वसुंधरा दाश प्राइम मिनिस्टर रूरल डेवलपमेंट फेलोशिप (अध्येतावृत्ति) के तहत मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के गाँवों में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलोशिप तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के समय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की पहल पर शुरू हुई थी। सम्प्रति 226 युवा इस फेलोशिप के तहत 18 राज्यों के 111 जिलों में काम कर रहे हैं। ये लोग स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर काम करते हैं। वसुंधरा दाश वर्ष 2014 से काम कर रही हैं।
छिंदवाड़ा में काम करते हुए उन्होंने कई ऐसे गाँवों के बारे में पता लगाया जो फ्लोराइड से प्रभावित हैं। इन गाँवों में वे स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर कई तरह के काम कर रही हैं। इण्डिया वाटर पोर्टल (हिन्दी) के उमेश कुमार राय को वसुंधरा ने अपने कामकाज और फ्लोराइड से जुड़े गाँवों के हालात के बारे में खुलकर बाताया। पेश है वसुंधरा दाश से बातचीत पर आधारित साक्षात्कार-
आपको फेलोशिप कब और कैसे मिली?
मैं पिछले चार साल से पर्यावरण और विकास के क्षेत्र में काम रही हूँ। वर्ष 2014 में मुझे यह फेलोशिप मिली। इसमें चयनीत अभ्यर्थियों को 3 साल तक सुदूर ग्रामीण इलाकों में काम करना पड़ता है। फिलहाल मैं छिंदवाड़ा में ही जिला पंचायत के साथ मिलकर काम कर रही हूँ। इस फेलोशिप के तहत हमारा काम प्रशासन और हाशिए पर जी रहे लोगों के बीच की खाई को पाटना है ताकि इन लोगों को सरकारी योजनाअों का लाभ मिल सके।
छिंदवाड़ा में काम करते फ्लोराइड ग्रस्त गाँवों तक कैसे पहुँचीं?
मध्य प्रदेश के वन विभाग के एक प्रोजेक्ट से जुड़ी हुई थी। इस प्रोजेक्ट के सिलसिले में हम सतपुड़ा की तरफ छिंदवाड़ा के जमई ब्लॉक में पहुँचे तो चउमउ, केरिया, गाई घाट, सिंद्राई मउ आदि गाँवों में प्लोराइड के कहर के बारे में पता चला। इन आदिवासी गाँवों में कई बच्चे और बुजुर्ग स्केलेटल (हडि्डयों में टेढ़ापन) और डेंटल फ्लोरोसिस (दाँतों में पीले और सफेद धब्बे) से ग्रस्त पाये गए। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि कई गाँवों के लोगों को पता ही नहीं था कि उन्हें यह रोग क्यों हो रहा है लेकिन हमने उन्हें जागरूक किया।
इन गाँवों को लेकर आपकी क्या योजना है?
हम स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। इसमें वन, स्वास्थ्य और शिक्षा समेत कई विभागों को शामिल किया गया है। हमलोग एक योजना तैयार कर रहे हैं। इसके तहत स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाएगा ताकि वे फ्लोरोसिस के लक्षण पहचान सकें। आँगनबाड़ी केन्द्र की सेविकाअों को भी ट्रेनिंग दी जाएगी। साथ ही स्कूलों में मिलने वाले मिड डे मील में आँवले की गोलियाँ, दूध और अन्य पौष्टिक आहार दिये जाएँ, इसकी भी व्यवस्था कर रहे हैं। इन गाँवों में रहने वाले लोगों की स्क्रीनिंग की प्रक्रिया चल रही है ताकि फ्लोरोसिस ग्रस्त मरीजों की शिनाख्त की जा सके।
इन गाँवों में पहुँचना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये गाँव शहर से बहुत दूर हैं। बारिश के दिनों में इन गाँवों से सीधा सम्पर्क भी नहीं रह पाता।
सरकार का इस पर अब क्या रवैया है?
जिला कलक्टर खुद स्वास्थ्य व अन्य विभागों की टीम लेकर इन गुमनाम गाँवों में गए। यहाँ एक ही दिन में फ्लोराइड के 12 नए केस मिले। पाँच साल की एक बच्ची तो ऐसी मिली जिसकी पूरी टांग ही टेढ़ी हो गई थी। अभी वहाँ कई तरह के प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है।
क्या सरकार अकेले इन समस्याअों का मुकाबला कर सकती है?
मुझे ऐसा नहीं लगता है। सरकार तो अपना काम कर ही रही है साथ ही हाशिए पर जी रहे इन आदिवासी समुदायों को भी जागरूक किया जाना चाहिए। ग्रामीण अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं। उन्हें यह बताना होगा कि सरकारी योजनाओं के तहत उन्हें जो मिल रहा है या जो उन्हें मिलना चाहिए, वो उनका हक है। लोग जब अपने अधिकारों को लेकर जागरूक होंगे तो वे सरकार से सीधे संवाद कर पाएँगे। सरकारी तंत्र को मजबूत किया जाना जरूरी है। गाँवों में जाकर जमीनी स्तर पर काम करना होगा। एनजीओ को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि इनकी पहुँच वहाँ तक होती है जहाँ सरकार नहीं पहुँच पाती है।
आप गाँवों में काम कर रही हैं। आजादी के 69 साल हो चुके हैं, तब से कितना बदला है गाँव?
मुझे लगता है कि देश के गाँव अब भी वहीं हैं जहाँ 1947 में थे। गाँवों में अभी भी पीने के लिये स्वच्छ पानी नहीं है। स्वास्थ्य की न्यूनतम सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। लोग जीने के लिये जहर युक्त (फ्लोराइड युक्त) पानी पीने को मजबूर हैं। आजादी के 69 वर्ष बीत जाने के बाद भी हम स्वच्छ पानी पर ही चर्चा कर रहे हैं तो यह हमारे लिये शर्म की बात है। हमें नहीं लगता है कि हम एक स्वाधीन देश में रह रहे हैं।
मैं यह भी मानती हूँ कि यह समाज की विफलता है। युवाओं को भी अपना सामाजिक दायित्व समझना होगा। हम युवाअों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी। गाँवों में जाकर लोगों को जागरूक करना होगा। जब तक पढ़े-लिखे युवा अपनी सामाजिक जिम्मेवारी नहीं समझेंगे, चीजें बहुत अधिक नहीं बदलने वाली।
सरकार को आपका कोई सुझाव?
सरकार को विकास का पैमाना बदलना चाहिए। सरकार जब भी कोई योजना लाती है या कोई काम करती है तो उसका परिणाम प्रतिशतों में देखना चाहती है। लेकिन कई ऐसे काम हैं जिनका परिणाम अंकों में देखना सम्भव नहीं है लेकिन उससे लोगों को फायदा हो रहा है।
सरकारी अफसरों को भी यह सोचना होगा कि वे आम लोगों के सेवक हैं। उनकी नियुक्ति जनता की सेवा करने के लिये हुई है। उन्हें सेवा भावना से काम करना होगा। अफसरों में यह भावना जब आएगी, तभी बड़ा बदलाव सम्भव है।
आगे आप क्या करना चाहती हैं?
मैं आगे भी सरकार के साथ जुड़कर काम करना चाहती हूँ। मैं सरकारी नीतियों का अध्ययन करना चाहती हूँ और जमीन स्तर पर काम करने की इच्छुक हूँ ताकि सरकारी योजनाअों का लाभ जरूरतमन्द तबके तक पहुँचे।
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