक बार फिर चर्चा में है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शायद संवैधानिक पद पर बैठ पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने किसी बैराज या बाँध को हटाने की माँग की है। इस माँग ने बैराज के दुष्परिणामों और गंगा की सेहत पर बहस छेड़ दी है। आखिर उथली होती गंगा और बिहार में बाढ़ के लिये फरक्का कितना जिम्मेदार है? जानने के लिये अर्चना यादव ने पटना से लेकर फरक्का तक का सफर तय करते हुए गंगा किनारे रहने वाले लोगों और नदी विशेषज्ञों से बात की। एक बात तो तय है कि फरक्का का असर व्यापक है, पर बिहार की समस्या कुछ और जटिल है। केवल फरक्का हटाने से बात नहीं बनेगी। इसके लिये हमें गाद नीति तो चाहिए ही, साथ में गाद की भूमिका को नए सिरे से समझना होगा।

फरक्का बैराज बनने के बाद बिहार और पश्चिम बंगाल में बाढ़ और नदी का कटाव बढ़ा हैफरक्का बैराज के लिये विवाद कोई नई बात नहीं है। गंगा नदी के पश्चिम बंगाल में प्रवेश करते ही उस पर बने इस बैराज पर उंगली तभी उठ गई थी जब इसका निर्माण शुरू भी नहीं हुआ था। 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल के दूरदर्शी इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने चेतावनी दी थी कि फरक्का के कारण बंगाल के मालदा व मुर्शिदाबाद के साथ बिहार के पटना, बरौनी, मुंगेर, भागलपुर और पूर्णिया हर साल पानी में डूबेंगे। भट्टाचार्य का तर्क था कि फरक्का बैराज से पैदा हुई रुकावट के कारण गंगा की गति धीमी हो जाएगी और पानी में बहकर आई गाद गंगा के तल में जमने लगेगी, जिससे गंगा उथली होने लगेगी। जैसे-जैसे गंगा उथली होगी, वैसे-वैसे उसका बाढ़ का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेगा।

भट्टाचार्य ने बैराज की जल निष्कासित करने की क्षमता पर भी सवाल खड़े किये। 1971 में जब यह बैराज बनकर तैयार हुआ ही था, बिहार में पिछली अर्धशताब्दी की सबसे बड़ी बाढ़ आई। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता रंजीव और पत्रकार हेमन्त ने अपनी किताब ‘जब नदी बंधी’ में लिखा है, “उस वर्ष फरक्का बैराज अपने डिजाइन डिस्चार्ज के अनुकूल 27 लाख घनसेक जल प्रवाह भी निष्कासित नहीं कर सका। उस वर्ष मात्र 23 लाख घनसेक जल प्रवाह का निष्कासन फरक्का बाँध कर सका।”

फिर 2016 में बिहार में पिछले दशक की सबसे बड़ी बाढ़ आई। पटना जिले में गाँधीघाट और हाथीदा और भागलपुर में गंगा के जलस्तर के पिछले रिकॉर्ड टूट गए (देखें: ‘क्या हुआ था 2016 की बाढ़ में?’)। लगभग 250 जानें गईं और 31 जिले प्रभावित हुए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात कर फरक्का को हटाने की माँग कर डाली। आज बिहार सरकार मानो भट्टाचार्य की कही हुई हर बात दोहरा रही है। नीतीश कुमार का कहना है कि गंगा उथली हो गई है और पानी को निकास देने में पहले जैसी समर्थ नहीं रह गई है। इसलिये जब तक गंगा में जमी गाद नहीं निकाली जाएगी तब तक बिहार में लगभग हर साल आने वाली बाढ़ का सिलसिला नहीं थमेगा। गंगा के किनारे रहने वाले और नदी पर शोध करने वाले अधिकतर लोग मानते हैं कि फरक्का इसकी एक वजह है, पर फरक्का ही एक वजह है, ऐसा नहीं है (इस पर बाद में चर्चा करेंगे)।

 

 

 

क्या हुआ था 2016 की बाढ़ में?

 

बिहार के जल संसाधन विभाग के अनुसार 21 अगस्त को पटना में भारी बाढ़ आई थी, जिसमें पटना का जलप्रवाह 32 लाख घनसेक नापा गया था। यह एक रिकॉर्ड था, वो भी ऐसे समय में जब बिहार में सामान्य से कम बारिश हुई थी। इस जल प्रवाह में एक बड़ा हिस्सा सोन नदी पर बने बाणसागर बाँध से अचानक छोड़ा गया 5 लाख घनसेक पानी और इसी नदी की एक सहायक नदी उत्तर कोयल से आया 11.69 लाख घनसेक पानी का था। अगर पानी अचानक न छोड़ा जाता तो शायद इतनी भीषण बाढ़ न आती। पर बिहार सरकार की शिकायत है कि 21 अगस्त को आए उच्चतम प्रवाह को पटना से फरक्का तक की 370 किलोमीटर की दूरी तय करने में आठ दिन लग गए। जबकि बक्सर से पटना तक की 143 किलोमीटर की दूरी तय करने में पानी को केवल 4 घंटे ही लगते हैं।

 

गाद का सैलाब


गंगा बिहार के ठीक मध्य से होकर गुजरती है। यह पश्चिम में बक्सर जिले से राज्य में प्रवेश करती है और भागलपुर तक 445 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई झारखण्ड और फिर बंगाल में प्रवेश कर जाती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के प्रोफेसर राजीव सिन्हा ने हाल में गंगा का हवाई सर्वे किया है। वह बताते हैं, “गाद का जमाव सचमुच में बहुत ज्यादा है। यह अविश्वसनीय है!” सिन्हा गंगा में गाद की समस्या का अध्ययन करने के लिये बिहार सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ दल के सदस्य हैं।

बिहार में प्रवेश करने के तुरन्त बाद गंगा 10-12 किलोमीटर चौड़े इलाके में फैल जाती है। नदी के बीच बड़े-बड़े स्थायी टापू बन गए हैं। बिहार के जल संसाधन विभाग के सूत्रों के अनुसार, गैर बरसाती मौसम में अधिकतर स्थानों पर नब्बे के दशक से पहले गंगा की गहराई 9-10 मीटर हुआ करती थी, जो अब घटकर 4-6 मीटर रह गई है। गाद और फरक्का पर जब डाउन टू अर्थ ने केन्द्रीय जल आयोग, गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग और केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय से बात करनी चाही तो लगा जैसे नाव किसी गाद से पटी धारा में डाल दी हो। बात आगे ही नहीं बढ़ती थी, न कहीं से किसी प्रश्न का उत्तर मिला। बिहार राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के उपाध्यक्ष व्यासजी कहते हैं, “केन्द्रीय जल आयोग ने इसे सिरे से नकार दिया है। वह गाद की समस्या को मानने को तैयार ही नहीं है।”

मुंगेर के नारायण सैनी बताते हैं कि एक समय गंगा में 30 से 40 हाथ पानी था, जो अब आठ-दस हाथ ही रह गया है। नदी के बीच में बने इस टापू पर खेती की कोशिश हो रही हैफरक्का की वजह से इसके ठीक ऊपर और नीचे पश्चिम बंगाल में गंगा का स्वरूप किस तरह बदला है, इस पर वैज्ञानिकों ने काफी कुछ लिखा है। पर बिहार में फरक्का के प्रभावों की जानकारी गंगा से जुड़े लोगों से ही मिलती है। और नदी को मछुआरों और मल्लाहों से बेहतर कौन जानता है?

मुंगेर जिले में गंगा किनारे मछुआरों की एक बड़ी सी बस्ती है, सैनी टोला। इसके निवासी 60 साल के नारायण सैनी को वह दिन याद है जब गंगा में ‘30 से 40 हाथ’ पानी होता था। “अब तो यह बस आठ से दस हाथ गहरी रह गई है।” उनके आस-पास बैठे लोग बताते हैं कि पहले इतना बहाव था कि बस्ती के बीच तक कलकल ध्वनि सुनाई पड़ती थी। सैनी को कोई सन्देह नहीं कि परिवर्तन की वजह फरक्का है। वह पूछते हैं “आप नाली में ईंटा रख दें तो नाली का बहाव रुकेगा कि नहीं?”

बात को और समझाने के लिये सैनी हमें नाव से गंगा के बीच ले जाते हैं। नदी मंद गति से बह रही है। वह सतह पर हो रही एक हल्की सी हरकत की तरफ इशारा करते हैं जो लहरों से भिन्न है। उन्होंने बताया, “ये देख रहे हैं। ये जो भरका उठ रहा है, इसका मतलब है यहाँ मिट्टी खंगल रही है। पहले खूब भरका उठता था।” जब नदी में बहाव होता है तो वह अपना तल खंगालती हुई गाद को बहा ले जाती है।

बाढ़, एक ठहरा हुआ मेहमान


उथली होने के साथ गंगा का स्वभाव भी बदला है। बिहार के बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र लिखते हैं, “बरसात के मौसम में तो गंगा एक तरह से फरक्का में ठहर सी गई। इसका असर गंगा की सहायक धाराओं पर पड़ा जो नदी के दोनों किनारों पर आकर गंगा में समा जाती है। गंगा से उनके संगम स्थल पर भी मुहाने उसी तरह से बाधित हुए और बाढ़ों के समय उनमें भी पानी की समुचित निकासी नहीं हो पा रही थी।”

पिछले साल की बाढ़ में कुछ ऐसा ही हुआ। चूँकि गंगा का स्तर ऊँचा था, इसने पटना से लेकर कटिहार तक अपने में मिलने वाली सहायक नदियों-गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी, पुनपुन, किऊल-हरोहर-का बहाव देर तक पीछे धकेल दिया। नतीजतन, बहुत बड़ा इलाका लम्बे समय तक पानी में डूबा रहा।

मुंगेर में पत्रकार कुमार कृष्णन बताते हैं कि पूर्वी बिहार में गंगा किनारे के इलाकों में पहले बाढ़ का पानी ठहरता नहीं था, हफ्ते दो हफ्ते में निकल जाता था। पर अब दो-तीन महीने रहता है, जिससे बरसात के मौसम में होने वाली फसल मारी जाती है। बगल के भागलपुर शहर के बाहर, साठ वर्षीय किसान कैलाश यादव कहते हैं, “पहले बाढ़ के बाद दाना छींट देते थे तो काफी मक्का हो जाता था। फिर उड़द और गेहूँ भी कर लेते थे। पर अब साल में एक ही फसल होती है।” नदी यहाँ से तीन किलोमीटर दूर जा चुकी है और आस-पास के खेतों में चारे के लिये ‘सुदान’ घास उगाई हुई है।

पैंतीस किलोमीटर दूर कहलगाँव की मछुआरा बस्ती कागजी टोला के निवासी योगेन्द्र सैनी का कहना है कि पहले दियारा क्षेत्र (नदी में उभरे विशाल टापू) के लोगों को पता होता था कि कितना पानी आएगा और कब तक ठहरेगा। उन्होंने बताया कि अब बाढ़ का समय और सीमा का पता नहीं चलता। महीनों पानी नहीं निकलता।

बिन मछली सब सून


बाढ़ की खबर ज्यादा ध्यान आकर्षित करती है, पर फरक्का के दुष्परिणाम बाढ़ तक सीमित नहीं हैं। बिहार में मुंगेर से लेकर झारखण्ड तक नारायण और योगेन्द्र सैनी समेत जितने भी मछुआरों से बात हुई, उन सभी का कहना है कि पहले गंगा में तमाम किस्म की मछलियाँ मिलती थीं, जैसे हिलसा, झींगा, पंगास, सौकची, कुर्सा, कठिया, गुल्ला, महसीर, कतला, रेहू, सिंघा जो अब मुश्किल से ही दिखती हैं। हिलसा तो फरक्का के ऊपर लगभग लुप्त हो गई है। यह मछली प्रजनन के लिये समुद्र से नदी के मीठे पानी में जाती है। फरक्का ने हिलसा का रास्ता रोक दिया है। मछलियों के लुप्त होने के लिये यहाँ के निवासी बैराज के अलावा नदी किनारे बने ईंट के भट्टे, रेत खनन, प्रदूषण, गलत तरीके से मछली पकड़ने और विदेशी मछलियों को भी जिम्मेदार मानते हैं।

फरक्का के दुष्परिणामों को यहाँ सबसे पहले मछुआरों ने ही भाँप लिया था। बिहार के गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश बताते हैं कि 35 साल पहले जब वह घूम-घूम कर मछुआरों को गंगा पर जमींदारों के कब्जे के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे तो हर मछुआरा उनसे यही कहता था कि फरक्का को तुड़वाओ। उन्होंने बताया, “मैं सोचता था कि ये लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं। अच्छा-खासा बैराज बनाया है। मछुआरों का कहना था कि फरक्का की वजह से गंगा में मछलियाँ खत्म हो रही हैं। बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक के एस बिलग्रामी और जे एस दत्ता मुंशी ने बताया कि मछुआरे ठीक कह रहे हैं। वे गंगा की पारिस्थितिकी (इकॉलजी) पर शोध कर चुके थे।”
अनिल प्रकाश के मुताबिक, गंगा और उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियाँ समाप्त हो गईं। इसके साथ ही लाखों-लाख मछुआरे बेरोजगार हो गए। कहलगाँव के योगेन्द्र सैनी बताते हैं कि उनकी कागजी मछुआरा बस्ती से लगभग चालीस प्रतिशत लोग काम की तलाश में पलायन कर गए हैं। लोगों के अपने परम्परागत व्यवसाय से बेदखल होने का एक असर ये हुआ कि पूरे दियारा क्षेत्र में आपराधिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं। मुंगेर में वकील और क्राइम संवाददाता चौंसठ साल के अवधेश कुमार कहते हैं, “जो लोग मछली पकड़ने और खेती पर आश्रित थे, वे अब शराब और चोरी-चकारी में लग गए हैं।”

गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़े उदय कहते हैं, “नदी पर पहला हक मछुआरों का है। उसके बाद किसान और आस्थावानों का। मछुआरे जिस रूप में नदी को देखते हैं वह बिल्कुल भिन्न है।” पर फरक्का पर आज की चर्चा में मछुआरों और किसानों की आवाज नहीं सुनाई देती।

जमीन निगलती गंगा


भागलपुर में लोगों का यह भी मानना है कि गंगा अब ज्यादा रफ्तार से अपना रास्ता बदल रही है, जिससे कटाव बढ़ा है। जब नदी उथली होती है तो फैलने लगती है और अपने किनारों पर दबाव डालती है। नीतीश कुमार का कहना है कि पिछले पाँच सालों में ‘बिहार जैसे गरीब राज्य’ को 1,058 करोड़ रुपए जमीन के कटाव और बाढ़ के तत्काल प्रभाव को रोकने पर खर्च करने पड़े हैं।

फरक्का के नजदीक कटाव और भी गम्भीर है। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में नदी कई धाराओं में बँटकर 10-15 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में फैल गई है। बैराज की रुकावट से नदी का पानी पीछे की तरफ फैला है। यहाँ गंगा के दाहिने किनारे पर राजमहल की पथरीली पहाड़ियाँ पानी को रोकती हैं। अतः नदी के बाएँ किनारे ने फैलते हुए एक बड़ा सा घुमाव लिया है। घुमाव लेने में इसने जमीन का एक बड़ा हिस्सा निगल लिया है और लगभग इतना ही बड़ा हिस्सा टापुओं के रूप में उगला भी है, जिन्हें यहाँ के लोग चार कहते हैं। नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र ने फरक्का पर गहरा शोध किया है। उनकी 2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1979 और 2004 के बीच मालदा में 4,247 हेक्टेयर जमीन कट गई थी।

पटना में बन रहे गंगा पथ के निर्माण में अनुमति न होते हुए भी गंगा में मिट्टी डाल कर रास्ता भर दिया गया हैकलियाचक ब्लॉक दो में कटाव से प्रभावित लोगों की समिति, गंगा भंगन प्रतिरोध एक्शन नागरिक कमिटी, के सचिव मुहम्मद बक्श पगला घाट पर बने तटबन्ध को दिखाते हुए बताते हैं कि यह आठवाँ ‘रिटायर्ड’ तटबन्ध है। इससे पहले के सारे तटबन्ध एक-एक करके निगलती हुई गंगा 10 किलोमीटर दूर चली आई है। डर है कि यहाँ से कहीं गंगा अपने पुराने रास्ते से होकर न निकल जाये। अगर ऐसा हुआ तो यह बैराज को बाईपास कर जाएगी। बक्श का अनुमान है कि मालदा में पाँच से दस लाख लोग कटाव से प्रभावित हुए हैं। कुछ लोग तो 16 बार तक विस्थापित हो चुके हैं। किसी को कोई मुआवजा नहीं मिला। बक्श कहते हैं कि इनमें से आधे लोग तो बगल में बांग्लादेश के दिनाजपुर इलाके में पलायन कर गए हैं और करीब दो लाख लोग इन टापुओं पर रहते हैं।

ऐसे ही एक टापू हमीदपुर चार पर जानकी टोला गाँव है। इसके निवासी राजेंद्र नाथ मंडल बताते हैं कि वह 1966 में पैदा हुए थे। यह साल महत्त्वपूर्ण है क्योंकि तब बैराज का निर्माण कार्य शुरू हुए चार साल हो चुके थे और शायद तभी से नदी का कटाव तीव्र हुआ होगा। पैदा होने के पहले क्षण से ही मंडल ने अपने आस-पास तेजी से होता कटाव देखा है। उन्होंने बताया, “जब मैं पैदा हुआ, जमीन पर कट रही थी। मेरे पैदा होते ही मेरी माँ मुझे लेकर उठ गई और नाव में बैठ गई।” मंडल के दादा के पास पंचानंदपुर में 135 बीघा जमीन थी, जो नदी में समा चुकी है। तीस-चालीस साल पहले पंचानंदपुर एक बड़ा व्यापार केन्द्र था। मंडल वहाँ मिठाई की दुकान चलाते थे। जब नदी दुकान के पास पहुँची तो वह उस जगह को छोड़कर ससुराल चले गए। जब नदी वहाँ भी पहुँच गई तो वह 2003 में इस टापू पर आ गए। “तब यहाँ कोई नहीं रहता था। सब तरफ जंगल था। मैंने जंगल साफ करके धान बोना शुरू किया और दूसरों को सिखाया।” मंडल अब बँटाई पर ली हुई पाँच एकड़ जमीन पर खेती करते हैं और मवेशी पालते हैं। नागरिक कमेटी के अध्यक्ष तजमूल हक का कहना है कि समिति की कोशिशों से कम-से-कम हामिदपुर टापू पर स्कूल में अध्यापक और क्लीनिक में डॉक्टर तो आते हैं, बाकी के अधिकतर टापुओं पर स्कूल और क्लीनिक केवल नाम के हैं। उन्होंने कहा, “वहाँ लगभग चालीस हजार बच्चों को टीकाकरण की सहूलियत भी उपलब्ध नहीं है।” बैराज के दुष्परिणामों का सिलसिला फरक्का पर आकर खत्म नहीं हो जाता। इससे नीचे मुर्शीदाबाद में भी भीषण कटाव हुआ है। क्योंकि फरक्का बैराज से गाद को छानकर पानी भागीरथी-हुगली में भेजा जाता है, इस पानी की कटाव क्षमता अधिक है। जो गाद फरक्का पर रुक जाती है वह गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा के हिस्से की है। गाद के अभाव में डेल्टा समुद्र की भेंट चढ़ने लगते हैं। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा भी धीरे-धीरे समुद्र में समा रहा हैं। इसका एक कारण है ग्लोबल वार्मिंग की वजह से चढ़ता समुद्र का जलस्तर और दूसरा कारण है गाद की घटती मात्रा, जिसमें थोड़ा योगदान फरक्का का भी है।

बीमारी के अनेक कारण


गंगा के बदलते स्वरूप और इससे भयंकर परिणामों से इनकार नहीं किया जा सकता। पर सारा दोष फरक्का पर मढ़ना भी सही नहीं है।आईआईटी कानपुर के राजीव सिन्हा कहते हैं कि बिहार एक तो वैसे ही निचला इलाका है जहाँ स्वाभाविक रूप से गंगा में वेग घटने लगता है, ऊपर से पटना और फरक्का के बीच दुनिया में सबसे ज्यादा गाद लाने वाली नदियों में से तीन, कोसी, गंडक और घाघरा यहाँ गंगा में मिलती हैं। इसलिये प्राकृतिक रूप से यहाँ गंगा में बहुत गाद आती है जो इन नदियों के मुहानों पर जमा हो जाती है। गंगा के उथले होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इसमें पहले जैसा प्रवाह नहीं हो रहा जो गाद को बहाकर ले जाये। पिछले कुछ दशकों में गंगा और इसकी सहायक नदियों पर ढेरों बाँध और बैराज बने हैं। गंगा जब बिहार में प्रवेश करती है तो इसका अपना पानी लगभग समाप्त हो चुका होता है। फिर मानसून में बारिश भी पहले की तरह नहीं होती। दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान केन्द्र के विभागाध्यक्ष और क्लाइमेट मॉडलिंग के विशेषज्ञ प्रधान पार्थ सारथी बताते हैं कि गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में दीर्घकालिक बारिश के दौर घटे हैं, जिसकी वजह से नदी में निरन्तर प्रवाह नहीं रहता जो गाद को बहाने में सहायक है।

डॉल्फिन विशेषज्ञ और राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्य रह चुके रविन्द्र कुमार सिन्हा ध्यान दिलाते हैं, “मानसून के बाद नदी में पानी हिमनद (ग्लेशियर) या भूगर्भ से आता है और भूगर्भ में पानी वेटलैंड से आता है पर वेटलैंड को तो हमने खत्म कर दिया। इसलिये जलस्तर नीचे जा रहा है। जब जलस्तर गिर रहा है तो नदी को आप कैसे रीचार्ज करेंगे?”

सिन्हा का यह भी मानना है कि मध्य और पूर्वी हिमालय में जंगलों के कटने से वहाँ से निकलने वाली बिहार की नदियों में गाद बढ़ी है। सिन्हा ने कई बार छोटी नाव से गंगा की यात्रा की है। वह बताते हैं कि 80 के दशक तक गंगा के बाढ़ क्षेत्र में प्राकृतिक वनस्पति दिखाई देती थी जो अब खत्म हो गई है। वहाँ अब खेती हो रही है। 90 के दशक में बिल्डिंग बूम आया और जगह-जगह ईंट के भट्ठे नदी किनारे बना दिये गए। रेत का खनन होने लगा। “इन सब का मिला-जुला असर है कि गाद ज्यादा पैदा हो रही है। इसलिये बीमारी का कोई एक कारण नहीं अनेक है।”

 

 

 

 

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