प्यास भर तो बचा रहे पानी

जल संकट
जल संकट

कथा है कि कभी कश्मीर की जगह सतीसर हुआ करता था। पुंछ में अब भी नागसर, कटोरासर सहित ‘सर’ शब्द से सम्बोधित कई झीलें हैं। राजौरी के चश्मे अब भी धार्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व के रूप में सांस्कृतिक पहचान संजोए हुए हैं। वहीं ऊधमपुर को बावलियों वाला शहर कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर राज्य के अन्तिम छोर कठुआ में झरनों और झीलों के वे प्राकृतिक स्रोत भले ही न हों पर बुजुर्गों ने तालाबों में पानी सहेजने का हुनर बचाया हुआ था।

जिस शहर के बीचो-बीच से गुजरती है तविषी नदी, वहीं आज हालत यह है कि पानी की किल्लत के मद्देनजर रेलवे ट्रैक और हाइवे जाम किये जा रहे हैं। लोग सूखे हलक और खाली बर्तन लिये पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर रहे हैं जबकि अभी कुछ ही दिन पहले मई माह में भी यहाँ के रहवासी बिन मौसम बरसात का लुत्फ उठा रहे थे।

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मामलों के जानकार डॉ. ओम गोस्वामी कहते हैं, “जम्मू-कश्मीर पानी के लिये किसी पर निर्भर कभी नहीं रहा। बल्कि यहाँ की नदियों पर लगी पनबिजली परियोजनाएँ अन्य राज्यों को बिजली आपूर्ति करती हैं। हमारी नदियों का पानी दूसरे राज्यों ही नहीं, दूसरे देशों को भी चला जाता है। फिर भी यहाँ के लोगों को पानी के लिये तरसना पड़ रहा है तो यह सिर्फ दुखद ही नहीं एक बड़ी आपदा का संकेत भी है कि अगर पहाड़ी राज्यों का यह हाल है तो मैदानों का क्या हाल होगा? इन संकेतों को समझकर जल्द-से-जल्द इस संकट से निपटने के इन्तजाम करने होंगे।”

वाटर बैंक थीं खातरियाँ

धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) के हमीरपुर इलाके में वाटर बैंक का काम करती थीं खातरियाँ। हमीरपुर के बमसन क्षेत्र में कुछ साल पहले तक भी लोग इन्हीं खातरियों पर निर्भर हुआ करते थे। पहाड़ी को खोदकर पानी सुरक्षित रखने के लिये बनाई जाने वाली जगह को यहाँ की स्थानीय भाषा में खातरी कहा जाता है। एक खातरी में हजारों लीटर पानी जमा हो सकता था। पर अब जैसे-जैसे पानी घरों को पहुँचने लगा, पानी बचाने और सम्भालने के इन पारम्परिक स्रोतों की अनदेखी की जाने लगी। पहले लोग इन्हें मिलकर साफ करते थे।

लापरवाही की शिकार खातरियों में अब गन्दगी भरी रहती है। इस क्षेत्र के 50 प्रतिशत से अधिक पानी के परम्परागत स्रोत बन्द हो गये हैं। पानी बचाने के लिये जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (डीआरडीए) गाँवों में वाटर हार्वेस्टिंग टैंक व अन्य जगहों पर चेकडैम का निर्माण करवा रही है। पर यह उस अनुपात में नहीं है जिस अनुपात में परम्परागत जलस्रोत समाप्त हुए हैं।

सूख गये कुएँ, भूल गये बावली

सभ्यता, संस्कृति और शाही ठाठ-बाट के लिये मशहूर पंजाब के तरनतारन के गाँव सराय अमानत खां में स्थित ‘सराय अमानत खां’ में प्रवेश करते ही इतिहास की झलक दिखती है। इसे ताजमहल की दीवारों पर कैलीग्राफी कर पवित्र कुरान की आयतें लिखने वाले अमानत खां ने बनवाया था। इसी सराय से चंद कदमों की दूरी पर एक बावली है। इस बावली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि वर्षाजल इसमें समाहित हो जाये।

सराय की महिलाएँ इसका इस्तेमाल स्नानागार के रूप में करती थीं। इस बावली में सात कुएँ हैं। सराय के भवन से लेकर बावली तक एक सुरंग बनाई गई थी। सुरंग के जरिये सराय में रहने वाली महिलाएँ बावली तक पहुँचती थीं। इसके भीतर उतरने के लिये सीढ़ियाँ भी बनाई गई थीं। परन्तु अब यह बावली सूख चुकी है। इसके कुओं में पेड़ उग आए हैं और बावली के पास की इमारत खंडहर में तब्दील हो गई है।

तरक्की पी गई तालाब

लखनऊ के इतिहासकार डॉ. योगेश प्रवीन कहते हैं, “लखनऊ में बहुत से ऐसे मोहल्ले हैं जो आज भी जलस्रोतों के नाम से प्रचलित हैं। इनमें चौपटियाँ में भोलानाथ का कुआँ, मेडिकल कॉलेज के पास छाछी कुआँ, हुसैनगंज और बाँसमंडी के बीच में लाल कुआँ, चौक में दहला कुआँ, नक्खास में कंकर कुआँ ऐसे नाम हैं जो बताते हैं कि नवाबों का यह शहर पानी के कुओं को भी इज्जत देना जानता था।

कुओं की ही तरह यहाँ की बावलियाँ और तालाब भी खूब मशहूर हैं। रानी सुभद्रा कुंवर के नाम की सुभद्रा की बावली, पारा के पास नकटी और शाही बावली, बड़े इमामबाड़े की बावली, सआदतगंज की बावली खास हैं। तालाबों में राजा टिकैतराय का तालाब, हुसैनाबाद का तालाब, घंटाघर के पास शीशमहल का तालाब, मोहान रोड पर जानकीकुंड, डालीगंज पुल के पास सूरजकुंड, सरई गुदौली में भी सूरजकुंड है। अलीगंज और बड़ा चाँद गंज में भी तालाब हुआ करता था। पर अफसोस कि कॉलोनियाँ अपने बसने की शृंखला में तालाबों को ढकती चली गईं।”


शुक्र है कि बदलते समय की नब्ज पहचानते हुए यहाँ आधुनिक तरीके से जल संचयन के प्रयास किये जा रहे हैं। चिकित्सा अधीक्षक डॉ. संतोष कुमार बताते हैं, “लखनऊ में जल संचयन की पहल करते हुए किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) में करीब पाँच साल पहले रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्लांट बनाये गये थे। केजीएमयू में शताब्दी, ट्रामा सेंटर, न्यू ओपीडी बिल्डिंग के साथ ही फैकल्टी के लिये बनाये गये आवास में भी रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्लांट बनाये जा चुके हैं। अब जितनी भी बिल्डिंग बन रही हैं उन सभी में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाये जा रहे हैं।”

बह न जाए बारिश

गंगा किनारे बसा है कानपुर शहर। यहाँ पेयजल को लेकर कोई संकट नहीं था लेकिन वर्तमान में शहर की बड़ी आबादी को पानी की किल्लत से जूझना पड़ रहा है। गंगा में कम होता पानी और जल प्रदूषण इसका बड़ा कारण है। जागरुकता और वैश्विक दबाव के चलते अब यहाँ पानी संरक्षित रखने के प्रयास किये जा रहे हैं। भूगर्भ जल विभाग से सम्बद्ध अरुण कुमार द्विवेदी बताते हैं, “बीते वर्षों में कई सरकारी विभागों के भवनों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाये गये हैं। जहाँ ये सिस्टम लगे हैं वहाँ करीब आधा किलोमीटर रेडियस क्षेत्र में वाटर लेवल सुधरा है। जो पानी सिस्टम के माध्यम से भूगर्भ में जाता है वह वापस शुद्ध रूप में लोगों को मिल जाता है।

फिलहाल विकास भवन, कृषि भवन, जेडीसी कार्यालय, बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय, वानिकी प्रशिक्षण केन्द्र, गवर्नमेंट इंटर कॉलेज के अलावा कानपुर विकास प्राधिकरण एवं मोतीझील के मैदान पर भूगर्भ जल विभाग ने रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाया है। बीते 20 वर्षों में शहर का बहुत विस्तार हुआ है। पिछले पाँच वर्ष में खुली जगहों पर अभियान चलाकर तालाब खोदे गए लेकिन इन तालाबों की संख्या शहर के विस्तार को देखते हुए बहुत कम है। हर वर्ष खोदे गए तालाबों में एकत्रित पानी का आस-पास के लोग काफी समय तक इस्तेमाल करते रहते हैं, फिर भी पानी की कमी बनी रहती है। ऐसे में वर्षाजल संरक्षण के लिये लोगों को निजी स्तर पर भी जागरूक होना होगा।”


कोख में सूखने लगा पानी

तीन दशक पहले तक राँची के हर घर में कुआँ हुआ करता था और सार्वजनिक इस्तेमाल के लिये तालाब बनाये गये थे। बारिश खुले हाथों से कुओं और तालाबों पर प्यार लुटाती थी। पर अब पठारी पर बसा राँची पानी के लिये तरस रहा है। एक समय ऐसा भी था जब यहाँ कई दिन बारिश होती थी। पर विकास की कुल्हाड़ी से पेड़ कटते चले गये और बारिश भी रूठ गई। पानी की प्यास में राँची के तालाब सूख गए और कुओं की जगह इमारतों ने ले ली। प्यास बुझाने के लिये शहर के अलग-अलग छोर पर तीन डैम बने लेकिन अब ये डैम भी गाद से भर चुके हैं और पानी की जगह बीमारी सप्लाई कर रहे हैं।

18 लाख से ऊपर की आबादी वाले राँची शहर में मात्र डेढ़ लाख पानी के कनेक्शन हैं। इनमें भी बहुत से ऐसे कनेक्शन हैं जहाँ पानी पहुँच ही नहीं पाता। राँची का जल-स्तर लगातार घट रहा है और लोगों की आँख का पानी भी। घटते जल-स्तर के बावजूद वे बोरिंग करवाने से बाज नहीं आते। बोरिंग से पठारी का जल-स्तर हर साल नीचे जा रहा है। शहर की एक बड़ी आबादी प्यासी हो गई। कांके रोड, तुपुदाना, रातू रोड, पिस्का मोड़, सुखदेव नगर, मधुकम, साईं विहार कॉलोनी, विद्या नगर, आनन्द नगर, कैलाश नगर, चूना भट्टा, इरगू टोली, स्वर्ण जयंती नगर, इंद्रपुरी, शिवपुरी, बैंक कॉलोनी, लकड़ी टॉल, लक्ष्मी नगर, सिंदवा टोली, एदलहातू जैसे इलाके टैंकर के पानी पर निर्भर हो गये। अब अमृत योजना के तहत फेज वन में 343 किमी पाइप लाइन बिछानी है और 14 जल मीनारों का निर्माण होना है। लेकिन सवाल है, जब धरती की कोख में पानी ही नहीं रहेगा और बारिश के जल को हम संग्रहित ही नहीं कर पाएँगे तब ये मीनारें क्या करेंगी?

पानी बचाने निकल पड़े जलगुरु

उत्तर प्रदेश में ‘जलगुरु’ की उपाधि से विभूषित हैं पुलिस महानिदेशक (तकनीकी सेवाएँ) महेंद्र मोदी। वे दस वर्ष से वेतन का पाँच फीसद हिस्सा जल संचयन पर खर्च कर रहे हैं। वे देश के 15 राज्यों में 150 रेन वाटर हार्वेस्टिंग व सूखे जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने की नवीनतम तकनीक का प्रजेंटेशन दे चुके हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने अवैतनिक जल संरक्षण सलाहकार भी नियुक्त किया है।

वे कहते हैं, “मैंने अपने सरकारी आवास के कैम्पस में वर्षाजल को संचय करने के लिये 16,000 वर्ग फीट का सोख्ता गड्ढा और एक कुआँ बनाया है। वाष्पीकरण से होने वाली जल हानि को हम न्यूनतम 25 और अधिकतम 75 फीसद तक बचा सकते हैं। इसको लेकर मैंने तालाब पर संशोधन करके एक डिजाइन तैयार किया है। वहीं, दूसरे डिजाइन में छत पर एकत्र वर्षा के जल से घरेलू जरूरत के पानी को संचय कर सकते हैं जिसे हम देश की 85 फीसद जनसंख्या तक पहुँचा सकते हैं वह भी बिना बिजली के। सूखे हुए कुओं, नलकूपों, ट्यूबवेल, हैंडपम्प, तालाबों आदि को फिर से जीवित किया जा सकता है। मगर इस कार्य में न केवल सरकार बल्कि जन-जन को आगे आना होगा। इसका उदाहरण झाँसी के तीन गाँव कंचनपुर, अम्बाबाई, रकसा हैं जहाँ मैंने अपनी तकनीक के जरिए सूखे कुओं और हैंडपम्प को फिर से जिन्दा किया। पानी के स्रोतों को रीचार्ज करने के लिये घर, पार्क या फिर किसी भी स्थान पर केवल दस से बारह फीट का गड्ढा बना सकते हैं। सोख्ता गड्ढा बनाने के लिये पाँच फीट गहरा गड्ढा बनाया जा सकता है। हाँ, इन गड्ढों पर जालीदार ढक्कन जरूर लगाएँ ताकि बच्चों या किसी के गिरने का डर न हो। पिछले साल मैंने ‘भारतीय संस्कृति एवं जल उत्सव’ और ‘हलमा’ नामक जल संरक्षण अभियान भी शुरू किया है। हलमा आदिवासियों का एक प्रचलित शब्द है जिसका अर्थ परमार्थ के लिये सामूहिक श्रमदान है। इसको मैंने मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में देखा था। वहाँ पिछले दस सालों से यह परम्परा चल रही है।”

पानी की 130 वर्ष पुरानी व्यवस्था

पर्वतों की रानी शिमला, जिस पर कभी प्रकृति खूब मेहरबान थी, आज पानी के गम्भीर संकट से जूझ रही है। शायद शिमला को अपने ही इतिहास से सबक लेने का समय आ गया है। दरअसल यहाँ के ऐतिहासिक रिज मैदान, जहाँ शिमला के अधिकांश भव्य आयोजन होते हैं, के नीचे अंग्रेजों ने एक बड़ा टैंक बनाया था। आज भी उससे शहर के एक बड़े हिस्से को पानी सप्लाई होता है। अलग-अलग जलस्रोतों से पानी यहाँ जमा होता है और उसे स्वच्छ कर आगे सप्लाई किया जाता है।

एक दूसरा विशाल पानी का टैंक 1888 में वाइस रीगल लॉज में बनकर तैयार हुआ। अब यह स्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के रूप में जाना जाता है। 130 साल पहले अंग्रेजी शासन के दौरान लॉर्ड डर्फिन ने जब इस इमारत को प्लान किया तो उन्होंने यहाँ 10 फुट चौड़े, 10 फुट ऊँचे व 20 फुट लम्बे यानी लगभग एक लाख लीटर क्षमता वाले एक भूमिगत टैंक का भी निर्माण करवाया। इसमें आज भी बारिश का पानी जमा होता है। इसी पानी का इस्तेमाल इस भव्य इमारत के बाग-बगीचों के रख-रखाव के लिये होता है। इसके अतिरिक्त एक बड़ी टंकी इमारत के ऊपर पीने के पानी के लिये बनाई गई थी।

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