अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक पॉलिस्ट्रीन बीड्स के पैकेट बाजार से चार हजार से पाँच हजार रुपये में खरीदे जा सकते हैं, जिसका उपयोग हजारों की संख्या में बेहद छोटे आकार के नैनो-सेंसर बनाने में किया जा सकता है।नई दिल्ली, 7 जुलाई (इंडिया साइंस वायर) : बंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने कम लागत वाला अत्यंत संवेदनशील नैनो-सेंसर विकसित किया है, जो कार्बन मोनोऑक्साइड के न्यूनतम स्तर का भी पता लगा सकता है। इसे बनाने वाले शोधकर्ताओं के मुताबिक इस नैनो-सेंसर के उपयोग से भविष्य में मोबाइल फोन के जरिये भी प्रदूषण की निगरानी की जा सकती है।
जिंक ऑक्साइड से बने शहद के छत्ते जैसे आकार के इस नैनो-सेंसर को विकसित करने के लिये नई फैब्रीकेशन तकनीक का उपयोग किया गया है। इसका फायदा यह होगा कि अब इस तरह के नैनो-सेंसर बनाने के लिये लिथोग्राफी जैसी लंबी एवं खर्चीली प्रक्रिया की जरूरत नहीं होगी। इस अध्ययन से जुड़े नतीजे हाल में सेंसर्स ऐंड एक्चुऐटर्स शोध पत्रिका में प्रकाशित किए गए हैं।
शोध टीम के प्रमुख प्रोफेसर नवकांत भट्ट के अनुसार ‘‘इस सेंसर का आकार एक मिलीमीटर से भी कम है। इसे अगर सिंगल प्रोसेसिंग इलैक्ट्रॉनिक्स और छोटे डिस्प्ले से जोड़ दिया जाए तो उसका आकार कुछेक सेंटीमीटर से अधिक नहीं होगा। ट्रैफिक सिग्नल पर एक छोटी-सी डिवाइस में इस सेंसर को लगाकर उसे सेलफोन से जोड़ा जा सकता है। वह डिवाइस ब्लूटूथ के जरिये प्रदूषण संबंधी आंकड़ों को आपके सेलफोन पर भेज देगी।’’
परंपरागत कार्बन मोनोऑक्साइड सेंसर में जिंक ऑक्साइट की समतल परत होती है, जो मेटल ऑक्साइड सेमीकंडक्टर है, जिसके जरिये विद्युत प्रवाहित होती है। कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में आने पर इस परत की प्रतिरोधी क्षमता परिवर्तित होने लगती है, जिसका प्रभाव विद्युत के प्रवाह पर पड़ता है। प्रतिरोधक क्षमता में होने वाले इस बदलाव से कार्बन मोनोऑक्साइड के स्तर का पता चल जाता है।
जिंक ऑक्साइड की समतल परत के कारण सेंसर की संवेदी क्षमता तो अधिक हो जाती है क्योंकि गैसों की पारस्परिक क्रिया के लिये उपलब्ध क्षेत्र बढ़ जाता है। लेकिन, परंपरागत तकनीक के जरिये इस तरह के नैनो-सेंसर बनाने में काफी समय और धन खर्च होता है। इसलिए इस प्रक्रिया के बजाय शोधकर्ताओं ने अब नैनो-सेंसर बनाने के लिये पॉलिस्ट्रीन से बने छोटे-छोटे बीड्स का उपयोग किया है।
ऑक्सीकृत सिलिकॉन की सतह पर जब इन बीड्स को फैलाया जाता है तो ये आपस में जुड़कर एक परत बना देते हैं। इस पर जब जिंक ऑक्साइड का उपयोग किया जाता है तो वह बीड्स के बीच षटकोणीय दरारो में समा जाता है। बीड्स को जब अलग किया जाता है तो 3डी आकार में शहद के छत्ते के आकार का जिंक ऑक्साइड बचता है, जिसमें गैसों की परस्पर क्रिया के लिये समतल प्लेट की अपेक्षा अधिक जगह होती है।
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक पॉलिस्ट्रीन बीड्स के पैकेट बाजार से चार हजार से पाँच हजार रुपये में खरीदे जा सकते हैं, जिसका उपयोग हजारों की संख्या में बेहद छोटे आकार के नैनो-सेंसर बनाने में किया जा सकता है।
प्रोफेसर नवकांत भट्ट के अलावा शोध टीम में भारतीय विज्ञान संस्थान के चंद्रशेखर प्रजापति और स्वीडन के केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक भी शामिल थे।
Twitter handle : @usm_1984
/articles/phaona-maen-lagae-naainao-saensara-hao-sakaegai-paradauusana-kai-naigaraanai