दोपहर सिर पर थी। धूप आंखों को डस रही थी। पसीने की धारा बह रही थी। प्रमोद अपनी दुकान में बैठकर सड़क पर दौड़ते वाहनों को देखने में समय काट रहा था। उसका एक बेकाम का मित्र मोहन काले दुकान में बैठा था। वह कोई अखबार पढ़ रहा था।
इतने में प्रमोद की मां हाथ में लोटा लिए वहां आई।
‘देख रे प्रमोद... कितने जीव-जंतु हो गए इस पानी में...’
‘चाची आपने बर्तन धोया नहीं होगा।’ अखबार पढ़ने वाला मोहन काले बोला।
‘बर्तन, कहां से धोएं बाबा। पानी बहाने का धंधा। यहां एक-एक बूंद में जी लगाना पड़ता है। पर अब तो मुझे एक दूसरा ही डर लगने लगा है।’
‘कौन-सा?’
‘अब तक अपन ने जंतु का ही पानी पिया। ऐसे में मुझे कोई रोग हो तो नहीं होगा?’
‘कुछ नहीं होता। ऐसे अकाल के दिनों में सारे जंतु पच जाते हैं। ला इधर देख, मैं पीकर दिखाऊंगा...’
यह कहकर प्रमोद ने मां के हाथ का लोटा लिया और गटागट सारा पानी पी गया। पर बाद में उसे लगता रहा कि कीड़े उसके पेट में बिलबिला रहे हैं। फिर वह बेचैन हो गया।
‘क्या भयानक हालत है, पत्रकार साहब यह। अरे पत्रकार के घर में ये हाल। ऐेसे में औरों के घर में क्या हाल होगा? इससे तो पानी क्यों नहीं खरीद लेते बबन शेवांले से’ मोहन ने पूछा।
‘और उसे पैसे कहां से दें? मैं क्या नौकरी वाला हूँ? साली अपनी कमाई ही कितनी है? अखबार से पंद्रह-बीस टका कमीशन... और स्टेशनरी का टुटपुंजिया धंधा... पत्रकार को कमीशन मिलता है, विज्ञापन से... पर अपने इस दरिद्दर गांव में काहे का कमीशन? अपना गांव यानी न ठीक से गांव न ठीक से शहर। साला एकाध बकरा भी पकड़ में नहीं आता, नंबर दो का धंधा करने वाला... साले को पकड़कर चीर डाला होता।
वह बोलता जा रहा था, तभी उसे टोकते हुए मां ने कहा,
‘जाने भी दे रे! खरीद ले न पानी। ये शेवाले है कौन?’
‘कहां खरीदें पानी... जाने भी दे... मेरी औरत लाती है। पुल पर के पंप पर खटने दे उसे। ...और ये पानी फेंको मत...कपड़े से छानकर पीना... कुछ नहीं होता,
उसके यह कहने पर उसकी मां निराश हो गई और भारी कदमों से घर में चली गई।
इतने में एस.टी. परिसर से सोमनाथ हावरे आया। पुणे-अकोला एक्सप्रेस बस से वह उतरा था। उसने बैग से अखबार निकाला और पेज खोलकर फोटो दिखाया। फोटो के नीचे लिखे मोटे अक्षरों का वाक्य पढ़ा-
सारंगपुर में अकाल...
कुआं हुआ ठन-ठन गोपाल...
‘पुणे के अखबार में फोटो छपा है। लगता है, अब निश्चित ही हमारे इलाके में पानी की सुविधा हो ही जाएगी। एमएलए-एमपी पुणे-मुंबई के ही होते हैं। उनके हाथों यह फोटो लगेगा ही। कोई न कोई व्यवस्था वे लोग जरूर करेंगे।’ पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा।
‘ये नेता लोग अपना फोटो दिखा तभी गौर से देखते हैं... ऐसे फालतू फोटो देखने के लिए उनके पास समय कहां होता है।’
‘मान लीजिए, सरकार ने कोई व्यवस्था कर ही दी, तो इस बबन का धंधा तो ठप्प हो गया समझिए। बेहिसाब पैसे कमा रहा है रे पानी के! बाप-जनम में इतने पैसे नहीं देखें होंगे।’ प्रमोद ने कहा।
अपने ऊपर अचानक ऐसा हमला होता देख बबन विचलित हो गया, “अच्छा मैं चलता हूं... देर हो रही है।” कहकर वह वहां से चलता बना। उसके जाने के बाद मोहन बोला,
‘ये साला फालतू बहुत पैसे कमा रहा है। सारे नौकरी वाले इसी से पानी खरीदते हैं। क्योंकि वे गांव के भीड़ भरे ट्यूबवेल से पानी के लिए नंबर नहीं लगा पाते। रात-रात भर जागकर कुएँ से घूंट भर पानी नहीं निकाल पाते। अपनी औरतों की तरह उनकी औरतें मजबूत नहीं होतीं न... नाज़ुक होती हैं। उन्हीं के भरोसे मजा है बबन्या का।’
‘खूब पैसा कमा रहा है। दिखने में तो बेवकूफ़ है साला। बैलों-हलों के पीछे चलता था इतने दिनों, पर अब पनवाड़ी की दुकान पर गुटका खाता है और खर्रा चबाता है। जगन के ढाबे पर मुर्गी खाते भी देखा है उसे...’
‘अपन बी.ए. तक पढ़ गए और कमाई कितनी तो चालीस-पचास रुपए... वह भी कभी मिली कभी नहीं...और ये फ़ालतू आदमी तीन-चार सौ तो आसानी से कमाता होगा... ज्यादा ही, कम नहीं...’ प्रमोद की व्यथा जागी।
सोमनाथ ने हिंदी फिल्म पत्रिका उठा ली। उसमें छपी हीरो-हीरोइनों की तस्वीरों को आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगा।
‘साली ये कौन हिरोईन है रे! नई दिखती है। बहतु ही कम कपड़ों में है... पोज भी बड़ी खतरनाक है! साली ऐसी सुंदर औरत चाहिए अपने को...’
‘क्या फायदा कैसी भी हो तो? उसका फायदा तो मिलना चाहिए।’ कहते हुए प्रमोद उदास हो गया।
‘क्या रे क्या हुआ?’ सोमनाथ ने संशय से पूछा।
‘क्या बताऊं? आठ दिन से अपनी गृहस्थी ठप्प है। इस पानी के कारण नहाना बंद है। पुल के पास के ट्यूबवेल से पीने का पानी घर के लोग किसी तरह ला पाते हैं। ...इसलिए कोई स्नान न करे यह फतवा निकाल दिया है हमारी बुढ़िया ने...’
‘पर इसका तुम्हारी गृहस्थी ठप्प होने से क्या संबंध है?’
‘अरे बाबा, बीवी छूने नहीं। ... ऐसे ही पसीने में दिन भर काम करना पड़ता है। खाना बनाना पड़ता है। कहती है कि सब बहुत गंदा लगता है। क्योंकि शादी के बाद से सुबह-सुबह साफ पानी में नहाने की उसे आदत लग गई है। वो अब इस तरह मुझे परेशान करती है।’
सुनकर सोमनाथ ठहाका लगाते बोला,
‘अरे भाभी का सही है। गंदगी बिलकुल पसंद नहीं होती औरत-जात को...रसोई बनानी पड़ती है। पूजा-पाठ करना होता है। हमारे घर की तो बड़ी भक्तिन है... नहाए बिना तो वह भगवान के पास भी नहीं जाती...’
पर आपका अच्छा है। आप पानी खरीद सकते हैं, ऊपरी कमाई पर... हमारी कहां है ऊपरी कमाई?
“अरे ओ... ओ पत्रकार साहब...” मोहन काले हांफते-भागते हुए आया।
‘क्या हुआ बे?’
‘कुत्तर बावड़ी में लड़की गिर गई रामा उमाले की...सिर फटने से मर गई... सारे लोग उधर भाग रहे हैं... चलिए...’
‘धत तेरे की। तुझे लस्सी लाने के लिए भेजा तो ये खबर ले आया, क्यों रे कलमुंहे...’ कहते हुए प्रमोद ने धड़ाम से दुकान का फाटक लगाया और सब गांव की ओर भागने लगे।
कुत्तर बावड़ी पर कोलाहल था। लोगों की भीड़ पसीना पोंछते हुए आगे बढ़ रही थी। लग रहा था कि सारा गांव ही वहां इकट्ठा हो गया हो।
रामा उमाले की औरत कुएँ के किनारे पेड़ के नीचे बैठी भयंकर चेहरे रो रही थी। छाती पीटती आक्रोश करती। कुएं की ओर लपकती, परंतु, कुछ औरतों ने उसे कसकर पकड़ रखा था।
‘मैंने ही भेजा था री मां उसे... ना... ना कर रही थी वह... धूप में नहीं जाती... कहती थी वह। मर गई री तेरह साल की मेरी कोमल करुड़ी-सी प्यारी बच्ची... पानी के कारण...!’ विलाप करती बोलती रहती।
साला सब कुछ खून हो गया। पानी, चट्टान पर, कितने पर भी... अब तो इस कुएँ का पानी पीने के काम आ ही नहीं सकता। किसी तरह लोग अंजुरी-अंजुरी निकालते, प्यास बुझाते थे... उसमें भी सब खून ही खून...! मोहन बोला। अबे चुप कर साले... उधर जीती-जागती जान कुएँ में गिरकर मर गई और तुम्हें पानी खराब होने का दुःख सता रहा है। अबे, किसी ने सुना तो देंगे तुम्हें कुएँ में फेंक... प्रमोद उस पर झल्लाया।
उसके मन में खबर रेंग रही थी, ‘अंजुरी भर पानी के लिए बालिका की बलि...’
लोगों का जानलेवा कोलाहल सुनाई दे रहा था। औरत-मर्द बच्चों का आर्तनाद! बच्चों की चीख-चिल्लाहट। गोठे में बंधे जानवर, बकरियां भयानक रूप से आवाजें निकाल रहे थे।
पारखेड़ गांव को चारों ओर से आग ने घेर लिया था। गांव के लोग बच्चों को लेकर गांव के बाहर भाग रहे थे। जान मुट्ठी में भींचकर अपने गांव-घर को आग में धधकते देख रहे थे। तिनका-तिनका जोड़कर बनाया घोंसला राख के ढेर में बदलते देख रहे थे। सारी जिंदगी खेत-खलिहान में खटकर जोड़ी थोड़ी-सी पूंजी, अनाज के बोरे राख हो रहे थे।
जलावन के लिए खेतों-जंगलों की बहुत सारी लकड़ियां घर के पिछले ओसारे में और गोठे के छप्पर में रखा होता। चूल्हे में जलकर वह लोगों का पेट भरता। पर आज मनु्ष्य का धन-धान्य जलाने में मदद कर रहा था। पारखेड़ के आधे से अधिक घर बांस से बने थे। घास-फूस से ढंके और लिपे होते। वे सारे मिलकर सब घर जलाने में मदद कर रहे थे। गाय-बैलों की व्याकुल छपटाती आवाजें कलेजा चीर जातीं। जिंदा जलते हुए उनकी दयनीय आवाजें भीतर तक दहला जातीं।
जब आग लगी तब गांव के लोग गांव से बाहर भाग गए थे। पर गोठे में बंधे गाय-बैल वहीं फंस गए और छटपटाते हुए जिंदा जल गए। उन पर बहुत देर से जब अग्निशामक दल की पानी की बौछार पड़ी तब खूंटे से जंजीरों से बंधे जानवर भुर्ते की तरह भुन गए थे। कई जानवरों के पेट फूलकर फट गए थे। आंखें बाहर आ गई थीं। यह देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते।
“कैसे हुआ यह”
“कैसे लगी आग?”
पारखेड़ के लोगों को सारंगपुर के लोग पूछ रहे थे। पर कोई कुछ न बताता... उनकी रुआंसी आंखें जले हुए गांव पर, गांव के सिर पर उठते धुएं पर थीं... डरे हुए,लुटे हुए उजाड़... पसीने से लथपथ, बेचैन चेहरे...
ऐसे में भी कुछ बताने की कोशिश करते एक बूढ़े को प्रमोद ने हाथ से सहारा दिया। बांध के किनारे के एक पेड़ के नीचे बिठाते पूछा, “यह सब कैसे हुआ दादा...”
‘गांव के उस पहाड़ीनुमा छोर से आग लगी। वहां लोगों ने पुआल इकट्ठी कर रखी थी। पहले वह सुलगी, फिर तो राक्षस की तरह आग की लपटें उठने लगीं। सब औरतों-बच्चों को लेकर भागने लगे। आग बुझाएं तो बुझाएं कैसे? पानी लाएं कहां से? घर में पीने के लिए पानी नहीं। मिट्टी डाल कर देखी, पर वह क्या चूल्हे की आग थी, नहीं बुझी बाबू... गाय, बैल, बकरियां मर गए... पर ज्यादा काम वाले बैल मर गए। क्योंकि दूसरे जानवर चरने के लिए थे। ...हमारा सारा खाक हो गया... अब जीकर हम करें भी क्या, हमें भी आग में धकेलो...’
बूढ़ा थरथराते हुए पागलों की तरह बता रहा था।
इतने में औरतों के झुंड में फिर कोलाहल उठा। प्रमोद ने उधर मुड़कर देखा। पूंजाजी जुमड़े की बीवी अपने पति की ओर भागती-दौड़ती जा रही थी।
‘लौट जाSS, मत आSS, मुझे हाथ मत लगा। मैंने गांव जला दिया... मैंने गांव जलाया। मुझे भी जलाओSS जिंदा जलाओSS मत बचाओSS...’
पूंजाजी जुमड़े उछलते-कूदते नाले के किनारे दौड़ लगाता ओझल हो गया।
‘वो आदमी इस तरह चिल्लाते क्यों कह रहा था कि मैंने गांव जलाया? उसने जलाया क्या गांव’ मोहन काले ने पूछा।
उसने नहीं जलाया! उससे जल गया...
‘कैसे?’
‘दिशा-मैदान के लिए गया था। झाड़ियों के पीछे बैठा था बीड़ी फूंकने की आदत थी। बीड़ी पीकर यूं ही फेंक दी। पास की सूखी घास पर बीड़ी गिरी। उसका ध्यान नहीं था। शायद रात के लिए पानी की चिंता में था। उठकर आ गया। गांव के पास आकर पीछे देखता क्या है कि उधर सारी सूखी घास, झाड़ियां सुलग गईं। पहले एक ओर। फिर सभी तरफ। देखकर वह चिल्लाने लगा, ‘मेरा गांव सुलग गया... आग... मैंने लगाई... पर गांव वाले क्या करते? सूखा गला गीला करने को तो घर में पानी था नहीं। वहां आग बुझाने के लिए कहां से लाते? भागे सिर पर पैर रखकर, गांव से बाहर...’
‘स्साला... ऐसे आदमी को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए। लापरवाही उसकी और भोग रहा है सारा गांव...’ मोहन काले गुस्से में बोला।
‘यही तो कहना था न उसका। तभी तो वह जलती आग में कूदना चाह रहा था। होश में आया तो अब पागल हो गया... गया काम से!’
यह कहकर बूढ़े ने माथा ठोंक लिया। आहें भरने लगा। पसीना पोंछने लगा।
‘अब पारखेड़ के लोगों को सरकार की ओर से भरपाई मिलेगी न आलसी बाबा?’ किसी ने नंदू आलसी से पूछा।
‘नुकसान भरपाई तो मिलनी ही चाहिए...’
‘क्या चाटेंगे नुकसान भरपाई को? हमारा तो जनम जलकर राख हो गया न?’
‘हमारे गाय-बैल हमें क्या जैसे के तैसे मिलेंगे?’
‘अब सब आएंगे... एमएलए, तहसीलदार, बीडीओ, कलेक्टर सारे जला हुआ गांव देखने आएंगे। उन्हें अपने गांव में रोक रखेंगे। जाते समय नहीं तो आते में...और अपनी पानी की समस्या रखेंगे उनके सामने...’
प्रमोद के दिमाग में यह विचार कौंधा और उसने तुरंत कह दिया... सुनकर सारंगपुर के लोग खुश हुए।
‘बिल्कुल सही आइडिया बताई भई...’
‘अब ऐसा ही करेंगे...’
सारे नेता गांव में रोककर कैसे रखे जाएं, उनसे क्या कहा जाए, ऐसी चर्चा सारंगपुर के लोग करने लगे। उधर पारखेड़ के लोग टूटे मन और उजड़े चेहरों से सुन रहे थे।
‘अपना पूंजाजी जुमड़े खल्लास हो गयाSS मर गयाSS’ नदी की ओर से एक आदमी चिल्लाता-दौड़ता आया। सारे उठ खड़े हुए। कुछ तो थरथर कांप रहे थे। ‘किसने मारा उसे?’ आगे बढ़कर मोहन काले ने पूछा।
‘किसी ने नहीं मारा उसे। अपनी मौत मरा वह! मैं अपने खेत से जा रहा था। उधर बांध के इमली के पेड़ से पूंजाजी जुमड़े का शव लटकता हुआ दिखा। खूंटे के बैल उसने खोल दिए थे और बैलों की रस्सी से ही फांसी ले ली। खतम हो गया।’ बताने वाला आदमी थरथराता हुआ नीचे बैठ गया।
अभी-अभी पूंजाजी जुमड़े के बारे में बताने वाला बूढ़ा सबके पीछे-पीछे कांपते हुए पूंजाजी जुमड़े की ओर जा रहा था।
(मराठी से अनुवाद : डॉ. दामोदर खड़से)
इतने में प्रमोद की मां हाथ में लोटा लिए वहां आई।
‘देख रे प्रमोद... कितने जीव-जंतु हो गए इस पानी में...’
‘चाची आपने बर्तन धोया नहीं होगा।’ अखबार पढ़ने वाला मोहन काले बोला।
‘बर्तन, कहां से धोएं बाबा। पानी बहाने का धंधा। यहां एक-एक बूंद में जी लगाना पड़ता है। पर अब तो मुझे एक दूसरा ही डर लगने लगा है।’
‘कौन-सा?’
‘अब तक अपन ने जंतु का ही पानी पिया। ऐसे में मुझे कोई रोग हो तो नहीं होगा?’
‘कुछ नहीं होता। ऐसे अकाल के दिनों में सारे जंतु पच जाते हैं। ला इधर देख, मैं पीकर दिखाऊंगा...’
यह कहकर प्रमोद ने मां के हाथ का लोटा लिया और गटागट सारा पानी पी गया। पर बाद में उसे लगता रहा कि कीड़े उसके पेट में बिलबिला रहे हैं। फिर वह बेचैन हो गया।
‘क्या भयानक हालत है, पत्रकार साहब यह। अरे पत्रकार के घर में ये हाल। ऐेसे में औरों के घर में क्या हाल होगा? इससे तो पानी क्यों नहीं खरीद लेते बबन शेवांले से’ मोहन ने पूछा।
‘और उसे पैसे कहां से दें? मैं क्या नौकरी वाला हूँ? साली अपनी कमाई ही कितनी है? अखबार से पंद्रह-बीस टका कमीशन... और स्टेशनरी का टुटपुंजिया धंधा... पत्रकार को कमीशन मिलता है, विज्ञापन से... पर अपने इस दरिद्दर गांव में काहे का कमीशन? अपना गांव यानी न ठीक से गांव न ठीक से शहर। साला एकाध बकरा भी पकड़ में नहीं आता, नंबर दो का धंधा करने वाला... साले को पकड़कर चीर डाला होता।
वह बोलता जा रहा था, तभी उसे टोकते हुए मां ने कहा,
‘जाने भी दे रे! खरीद ले न पानी। ये शेवाले है कौन?’
‘कहां खरीदें पानी... जाने भी दे... मेरी औरत लाती है। पुल पर के पंप पर खटने दे उसे। ...और ये पानी फेंको मत...कपड़े से छानकर पीना... कुछ नहीं होता,
उसके यह कहने पर उसकी मां निराश हो गई और भारी कदमों से घर में चली गई।
इतने में एस.टी. परिसर से सोमनाथ हावरे आया। पुणे-अकोला एक्सप्रेस बस से वह उतरा था। उसने बैग से अखबार निकाला और पेज खोलकर फोटो दिखाया। फोटो के नीचे लिखे मोटे अक्षरों का वाक्य पढ़ा-
सारंगपुर में अकाल...
कुआं हुआ ठन-ठन गोपाल...
‘पुणे के अखबार में फोटो छपा है। लगता है, अब निश्चित ही हमारे इलाके में पानी की सुविधा हो ही जाएगी। एमएलए-एमपी पुणे-मुंबई के ही होते हैं। उनके हाथों यह फोटो लगेगा ही। कोई न कोई व्यवस्था वे लोग जरूर करेंगे।’ पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा।
‘ये नेता लोग अपना फोटो दिखा तभी गौर से देखते हैं... ऐसे फालतू फोटो देखने के लिए उनके पास समय कहां होता है।’
‘मान लीजिए, सरकार ने कोई व्यवस्था कर ही दी, तो इस बबन का धंधा तो ठप्प हो गया समझिए। बेहिसाब पैसे कमा रहा है रे पानी के! बाप-जनम में इतने पैसे नहीं देखें होंगे।’ प्रमोद ने कहा।
अपने ऊपर अचानक ऐसा हमला होता देख बबन विचलित हो गया, “अच्छा मैं चलता हूं... देर हो रही है।” कहकर वह वहां से चलता बना। उसके जाने के बाद मोहन बोला,
‘ये साला फालतू बहुत पैसे कमा रहा है। सारे नौकरी वाले इसी से पानी खरीदते हैं। क्योंकि वे गांव के भीड़ भरे ट्यूबवेल से पानी के लिए नंबर नहीं लगा पाते। रात-रात भर जागकर कुएँ से घूंट भर पानी नहीं निकाल पाते। अपनी औरतों की तरह उनकी औरतें मजबूत नहीं होतीं न... नाज़ुक होती हैं। उन्हीं के भरोसे मजा है बबन्या का।’
‘खूब पैसा कमा रहा है। दिखने में तो बेवकूफ़ है साला। बैलों-हलों के पीछे चलता था इतने दिनों, पर अब पनवाड़ी की दुकान पर गुटका खाता है और खर्रा चबाता है। जगन के ढाबे पर मुर्गी खाते भी देखा है उसे...’
‘अपन बी.ए. तक पढ़ गए और कमाई कितनी तो चालीस-पचास रुपए... वह भी कभी मिली कभी नहीं...और ये फ़ालतू आदमी तीन-चार सौ तो आसानी से कमाता होगा... ज्यादा ही, कम नहीं...’ प्रमोद की व्यथा जागी।
सोमनाथ ने हिंदी फिल्म पत्रिका उठा ली। उसमें छपी हीरो-हीरोइनों की तस्वीरों को आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगा।
‘साली ये कौन हिरोईन है रे! नई दिखती है। बहतु ही कम कपड़ों में है... पोज भी बड़ी खतरनाक है! साली ऐसी सुंदर औरत चाहिए अपने को...’
‘क्या फायदा कैसी भी हो तो? उसका फायदा तो मिलना चाहिए।’ कहते हुए प्रमोद उदास हो गया।
‘क्या रे क्या हुआ?’ सोमनाथ ने संशय से पूछा।
‘क्या बताऊं? आठ दिन से अपनी गृहस्थी ठप्प है। इस पानी के कारण नहाना बंद है। पुल के पास के ट्यूबवेल से पीने का पानी घर के लोग किसी तरह ला पाते हैं। ...इसलिए कोई स्नान न करे यह फतवा निकाल दिया है हमारी बुढ़िया ने...’
‘पर इसका तुम्हारी गृहस्थी ठप्प होने से क्या संबंध है?’
‘अरे बाबा, बीवी छूने नहीं। ... ऐसे ही पसीने में दिन भर काम करना पड़ता है। खाना बनाना पड़ता है। कहती है कि सब बहुत गंदा लगता है। क्योंकि शादी के बाद से सुबह-सुबह साफ पानी में नहाने की उसे आदत लग गई है। वो अब इस तरह मुझे परेशान करती है।’
सुनकर सोमनाथ ठहाका लगाते बोला,
‘अरे भाभी का सही है। गंदगी बिलकुल पसंद नहीं होती औरत-जात को...रसोई बनानी पड़ती है। पूजा-पाठ करना होता है। हमारे घर की तो बड़ी भक्तिन है... नहाए बिना तो वह भगवान के पास भी नहीं जाती...’
पर आपका अच्छा है। आप पानी खरीद सकते हैं, ऊपरी कमाई पर... हमारी कहां है ऊपरी कमाई?
“अरे ओ... ओ पत्रकार साहब...” मोहन काले हांफते-भागते हुए आया।
‘क्या हुआ बे?’
‘कुत्तर बावड़ी में लड़की गिर गई रामा उमाले की...सिर फटने से मर गई... सारे लोग उधर भाग रहे हैं... चलिए...’
‘धत तेरे की। तुझे लस्सी लाने के लिए भेजा तो ये खबर ले आया, क्यों रे कलमुंहे...’ कहते हुए प्रमोद ने धड़ाम से दुकान का फाटक लगाया और सब गांव की ओर भागने लगे।
कुत्तर बावड़ी पर कोलाहल था। लोगों की भीड़ पसीना पोंछते हुए आगे बढ़ रही थी। लग रहा था कि सारा गांव ही वहां इकट्ठा हो गया हो।
रामा उमाले की औरत कुएँ के किनारे पेड़ के नीचे बैठी भयंकर चेहरे रो रही थी। छाती पीटती आक्रोश करती। कुएं की ओर लपकती, परंतु, कुछ औरतों ने उसे कसकर पकड़ रखा था।
‘मैंने ही भेजा था री मां उसे... ना... ना कर रही थी वह... धूप में नहीं जाती... कहती थी वह। मर गई री तेरह साल की मेरी कोमल करुड़ी-सी प्यारी बच्ची... पानी के कारण...!’ विलाप करती बोलती रहती।
साला सब कुछ खून हो गया। पानी, चट्टान पर, कितने पर भी... अब तो इस कुएँ का पानी पीने के काम आ ही नहीं सकता। किसी तरह लोग अंजुरी-अंजुरी निकालते, प्यास बुझाते थे... उसमें भी सब खून ही खून...! मोहन बोला। अबे चुप कर साले... उधर जीती-जागती जान कुएँ में गिरकर मर गई और तुम्हें पानी खराब होने का दुःख सता रहा है। अबे, किसी ने सुना तो देंगे तुम्हें कुएँ में फेंक... प्रमोद उस पर झल्लाया।
उसके मन में खबर रेंग रही थी, ‘अंजुरी भर पानी के लिए बालिका की बलि...’
लोगों का जानलेवा कोलाहल सुनाई दे रहा था। औरत-मर्द बच्चों का आर्तनाद! बच्चों की चीख-चिल्लाहट। गोठे में बंधे जानवर, बकरियां भयानक रूप से आवाजें निकाल रहे थे।
पारखेड़ गांव को चारों ओर से आग ने घेर लिया था। गांव के लोग बच्चों को लेकर गांव के बाहर भाग रहे थे। जान मुट्ठी में भींचकर अपने गांव-घर को आग में धधकते देख रहे थे। तिनका-तिनका जोड़कर बनाया घोंसला राख के ढेर में बदलते देख रहे थे। सारी जिंदगी खेत-खलिहान में खटकर जोड़ी थोड़ी-सी पूंजी, अनाज के बोरे राख हो रहे थे।
जलावन के लिए खेतों-जंगलों की बहुत सारी लकड़ियां घर के पिछले ओसारे में और गोठे के छप्पर में रखा होता। चूल्हे में जलकर वह लोगों का पेट भरता। पर आज मनु्ष्य का धन-धान्य जलाने में मदद कर रहा था। पारखेड़ के आधे से अधिक घर बांस से बने थे। घास-फूस से ढंके और लिपे होते। वे सारे मिलकर सब घर जलाने में मदद कर रहे थे। गाय-बैलों की व्याकुल छपटाती आवाजें कलेजा चीर जातीं। जिंदा जलते हुए उनकी दयनीय आवाजें भीतर तक दहला जातीं।
जब आग लगी तब गांव के लोग गांव से बाहर भाग गए थे। पर गोठे में बंधे गाय-बैल वहीं फंस गए और छटपटाते हुए जिंदा जल गए। उन पर बहुत देर से जब अग्निशामक दल की पानी की बौछार पड़ी तब खूंटे से जंजीरों से बंधे जानवर भुर्ते की तरह भुन गए थे। कई जानवरों के पेट फूलकर फट गए थे। आंखें बाहर आ गई थीं। यह देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते।
“कैसे हुआ यह”
“कैसे लगी आग?”
पारखेड़ के लोगों को सारंगपुर के लोग पूछ रहे थे। पर कोई कुछ न बताता... उनकी रुआंसी आंखें जले हुए गांव पर, गांव के सिर पर उठते धुएं पर थीं... डरे हुए,लुटे हुए उजाड़... पसीने से लथपथ, बेचैन चेहरे...
ऐसे में भी कुछ बताने की कोशिश करते एक बूढ़े को प्रमोद ने हाथ से सहारा दिया। बांध के किनारे के एक पेड़ के नीचे बिठाते पूछा, “यह सब कैसे हुआ दादा...”
‘गांव के उस पहाड़ीनुमा छोर से आग लगी। वहां लोगों ने पुआल इकट्ठी कर रखी थी। पहले वह सुलगी, फिर तो राक्षस की तरह आग की लपटें उठने लगीं। सब औरतों-बच्चों को लेकर भागने लगे। आग बुझाएं तो बुझाएं कैसे? पानी लाएं कहां से? घर में पीने के लिए पानी नहीं। मिट्टी डाल कर देखी, पर वह क्या चूल्हे की आग थी, नहीं बुझी बाबू... गाय, बैल, बकरियां मर गए... पर ज्यादा काम वाले बैल मर गए। क्योंकि दूसरे जानवर चरने के लिए थे। ...हमारा सारा खाक हो गया... अब जीकर हम करें भी क्या, हमें भी आग में धकेलो...’
बूढ़ा थरथराते हुए पागलों की तरह बता रहा था।
इतने में औरतों के झुंड में फिर कोलाहल उठा। प्रमोद ने उधर मुड़कर देखा। पूंजाजी जुमड़े की बीवी अपने पति की ओर भागती-दौड़ती जा रही थी।
‘लौट जाSS, मत आSS, मुझे हाथ मत लगा। मैंने गांव जला दिया... मैंने गांव जलाया। मुझे भी जलाओSS जिंदा जलाओSS मत बचाओSS...’
पूंजाजी जुमड़े उछलते-कूदते नाले के किनारे दौड़ लगाता ओझल हो गया।
‘वो आदमी इस तरह चिल्लाते क्यों कह रहा था कि मैंने गांव जलाया? उसने जलाया क्या गांव’ मोहन काले ने पूछा।
उसने नहीं जलाया! उससे जल गया...
‘कैसे?’
‘दिशा-मैदान के लिए गया था। झाड़ियों के पीछे बैठा था बीड़ी फूंकने की आदत थी। बीड़ी पीकर यूं ही फेंक दी। पास की सूखी घास पर बीड़ी गिरी। उसका ध्यान नहीं था। शायद रात के लिए पानी की चिंता में था। उठकर आ गया। गांव के पास आकर पीछे देखता क्या है कि उधर सारी सूखी घास, झाड़ियां सुलग गईं। पहले एक ओर। फिर सभी तरफ। देखकर वह चिल्लाने लगा, ‘मेरा गांव सुलग गया... आग... मैंने लगाई... पर गांव वाले क्या करते? सूखा गला गीला करने को तो घर में पानी था नहीं। वहां आग बुझाने के लिए कहां से लाते? भागे सिर पर पैर रखकर, गांव से बाहर...’
‘स्साला... ऐसे आदमी को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए। लापरवाही उसकी और भोग रहा है सारा गांव...’ मोहन काले गुस्से में बोला।
‘यही तो कहना था न उसका। तभी तो वह जलती आग में कूदना चाह रहा था। होश में आया तो अब पागल हो गया... गया काम से!’
यह कहकर बूढ़े ने माथा ठोंक लिया। आहें भरने लगा। पसीना पोंछने लगा।
‘अब पारखेड़ के लोगों को सरकार की ओर से भरपाई मिलेगी न आलसी बाबा?’ किसी ने नंदू आलसी से पूछा।
‘नुकसान भरपाई तो मिलनी ही चाहिए...’
‘क्या चाटेंगे नुकसान भरपाई को? हमारा तो जनम जलकर राख हो गया न?’
‘हमारे गाय-बैल हमें क्या जैसे के तैसे मिलेंगे?’
‘अब सब आएंगे... एमएलए, तहसीलदार, बीडीओ, कलेक्टर सारे जला हुआ गांव देखने आएंगे। उन्हें अपने गांव में रोक रखेंगे। जाते समय नहीं तो आते में...और अपनी पानी की समस्या रखेंगे उनके सामने...’
प्रमोद के दिमाग में यह विचार कौंधा और उसने तुरंत कह दिया... सुनकर सारंगपुर के लोग खुश हुए।
‘बिल्कुल सही आइडिया बताई भई...’
‘अब ऐसा ही करेंगे...’
सारे नेता गांव में रोककर कैसे रखे जाएं, उनसे क्या कहा जाए, ऐसी चर्चा सारंगपुर के लोग करने लगे। उधर पारखेड़ के लोग टूटे मन और उजड़े चेहरों से सुन रहे थे।
‘अपना पूंजाजी जुमड़े खल्लास हो गयाSS मर गयाSS’ नदी की ओर से एक आदमी चिल्लाता-दौड़ता आया। सारे उठ खड़े हुए। कुछ तो थरथर कांप रहे थे। ‘किसने मारा उसे?’ आगे बढ़कर मोहन काले ने पूछा।
‘किसी ने नहीं मारा उसे। अपनी मौत मरा वह! मैं अपने खेत से जा रहा था। उधर बांध के इमली के पेड़ से पूंजाजी जुमड़े का शव लटकता हुआ दिखा। खूंटे के बैल उसने खोल दिए थे और बैलों की रस्सी से ही फांसी ले ली। खतम हो गया।’ बताने वाला आदमी थरथराता हुआ नीचे बैठ गया।
अभी-अभी पूंजाजी जुमड़े के बारे में बताने वाला बूढ़ा सबके पीछे-पीछे कांपते हुए पूंजाजी जुमड़े की ओर जा रहा था।
(मराठी से अनुवाद : डॉ. दामोदर खड़से)
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