20 करोड़ सीमान्त किसान देश में खेती के लिये मानसून पर निर्भर हैं।
सूखे ने देश में दस्तक दे दी है। पिछले 100 साल में यह चौथा मौका है, जब लगातार दूसरे साल भी सूखे का दंश झेलना पड़ रहा है। खेत-खलिहानों में हालात विकट हैं। मानसून लगभग विदा होने वाला है। पूरी तैयारी का राग अलापते सरकारी दावों के बीच आलम ये है कि सूखे से निपटने के लिये जून के बाद अब तक केन्द्र सरकार ने कोई उच्चस्तरीय बैठक नहीं की है। देश के कृषि मंत्री इन दिनों बिहार की सियासत में मशगूल हैं जबकि देश का बदहाल ‘अन्नदाता’ खुदकुशी करने को मजबूर है। वर्तमान हालात और आशंकाओं पर आज का संडे जैकेट…
देश में बारिश कम होने से मौसमी सूखे के हालात बन रहे हैं। इससे अन्य हालातों पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। देश में सूखे के हालात से निपटने के लिये स्थायी नीति और कुशल प्रबन्धन का अभाव है। कृषि पैदावार को बढ़ाना, कृषि कार्यों के लिये बिजली और सिंचाई की उपलब्धता जरूरी है। लेकिन सूखे सरीखी प्राकृतिक आपदा के समय ही देश में सरकारी फाइलें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर चक्कर लगाने लगती हैं। यह लगातार चौथा साल है, जब कहीं-न-कहीं सूखा पड़ रहा है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब जैसे राज्यों में कई जगह काफी कम बारिश हुई है। इस साल भी अभी तक 15 फीसदी कम बारिश हुई है। इसका असर साफ देखा जा सकता है। मसलन महाराष्ट्र में गन्ना खेत में खड़ा तो है पर उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं बताई जा रही है।
हिमाचल में मकई खेत में तो खड़ी है पर शिरा दिखाई नहीं दे रहा है। यानी कमजोर मानसून का फसल उत्पादन जाहिर तौर पर फर्क पड़ता है। पर सरकार ‘मार्केट सेंटीमेंट’ अच्छा रहे, उसके लिये सकारात्मक बातें करती है। पिछले साल भी उत्पादन घटा था। इस साल भी अगर 50 लाख टन तक उत्पादन कम होता है तो नुकसान होना ही है।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हमारे पास पर्याप्त अनाज भण्डार है बल्कि बात यह नहीं उठाई जा रही है कि किसान का क्या हाल है? वह साल-दर-साल सूखे की मार सह रहा है। बैंक नुकसान झेल रहे थे तो सरकार ने 22 हजार करोड़ का ‘बेलआउट’ दिया।
वन रैंक वन पेंशन के लिये सरकार ने 8 हजार करोड़ दे दिये। कर्मचारियों के लिये सातवाँ वेतन आयोग आने वाला है। पर किसान की आय की फिक्र कौन करेगा? खेती कमजोर होने पर पहला असर पशुधन पर पड़ता है। यह किसान पर भी सीधा असर दिखाती है। किसान की आय रसातल में है।
कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एण्ड प्राइसेज कहता है कि उत्तर प्रदेश में एक किसान की गेहूँ में प्रति हेक्टेयर आय 11 हजार रुपए है। गेहूँ छह माह की फसल है, इस हिसाब से उसकी मासिक आय करीब 1800 रुपए प्रति हेक्टेयर होती है। लाजिमी है कि किसान खेती छोड़ेगा। मजदूरी करेगा और पेट भरेगा। इतने विकट हालात में किसान आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करें? ये कैसा सबका साथ और सबका विकास है?
2011 का सोशल सर्वे दिखाता है कि गाँवों में 67 करोड़ लोग 33 रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। गाँवों में ज्यादातर कमाई का स्रोत सिर्फ खेती ही है। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि खेती कैसी होगी बल्कि सवाल है कि किसान कैसे जिन्दा रहेगा? दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में गाँव और शहर के बीच बहुत बड़ा डिस्कनेक्ट हो गया है।
कई देशों में सूखा पड़ा है। कैलिफ़ोर्निया और टेक्सास में भयंकर सूखा पड़ा था। वहाँ खेती और जानवर संकट में है। वहाँ सरकार जानवरों को दूध पिला रही है। पर हमारे यहाँ तो जानवरों के लिये चारा ही नहीं है। किसान के पास आय नहीं है तो वह क्या करेगा? वह शहर जाता है तो उसे वहाँ नौकरी नहीं मिल रही है। क्रिसिल की पिछले साल एक रिपोर्ट में यह सामने आया था कि 2005-12 तक 3.70 करोड़ लोगों ने खेती छोड़ दी।
प्रशान्त महासागर में जलधाराओं के गर्म होने से वैश्विक मौसम तंत्र पर असर होता है। इस बार पूरे दक्षिण एशिया में सूखे की आशंका है।
प्रशान्त महासागर के मध्य व पूर्वी भाग में पानी का औसत सतही तापमान कुछ वर्ष के अन्तराल पर असामान्य रूप से बढ़ जाता है। इंडोनेशियाई से 80 डिग्री पश्चिमी देशान्तर यानी मैक्सिको और पेरू तट तक, यह क्रिया होती है। इससे अलनीनो की स्थिति बनती है वहाँ सबसे गर्म समुद्री हिस्सा पूरब में खिसक जाता है। समुद्र तल के 8 से 24 किमी ऊपर बहने वाली जेट स्ट्रीम प्रभावित हो जाती है। भारत में भी असर होता है।
कई बड़े राज्यों में मानसून कमजोर रहा। मराठवाड़ा में 45%, पूर्वी यूपी में 42%, तेलंगाना में 25%, तक कम बारिश हुई है।
वर्ष 2014 में देश में बारिश 12 फीसदी कम हुई थी। इसके परिणामस्वरूप देश भर में जून 2015 में अनाज के कुल उत्पादन में 4.7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। आने वाले समय में ये हालात खेती पर और खतरा बढ़ाएँगे।
देश में पिछले साल मानसून ने देरी से विदाई ली थी। लेकिन इस बार सितम्बर माह देश के अधिकांश हिस्सों में सूखा ही बीत रहा है। इससे किसानों के खेतों में रबी की फसल की बुवाई के लिये नमी कम ही मिल पाएगी। गेहूँ और सरसों की बुवाई में देरी भी होगी।
पिछले एक दशक की प्रवृत्ति पर नजर डालें तो रबी की फसल देश में काफी हद तक जलस्रोतों पर निर्भर रहती है। ऐसे में वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान कृषि क्षेत्र में अधिक वृद्धि दर की उम्मीद नहीं की जा सकती। मध्य महाराष्ट्र और कर्नाटक की स्थिति से ये स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर को बढ़ाना मुश्किल होगा।
आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष में जीडीपी ग्रोथ रेट अनुमान घटाकर 7.6% किया।
15.3% हो गई थी खाद्य महंगाई वर्ष 2009-10 के दौरान। उस वर्ष देश के 61 हिस्से में सामान्य से कम बरसात हुई थी।
कमजोर मानसून और महंगाई का नाता पुराना है। हाल ही में आरबीआई कमजोर मानसून को अर्थव्यवस्था के लिये बड़ी अस्थिरता बता चुका है। रिजर्व बैंक ने जनवरी 2016 के लिये खुदरा महंगाई दर को 5.8 फीसदी से बढ़ाकर 6 फीसदी कर दिया है। कमजोर मानसून होने पर दलहन, मोटा अनाज, चावल, चारा, दूध, चिकन आदि के दामों में वृद्धि की आशंका रहती है। जानकार मानते हैं कि 15 फीसदी बारिश कम होने पर कीमतें बढ़ने के हालात बन सकते हैं।
देश में खेती पर 60 फीसदी रोजगार के लिये अभी निर्भर है और खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में कमजोर मानसून होने पर सीधा असर उस 60 फीसदी आबादी पर पड़ना लाजिमी है। क्योंकि केवल 40 फीसदी कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई होती है। पिछले साल 12 फीसदी बारिश कम होने के कारण अनाज, कपास और तिलहन को खासा नुकसान हुआ था। कमजोर मानसून के चलते 2014-15 में खेती की ग्रोथ महज 0.2 फीसदी थी। पिछले साल 2511 लाख टन उत्पादन हुआ जो 2013-14 से 2650 लाख टन से कम था।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार सूखे और बाढ़ के हालात पैदा करने वाले अलनीनो का असर इस बार अक्टूबर से जनवरी के दौरान रिकॉर्ड स्तर पर रहने की आशंका है। सूखे से हालात और विकट होंगे। समय है कि सरकार खाद्यान्न भण्डारण की क्षमता में इजाफा करे। कर्ज वसूली में दिक्कतें आने पर बैंकों को वैकल्पिक उपाय सुझाए। साथ ही किसानों को राहत प्रदान करे।
देश में हरित क्रान्ति के बाद बम्पर फसली पैदावार का दौर रहा है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मार्फत खाद्यान्न वितरण के लिये खरीद करती है। एफसीआई के पास देश में खाद्यान्न भण्डारण की क्षमता लगभग 32 मिलियन टन है। लेकिन इसमें से आधे गोदाम किराए के हैं। जबकि लगभग 50 मिलियन टन की खरीद एफसीआई प्रतिवर्ष करती है। ऐसे में खाद्यान्न भण्डारण के अन्तर के कारण बड़ी मात्रा में अनाज बर्बाद होता है।
खाद्य मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि वर्ष 2013 के दौरान 1454 टन गेहूँ भण्डारण के अभाव में नष्ट हो गया। लंदन की एक शोध एजेंसी के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 21 मिलियन टन गेहूँ भण्डारण की समुचित व्यवस्था के अभाव में नष्ट हो जाता है। चौंकाने वाला तथ्य है कि ये आँकड़ा ऑस्ट्रेलिया में प्रतिवर्ष पैदा होने वाले गेहूँ के बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2009 में भारत में 12 मिलियन टन फल और 21 मिलियन टन सब्जियाँ भण्डारण व्यवस्था नहीं होने से नष्ट हुईं। सूखे की आहट के बीच जरूरी है कि देश में भण्डारण की सुविधा बढ़ाई जाये। हर दाने की हिफाजत हो।
कृषि उत्पादन गिरने का सीधा असर बैंकिंग व्यवसाय पर पड़ेगा। गैर निष्पादित सम्पत्ति के संकट से जूझ रहे बैंकों को कर्ज वसूली में दिक्कत आएगी। उद्योग के साथ ही कृषि क्षेत्र में भी ऋण वसूली प्रभावित होगी। इससे बैंकों की आय घटेगी। फरवरी 2015 तक के आँकड़ों के अनुसार बैंकों ने किसानों को 7,500 अरब रुपए का कर्ज दिया है। सरकार ने 8,500 अरब रुपए का कर्ज बाँटने का लक्ष्य रखा है। यह कुल बैंक ऋण का 14 फीसदी है।सूखा पड़ने की स्थिति में बैंकों को यह ऋण वसूली लटकेगी और सरकार भी बैंकों पर छूट देने का दबाव बना सकती है। इससे महंगाई बढ़ेगी। हालिया स्थिति ये है कि महाराष्ट्र सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से सूखा प्रभावित जिलों में जिलास्तरीय बैंक शाखाओं से ऋण वितरण की अनुमति माँगी है। बैंकिंग से अछूते देश के किसानों के लिये सोने आड़े समय में आर्थिक मदद का आधार रहा है। देश में सोने की दो-तिहाई खरीद ग्रामीण क्षेत्रों में होती है। लेकिन सूखे के कारण कम ही खरीद हुई है।
सूखे के हालात निश्चित रूप से किसी भी देश के लिये दुःस्वप्न के समान हैं। लेकिन आज की वैश्विक व्यवस्था में कोई भी देश इसका मुकाबला कर सकता है। इसके लिये जरूरत है कुशल प्रबन्धन और स्थायी नीति की। सरकार सूखे अथवा दुर्भिक्ष को सरकार द्वारा सात प्रमुख हालात से मापती है। इनमें शामिल हैं मौसमी सूखा, जलीय, कृषि, मृदा की नमी में कमी, सूखे का सामाजिक आर्थिक असर, अकाल (खाद्यान्न कमी) और पारिस्थितिक सूखा।
वर्तमान में देश में बारिश कम होने से मौसमी सूखे के हालात बन रहे हैं। इससे अन्य हालातों पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। देश में सूखे के हालात से निपटने के लिये स्थायी नीति और कुशल प्रबन्धन का अभाव है। कृषि पैदावार को बढ़ाना, कृषि कार्यों के लिये बिजली और सिंचाई की उपलब्धता जरूरी है। लेकिन सूखे सरीखी प्राकृतिक आपदा के समय ही देश में सरकारी फाइलें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर चक्कर लगाने लगती हैं।
देखा जाये तो सूखा एक प्राकृतिक आपदा चक्र है। दुनिया के कई देश शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्र में स्थित हैं। इनमें मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देश शामिल हैं। इनमें हमारे समक्ष इजरायल का सकारात्मक उदाहरण है। इजरायल ने अपनी भौगोलिक स्थिति के मद्देनज़र सूखे के हालात से निपटने के लिये कारगर प्रबन्धन और नीति का निर्धारण कर उस पर अमल किया है। इसमें शामिल है ड्रिप सिंचाई।
हमारे देश में आज भी फव्वारा सिंचाई अथवा नालीदार सिंचाई व्यवस्था ही ज्यादा चलन में है। सरकार की ओर से अनुदान देने के बावजूद ड्रिप सिंचाई के प्रति रुझान कम है। इससे सिंचाई व्यवस्था में पानी की खपत पर क्रान्तिकारी रूप से बदलाव लाया जा सकता है। सूखे का प्रत्यक्ष असर कृषि से जुड़े लोगों और अप्रत्यक्ष रूप से असर शेष जनता पर पड़ता है। शहरी लोगों को खाद्यानों की दरें बढ़ने से महंगाई के रूप में इन हालातों को झेलना पड़ता है। ऐसे में सरकार खाद्यान्न आयात नीति पर अमल करे।
सूखे के हालात देश के अन्नदाता यानी किसान के लिये जानलेवा आपदा साबित हो रहे हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस वर्ष किसानों की खुदकुशी का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। कर्नाटक में इस वर्ष अब तक 400 किसान तंगहाली के कारण खुदकुशी कर चुके हैं। ये आँकड़ा पिछले साल की तुलना में सात गुना है। कर्नाटक सरकार ने राज्य के 30 में से 27 जिलों में अकाल की घोषणा कर दी है। कर्नाटक ने केन्द्र से 3050 करोड़ रुपए की मदद माँगी है।
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र जिसमें औरंगाबाद, बीड, जालना, उस्मानाबाद, नांदेड़, लातूर, परबनी और हिंगोली आते हैं, देश में किसानों की खुदकुशी की राजधानी बन गया है। खुद महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि मराठवाड़ा में इस वर्ष 70 फीसदी रकबे में खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो गई है।
जून से सितम्बर माह के दौरान मराठवाड़ में 52 फीसदी कम वर्षा हुई। ये देश में सर्वाधिक है। वर्ष 2014-15 के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने मराठवाड़ा के किसानों को 4,336 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान की। मराठवाड़ा में वर्ष 2014 में 574 किसानों ने खुदकुशी की। वर्ष 2015 में अब तक ये आँकड़ा 628 पहुँच गया है।
सूखे ने देश में दस्तक दे दी है। पिछले 100 साल में यह चौथा मौका है, जब लगातार दूसरे साल भी सूखे का दंश झेलना पड़ रहा है। खेत-खलिहानों में हालात विकट हैं। मानसून लगभग विदा होने वाला है। पूरी तैयारी का राग अलापते सरकारी दावों के बीच आलम ये है कि सूखे से निपटने के लिये जून के बाद अब तक केन्द्र सरकार ने कोई उच्चस्तरीय बैठक नहीं की है। देश के कृषि मंत्री इन दिनों बिहार की सियासत में मशगूल हैं जबकि देश का बदहाल ‘अन्नदाता’ खुदकुशी करने को मजबूर है। वर्तमान हालात और आशंकाओं पर आज का संडे जैकेट…
मजदूर बनने को मजबूर किसान
देश में बारिश कम होने से मौसमी सूखे के हालात बन रहे हैं। इससे अन्य हालातों पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। देश में सूखे के हालात से निपटने के लिये स्थायी नीति और कुशल प्रबन्धन का अभाव है। कृषि पैदावार को बढ़ाना, कृषि कार्यों के लिये बिजली और सिंचाई की उपलब्धता जरूरी है। लेकिन सूखे सरीखी प्राकृतिक आपदा के समय ही देश में सरकारी फाइलें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर चक्कर लगाने लगती हैं। यह लगातार चौथा साल है, जब कहीं-न-कहीं सूखा पड़ रहा है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब जैसे राज्यों में कई जगह काफी कम बारिश हुई है। इस साल भी अभी तक 15 फीसदी कम बारिश हुई है। इसका असर साफ देखा जा सकता है। मसलन महाराष्ट्र में गन्ना खेत में खड़ा तो है पर उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं बताई जा रही है।
हिमाचल में मकई खेत में तो खड़ी है पर शिरा दिखाई नहीं दे रहा है। यानी कमजोर मानसून का फसल उत्पादन जाहिर तौर पर फर्क पड़ता है। पर सरकार ‘मार्केट सेंटीमेंट’ अच्छा रहे, उसके लिये सकारात्मक बातें करती है। पिछले साल भी उत्पादन घटा था। इस साल भी अगर 50 लाख टन तक उत्पादन कम होता है तो नुकसान होना ही है।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हमारे पास पर्याप्त अनाज भण्डार है बल्कि बात यह नहीं उठाई जा रही है कि किसान का क्या हाल है? वह साल-दर-साल सूखे की मार सह रहा है। बैंक नुकसान झेल रहे थे तो सरकार ने 22 हजार करोड़ का ‘बेलआउट’ दिया।
वन रैंक वन पेंशन के लिये सरकार ने 8 हजार करोड़ दे दिये। कर्मचारियों के लिये सातवाँ वेतन आयोग आने वाला है। पर किसान की आय की फिक्र कौन करेगा? खेती कमजोर होने पर पहला असर पशुधन पर पड़ता है। यह किसान पर भी सीधा असर दिखाती है। किसान की आय रसातल में है।
आखिर कैसे चले जिन्दगी
कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एण्ड प्राइसेज कहता है कि उत्तर प्रदेश में एक किसान की गेहूँ में प्रति हेक्टेयर आय 11 हजार रुपए है। गेहूँ छह माह की फसल है, इस हिसाब से उसकी मासिक आय करीब 1800 रुपए प्रति हेक्टेयर होती है। लाजिमी है कि किसान खेती छोड़ेगा। मजदूरी करेगा और पेट भरेगा। इतने विकट हालात में किसान आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करें? ये कैसा सबका साथ और सबका विकास है?
2011 का सोशल सर्वे दिखाता है कि गाँवों में 67 करोड़ लोग 33 रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। गाँवों में ज्यादातर कमाई का स्रोत सिर्फ खेती ही है। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि खेती कैसी होगी बल्कि सवाल है कि किसान कैसे जिन्दा रहेगा? दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में गाँव और शहर के बीच बहुत बड़ा डिस्कनेक्ट हो गया है।
कई देशों में सूखा पड़ा है। कैलिफ़ोर्निया और टेक्सास में भयंकर सूखा पड़ा था। वहाँ खेती और जानवर संकट में है। वहाँ सरकार जानवरों को दूध पिला रही है। पर हमारे यहाँ तो जानवरों के लिये चारा ही नहीं है। किसान के पास आय नहीं है तो वह क्या करेगा? वह शहर जाता है तो उसे वहाँ नौकरी नहीं मिल रही है। क्रिसिल की पिछले साल एक रिपोर्ट में यह सामने आया था कि 2005-12 तक 3.70 करोड़ लोगों ने खेती छोड़ दी।
अलनीनो का फिर आतंक
खतरा
प्रशान्त महासागर में जलधाराओं के गर्म होने से वैश्विक मौसम तंत्र पर असर होता है। इस बार पूरे दक्षिण एशिया में सूखे की आशंका है।
प्रशान्त महासागर के मध्य व पूर्वी भाग में पानी का औसत सतही तापमान कुछ वर्ष के अन्तराल पर असामान्य रूप से बढ़ जाता है। इंडोनेशियाई से 80 डिग्री पश्चिमी देशान्तर यानी मैक्सिको और पेरू तट तक, यह क्रिया होती है। इससे अलनीनो की स्थिति बनती है वहाँ सबसे गर्म समुद्री हिस्सा पूरब में खिसक जाता है। समुद्र तल के 8 से 24 किमी ऊपर बहने वाली जेट स्ट्रीम प्रभावित हो जाती है। भारत में भी असर होता है।
कहाँ कितनी बारिश
कई बड़े राज्यों में मानसून कमजोर रहा। मराठवाड़ा में 45%, पूर्वी यूपी में 42%, तेलंगाना में 25%, तक कम बारिश हुई है।
राज्य | सामान्य वर्षा | इस वर्ष हुई बारिश |
पूर्वी राजस्थान | 574.6 मिमी | 539.7 मिमी |
पश्चिमी राजस्थान | 247.2 मिमी | 348.3 मिमी |
पूर्वी मध्य प्रदेश | 945.8 मिमी | 692.5 मिमी |
पश्चिमी मध्य प्रदेश | 788.3 मिमी | 868.1 मिमी |
छत्तीसगढ़ | 1026.4 मिमी | 835.4 मिमी |
मराठवाड़ा | 579.8 मिमी | 317.5 मिमी |
देश में सामान्य से इस बार, जून से सितम्बर के दौरान 15% कम वर्षा हुई है।
खेती पर खतरा
वर्ष 2014 में देश में बारिश 12 फीसदी कम हुई थी। इसके परिणामस्वरूप देश भर में जून 2015 में अनाज के कुल उत्पादन में 4.7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। आने वाले समय में ये हालात खेती पर और खतरा बढ़ाएँगे।
रबी के लिये परेशानी
देश में पिछले साल मानसून ने देरी से विदाई ली थी। लेकिन इस बार सितम्बर माह देश के अधिकांश हिस्सों में सूखा ही बीत रहा है। इससे किसानों के खेतों में रबी की फसल की बुवाई के लिये नमी कम ही मिल पाएगी। गेहूँ और सरसों की बुवाई में देरी भी होगी।
पिछले एक दशक की प्रवृत्ति पर नजर डालें तो रबी की फसल देश में काफी हद तक जलस्रोतों पर निर्भर रहती है। ऐसे में वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान कृषि क्षेत्र में अधिक वृद्धि दर की उम्मीद नहीं की जा सकती। मध्य महाराष्ट्र और कर्नाटक की स्थिति से ये स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर को बढ़ाना मुश्किल होगा।
आर्थिक हालात पर संकट के बादल
वर्ष | वर्षा % (एलपीए) | अलनीनो उपस्थिति | खाद्यान्न बढ़ोत्तरी % | उत्पादन बढ़ोत्तरी % |
1986-87 | 87 | हाँ | 6.53 | -0.2 |
1987-88 | 82 | हाँ | 10.95 | -1.6 |
1991-92 | 91 | हाँ | 20.18 | -2.0 |
1994-95 | 90 | हाँ | +2.80 | 4.7 |
2002-03 | 81 | हाँ | 1.76 | -4.9 |
2004-05 | 87 | नहीं | 2.64 | 1.1 |
2006-07 | 99 | हाँ | 9.62 | 4.2 |
2009-10 | 77 | हाँ | 15.27 | 0.8 |
2014-15 | 88 | हाँ | 5.44 | 0.2 |
एलपीए : लांग पीरियड एवरेज (दीर्घावधि औसत)
वर्षा (प्रतिशत दीर्घावधि औसत)
क्षेत्र | 2014 (वास्तविक) | 2015 (पूर्वानुमान) |
उत्तर-पश्चिम | 79 | 85 |
मध्य | 90 | 90 |
दक्षिण प्रायद्वीप | 93 | 92 |
पूर्वोत्तर | 88 | 90 |
समस्त भारत | 88 | 88 |
नोट : वर्षा के पूर्वानुमान आकलन में (+अथवा-) 8 फीसदी की अशुद्धि सम्भव
आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष में जीडीपी ग्रोथ रेट अनुमान घटाकर 7.6% किया।
और बढ़ेगी महंगाई
15.3% हो गई थी खाद्य महंगाई वर्ष 2009-10 के दौरान। उस वर्ष देश के 61 हिस्से में सामान्य से कम बरसात हुई थी।
कमजोर मानसून और महंगाई का नाता पुराना है। हाल ही में आरबीआई कमजोर मानसून को अर्थव्यवस्था के लिये बड़ी अस्थिरता बता चुका है। रिजर्व बैंक ने जनवरी 2016 के लिये खुदरा महंगाई दर को 5.8 फीसदी से बढ़ाकर 6 फीसदी कर दिया है। कमजोर मानसून होने पर दलहन, मोटा अनाज, चावल, चारा, दूध, चिकन आदि के दामों में वृद्धि की आशंका रहती है। जानकार मानते हैं कि 15 फीसदी बारिश कम होने पर कीमतें बढ़ने के हालात बन सकते हैं।
घट गई पैदावार
देश में खेती पर 60 फीसदी रोजगार के लिये अभी निर्भर है और खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में कमजोर मानसून होने पर सीधा असर उस 60 फीसदी आबादी पर पड़ना लाजिमी है। क्योंकि केवल 40 फीसदी कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई होती है। पिछले साल 12 फीसदी बारिश कम होने के कारण अनाज, कपास और तिलहन को खासा नुकसान हुआ था। कमजोर मानसून के चलते 2014-15 में खेती की ग्रोथ महज 0.2 फीसदी थी। पिछले साल 2511 लाख टन उत्पादन हुआ जो 2013-14 से 2650 लाख टन से कम था।
सुधारें, खोजें उपाए, बदलें हाल
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार सूखे और बाढ़ के हालात पैदा करने वाले अलनीनो का असर इस बार अक्टूबर से जनवरी के दौरान रिकॉर्ड स्तर पर रहने की आशंका है। सूखे से हालात और विकट होंगे। समय है कि सरकार खाद्यान्न भण्डारण की क्षमता में इजाफा करे। कर्ज वसूली में दिक्कतें आने पर बैंकों को वैकल्पिक उपाय सुझाए। साथ ही किसानों को राहत प्रदान करे।
हर दाने की हो हिफाज़त
देश में हरित क्रान्ति के बाद बम्पर फसली पैदावार का दौर रहा है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मार्फत खाद्यान्न वितरण के लिये खरीद करती है। एफसीआई के पास देश में खाद्यान्न भण्डारण की क्षमता लगभग 32 मिलियन टन है। लेकिन इसमें से आधे गोदाम किराए के हैं। जबकि लगभग 50 मिलियन टन की खरीद एफसीआई प्रतिवर्ष करती है। ऐसे में खाद्यान्न भण्डारण के अन्तर के कारण बड़ी मात्रा में अनाज बर्बाद होता है।
खाद्य मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि वर्ष 2013 के दौरान 1454 टन गेहूँ भण्डारण के अभाव में नष्ट हो गया। लंदन की एक शोध एजेंसी के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 21 मिलियन टन गेहूँ भण्डारण की समुचित व्यवस्था के अभाव में नष्ट हो जाता है। चौंकाने वाला तथ्य है कि ये आँकड़ा ऑस्ट्रेलिया में प्रतिवर्ष पैदा होने वाले गेहूँ के बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2009 में भारत में 12 मिलियन टन फल और 21 मिलियन टन सब्जियाँ भण्डारण व्यवस्था नहीं होने से नष्ट हुईं। सूखे की आहट के बीच जरूरी है कि देश में भण्डारण की सुविधा बढ़ाई जाये। हर दाने की हिफाजत हो।
कर्ज वसूली में दिक्कतें
कृषि उत्पादन गिरने का सीधा असर बैंकिंग व्यवसाय पर पड़ेगा। गैर निष्पादित सम्पत्ति के संकट से जूझ रहे बैंकों को कर्ज वसूली में दिक्कत आएगी। उद्योग के साथ ही कृषि क्षेत्र में भी ऋण वसूली प्रभावित होगी। इससे बैंकों की आय घटेगी। फरवरी 2015 तक के आँकड़ों के अनुसार बैंकों ने किसानों को 7,500 अरब रुपए का कर्ज दिया है। सरकार ने 8,500 अरब रुपए का कर्ज बाँटने का लक्ष्य रखा है। यह कुल बैंक ऋण का 14 फीसदी है।सूखा पड़ने की स्थिति में बैंकों को यह ऋण वसूली लटकेगी और सरकार भी बैंकों पर छूट देने का दबाव बना सकती है। इससे महंगाई बढ़ेगी। हालिया स्थिति ये है कि महाराष्ट्र सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से सूखा प्रभावित जिलों में जिलास्तरीय बैंक शाखाओं से ऋण वितरण की अनुमति माँगी है। बैंकिंग से अछूते देश के किसानों के लिये सोने आड़े समय में आर्थिक मदद का आधार रहा है। देश में सोने की दो-तिहाई खरीद ग्रामीण क्षेत्रों में होती है। लेकिन सूखे के कारण कम ही खरीद हुई है।
कब बनेगी कुशल प्रबन्धन की नीति
सूखे के हालात निश्चित रूप से किसी भी देश के लिये दुःस्वप्न के समान हैं। लेकिन आज की वैश्विक व्यवस्था में कोई भी देश इसका मुकाबला कर सकता है। इसके लिये जरूरत है कुशल प्रबन्धन और स्थायी नीति की। सरकार सूखे अथवा दुर्भिक्ष को सरकार द्वारा सात प्रमुख हालात से मापती है। इनमें शामिल हैं मौसमी सूखा, जलीय, कृषि, मृदा की नमी में कमी, सूखे का सामाजिक आर्थिक असर, अकाल (खाद्यान्न कमी) और पारिस्थितिक सूखा।
वर्तमान में देश में बारिश कम होने से मौसमी सूखे के हालात बन रहे हैं। इससे अन्य हालातों पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। देश में सूखे के हालात से निपटने के लिये स्थायी नीति और कुशल प्रबन्धन का अभाव है। कृषि पैदावार को बढ़ाना, कृषि कार्यों के लिये बिजली और सिंचाई की उपलब्धता जरूरी है। लेकिन सूखे सरीखी प्राकृतिक आपदा के समय ही देश में सरकारी फाइलें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर चक्कर लगाने लगती हैं।
देखा जाये तो सूखा एक प्राकृतिक आपदा चक्र है। दुनिया के कई देश शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्र में स्थित हैं। इनमें मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देश शामिल हैं। इनमें हमारे समक्ष इजरायल का सकारात्मक उदाहरण है। इजरायल ने अपनी भौगोलिक स्थिति के मद्देनज़र सूखे के हालात से निपटने के लिये कारगर प्रबन्धन और नीति का निर्धारण कर उस पर अमल किया है। इसमें शामिल है ड्रिप सिंचाई।
हमारे देश में आज भी फव्वारा सिंचाई अथवा नालीदार सिंचाई व्यवस्था ही ज्यादा चलन में है। सरकार की ओर से अनुदान देने के बावजूद ड्रिप सिंचाई के प्रति रुझान कम है। इससे सिंचाई व्यवस्था में पानी की खपत पर क्रान्तिकारी रूप से बदलाव लाया जा सकता है। सूखे का प्रत्यक्ष असर कृषि से जुड़े लोगों और अप्रत्यक्ष रूप से असर शेष जनता पर पड़ता है। शहरी लोगों को खाद्यानों की दरें बढ़ने से महंगाई के रूप में इन हालातों को झेलना पड़ता है। ऐसे में सरकार खाद्यान्न आयात नीति पर अमल करे।
अन्नदाता के लिये आफत
सूखे के हालात देश के अन्नदाता यानी किसान के लिये जानलेवा आपदा साबित हो रहे हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस वर्ष किसानों की खुदकुशी का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। कर्नाटक में इस वर्ष अब तक 400 किसान तंगहाली के कारण खुदकुशी कर चुके हैं। ये आँकड़ा पिछले साल की तुलना में सात गुना है। कर्नाटक सरकार ने राज्य के 30 में से 27 जिलों में अकाल की घोषणा कर दी है। कर्नाटक ने केन्द्र से 3050 करोड़ रुपए की मदद माँगी है।
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र जिसमें औरंगाबाद, बीड, जालना, उस्मानाबाद, नांदेड़, लातूर, परबनी और हिंगोली आते हैं, देश में किसानों की खुदकुशी की राजधानी बन गया है। खुद महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि मराठवाड़ा में इस वर्ष 70 फीसदी रकबे में खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो गई है।
जून से सितम्बर माह के दौरान मराठवाड़ में 52 फीसदी कम वर्षा हुई। ये देश में सर्वाधिक है। वर्ष 2014-15 के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने मराठवाड़ा के किसानों को 4,336 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान की। मराठवाड़ा में वर्ष 2014 में 574 किसानों ने खुदकुशी की। वर्ष 2015 में अब तक ये आँकड़ा 628 पहुँच गया है।
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Post By: RuralWater