फिर भी सूखा रह गया बुंदेलखंड

Bundelkhand
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प्रकृति के साथ जीना


बुंदेलखंड के लिए यह अप्रत्याशित कतई नहीं है, बीती कई सदियों से यहां हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होती ही है। गांव का अनपढ़ भले ही इसे जानता हो, लेकिन हमारा पढ़ा-लिखा समाज इस सामाजिक गणित को या तो समझता नहीं है या फिर नासमझी का फरेब करता है, ताकि हालात बिगड़ने पर ज्यादा बजट का जुगाड़ हो सके। ईमानदारी से तो देश का नेतृत्व बुंदेलखंड की असली समस्या को समझ ही नहीं पा रहा है।

बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है - अफसरों, नेताओं-सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजर अंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।

मध्य प्रदेश के सागर संभाग के पांच, दतिया और जबलपुर, सतना जिलों का कुछ हिस्सा और उत्तर प्रदेश के झांसी संभाग के सभी सात जिले बुंदेलखंड के पारंपरिक भूभाग में आते हैं। बुंदेलखंड की विडंबना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकरूप भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों-मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बंटा हुआ है। कोई 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पेड़ हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में ‘गारा-गुम्मा’ (मिट्टी और ईंट) का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता है, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता है।

बुंदेलखंड के पन्ना जिले में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाइट दुनियाभर में धूम मचाए है। यहां की खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं। इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हरड़ जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं। खजुराहो, झांसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल सालभर विदेशी घुमक्कड़ों को आकर्षित करते हैं। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता है।

खजुराहो एशिया का एकमात्र ऐसा ‘गांव’ है, जहां बोईंग विमान उतरने की सुविधा है। यहां पांच पंच सितारा होटल हैं। यहां जमीन के दाम पचास लाख रुपए एकड़ पहुंच गए हैं। खजुराहो का जिला मुख्यालय मध्यप्रदेश का छतरपुर जिला है, जहां की बस्तियों में सारी रात हैंडपंप चलने की आवाजें आती हैं। नल सूख चुके हैं। लोग इस उम्मीद में रात दो-तीन बजे हैंडपंप पर आते हैं कि कम भीड़ मिलेगी, लेकिन तब भी 20-25 डिब्बे-बाल्टी कतार में दिखते हैं। यह वे भी जानते हैं कि यह हैंडपंप अब ज्यादा दिन साथ नहीं देने वाले हैं। अभी गर्मी बहुत दूर है। हल्की-हल्की ठंड ने दस्तक दे दी है। लेकिन कुओं की तलहट दिखने लगी है। जो तालाब साल भर में लबालब भरे रहते थे, कार्तिक का स्नान करने वालों को उसमें निराशा दिख रही है। लोगों ने अपनी पोटलियां लेकर दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ ली है। पेट की आग ऐसी है कि सुलगते जम्मू-कश्मीर जाने में भी कोई झिझक नहीं है। हीरों की धरती कहलाने वाले पन्ना जिले में कुछ पानी तो बरसा, लेकिन ऐसा बरसा कि 71 प्रतिशत खेत सूखे रह गये। जिले में पत्थर खदानें बंद होने के कारण वैसे ही बेरोजगारी बढ़ गई है। सूखे के कारण कृषि-मजदूरी भी नहीं है, सो गांव के गांव महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

छतरपुर व टीकमगढ़ जिले प्राकृतिक असंतुलन की त्रासदी भोगने को अभिशप्त हैं। प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ के परिणामस्वरूप यहां हर दूसरे साल अल्प वर्षा का आतंक रहता है। इस बार छतरपुर जिले में करीब 27 इंच पानी बरसा, जो कि पिछले साल के बराबर ही है। उससे पिछले साल भी इंद्र की मेहरबानी लगभग इतनी ही थी। लगातार तीन साल से अल्प वर्षा का प्रकोप झेल रहे जिले की 80 फीसदी फसल चौपट हो चुकी है।

छतरपुर शहर की प्यास बुझाने वाले दो स्रोतों में से एक खोंप ताल पूरी तरह सूख चुका है। बूढ़ा बांध में बमुश्किल दो महीने का पानी शेष है। भूगर्भ जलस्तर अचानक छह से 10 मीटर नीचे तक चला गया है। अकेले इस जिले से डेढ़ लाख लोगों के घर-बार छोड़ने की बात स्थानीय नेता राज्य सरकार को बता चुके हैं।

जिले के आदिवासी बाहुल्य गांव बरानाद में घर-घर के बाहर पेड़ की छाल व बेल-फल सूखते मिल जाएंगे। पिछले तीन साल से पानी, ओला और सूखे से लगातार आहत आदिवासियों के पास खाने को अनाज नहीं बचा है। वे पेड़ की छाल व बेल को पीसकर काम चला रहे हैं। इस गांव में पसरट (किराना) की दुकान करने वालों ने अपनी दुकान भी बंद रखने की ठान ली है। उनका कहना है कि लोगों के पास खरीदारी के लिए पैसा है नहीं। भूखे लोग उधार मांगते हैं, वह कब तक उधार दें और किस-किस को मना करें।

यही हाल निमानी, शोरा, मलार, लखनवा सहित तीन दर्जन गांवों के हैं। यहां मौसम की मार को भांपते हुए साहूकारों ने भी उधार पैसा देना बंद कर दिया है। सिग्रामपुर, भरवाना, मोहनपुरा, बिनेदा जैसे कई गांव वीरान हो गए हैं क्योंकि वहां पेय जल का एक भी स्रोत नहीं बचा है।

संभागीय मुख्यालय सागर शहर में 140 लाख गैलन पानी की हर रोज जरूरत है, जबकि सप्लाई मात्र 25 लाख गैलन की है। सरकारी कागज सरकार की नाकामी का खुलासा करते हुए कहते हैं कि सागर में जल प्रदाय के पंपिंग स्टेशनों को पर्याप्त वोल्टेज के साथ बिजली ना मिलने के कारण पानी की सप्लाई बाधित है। यदि सागर के बीचों-बीच फैले तालाब पर नजर डालें तो सोचने को मजबूर होना पड़ेगा कि इतनी विशाल जल-निधि के रहते हुए पानी का टोटा होना, कहीं मानवजन्य त्रासदी तो नहीं है?

शहरी बसाहट का आदर्श नमुना


बुंदेलखंड के सभी कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है-चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को, सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे।

अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए. रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। गांवों को अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे, बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। कुछ साल पहले ललितपुर जिले में सीटरस फलों जैसे संतरा, मौसंबी, नीबू को लगाने का सफल प्रयोग हुआ था। वैज्ञानिकों ने भी मान लिया था कि बुंदेलखंड की पथरीली व अल्प वर्षा वाली जमीन नागपुर को मात कर सकती है। न जाने किस साजिश के तहत उस परियोजना का न तो विस्तार हुआ और न ही ललितपुर में ही जारी रहा।

कभी पुराने तालाब जीवन रेखा कहलाते थे। समय बदला और गांवों में हैंडपंप लगे, नल आए तो लोग इन तालाबों को भूलने लगे। कई तालाब चौरस मैदान हो गए, कई के बंधान टूट गए। जो रहे-बचे, तो उनकी मछलियों और पानी पर सामंतों का कब्जा हो गया। तालाबों की व्यवस्था बिगड़ने से धीमरों की रोटी गई। तालाब से मिलने वाली मछली, कमल-गट्टे यहां का अर्थ-आधार हुआ करते थे। वहीं किसान सिंचाई से वंचित हो गया। कभी तालाब सूखे तो भूगर्भ जल का भंडार भी गड़बड़ाया। आज के अत्याधुनिक सुविधासंपन्न भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुंदेलखंड के बुजुर्गवार सदियों पहले जानते थे कि यहां की ग्रेनाइट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा। तभी हजार साल पहले चंदेलकाल में यहां की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब बनाए गए, ताकि बारिश का अधिक से अधिक पानी उनमें एकत्र हो, साथ ही तालाब की पाल पर कुएं भी खोदे गए। लेकिन तालाबों से दूर या अपने घर-आंगन में कुआं खोदने से यहां परहेज होता रहा।

गत दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक ट्यूबवेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा। सो जल त्रासदी का भीषण रूप तो उभरना ही था। साथ ही साथ नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च अरबों रुपए भी पानी में गए। क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं। साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है। इससे खेतों की सिंचाई तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है।

कभी बुंदेलखंड के 45 पीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमटकर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोड़ों की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे। सूखे-गिरे पेड़ों को ईंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।

पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्राणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।

बुंदेलखंड : कहां से शुरुआत ?


यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हटकर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थायी संगठन बनाने होंगे। दूसरा, इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिए उसे रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध-बांधकर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुंदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी।

कुछ जगह हो सकता है कि राहत कार्य चलें, हैंडपंप भी रोपे जाएं, लेकिन हर तीन साल में आने वाले सूखे से निबटने के दीर्घकालीन उपायों के नाम पर सरकार की योजनाएं कंगाल ही नजर आती हैं। स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता-वृद्धि कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैसे उपायों को ईमानदारी से लागू करे, बगैर इस शौर्य-भूमि की तकदीर बदलना नामुमकिन ही है।

बुंदेलखंड में जल संचय की परम्परा


श्रुतियों के अनुसार कूप, वापी, पुष्करनी और तड़ाग पानी उपलब्ध कराने या उसका संचय करने वाली संरचनाएं हैं। इन सभी संरचनाओं को खोदकर बनाया जाता है। कूप की लंबाई या व्यास पांच हाथ से 50 हाथ (एक हाथ=लगभग 1.5 फुट) होता है। सीढ़ीदार कुएं को, जिसका व्यास 50 से 100 हाथ होता है, वापी (बेर) कहते हैं । वापी में चारों ओर से या तीन ओर से या दो ओर से या केवल एक ओर से सीढ़ियां बनाई जाती हैं। 100 से 150 हाथ व्यास अथवा लंबाई के तालाब को पुष्करनी कहते थे। तड़ाग की लंबाई या व्यास 200 से 800 हाथ होता है। शिलालेखों में मिले विवरणों से ज्ञात होता है कि चंदेल राजाओं ने पुष्करनी को छोड़कर बाकी सभी जल संरचनाओं (कूप, वापी और तड़ागों) का निर्माण कराया था।

चंदेल राजाओं द्वारा कराए गए कामों का उल्लेख लोकोक्तियों के अतिरिक्त शिलालेखों में भी मिलता है। चंदेल राजा यशोवर्मन द्वारा तालाब और मंदिर का निर्माण कराया गया था। इस तथ्य की पुष्टि खजुराहो में प्राप्त शिलालेख से होती है। वीरवर्मन की रानी कल्याणदेवी ने कुआं तालाब और मंडप का निर्माण कराया था। कीर्तिवर्मन के मंत्री द्वारा कुएं (वापी) में सीढ़ियों का निर्माण कराया गया था। इसी तरह मदनवर्मन के मंत्री ने मंदिर और तालाब (तड़ाग) का निर्माण कराया था। इन कामों के कारण मंत्री की प्रशंसा में लिखे शिलालेख मिलते हैं।

चंदेल राजाओं दवारा बनवाए तालाबों को मुख्यतः निम्न दो वर्गों में बांटा जा सकता है-

(अ) पेयजल और स्नान हेतु तालाब-इन तालाबों पर घाट बनाए जाते थे।
(ब) सिंचाई और पशुओं के लिए निस्तारी तालाब।

उपर्युक्त राजाओं द्वारा बनवाए गए तालाबों का एक और वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। इस वर्गीकरण के अंतर्गत तालाबों को निम्न दो वर्गों में बांटा जाता है-

(क) स्वतंत्र तालाब (स्वतंत्र एकल संरचना)
(ख) तालाब श्रृंखला (एक दूसरे से सम्बद्ध तालाबों की श्रृंखला, सांकल या श्रृंखलाबद्ध तालाब)

चंदेल तालाबों की पाल मिट्टी की होती थी। पाल के दोनों तरफ, पत्थरों के ब्लॉक लगाए जाते थे। तालाबों का आकार यथासंभव चंद्राकार या अर्ध-चंद्राकार होता था। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि चंद्राकार या अर्ध-चंद्राकार तालाबों में अधिक पानी जमा होता है। पानी का वेग कम करने के लिए कहीं-कहीं तालाब के बीच में टापू छोड़े जाते थे। पाल की ऊंचाई और वेस्टवियर की चौड़ाई का अनुपात 10:7 रखा जाता था। उल्लेख है कि चंदेलों द्वारा अपनाए गए तकनीकी मानकों के कारण तालाब पूरी तरह सुरक्षित रहता था।

चंदेलों के बाद, पंद्रहवीं सदी के मध्यकाल से लेकर अठारहवीं सदी तक बुंदेलखंड पर बुंदेला राजाओं का आधिपत्य रहा। चंदेल राजाओं के बाद जल संचय की परंपरा को आगे बढ़ाने का सिलसिला बुंदेला राजाओं के शासनकाल में भी जारी रहा। ओरछा नरेश महाराजा प्रतापसिंह ने 7086 कुएं-बावड़ियां, 73 नए तालाब बनवाए और 450 चंदेल तालाबों का जीर्णोद्धार कराया था। इनमें कुछ मिट्टी के तो कुछ चूने से जुड़े पक्के तालाब थे। महाराजा प्रताप सिंह ने सिंचाई सुविधा के लिए स्लूस बनवाए और खेतों तक नहरों का निर्माण करवाया। तालाब बनवाने का सिलसिला विकसित बसाहटों तक सीमित नहीं था।

कहा जाता है कि चंदेल और बुंदेला राजाओं ने टीकमगढ़ जिले के सघन वन क्षेत्रों में जंगली जीवों और जनजातीय लोगों के लिए लगभग 40 तालाब बनवाए थे। इनमें से अभी भी 24 तालाबों का अस्तित्व शेष है। छत्रसाल सहित लगभग सभी बुंदेला राजाओं ने तालाब निर्माण की चंदेल परिपाटी को बढ़ावा दिया। उन्होंने चंदेल काल में बने कुछ तालाबों की मरम्मत की, कुछ का पुनर्निर्माण किया और अनेक नए तालाब बनवाए। कुछ तालाबों से सिंचाई के लिए नहरें निकालीं। उनके शासनकाल में बनवाए गए तालाबों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा था। उनमें नीचे उतरने और आने-जाने के लिए सीढ़ियां बनाई गई थीं और उनके घाटों पर चबूतरे, मंडप और बाग-बगीचे लगाए गए थे। इस व्यवस्था ने एक ओर तो तालाबों की सुदंरता को चार चांद लगाए और भव्यता प्रदान की तो दूसरी ओर से बनवाने वालों के सौंदर्यबोध को उजागर किया।

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