हम दून में स्मार्ट सिटी की बात कर रहे हैं। मेट्रो के सपने देख रहे हैं और यहाँ पर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स, मेट्रोपोलिटन कल्चर का भी एहसास कराते हैं, लेकिन जब बारिश आती है तो सारे ख़्याब डूबे नजर आते हैं। सवाल तैरने लगते हैं कि जिस दून को नहरों के रूप में प्राकृतिक ड्रेनेज की सौगात मिली थी, वह कैसे दरियादून बन गया। वक्त बढ़ता गया और शहर को बेहतर बनाने की सोच संकरी होती चली गई। जिन सफेदपोशों को आगे आकर शहर के ड्रेनेज सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करने चाहिए थे, उनकी भूमिका जलभराव के बाद औपचारिकता के लिए लोगों का हाल जानने तक सीमित रह गई है। यही कारण है कि दून को जलभराव से निजात दिलाने के लिए वर्ष 2008 में पेयजल निगम ने जिस मास्टर प्लान को तैयार किया था, उसे करीब 11 साल बाद भी धरातल पर नहीं उतारा जा सका। तब इस प्लान को धरातल पर उतारने की लागत 300 करोड़ रुपए थी, अब यह 900 करोड़ रुपए को पार कर गई है। इस प्लान को तब स्वीकृति के लिए शासन को भी भेजा गया था। हालांकि, शहर की बेहद बड़ी समस्या को हल करने के लिए शासन के उच्चाधिकारियों को यह राशि अधिक लगी, लिहाजा इस पर कोई त्वरित निर्णय नहीं लिया जा सका था। साल-दर-साल जब बारिश में सड़कें जलमग्न हुईं, तब प्लान पर चर्चा जरूर कर ली जाती। इसी कशमकश के बीच वर्ष 2012 में फिर से प्लान का जिन्न बाहर निकाला तो पता चला कि इसकी लागत 450 करोड़ रुपए को पार कर गई है। तब नगर निगम के पार्षदों ने प्लान पर आपत्ति लगा दी और इसमें सुधार लाने को कहा गया। इस संशोधन के बाद भी बात आगे नहीं बढ़ पाई, जबकि अब न सिर्फ प्लान की लागत तीन गुना हो गई है, बल्कि पुराने प्लान के अनुरूप धरातल पहले जैसा भी नहीं रहा। 2008 से लेकर अब तक नालों व नालियों का स्वरूप और कॉलोनियों के आकार में भी बदलाव आए हैं।
पहला काम अधूरा, अब सिंचाई विभाग को जिम्मा
सरकार से लेकर शासन-प्रशासन तक में अक्सर यह बात की जाती है कि विभागों को आपस में समन्वय बनाकर काम करना चाहिए। हालांकि, जब भी जरूरत पड़ती है, इस बात का अभाव नजर आता है। यह बात दून के ड्रेनेज प्लान में भी सामने आई। पेयजल निगम ने 2008 में जो प्लान तैयार किया था, उसे एक्सपायर किया जा रहा है। यही कारण भी यह कि सरकार ने सिंचाई विभाग को ड्रेनेज का प्लान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी तो पेयजल निगम के प्लान का जिक्र तक नहीं किया जा रहा। इस तरह के प्रयास भी नहीं किए जा रहे कि पुराने प्लान में सुधार कर उस पर जल्द काम शुरू किया जा सके।
रिस्पना से प्रिंस चैक
मास्टर प्लान के तहत हरिद्वार रोड़ पर रिस्पना पुल से लेकर प्रिंस चैक तक दोनों तरफ गहरे व चैड़े नाले बनने थे, ताकि बारिश का पानी सड़कों पर न आ पाए। लोनिवि ने आराघर चैक से सीएमआई चैक व कुछ आगे तक थोड़ा काम किया, पर काम नियोजित तरीके से नहीं हो पाया। जबकि धर्मपुर में एलआईसी भवन, धर्मपुर आराघर चैक, सीएमआई चैक के पास, रेसकोर्स चैक से रोडवेज वर्कशॉप तक बड़े पैमाने पर जलभराव होता है।
सहारनपुर रोड़ पर मास्टर प्लान की अनदेखी
लोनिवि ने यहाँ पर नाले का निर्माण जरूर किया है, मगर मास्टर प्लान की अनदेखी की गई। जिसके चलते करीब दो दर्जन स्थलों पर ढाल दुरुस्त नही है। इसके चलते बारिश में पानी सड़कों पर बहने लगता है। खासकर इस पूरे मानसून सीजन में आइएसबीटी क्षेत्र जलमग्न रहा और लोगों को भारी परेशानी झेलनी पड़ी।
दून के छह बड़े नालों पर होना था काम
मास्टर प्लान के तहत पहले चरण में दून में छह बड़े नालों पर काम होना था। जिसमें मन्नूगंज, चैरखाला, गोविन्दगढ़, भण्डारी बाग, एशियन स्कूल व रेसकोर्स नाला था। इन नालों के ड्रेनेज सिस्टम को बेहतर करने में 59.48 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था। ताकि इनमें आस-पास के इलाकों के पानी की निकासी को भी जोड़ा जा सके। हालांकि, जब कुछ बात आगे बढ़ी ही नहीं तो इन पर भी काम कहाँ से हो पाता।
कांवली रोड व सीमाद्वार मार्ग पर खानापूर्ति
ड्रेनेज के मास्टर प्लान के तहत कांवली रोड व सीमाद्वार मार्ग पर भी काम किए जाने थे। जिसके अन्तर्गत नालों का निर्माण करके पानी की निकासी को बेहतर बनाया जाना था। यहाँ इस दिशा में कुछ प्रयास किए गए, लेकिन निर्माण की गुणवत्ता बेहतर न होने के चलते उसका लाभ नहीं मिल पाया।
धर्मपुर से मोथरोवाला रोड
प्लान के तहत धर्मपुर से लेकर मोथरोवाला तक नालों का निर्माण होना था ताकि पानी सड़क पर आने के बजाय नालों के जरिए निकल जाए। इस मार्ग पर धर्मपुर से मोथरोवाला रोड की तरफ ड्रेनेज सिस्टम पूरी तरह से व्यस्त है। यहाँ पर दोनों तरफ की नालियाँ कहीं पर चैक हैं तो कहीं टूटी हुई हैं।
राजपुर रोड पर सौन्दर्यीकरण तक सिमटा काम
यहाँ पर अलग-अलग विभागों की ओर से कुछ काम किए गए, लेकिन वहां मास्टर प्लान की ड्राइंग के हिसाब से कोई काम नहीं हुआ। सिर्फ बजट खर्च कर खानापूर्ति कर दी गई। राजपुर रोड पर ही एनआईवीएच के पास सड़क के दोनों तरफ सौन्दर्यीकरण के काम हुए, लेकिन वहाँ पर पानी की निकासी के लिए कोई इंतजाम नहीं किए गए।
इन इलाकों में भी होना था काम
द्रोणपुरी, अलकनंदा एन्क्लेव, ब्रहमपुरी, चमनपुरी, अमन विहार, इंदिरा कालोनी, इंजीनियर्स एन्क्लेव (काम चल रहा, मगर मास्टर प्लान से इतर), इंदिरा गाँधी मार्ग, आनंद विहार, मोहित नगर, रीठामंडी, प्रकाश विहार, साकेत कॉलोनी, राजीव नगर, वनस्थली, ब्योमप्रस्थ, केशव विहार, कालिदास रोड, लक्ष्मी रोड, बलवीर रोड, इंदर रोड, करनपुर रोड, त्यागी रोड, रेसकोर्स रोड, अधोईवाला, कारगी, मयूर विहार, गाँधी रोड, गोविन्दगढ़, सालावाला रोड, यमुना कालोनी, पार्क रोड, कौलागढ़ रोड, कैनाल रोड, महारानीबाग आदि। (नोटः इन सभी इलाकों में जलभराव की समस्या रहती है।)
एमडीडीए सेटेलाइट से देखेगा पानी का ढाल कहाँ-कहाँ
दून में जितनी प्लानिंग की जाती है, उसका आधा भी धरातल पर उतर पाए तो शहर की सूरत बदल जाएगी। हकीकत में ऐसा हो नहीं पाता है और अधिकतर योजनाएँ प्लानिंग से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। पेयजल निगम के ड्रेनेज प्लान की डीपीआर इसका उदाहरण है। इसे लगभग डंप कर दिया गया है और अब सिंचाई विभाग के साथ एमडीडीए भी अपने स्तर पर काम रहा है। एमडीडीए उपाध्यक्ष डॉ. आशीष श्रीवास्तव का कहना है कि नेशनल रिमोट सेसिंग सेंटर, हैदराबाद से सेटेलाइट चित्र मंगा लिए गए हैं। अब इनका अध्ययन कर पता लगाया जा रहा है कि दून में पानी की निकासी प्राकृतिक रूप से कहाँ-कहाँ हो रही है। इससे यह भी पता लग पाएगा कि पानी के ऐसे कौन से प्राकृतिक ढाल हैं, जहाँ निर्माण हो चुके हैं। हो सकता है कि जहाँ पानी की निकासी का प्राकृतिक ढाल हो, वहाँ लोगों की निजी भूमि भी हो। ऐसे स्थलों पर निर्माण की भी अनुमति नहीं दी जाएगी। क्योंकि ऐसा करके पर पानी का रुख बदल सकता है।
नगर निगम नालों की सफाई करने में फेल
मानसून सीजन से पहले नगर निगम का नाला गैंग और सफाई कर्मियों को कागजों में अलर्ट मोड में ला दिया जाता है। बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं कि नालों की सफाई कर उनकी निकासी दुरुस्त कर दी जाएगी। हकीकत में कूड़ेदारों व घर तक से ढंग से कूड़े का उठान करने में असमर्थ नगर निगम नालों की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाता है। शहर के नालों वनालियों का अधिकांश हिस्सा कचरे से चोक पड़ा रहता है। ऐसे में जब बारिश होती है तो पानी कहीं सड़कों तो कहीं कालोनियों में घुस जाता है।
कालोनियाँ बसती रहीं, एमडीडीए सोता रहा
वर्ष 2000 के बाद दून में जितनी की कालोनियाँ विकसित हुई हैं, उनमें 95 फीसद से अधिक में नालियाँ ही नहीं बनी हैं। कहने को बिना ले-आउट पास कराए कहीं पर भी प्लॉटिंग कर कालोनियाँ नहीं बनाई जा सकती है, मगर इस पर प्रभावी कारवाई तब हो पाती, जब एमडीडीए मुस्तैद होकर अपनी जिम्मेदारी निभाता। प्रापटी डीलर इंच-इंच भर की जमीन और ले-आउट शुल्क बचाने के लिए मनमर्जी से प्लॉट काटते रहे और इसकी वसूली एमडीडीए घर बनाने वालों से सब-डिविजन चार्ज के रूप में करता रहा। लोगों पर पहली मार नक्शा पास कराने में अधिक शुल्क देकर पड़ी और फिर बारिश में जलभराव के रूप में प्रकृति की मार बार-बार झेलते रहते हैं।
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