फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर सालों तक बहस चली है। यह बहस फिर से धरातल पर आया जब 1990 में नेशनल इंस्टीट्यूट और एनवायरमेंटल हेल्थ साइंस के हिस्से के रूप में नेशनल टॉक्सिलॉजी प्रोग्राम ने बताया कि 2 सालों तक पुरुष चूहों को उच्च फ्लोराइडयुक्त जल का सेवन कराने से ओस्टियोसरकोमस की मात्रा बढ़ जाती है। हालांकि मानव और दूसरे जीवों में फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर दूसरे अध्ययनों में ऐसी कोई बात निकल कर सामने नहीं आई। फ्लोराइड नाम उस यौगिक समूह को दिया गया है जो फ्लोरीन से बने प्राकृतिक तत्व होते हैं। फ्लोराइड पानी और मिट्टी में विभिन्न स्तरों पर मौजूद होते हैं।
1940 में वैज्ञानिकों ने पाया था कि जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा पानी के एक मिलियन हिस्से में एक से अधिक होती है वहाँ के लोगों के दाँत में कैविटी ज्यादा जमती है बनिस्पत ऐसे इलाकों के जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा इससे कम होती है। बाद के कई अध्ययनों ने इस बात को प्रमाणित किया है।
आने वाले वक्त में यह भी पता चला कि फ्लोराइड दांतों की सुरक्षा कर सकता है और उसे बैक्टीरिया से भी बचा सकता है। यह बैक्टीरिया मुंह में अम्ल बनाता है और खनिज तत्वों को नुकसान पहुँचाता है, जिससे दांतों पर एनामेल फिर से बनते हैं और यह घिसने लगता है।दांतों के निर्माण के साथ-साथ यह हड्डियों में भी घुलने लगता है।
पूरे जीवनकाल में फ्लोराइड के अत्यधिक सेवन के कारण वयस्कों की हड्डियां टूटने लगती हैं और उन्हें दर्द और थकावट का अहसास हो सकता है। आठ साल तक के बच्चे अगर फ्लोराइड का अत्यधिक सेवन करें तो उनके दाँत बदरंग हो सकते हैं और उन पर गड्ढे हो सकते हैं।
यहाँ फ्लोराइड के तमाम स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभावों का जिक्र नहीं है, यह सिर्फ आमलोगों को सूचित करने का प्रयास है कि फ्लोराइड युक्त पानी पीने का सेहत पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
कुछ फ्लोराइड यौगिक, जैसे सोडियम फ्लोराइड और फ्लोरोसिलिकेट पानी में आसानी से घुल जाते हैं और यह चट्टानों के बीच बने छिद्र से भूजल तक पहुंच जाते हैं। कई जगह पानी की आपूर्ति में भी प्राकृतिक रूप से उपस्थित फ्लोराइड होते हैं। उर्वरक और एल्यूमीनियम फैक्टरी के अवशिष्ट जल के भूजल में मिलने से भी पानी फ्लोराइड युक्त हो सकता है। कुछ देशों में दाँत को स्वस्थ बनाने के लिये भी पानी में फ्लोराइड मिलाया जाता है।
जब रूटीन मॉनिटरिंग से जाहिर हो कि आपके पेयजल में फ्लोराइड एमसीएल से अधिक है तो आपके वाटर सप्लायर को फ्लोराइड लेवल कम करने के लिये प्रयास करना चाहिए। वाटर सप्लायर को जल्द से जल्द इस बात की सूचना अपने उपभोक्ताओं को दे देनी चाहिए, 30 दिनों के अंदर। खतरे से बचाव के लिये उन्हें पेयजल आपूर्ति की वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए।
1. फ्लोरीन धातु, अधातु और जैविक तत्वों का यौगिक होता है।
2. फ्लोराइड दाँत और हड्डियों में घुल जाता है मगर इसकी अधिक मात्रा खतरनाक हो सकती है।
फ्लोराइड दो तरीके से दांतों की सुरक्षा करता है।
1. अखनिजकरण से सुरक्षा – जब मुंह में बैक्टीरिया के साथ चीनी घुलता है, वे अम्ल की रचना करते हैं। अम्ल दाँत के एनामेल को हटाते हैं और हमारे दांतों को नुकसान पहुंचाते हैं। फ्लोराइड इन परिस्थितियों में दांतों की सुरक्षा करते हैं।
2. पुनर्खनिजकरण – अगर अम्ल की वजह से दांतों में पहले से कोई नुकसान हो गया हो तो फ्लोरीन उस क्षेत्र में एनामेल को मजबूत करने में मददगार होते हैं, इस प्रक्रिया को पुनर्खनिजकरण कहते हैं।
फ्लोराइड कैविटी की सुरक्षा करने और दाँतों को मजबूत करने में मददगार होते हैं। मगर कैविटी पहले से बन गए हों तो ये बहुत कम प्रभावशाली हो पाते हैं।
फ्लोराइड दांतों के क्षरण की प्रक्रिया को बाधित करता है।
1. एनामेल निर्माण की प्रक्रिया में बदलाव लाता है, जिससे वह अम्लों के हमले को झेलने में मददगार हो सके। यह संरचनाचत्मक बदलाव बच्चों के एनामेल विकसित होने के वक्त होता है, सात साल से पहले।
2. ऐसे वातारवरण का निर्माण करता है जिसमें बेहतर गुणवत्ता के एनामेल का निर्माण हो सके। जो अम्लीय हमलों को रोक सके।
3. बैक्टीरिया की अम्ल निर्माण की क्षमता को कम करता है, यह दांतों के क्षरण का प्रमुख कारण होता है।
दुनिया के सभी लोक स्वास्थ्य प्रशासन और मेडिकल एसोसिएशन बच्चों और वयस्कों के लिये फ्लोराइड के न्यूनतम मात्रा में सेवन की अनुशंसा करते हैं। बच्चे अपने स्थायी दांतों की सुरक्षा के लिये फ्लोराइड की जरूरत महसूस करते हैं। वयस्क के दांतों के क्षरण से बचाव के लिये फ्लोराइड की आवश्यकता होती है।
कई लोग, खासतौर पर जो दांतों के क्षरण के मामले में खतरे के निशान पर होते हैं, उन्हें फ्लोराइड ट्रीटमेंट से लाभ होता है। इसमें वे लोग भी होते हैं, जिनमेः
1. स्नैकिंग हैबिट
2. दांतों की खराब साफ-सफाई
3. डेंटिस्ट के पास पहुंच का अभाव।
4. उच्च सुगर और कार्बोहाइड्रेट वाले आहार का सेवन।
5. ब्रिज, क्राउन, ब्रेस और दूसरी प्रक्रियाओं को अपनाना।
6. दांतों के क्षरण का इतिहास।
फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर सालों तक बहस चली है। यह बहस फिर से धरातल पर आया जब 1990 में नेशनल इंस्टीट्यूट और एनवायरमेंटल हेल्थ साइंस के हिस्से के रूप में नेशनल टॉक्सिलॉजी प्रोग्राम ने बताया कि 2 सालों तक पुरुष चूहों को उच्च फ्लोराइडयुक्त जल का सेवन कराने से ओस्टियोसरकोमस(बोन ट्यूमर) की मात्रा बढ़ जाती है। हालांकि मानव और दूसरे जीवों में फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर दूसरे अध्ययनों में ऐसी कोई बात निकल कर सामने नहीं आई।फरवरी, 1991 में पब्लिक हेल्थ सर्विस रिपोर्ट में यह घोषित किया गया कि फ्लोराइड और कैंसर का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह रिपोर्ट पिछले 40 सालों में 50 लोगों की आबादी की समीक्षा के आधार पर सामने लाया गया, नतीजा यह निकला कि पेयजल में फ्लोराइड की अधिक मात्रा से मानवों में कैंसर के लक्षण पाए जाने के प्रमाण नहीं हैं, यह ह्यूमन इपिडेमियोलॉजिकल डाटा के आधार पर साबित हुआ है।
पीएचएस रिपोर्ट के लिये समीक्षा की गई एक स्टडी में एनसीआई के वैज्ञानिकों ने पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा और अमेरिका में पिछले 36 सालों में कैंसर हुए मौतों और पिछले 15 सालों में सामने आए कैंसर के नए मामलों का अध्ययन किया। उन्होंने अब तक दर्ज कैंसर की वजह से हुए 22 लाख मौतों का अध्ययन करते हुए पाया कि इनमें से 1.25 लाख मौतें उन प्रांतों में हुई हैं जहाँ पानी में फ्लोराइड मिलाया जाता है, इस तरह अध्येताओं ने पाया कि कैंसर से हुई मौतों के पीछे फ्लोराइड कोई वजह नहीं है।
1993 में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के एक हिस्से के तौर पर काम करने वाले नेशनल रिसर्च कॉउंसिल की सब कमेटी ने फ्लोराइड के सेहत पर प्रभाव का अध्ययन किया, उन्होंने फ्लोरीडेटड पेयजल और कैंसर के बढ़ते प्रभाव से सम्बन्धित दस्तावेजों का परीक्षण किया। इस समीक्षा में 50 से अधिक मानव इपिडेमोजिकल अध्ययन और छह पशु सम्बन्धी अध्ययन के आंकड़ों का विश्लेषण किया। सब कमेटी इस नतीजे पर पहुंची कि कोई आंकड़ा यह प्रदर्शित नहीं करता है कि फ्लोराइड युक्त पेयजल और कैंसर के बीच कोई अन्तर्सम्बन्ध है। 1999 में सीडीसी समर्थित एक रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि की गई। सीडीसी इस नतीजे पर पहुंची कि आंकड़ों के अध्ययन से ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता है जिससे फ्लोराइड युक्त पेयजल और कैंसर के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। आगे ओस्टियोसरकोमा के रोगियों से बातचीत की गई और उनके अभिभावकों ने विरोधाभाषी नतीजे पेश किए, लेकिन कोई भी इस बात का स्पष्ट प्रमाण नहीं दे सके कि फ्लोराइड के सेवन से ट्यूमर का रिस्क बढ़ता है।
हाल में अध्येताओं ने फ्लोराइड के प्रभाव और ओस्टियोसरकोमा के बीच संभावित सम्बन्धों का नए तरीके से अध्ययन किया, उन्होंने सामान्य हड्डी में फ्लोराइड के जमाव का पता लगाया और उसकी तुलना ट्यूमर के रोगियों की हड्डी में फ्लोराइड के जमाव की मात्रा से की। चूंकि फ्लोराइड सामान्य रूप से हड्डियों में जम जाता है, यह अध्ययन ज्यादा सटीक नतीजे दे सकता था बनिस्पत लोगों की याददास्त और नगरपालिका के वाटर ट्रीटमेंट रिकार्ड के इस विश्लेषण से पता चला कि ओस्टियोसरकोमा के रोगियों की हड्डी में फ्लोराइड के स्तर और किसी दूसरे ट्यूमर से पीड़ित लोगों की हड्डियों में फ्लोराइड के स्तर में फर्क नहीं था।
एनामेल का आकार सामान्यतः पारभाषी सेमीवर्टिफार्म प्रकार का होता है। इसकी सतह चिकनी, चमकीली और सामान्यतः थोड़ी पीली क्रीमी सफेद होती है।
ये एनामेल सामान्य एनामेल से थोड़े अधिक पारभाषी होते हैं, इनमें थोड़ी सफेद चित्तियों से लेकर सफेद धब्बे तक हो सकते हैं। यह प्रमाण उन दांतों में पाए जाते हैं जहाँ फ्लोरोसिस के हल्के प्रकार की उपस्थिति होती है, इन्हें न फ्लोरोसिस कहा जा सकता है और न ही सामान्य दाँत।
छोटे पारभाषी, सफेद धब्बे दांतों पर पाया जाना, ये दांतों का 25 फीसदी से अधिक आकार नहीं घेरते। सामान्यतः ये धब्बे 1-2 एमएम के अधिक बड़े नहीं होते हैं।
दांतों पर ज्यादा गहरे धब्बों का उभरना फिर भी ये दाँत के क्षेत्रफल का 50 फीसदी से अधिक जगह नहीं घेरते।
दाँत के लगभग पूरे एनामेल सतह पर इसका प्रभाव फैल जाना और सतह का घिसा हुआ नजर आना। अक्सर ये धब्बे भूरे रंग के नजर आने लगते हैं।
इसमें औसतन गम्भीर और गम्भीर दोनों तरह की किस्में आती हैं। इसमें दांतों की पूरी सतह प्रभावित हो जाती है और हर जगह हाइपोप्लासिया का प्रभाव नजर आने लगता है। इस प्रकार के प्रमुख लक्षण यह हैं कि दाँत पर जगह-जगह भूरे धब्बे नजर आते हैं और दाँत घिसा हुआ नजर आने लगता है।
वातावरण में फ्लोराइड के संभावित स्रोत और इसकी वजह को चित्र 1 में विस्तार से दिखाया गया है।
भूमिगत जल में फ्लोराइड की सर्वाधिक मात्रा फ्लोराइड वाले चट्टानों की वजह से पाई जाती है। अधिक सांद्रता वाले फ्लोराइड युक्त जल अधिकतर समुद्री इलाकों और पर्वत के निचले इलाकों में पाए जाते हैं (डब्लूएचओ, 2001; फावेल इट अल।, 2006)। जिन देशों में फ्लोराइड पाए गए हैं वे हैं सीरिया से होते हुए जार्डन, लीबिया, अल्जीरिया, सूडान, केन्या, तुर्की से इराक, इरान, अफगानिस्तान, भारत, उत्तरी थाइलैंड और चीन। अमेरिका और जापान के कुछ इलाके भी इससे प्रभावित हैं (डब्लूएचओ, 2001)। फ्लोराइड आग्नेय और परतदार चट्टानों में पाए जाते हैं। डीयर एट आल।, (1983) के मुताबिक इन दोनों किस्म के चट्टानों में लगभग एक जैसे फ्लोराइड पाए जाते हैं। फ्लोराइड निम्न रूप में पाए जाते हैं,मीका, क्ले, विलुआनाइट और फास्फोराइट (मैथेसस, 1982; पिकरिंग, 1985; हेम, 1986; हांडा, 1988; हैदोती, 1991; गाउमेट एट आल, 1992; गासिरी और डेविस, 1993; दत्ता एट आल, 1996; एपेम्बायर एट आल, 1997; कुंडू एट आल, 2001; महापात्रा एट आल, 2009)। सामान्य दबाव और तापमान में फ्लोराइट और क्रायोलाइट जैसे फ्लोराइड खनिज आसानी से पानी में नहीं घुलते। लेकिन अल्कलाइन कंडीशन में और 750 और 1750 μS/cm के बीच की विशिष्ट सुचालकता में फ्लोराइट खनिज के घुलने की दर में वृद्धि हो जाती है (सक्सेना और अहमद, 2001)। ग्रेनाइट पत्थर फ्लोराइड पाए जाने वाले चट्टानों में खास स्रोत हैं और उनमें फ्लोराइड की मात्रा 500 से 1400 मिग्रा प्रति किलो तक पाई जाती है, यह किसी अन्य चट्टान से काफी अधिक है (कोरिटिंग, 1978; क्राउस्कोफ और बर्ड, 1995)। दुनिया भर में ग्रेनाइट चट्टानों में फ्लोराइड की औसत मात्रा 810 मिग्रा प्रति किलो है(वेडे पोह्ल, 1969)। इन चट्टानों के क्षरण का नतीजा भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ना है। जब ये चट्टान लंबे समय तक जल स्रोतों से संपर्क में रहते हैं तो भूमिगत जल में स्वभाविक तौर पर फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है। नसीम एट आल। (2010) के मुताबिक पाकिस्तान में ग्रेनाइट पत्थर और मिट्टी में औसतन फ्लोराइड क्रमशः 1939 और 710 एमजी प्रति किलो पाया जाता है। नलगौंडा, भारत में ग्रेनाइट और आग्नेय ग्रेनाइट फ्लोराइड वाले खनिज हैं और इनमें फ्लोराइट (0 से 3.3 फीसदी), बायोटाइट (0.1 से 1.7 फीसदी) और हॉर्नब्लेंड (0.1 से 1.1 फीसदी) पाया जाता है (राममोहन राव एट अल 1993)। मंडल एट अल (2009) ने एक खास इलाके से रिपोर्ट किया है कि यहाँ कुछ चट्टानों में 460 से 1706 मिग्रा प्रति किलो फ्लोराइड पाया जाता है। चाइ एट अल।(2006) द्वारा किए गए एक प्रयोगशाला अध्ययन से पता चला है कि ग्रेनाइट चट्टानों से रिस कर बहने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा 6 से 10 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है।
ज्वालामुखी के चट्टानों में अक्सर फ्लोराइड भारी मात्रा में पाया जाता है। हाइड्रोजन फ्लोराइड मैग्मा में आसानी से घुल जाता है और विसरण की क्रिया के दौरान धीरे-धीरे रिसता है (डी’ अलेसांद्रो, 2006)। ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान ज्वालामुखी के राख के रूप में फ्लोराइड वायुमंडल में चला जाता है और बारिश के मौसम में तथा दूसरी वजहों से यह धरातल पर पहुंच जाता है। धरातल पर मौजूद फ्लोराइड बारिश के पानी के साथ बहुत आसानी से भूमिगत जल में मिल जाता है। आइडलैंड में ज्लालामुखी विसरण बहुत आम है और 1978 में लेकी के विसरण के दौरान इंसानों और पशुओं में फ्लोराइड के जहरीले प्रभाव को दर्ज किया गया था (फ्रीड्रिक्सन, 1983, स्टिंग्रिम्सन, 2010)। ज्वालामुखी राख आसानी से घुल जाता है इसलिये भूमिगत जल में फ्लोराइड का जहरीला प्रभाव आने का खतरा काफी अधिक रहता है। इन ज्वालामुखी स्रोतों की वजह से केन्या में भी भूमिगत जल के जहरीले होने के प्रमाण मिले हैं(गासिरी और देविस, 1993)।
ज्वालामुखी की तरह फॉसिल फ्यूल के जलने से निकले फ्लाइ एश में भी फ्लोराइड की उच्च मात्रा पाई जाती है। पावर प्लांटों में कोयले के दहन की वजह से पूरी दुनिया में 100 से 150 मिलियन टन से अधिक फ्लाइ एश हर साल तैयार होता है (प्रसाद और मंडल, 2006; पीकोस और पास्लावास्का, 1998)। फ्लाइ एश का ठीक से विसर्जन नहीं किए जाने की वजह से फ्लोराइड भूमिगत जल में घुल जाता है। चर्चिल एट अल (1948) में कहते हैं कोयले में 40 से 295 मिग्रा प्रति किलो फ्लोराइड पाया जाता है। कोयले में फ्लोराइड की मात्रा कोयले के प्रकार पर निर्भर करती है। ईंट भट्ठे में जलने वाले कोयले से भी फ्लोराइड निकलता है(झा एट अल., 2008)
फास्फेट वाले उर्वरकों की वजह से पानी और मिट्टी में फ्लोराइड घुल जाता है (मोटालाने और स्ट्रायडोम, 2004; फारूकी एट आल।, 2007)। यह जाहिर है कि इन उर्वरकों में फ्लोराइड की निर्णायक मात्रा मौजूद रहती है, जैसे सुपरफास्फेट में (2750 मिग्रा प्रति किलो), पोटाश (10 मिग्रा प्रति किलो) और एनपीके (1657 मिग्रा प्रति किलो) आदि (श्रीनिवास राव, 1997)। सिंचाई के पानी में भी 0.34 मिग्रा प्रति लीटर फ्लोराइड होता है। खेती के इलाके में लगातार सिंचाई की वजह से भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है (यंग एट आल।, 2010)। ब्राजील में एक फास्फेट फर्टिलाइजर प्लांट के नज़दीक भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा 10 मिग्रा प्रति किलो पाई गई। दत्ता एट आल (1996) के मुताबिक अगर एक हेक्टेयर खेतिहर जमीन 10 मिग्रा प्रति लीटर फ्लोराइड वाले पानी से 10 सीएम सिंचाई की जाए तो मिट्टी में 10 किलो फ्लोराइड घुल जाता है। यह भूमिगत जल और मिट्टी में फ्लोराइड घुलने के खतरे को दर्शाता है। इसके अलावा औद्योगिक क्रियाएं जैसे एल्युमीनियम को पिघलाना (हैदाउटी, 1991), सीमेंट उत्पादन और सीरामिक की भट्ठी(डब्लूएचओ, 2002) की वजह से भी वातावरण में फ्लोराइड घुलने लगता है।
अधिक मात्रा में फ्लोराइड के सेवन से डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस होने की प्रबल संभावना रहती है। इसके अधिक दिनों तक सेवन से यह गम्भीर से खतरनाक रूप भी ले सकता है। अयूब और गुप्ता (2006) के मुताबिक 25 देशों के 20 करोड़ से अधिक लोग फ्लोरोसिस के गम्भीर खतरे का सामना कर रहे हैं, इनमें दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत और चीन बुरी तरह प्रभावित हैं। भारत में 6.2 करोड़ लोगों को फ्लोराइड युक्त जल के सेवन की वजह से सेहत से सम्बन्धित गम्भीर बीमारियाँ हो रही हैं, इनमें 60 लाख बच्चे हैं (अंदेजाथ और घोष, 2000)। चीन के 29 प्रांतों, नगरपालिकाओं और ऑटोनोमस इलाकों में इंडेमिक फ्लोरोसिस का गहरा प्रभाव है (वांग और हुआंग, 1995)। घरों में चाय बनाने या घरों को गर्म करने के लिये वहाँ घर में कोयला जलाया जाता था, जिस वजह से वहाँ पहले से ही डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस का खतरा रहा है (एंडो एट आल।, 1998, वाटानाबे एट आल।, 2000, एंडो एट आल।, 2001)। दिसानायके (1991) कहते हैं कि श्रीलंका में सूखे इलाके में जहाँ फ्लोराइड की मात्रा अधिक पाई जाती है वहाँ डेंटल फ्लोरोसिस का खतरा रहता है और जहाँ नमी वाले इलाके में फ्लोराइड बहुत कम होता है, दाँत कमजोर होने लगते हैं। इथियोपिया रिफ्ट वैली में जहाँ एक करोड़ लोग रहते हैं, 80 लाख लोग अधिक फ्लोराइड के खतरे में हैं(रेंगो एट आल।,2010)। फ्लोराइड की अलग-अलग मात्रा के सेवन से सेहत पर खतरे के बारे में दिसानायके (1991) कहते हैं, अगर पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा 0.5 मिग्रा प्रति लीटर से कम हो तो दाँत कमजोर होने लगते हैं, अगर यह 0.5 से 1.5 मिग्रा प्रति लीटर हो तो दांतों के लिये ठीक रहता है और यह 1.5 मिग्रा प्रति लीटर से 4 मिग्रा प्रति लीटर के बीच हो जाए तो डेंटल फ्लोरोसिस होने लगता है। 4 से 10 मिग्रा प्रति लीटर की मात्रा डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस का खतरा उत्पन्न कर देती है। जब यह 10 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक हो जाए तो हड्डियां मुड़ने लगती है। हालांकि फ्लोरोसिस का खतरा सिर्फ पानी में इसकी मात्रा अधिक होने से नहीं होता बल्कि यह खान-पान की आदतों पर भी निर्भर करता है।
1940 में वैज्ञानिकों ने पाया था कि जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा पानी के एक मिलियन हिस्से में एक से अधिक होती है वहाँ के लोगों के दाँत में कैविटी ज्यादा जमती है बनिस्पत ऐसे इलाकों के जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा इससे कम होती है। बाद के कई अध्ययनों ने इस बात को प्रमाणित किया है।
आने वाले वक्त में यह भी पता चला कि फ्लोराइड दांतों की सुरक्षा कर सकता है और उसे बैक्टीरिया से भी बचा सकता है। यह बैक्टीरिया मुंह में अम्ल बनाता है और खनिज तत्वों को नुकसान पहुँचाता है, जिससे दांतों पर एनामेल फिर से बनते हैं और यह घिसने लगता है।दांतों के निर्माण के साथ-साथ यह हड्डियों में भी घुलने लगता है।
फ्लोराइड का सेहत पर प्रभाव
पूरे जीवनकाल में फ्लोराइड के अत्यधिक सेवन के कारण वयस्कों की हड्डियां टूटने लगती हैं और उन्हें दर्द और थकावट का अहसास हो सकता है। आठ साल तक के बच्चे अगर फ्लोराइड का अत्यधिक सेवन करें तो उनके दाँत बदरंग हो सकते हैं और उन पर गड्ढे हो सकते हैं।
यहाँ फ्लोराइड के तमाम स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभावों का जिक्र नहीं है, यह सिर्फ आमलोगों को सूचित करने का प्रयास है कि फ्लोराइड युक्त पानी पीने का सेहत पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
मेरे पीने के पानी में फ्लोराइड कैसे आ जाता है?
कुछ फ्लोराइड यौगिक, जैसे सोडियम फ्लोराइड और फ्लोरोसिलिकेट पानी में आसानी से घुल जाते हैं और यह चट्टानों के बीच बने छिद्र से भूजल तक पहुंच जाते हैं। कई जगह पानी की आपूर्ति में भी प्राकृतिक रूप से उपस्थित फ्लोराइड होते हैं। उर्वरक और एल्यूमीनियम फैक्टरी के अवशिष्ट जल के भूजल में मिलने से भी पानी फ्लोराइड युक्त हो सकता है। कुछ देशों में दाँत को स्वस्थ बनाने के लिये भी पानी में फ्लोराइड मिलाया जाता है।
मुझे कैसे पता चल सकता है कि मेरे पीने के पानी में फ्लोराइड है?
जब रूटीन मॉनिटरिंग से जाहिर हो कि आपके पेयजल में फ्लोराइड एमसीएल से अधिक है तो आपके वाटर सप्लायर को फ्लोराइड लेवल कम करने के लिये प्रयास करना चाहिए। वाटर सप्लायर को जल्द से जल्द इस बात की सूचना अपने उपभोक्ताओं को दे देनी चाहिए, 30 दिनों के अंदर। खतरे से बचाव के लिये उन्हें पेयजल आपूर्ति की वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए।
मेडिलेक्सीकन मेडिकल डिक्सनरी के मुताबिक फ्लोराइड:
1. फ्लोरीन धातु, अधातु और जैविक तत्वों का यौगिक होता है।
2. फ्लोराइड दाँत और हड्डियों में घुल जाता है मगर इसकी अधिक मात्रा खतरनाक हो सकती है।
फ्लोराइड का क्या काम है?
फ्लोराइड दो तरीके से दांतों की सुरक्षा करता है।
1. अखनिजकरण से सुरक्षा – जब मुंह में बैक्टीरिया के साथ चीनी घुलता है, वे अम्ल की रचना करते हैं। अम्ल दाँत के एनामेल को हटाते हैं और हमारे दांतों को नुकसान पहुंचाते हैं। फ्लोराइड इन परिस्थितियों में दांतों की सुरक्षा करते हैं।
2. पुनर्खनिजकरण – अगर अम्ल की वजह से दांतों में पहले से कोई नुकसान हो गया हो तो फ्लोरीन उस क्षेत्र में एनामेल को मजबूत करने में मददगार होते हैं, इस प्रक्रिया को पुनर्खनिजकरण कहते हैं।
फ्लोराइड कैविटी की सुरक्षा करने और दाँतों को मजबूत करने में मददगार होते हैं। मगर कैविटी पहले से बन गए हों तो ये बहुत कम प्रभावशाली हो पाते हैं।
फ्लोराइड दांतों के क्षरण की प्रक्रिया को बाधित करता है।
1. एनामेल निर्माण की प्रक्रिया में बदलाव लाता है, जिससे वह अम्लों के हमले को झेलने में मददगार हो सके। यह संरचनाचत्मक बदलाव बच्चों के एनामेल विकसित होने के वक्त होता है, सात साल से पहले।
2. ऐसे वातारवरण का निर्माण करता है जिसमें बेहतर गुणवत्ता के एनामेल का निर्माण हो सके। जो अम्लीय हमलों को रोक सके।
3. बैक्टीरिया की अम्ल निर्माण की क्षमता को कम करता है, यह दांतों के क्षरण का प्रमुख कारण होता है।
किसे फ्लोराइड की जरूरत है?
दुनिया के सभी लोक स्वास्थ्य प्रशासन और मेडिकल एसोसिएशन बच्चों और वयस्कों के लिये फ्लोराइड के न्यूनतम मात्रा में सेवन की अनुशंसा करते हैं। बच्चे अपने स्थायी दांतों की सुरक्षा के लिये फ्लोराइड की जरूरत महसूस करते हैं। वयस्क के दांतों के क्षरण से बचाव के लिये फ्लोराइड की आवश्यकता होती है।
कई लोग, खासतौर पर जो दांतों के क्षरण के मामले में खतरे के निशान पर होते हैं, उन्हें फ्लोराइड ट्रीटमेंट से लाभ होता है। इसमें वे लोग भी होते हैं, जिनमेः
1. स्नैकिंग हैबिट
2. दांतों की खराब साफ-सफाई
3. डेंटिस्ट के पास पहुंच का अभाव।
4. उच्च सुगर और कार्बोहाइड्रेट वाले आहार का सेवन।
5. ब्रिज, क्राउन, ब्रेस और दूसरी प्रक्रियाओं को अपनाना।
6. दांतों के क्षरण का इतिहास।
क्या फ्लोराइडयुक्त जल कैंसर को जन्म दे सकता है?
फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर सालों तक बहस चली है। यह बहस फिर से धरातल पर आया जब 1990 में नेशनल इंस्टीट्यूट और एनवायरमेंटल हेल्थ साइंस के हिस्से के रूप में नेशनल टॉक्सिलॉजी प्रोग्राम ने बताया कि 2 सालों तक पुरुष चूहों को उच्च फ्लोराइडयुक्त जल का सेवन कराने से ओस्टियोसरकोमस(बोन ट्यूमर) की मात्रा बढ़ जाती है। हालांकि मानव और दूसरे जीवों में फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर दूसरे अध्ययनों में ऐसी कोई बात निकल कर सामने नहीं आई।फरवरी, 1991 में पब्लिक हेल्थ सर्विस रिपोर्ट में यह घोषित किया गया कि फ्लोराइड और कैंसर का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह रिपोर्ट पिछले 40 सालों में 50 लोगों की आबादी की समीक्षा के आधार पर सामने लाया गया, नतीजा यह निकला कि पेयजल में फ्लोराइड की अधिक मात्रा से मानवों में कैंसर के लक्षण पाए जाने के प्रमाण नहीं हैं, यह ह्यूमन इपिडेमियोलॉजिकल डाटा के आधार पर साबित हुआ है।
पीएचएस रिपोर्ट के लिये समीक्षा की गई एक स्टडी में एनसीआई के वैज्ञानिकों ने पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा और अमेरिका में पिछले 36 सालों में कैंसर हुए मौतों और पिछले 15 सालों में सामने आए कैंसर के नए मामलों का अध्ययन किया। उन्होंने अब तक दर्ज कैंसर की वजह से हुए 22 लाख मौतों का अध्ययन करते हुए पाया कि इनमें से 1.25 लाख मौतें उन प्रांतों में हुई हैं जहाँ पानी में फ्लोराइड मिलाया जाता है, इस तरह अध्येताओं ने पाया कि कैंसर से हुई मौतों के पीछे फ्लोराइड कोई वजह नहीं है।
1993 में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के एक हिस्से के तौर पर काम करने वाले नेशनल रिसर्च कॉउंसिल की सब कमेटी ने फ्लोराइड के सेहत पर प्रभाव का अध्ययन किया, उन्होंने फ्लोरीडेटड पेयजल और कैंसर के बढ़ते प्रभाव से सम्बन्धित दस्तावेजों का परीक्षण किया। इस समीक्षा में 50 से अधिक मानव इपिडेमोजिकल अध्ययन और छह पशु सम्बन्धी अध्ययन के आंकड़ों का विश्लेषण किया। सब कमेटी इस नतीजे पर पहुंची कि कोई आंकड़ा यह प्रदर्शित नहीं करता है कि फ्लोराइड युक्त पेयजल और कैंसर के बीच कोई अन्तर्सम्बन्ध है। 1999 में सीडीसी समर्थित एक रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि की गई। सीडीसी इस नतीजे पर पहुंची कि आंकड़ों के अध्ययन से ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता है जिससे फ्लोराइड युक्त पेयजल और कैंसर के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। आगे ओस्टियोसरकोमा के रोगियों से बातचीत की गई और उनके अभिभावकों ने विरोधाभाषी नतीजे पेश किए, लेकिन कोई भी इस बात का स्पष्ट प्रमाण नहीं दे सके कि फ्लोराइड के सेवन से ट्यूमर का रिस्क बढ़ता है।
हाल में अध्येताओं ने फ्लोराइड के प्रभाव और ओस्टियोसरकोमा के बीच संभावित सम्बन्धों का नए तरीके से अध्ययन किया, उन्होंने सामान्य हड्डी में फ्लोराइड के जमाव का पता लगाया और उसकी तुलना ट्यूमर के रोगियों की हड्डी में फ्लोराइड के जमाव की मात्रा से की। चूंकि फ्लोराइड सामान्य रूप से हड्डियों में जम जाता है, यह अध्ययन ज्यादा सटीक नतीजे दे सकता था बनिस्पत लोगों की याददास्त और नगरपालिका के वाटर ट्रीटमेंट रिकार्ड के इस विश्लेषण से पता चला कि ओस्टियोसरकोमा के रोगियों की हड्डी में फ्लोराइड के स्तर और किसी दूसरे ट्यूमर से पीड़ित लोगों की हड्डियों में फ्लोराइड के स्तर में फर्क नहीं था।
डीन के फ्लोरोसिस इंडेक्स(20)
स्कोर सिद्धांत सामान्य
एनामेल का आकार सामान्यतः पारभाषी सेमीवर्टिफार्म प्रकार का होता है। इसकी सतह चिकनी, चमकीली और सामान्यतः थोड़ी पीली क्रीमी सफेद होती है।
सवालों वाले
ये एनामेल सामान्य एनामेल से थोड़े अधिक पारभाषी होते हैं, इनमें थोड़ी सफेद चित्तियों से लेकर सफेद धब्बे तक हो सकते हैं। यह प्रमाण उन दांतों में पाए जाते हैं जहाँ फ्लोरोसिस के हल्के प्रकार की उपस्थिति होती है, इन्हें न फ्लोरोसिस कहा जा सकता है और न ही सामान्य दाँत।
बहुत हल्के
छोटे पारभाषी, सफेद धब्बे दांतों पर पाया जाना, ये दांतों का 25 फीसदी से अधिक आकार नहीं घेरते। सामान्यतः ये धब्बे 1-2 एमएम के अधिक बड़े नहीं होते हैं।
हल्के
दांतों पर ज्यादा गहरे धब्बों का उभरना फिर भी ये दाँत के क्षेत्रफल का 50 फीसदी से अधिक जगह नहीं घेरते।
औसत
दाँत के लगभग पूरे एनामेल सतह पर इसका प्रभाव फैल जाना और सतह का घिसा हुआ नजर आना। अक्सर ये धब्बे भूरे रंग के नजर आने लगते हैं।
गम्भीर
इसमें औसतन गम्भीर और गम्भीर दोनों तरह की किस्में आती हैं। इसमें दांतों की पूरी सतह प्रभावित हो जाती है और हर जगह हाइपोप्लासिया का प्रभाव नजर आने लगता है। इस प्रकार के प्रमुख लक्षण यह हैं कि दाँत पर जगह-जगह भूरे धब्बे नजर आते हैं और दाँत घिसा हुआ नजर आने लगता है।
फ्लोराइड की वजह
वातावरण में फ्लोराइड के संभावित स्रोत और इसकी वजह को चित्र 1 में विस्तार से दिखाया गया है।
चित्र 1. भूमिगत जल में फ्लोराइड के संभावित कारण
जलीय तत्व
भूमिगत जल में फ्लोराइड की सर्वाधिक मात्रा फ्लोराइड वाले चट्टानों की वजह से पाई जाती है। अधिक सांद्रता वाले फ्लोराइड युक्त जल अधिकतर समुद्री इलाकों और पर्वत के निचले इलाकों में पाए जाते हैं (डब्लूएचओ, 2001; फावेल इट अल।, 2006)। जिन देशों में फ्लोराइड पाए गए हैं वे हैं सीरिया से होते हुए जार्डन, लीबिया, अल्जीरिया, सूडान, केन्या, तुर्की से इराक, इरान, अफगानिस्तान, भारत, उत्तरी थाइलैंड और चीन। अमेरिका और जापान के कुछ इलाके भी इससे प्रभावित हैं (डब्लूएचओ, 2001)। फ्लोराइड आग्नेय और परतदार चट्टानों में पाए जाते हैं। डीयर एट आल।, (1983) के मुताबिक इन दोनों किस्म के चट्टानों में लगभग एक जैसे फ्लोराइड पाए जाते हैं। फ्लोराइड निम्न रूप में पाए जाते हैं,मीका, क्ले, विलुआनाइट और फास्फोराइट (मैथेसस, 1982; पिकरिंग, 1985; हेम, 1986; हांडा, 1988; हैदोती, 1991; गाउमेट एट आल, 1992; गासिरी और डेविस, 1993; दत्ता एट आल, 1996; एपेम्बायर एट आल, 1997; कुंडू एट आल, 2001; महापात्रा एट आल, 2009)। सामान्य दबाव और तापमान में फ्लोराइट और क्रायोलाइट जैसे फ्लोराइड खनिज आसानी से पानी में नहीं घुलते। लेकिन अल्कलाइन कंडीशन में और 750 और 1750 μS/cm के बीच की विशिष्ट सुचालकता में फ्लोराइट खनिज के घुलने की दर में वृद्धि हो जाती है (सक्सेना और अहमद, 2001)। ग्रेनाइट पत्थर फ्लोराइड पाए जाने वाले चट्टानों में खास स्रोत हैं और उनमें फ्लोराइड की मात्रा 500 से 1400 मिग्रा प्रति किलो तक पाई जाती है, यह किसी अन्य चट्टान से काफी अधिक है (कोरिटिंग, 1978; क्राउस्कोफ और बर्ड, 1995)। दुनिया भर में ग्रेनाइट चट्टानों में फ्लोराइड की औसत मात्रा 810 मिग्रा प्रति किलो है(वेडे पोह्ल, 1969)। इन चट्टानों के क्षरण का नतीजा भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ना है। जब ये चट्टान लंबे समय तक जल स्रोतों से संपर्क में रहते हैं तो भूमिगत जल में स्वभाविक तौर पर फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है। नसीम एट आल। (2010) के मुताबिक पाकिस्तान में ग्रेनाइट पत्थर और मिट्टी में औसतन फ्लोराइड क्रमशः 1939 और 710 एमजी प्रति किलो पाया जाता है। नलगौंडा, भारत में ग्रेनाइट और आग्नेय ग्रेनाइट फ्लोराइड वाले खनिज हैं और इनमें फ्लोराइट (0 से 3.3 फीसदी), बायोटाइट (0.1 से 1.7 फीसदी) और हॉर्नब्लेंड (0.1 से 1.1 फीसदी) पाया जाता है (राममोहन राव एट अल 1993)। मंडल एट अल (2009) ने एक खास इलाके से रिपोर्ट किया है कि यहाँ कुछ चट्टानों में 460 से 1706 मिग्रा प्रति किलो फ्लोराइड पाया जाता है। चाइ एट अल।(2006) द्वारा किए गए एक प्रयोगशाला अध्ययन से पता चला है कि ग्रेनाइट चट्टानों से रिस कर बहने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा 6 से 10 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है।
ज्वालामुखी की राख
ज्वालामुखी के चट्टानों में अक्सर फ्लोराइड भारी मात्रा में पाया जाता है। हाइड्रोजन फ्लोराइड मैग्मा में आसानी से घुल जाता है और विसरण की क्रिया के दौरान धीरे-धीरे रिसता है (डी’ अलेसांद्रो, 2006)। ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान ज्वालामुखी के राख के रूप में फ्लोराइड वायुमंडल में चला जाता है और बारिश के मौसम में तथा दूसरी वजहों से यह धरातल पर पहुंच जाता है। धरातल पर मौजूद फ्लोराइड बारिश के पानी के साथ बहुत आसानी से भूमिगत जल में मिल जाता है। आइडलैंड में ज्लालामुखी विसरण बहुत आम है और 1978 में लेकी के विसरण के दौरान इंसानों और पशुओं में फ्लोराइड के जहरीले प्रभाव को दर्ज किया गया था (फ्रीड्रिक्सन, 1983, स्टिंग्रिम्सन, 2010)। ज्वालामुखी राख आसानी से घुल जाता है इसलिये भूमिगत जल में फ्लोराइड का जहरीला प्रभाव आने का खतरा काफी अधिक रहता है। इन ज्वालामुखी स्रोतों की वजह से केन्या में भी भूमिगत जल के जहरीले होने के प्रमाण मिले हैं(गासिरी और देविस, 1993)।
फ्लाइ एश
ज्वालामुखी की तरह फॉसिल फ्यूल के जलने से निकले फ्लाइ एश में भी फ्लोराइड की उच्च मात्रा पाई जाती है। पावर प्लांटों में कोयले के दहन की वजह से पूरी दुनिया में 100 से 150 मिलियन टन से अधिक फ्लाइ एश हर साल तैयार होता है (प्रसाद और मंडल, 2006; पीकोस और पास्लावास्का, 1998)। फ्लाइ एश का ठीक से विसर्जन नहीं किए जाने की वजह से फ्लोराइड भूमिगत जल में घुल जाता है। चर्चिल एट अल (1948) में कहते हैं कोयले में 40 से 295 मिग्रा प्रति किलो फ्लोराइड पाया जाता है। कोयले में फ्लोराइड की मात्रा कोयले के प्रकार पर निर्भर करती है। ईंट भट्ठे में जलने वाले कोयले से भी फ्लोराइड निकलता है(झा एट अल., 2008)
उर्वरक
फास्फेट वाले उर्वरकों की वजह से पानी और मिट्टी में फ्लोराइड घुल जाता है (मोटालाने और स्ट्रायडोम, 2004; फारूकी एट आल।, 2007)। यह जाहिर है कि इन उर्वरकों में फ्लोराइड की निर्णायक मात्रा मौजूद रहती है, जैसे सुपरफास्फेट में (2750 मिग्रा प्रति किलो), पोटाश (10 मिग्रा प्रति किलो) और एनपीके (1657 मिग्रा प्रति किलो) आदि (श्रीनिवास राव, 1997)। सिंचाई के पानी में भी 0.34 मिग्रा प्रति लीटर फ्लोराइड होता है। खेती के इलाके में लगातार सिंचाई की वजह से भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है (यंग एट आल।, 2010)। ब्राजील में एक फास्फेट फर्टिलाइजर प्लांट के नज़दीक भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा 10 मिग्रा प्रति किलो पाई गई। दत्ता एट आल (1996) के मुताबिक अगर एक हेक्टेयर खेतिहर जमीन 10 मिग्रा प्रति लीटर फ्लोराइड वाले पानी से 10 सीएम सिंचाई की जाए तो मिट्टी में 10 किलो फ्लोराइड घुल जाता है। यह भूमिगत जल और मिट्टी में फ्लोराइड घुलने के खतरे को दर्शाता है। इसके अलावा औद्योगिक क्रियाएं जैसे एल्युमीनियम को पिघलाना (हैदाउटी, 1991), सीमेंट उत्पादन और सीरामिक की भट्ठी(डब्लूएचओ, 2002) की वजह से भी वातावरण में फ्लोराइड घुलने लगता है।
सेहत पर असर
अधिक मात्रा में फ्लोराइड के सेवन से डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस होने की प्रबल संभावना रहती है। इसके अधिक दिनों तक सेवन से यह गम्भीर से खतरनाक रूप भी ले सकता है। अयूब और गुप्ता (2006) के मुताबिक 25 देशों के 20 करोड़ से अधिक लोग फ्लोरोसिस के गम्भीर खतरे का सामना कर रहे हैं, इनमें दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत और चीन बुरी तरह प्रभावित हैं। भारत में 6.2 करोड़ लोगों को फ्लोराइड युक्त जल के सेवन की वजह से सेहत से सम्बन्धित गम्भीर बीमारियाँ हो रही हैं, इनमें 60 लाख बच्चे हैं (अंदेजाथ और घोष, 2000)। चीन के 29 प्रांतों, नगरपालिकाओं और ऑटोनोमस इलाकों में इंडेमिक फ्लोरोसिस का गहरा प्रभाव है (वांग और हुआंग, 1995)। घरों में चाय बनाने या घरों को गर्म करने के लिये वहाँ घर में कोयला जलाया जाता था, जिस वजह से वहाँ पहले से ही डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस का खतरा रहा है (एंडो एट आल।, 1998, वाटानाबे एट आल।, 2000, एंडो एट आल।, 2001)। दिसानायके (1991) कहते हैं कि श्रीलंका में सूखे इलाके में जहाँ फ्लोराइड की मात्रा अधिक पाई जाती है वहाँ डेंटल फ्लोरोसिस का खतरा रहता है और जहाँ नमी वाले इलाके में फ्लोराइड बहुत कम होता है, दाँत कमजोर होने लगते हैं। इथियोपिया रिफ्ट वैली में जहाँ एक करोड़ लोग रहते हैं, 80 लाख लोग अधिक फ्लोराइड के खतरे में हैं(रेंगो एट आल।,2010)। फ्लोराइड की अलग-अलग मात्रा के सेवन से सेहत पर खतरे के बारे में दिसानायके (1991) कहते हैं, अगर पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा 0.5 मिग्रा प्रति लीटर से कम हो तो दाँत कमजोर होने लगते हैं, अगर यह 0.5 से 1.5 मिग्रा प्रति लीटर हो तो दांतों के लिये ठीक रहता है और यह 1.5 मिग्रा प्रति लीटर से 4 मिग्रा प्रति लीटर के बीच हो जाए तो डेंटल फ्लोरोसिस होने लगता है। 4 से 10 मिग्रा प्रति लीटर की मात्रा डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस का खतरा उत्पन्न कर देती है। जब यह 10 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक हो जाए तो हड्डियां मुड़ने लगती है। हालांकि फ्लोरोसिस का खतरा सिर्फ पानी में इसकी मात्रा अधिक होने से नहीं होता बल्कि यह खान-पान की आदतों पर भी निर्भर करता है।
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