पहले धरती को बचाएं

पहले धरती को बचाएं
पहले धरती को बचाएं

विचित्र विडंबना है कि जिस प्रकृति, धरती और पर्यावरण की वजह से आज हम जीवित हैं, वे ही हमारे सरोकारों की सूची से लगभग गायब हैं। कभी कभार पूजा-अर्चना में इन्हें याद भले ही कर लें, लेकिन अपनी तरफ से हम इनके लिए कभी कुछ नहीं करते।

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने वाला भारत जब तकनीक में इतना संपन्न है तो धरती पर यह तकनीक काम क्यों नहीं करती? पिछली गर्मी में बारिश के कारण किसानों की फसलें खराब हो गई थीं, जबकि मानसून में कहीं सूखे के कारण तो कहीं अधिक वर्षा के कारण किसानों की फसलों को बहुत नुकसान हुआ। ऐसे में किसानों के इस नुकसान का पूर्वानुमान लगाने वाली कोई तकनीक अभी तक हमारे पास क्यों नहीं है?

जलवायु परिवर्तन ने अपने तेवर दिखाना शुरू कर दिया है। आने वाले सालों में यह और भी खतरनाक हो सकता है। अभी हमारे देश के कुछ राज्य सूखे का सामना कर रहे हैं तो कई राज्यों को अधिक वर्षा के कारण बाढ़ और भू-स्खलन की घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ भारत में ही हो रहा है। पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन का असर हो रहा है जिसके कारण दुनियाभर के लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं।

गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन से किसानों को सबसे ज़्यादा परेशानी का सामना करना पड़ेगा, खासकर उन किसानों को जिनके पास खेती के अलावा और कोई आजीविका नहीं है। मतलब छोटे और मध्यम किसानों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ेगा, जिसकेकारण न सिर्फ इनके परिवार संकट में आएँगे, बल्कि खेती-किसानी से जुड़े सभी लोग प्रभावित होंगे और खाद्यान्न संकट पैदा होगा सो अलग। जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों की फसलें खराब हो रही हैं जिससे खाद्य सामग्रियों के दाम अप्रत्याशित रूप से बढ रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन की समस्या से निजात पाने में हर व्यक्ति को अपना योगदान देना होगा। चूँकि इस समस्या के उत्पन्न होने में हर व्यक्ति का हाथ है, इसलिए इसके समाधान में भी हर व्यक्ति को भागीदार होना होगा। जिस प्रकार से हमने पर्यावरण को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, ठीक वैसे ही हम सबको पर्यावरण को ठीक करने के लिए कमर कस लेना चाहिए।

यदि अभी भी आप इस समस्या को हल्के में लेना चाहते हैं तो भविष्य में आने वाले खतरों का सामना करने के लिए तैयार रहें। महँगाई से मुकाबला करने के लिए तैयार रहें, खाद्यान्न संकट के लिए तैयार रहें, जल संकट के लिए तैयार रहें, सूखे के लिए तैयार रहें, बाढ़ के लिए तैयार रहें, भीषण गर्मी के लिए तैयार रहें, भू- स्खलन के लिए तैयार रहें, नई-नई बीमारियों के लिए तैयार रहें।

दूसरा विकल्प यह है कि आप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करें औरप्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाली आदतें त्यागें। विकास का जो बेढंगा मॉडल अभी दुनिया भर में चल रहा है, उस पर पुनर्विचार करें। जंगलों और पहाड़ों पर मानवीय हस्तक्षेप की रोकथाम करें। प्रकृति का चीरहरण बंद करें। अन्यथा प्रकृति की व्यवस्था में देर तो है, परंतु अंधेर बिलकुल भी नहीं है। पूरी दुनिया तभी तक बची हुई है जब तक प्रकृति का धैर्य है, जिस दिन यह धैर्य टूटा कि प्रकृति का तांडव देखने को मिलेगा ।

ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का संकट सिर्फ एक दिन में खड़ा हो गया है और एक दिन में इसका हल निकल जाएगा। यह धीरे-धीरे होने वाली एक घटना है और इसका समाधान भी धीरे-धीरे ही होगा। वैसे तो देश-विदेश की सारी समस्याओं की चर्चा आमजन कर ही लेते हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने के लिए किसी के पास समय नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को आमजन कोई समस्या ही नहीं मानते। इसीलिए यह समस्या इतनी विकराल हो गई है।

जैसे भोजन की गुणवत्ता पर किसी का ध्यान नहीं है, वैसे ही जलवायु परिवर्तन पर भी किसी का ध्यान नहीं है। 'हरितक्रांति' के बाद हमारे देश में रसायन आधारित खेती के कारण शुद्ध और पोषणयुक्त भोजन का अभाव हो गया है। हमारा देश ही नहीं, अपितु विश्वभर के लोग रसायनयुक्त भोजन करने पर मजबूर हैं। जिस भोजन से जीवन चलना है उस पर किसी का ध्यान ही नहीं कि उसे किस विधि से उत्पादित किया जा रहा है या उसको उपजाने में कितने ज़हरीले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। इसी कारण विभिन्न बीमारियों का जन्म हो रहा है।

जिस प्रकार हमने रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल करके अपने भोजन को पोषण-विहीन बना दिया है, ठीक उसी प्रकार आधुनिक और सुविधाजनक जीवनशैली के लिए पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है। हम नादानों की तरह जंगलों की कटाई कर रहे हैं। बेशकीमती पानी को सहेजने की जगह उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। पहाड़ों को भी हमने नहीं छोड़ा है जो कि हमारे रक्षा कवच हैं। शहर-दर-शहर पहाडिय़ों को छलनी कर दिया है
प्रकृति हमको जीवन जीने के सारे बहुमूल्य तत्व मुफ्त में प्रदान करती है, पर हम इन बहुमूल्य तत्वों को बर्बाद करने में लगे हुए हैं। जबकि हम सबको बस इतना करना है कि जिन प्रकृति-प्रदत्त तत्वों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उतना ही हिस्सा प्रकृति को हमें वापस लौटाना होगा। यह ज़िम्मेदारी हरेक व्यक्ति की होनी चाहिए। इस समस्या को न तो सरकारों के हवाले किया जाना चाहिए और न ही किसी 'जी-20' जैसे संगठन के। यह तो धरती पर निवास कर रहे हर व्यक्ति की अपनी निजी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वह सालभर में जितना पानी इस्तेमाल करे, उतना ही पानी वापस धरती को लौटाए।

जितनी ऑक्सीजन साल भर में पौधों से ले, उतनी वापस करने के लिए उतने पौधे हर साल लगाए। यदि प्रकृति साल भर तरह-तरह के फल खाने को दे रही है तो मेरी भी जिम्मेदारी है कि फलदार वृक्ष लगाऊँ। यदि जंगलों से वर्षा हो रही है तो जंगलों को बचाने, बनाने में सहयोग करूँ। नदियों से हमारा जीवन चल रहा है तो हमको नदियों को बचाकर रखना होगा, न कि उनको प्रदूषित करना है। इस प्रकार प्रकृति हमको जीवन ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का संकट सिर्फ एक दिन में खड़ा हो गया है और एक दिन में इसका हल निकल जाएगा। यह धीरे-धीरे होने वाली एक घटना है और इसका समाधान भी धीरे-धीरे ही होगा। वैसे तो देश-विदेश कीसारी समस्याओं की चर्चा आमजन कर ही लेते हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने के लिए किसी के पास समय नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को आमजन कोई समस्या ही नही मानते।

इसीलिए यह समस्या इतनी विकराल हो गई है। जैसे भोजन की गुणवता पर किसी का ध्यान नहीं है, वैसे ही जलवायु परिवर्तन पर भी किसी का ध्यान नहीं है। 'हरितक्रांति' के बाद हमारे देश में रसायन आधारित खेती के कारण शुद्ध और पोषणयुक्त भोजन का अभाव हो गया है। हमारा देश ही नहीं, अपितु विश्वभर के लोग रसायनयुक्त भोजन करने पर मजबूर हैं। जिस भोजन से जीवन चलना है उस पर किसी का ध्यान ही नहीं कि उसे किस विधि से उत्पादित किया जा रहा है या उसको उपजाने में कितने जहरीले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। इसी कारण विभिन बीमारियों का जन्म हो रहा है।

जीने के लिए जो भी कुछ दे रही है, उसे कीमती समझकर उसका सम्मान करें और उसको नुकसान पहुँचाने वाला कोई भी कार्य न करें। जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने की दिशा में यही सबसे बड़ा कदम होगा। किसानों से अपेक्षा है कि वे खेती करने के वर्तमान तरीकों को बदल लें और देश-काल-परिस्थिति के हिसाब से खेती करें, प्रकृति को नुकसान हो ऐसी खेती नहीं करें। रसायन आधारित खेती के दुष्परिणाम अब पूरे विश्व के सामने आने लगे हैं। इन रसायनों के कारण ही भू-जल ज़हरीला हो रहा है, वायु प्रदूषण फैल रहा है और मृदा की उर्वरा शक्ति भी कमज़ोर हो रही है, जबकि खेती के लिए इन तीनों चीज़ों का शुद्ध होना बहुत ज़रूरी है। इनके बिना खेती की कल्पना करना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए जितनी जल्दी हो, इन रसायनों से तौबा कर लें। सजग रहें, सतर्क रहें।

स्रोत- पर्यावरण डाइजेस्ट 

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Post By: Shivendra
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