फिर जल-सत्याग्रह

मध्य प्रदेश के घोघलगाँव में जल सत्याग्रह को आज लेख लिखने तक 20 दिन हो गए। सत्याग्रहियों के पैर गल रहे हैं, लगातार खुजली हो रही है। बुखार की शिकायत लगातार बनी हुई है। खून पैरों से रिसने लगा है। किन्तु ओंकारेश्वर बाँध प्रभावितों में अपने अधिकारों के लिये उत्साह में कमी नहीं हुई। सत्याग्रह स्थल पर एकदा, गोल सैलानी, सकतापुर, टोकी, केलवा, खुर्द, केलवा बुजर्ग, कामनाखेड़ा आदि डूब प्रभावित गाँवों के लोग लगातार पहुँच कर अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं।

घोघलगाँव के जल सत्याग्रहियों को देखने जब सरकारी डॉक्टर्स की टीम पहुँची और उन्होंनेे जल सत्याग्रहियों के स्वास्थ्य की जाँच की। उन्होंने देखा कि जल सत्याग्रहियों के पैर गल गए हैं और खून आ रहा है। सरकारी डॉक्टर्स ने इलाज का आग्रह किया तो सत्यग्रहियों ने कहा कि हमारा इलाज सरकार के पास है वो हमारी माँगे पूरी करे। हमारा इलाज हो जाएगा इसके अलावा हम कोई इलाज नहीं लेंगे। बात सही है। न्यायपूर्ण है।

नर्मदा नदी पर बने बड़े बाँधों में से एक ओंकारेश्वर बाँध है। इस बाँध की ऊँचाई बिना पुनर्वास बढ़ा दी गई जिस से 5 गाँव डूब में आ गए। ओंकारेश्वर बाँध को दी गई क़ानूनी मंजूरियों के अनुसार बाँध निर्माण के 6 माह पहले पुनर्वास पूरा होना जरूरी है। बिजली चाहिए- विकास तो चाहिए ही के नारे के बीच बाँध का निर्माण तो पूरा कर लिया गया परन्तु विस्थापितों का पुनर्वास नहीं किया गया।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन की याचिका पर 2008 में उच्च न्यायालय और 2011 में सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि पुनर्वास नहीं हुआ है। इसके बाद भी बिना बाँध कम्पनी नेशनल हाईड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने बिना पुनर्वास किए बाँध में पानी भर दिया। इस डूब के खिलाफ सन् 2012 में 17 दिन का जल सत्याग्रह हुआ। लोग पानी में खड़े रहे। उनके पैर और बदन गले तब सरकार पर असर आया और मध्य प्रदेश सरकार ने 225 करोड़ का पैकेज बाँध प्रभावितों को दिया। परन्तु इस पैकेज को भी पुनर्वास नीति के अनुरूप नहीं बनाने से सैकड़ों प्रभावितों को उनके अधिकार नहीं मिल सके।

.प्रभावितों की ओर से नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने 22 अप्रैल को मुख्यमन्त्री को पत्र भेजकर बार-बार माँग की थी कि ओंकारेश्वर बाँध प्रभावितों को सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश व पुनर्वास नीति के अनुसार अनुदान देकर यह सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें पात्रता अनुसार न्यूनतम 5 एकड़ ज़मीन उपलब्ध हो जाए। यह भी आग्रह किया गया कि घर प्लाट एवं अन्य पुनर्वास की समस्याओं का समाधान भी तत्काल किया जाए।

यह सीधी सरल सी माँग थी। ना बाँध का विरोध था। ना कोई और झगड़ा। न्यायपूर्ण माँग है। सरकार जब कम्पनियों को देश के विकास के नाम पर हर तरह की ज़मीन देने को तत्पर है तो बाँध विस्थापितों को उनके हक की ज़मीन क्यों नहीं दे रही? इस प्रश्न से सरकार क्यों बच रही है? नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नेता आलोक अग्रवाल ने स्पष्ट किया कि आन्दोलन विस्थापितों के पुनर्वास के लिये हर तरह के सहयोग के लिये तैयार है। सरकार एक संयुक्त समिति बनाकर एक निश्चित समय सीमा में पुनर्वास पूरा करे ताकि विस्थापितों को उनके अधिकार मिल सके और बाँध की पूरी क्षमता का उपयोग कर लाभ क्षेत्र में किसानों को सिंचाई उपलब्ध कराई जा सके। आलोक अग्रवाल सहित लोगो को बुखार भी आ रहा है पर सभी सत्याग्रहियों के हौसले बुलन्द हैं कि वो अपने अधिकार लेकर रहेंगे।

आन्दोलन की वरिष्ठ कार्यकर्ता सुश्री चित्तरूपा पालित के नेतृत्व में विस्थापितों का एक प्रतिनिधि मण्डल 23 अप्रैल को नर्मदा मन्त्री से मिला था और लम्बी चर्चा के बाद उन्होंने आश्वासन दिया था कि वह उन सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री जी से चर्चा कर निर्णय लेंगे, विस्थापित आज भी इन्तजार कर रहे हैं कि श्री आर्य ने मुख्यमन्त्री जी से बात कर क्या निर्णय लिये।

आज भी घोघलगाँव में जल सत्याग्रह जारी है। विस्थापित/प्रभावित सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश व पुनर्वास नीति के अनुसार अनुदान और यह सुनिश्चितता चाहते हैं। गत् 7 जून 2013 के पैकेज के भी कुछ आदेशों का आज तक पालन नहीं हुआ हैं।अप्रैल 28, मंगलवार को बिना पुनर्वास डूब की स्थिति बनने से नर्मदा बचाओ आन्दोलन की तरफ से उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दी गई थी आज सर्वाेच्च न्यायालय में दायर अर्जी पर न्यायालय ने उसकी तात्कालिकता को अस्वीकार करते हुए अवमानना याचिका की तारीख आगे बढ़ा दी।

लगभग 2000 औसत और छोटे किसान तथा सूचीय आदिवासी व सूचीय जाति के परिवार अपने अधिकारों के लिये लड़ रहे हैं। उनकी न्यायपूर्ण लड़ाई सरकार के खिलाफ है जो ना तो कानून, ना ही लोगों का सम्मान कर रही है।

खण्डवा जल सत्याग्रहउदाहरण सामने है 11 अप्रैल 2015 को बाँध कम्पनी नेशनल हाईड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने बिना विस्थापितों का पुनर्वास किए ओंकारेश्वर बाँध को 191 मीटर पूरा भर दिया। आदिवासियों और अन्यों को यह नहीं मालूम था कि वो 5 एकड़ ज़मीन के हक़दार हैं। दिसम्बर 2012 सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें ज़मीन का हक़दार माना। विस्थापितों ने पता चलने पर कर्जा लेकर सरकार से मिला नकद दो लाख का मुआवजा वापिस दिया। उदाहरण के लिये बूड़े ताराबाई राजाराम सीकदार परिवार ने साहूकार से 6 लाख कर्जा लेकर मुआवजा वापिस दिया। पिछले 2.5 सालों में ब्याज ही 4 लाख हो गया। किन्तु ना सरकार ने ज़मीन दी ना ज़मीन के लिये पैसा।

अब लोगों के सामने बाँध के पानी में ही गलने के अलावा और क्या रास्ता बचता है? क्या सभी जन्तर-मन्तर पर आकर पेड़ से लटक जाएँ? क्या आदिवासी किसानों के लिये विकास में यही प्रसाद है। नेपाल में भूकम्प प्रभावितों के लिये त्वरित निणर्य का दावा करने वाली सरकार क्या इस ओर ध्यान देगी?

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Post By: RuralWater
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