राजनेता प्रकृति की इस नियति को नज़रअंदाज़ करते हैं कि यह इलाक़ा सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है। इस क्षेत्र के उद्धार के लिए सिर्फ तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। लेकिन इसका यहां सर्वथा अभाव है। पानी की बर्बादी रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फ़सलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं। बीते कई दशकों की तरह इस बार भी गर्मी शुरू होते ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की ख़बरें बढ़ने लगी हैं। कोई अलग राज्य को ही इसका एकमात्र हल मान रहा है तो कोई सरकारी उपेक्षा का उलाहना दे रहा है। बुंदेलखंड पैकेज के कई सौ करोड़ से कैसे कतिपय लोगों ने अपना घर भरा, यह किसी से छुपा नहीं है। असल में नेतागण चाहते ही नहीं हैं कि इस इलाके का विकास हो या यहां जल संकट का निराकण हो, क्योंकि यदि समस्या नहीं रही तो विशेष पैकेज या ज्यादा बजट की मांग कैसे हो सकेगी? इस मौसम में संतोषप्रद बारिश के बावजूद इलाके से लोगों का पलायन जारी है। कई जिलों की तो आधी आबादी घर-गांव छोड़ चुकी है। बुंदेलखंड की समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर संसाधनों का समुचित प्रबंधन किया जाए।
संयुक्त बुंदेलखंड कोई 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है जिसकी आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं, जगल तेंदू पत्ता और आंवला आदि से पटे हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा (मिट्टी और ईंट) का काम बुंदेलखंडी मज़दूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक उगाह कर देता है। इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता है।
बुंदेलखंड के सभी कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी।
चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को, सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। बचे-खुचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। गाँवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश की सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है।
राजनेता प्रकृति की इस नियति को नज़रअंदाज़ करते हैं कि यह इलाक़ा सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है। इस क्षेत्र के उद्धार के लिए सिर्फ तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। लेकिन इसका यहां सर्वथा अभाव है। पानी की बर्बादी रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फ़सलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
संयुक्त बुंदेलखंड कोई 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है जिसकी आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं, जगल तेंदू पत्ता और आंवला आदि से पटे हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा (मिट्टी और ईंट) का काम बुंदेलखंडी मज़दूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक उगाह कर देता है। इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता है।
बुंदेलखंड के सभी कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी।
चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को, सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। बचे-खुचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। गाँवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश की सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है।
राजनेता प्रकृति की इस नियति को नज़रअंदाज़ करते हैं कि यह इलाक़ा सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है। इस क्षेत्र के उद्धार के लिए सिर्फ तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। लेकिन इसका यहां सर्वथा अभाव है। पानी की बर्बादी रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फ़सलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
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