सामान्य आदमी के लिए पवन का अर्थ मंद-मंद बहने वाली बयार भी हो सकता है और तबाही का तांडव नृत्य करने वाला चक्रवात भी; मन को प्रफुल्लित कर देने वाली समीर भी हो सकता है और रेगिस्तान के धूल भरे अंधड़ भी; तपती दोपहरी की लू भी हो सकता है और जीवनदायनी वर्षा लाने वाला मानसून भी। परंतु मौसम-वैज्ञानिक की दृष्टि से “पवन” बहती हुई पवन है जिसमें ऊर्जा कूट-कूट कर भरी होती है। यह ऊर्जा अत्यंत विलक्षण कार्य कर सकती है और वास्तव में करती भी है। वह सागर के पानी की अत्यंत विशाल मात्रा को, इतनी विशाल मात्रा को- जितनी पृथ्वी की किसी भी नदी में नहीं है- बहा कर, हजारों किमी. दूर ले जा सकती है, एक क्षण में आकाश को मेघों से पूरी तरह ढंक सकती है तो दूसरे ही क्षण उन्हें उड़ाकर ले जा सकती है, ऊष्मा और जल वाष्प की बहुत बड़ी मात्राओं को पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचा देती है, हजारों- लाखों टन धूल को अपने साथ उड़ाकर सैकड़ों किमी. दूर ले जाकर जमा कर देती है। साथ ही वह पेड़ पौधों के बीजों को पूरी पृथ्वी पर फैला देती है, वायुमंडल को हमारे कारखानों से निकलने वाले विषैले धुएं और गैसों से मुक्त कर देती है। वैसे इनके अतिरिक्त भी पवन अनेक विलक्षण काम करती रहती है।
पवन की ऊर्जा उसके बहने में निहित होती है। उक्त सब कार्य वह उस समय ही कर सकती है जब बह रही होती है। पवन को बहने के लिए कौन प्रेरित करता है? यह कार्य करता है विभिन्न स्थानों पर वायुमंडल के दाबों में अंतर। वायुमंडल के विभिन्न भाग सदैव एक ही ताप पर नहीं रहते। उनमें सदा अंतर होता है। ये तापांतर ही वायुमंडल के विभिन्न क्षेत्रों के दाबों में अंतर उत्पन्न कर देते हैं। भौतिकी के एक प्रसिद्ध नियम के अनुसार “वायुमंडल के दाबों के असंतुलन को दूर करने के लिए ही पवन बहती है।” वह सदैव उच्च दाब वाले क्षेत्र से निम्न दाब वाले क्षेत्र की ओर बहती है। पवन को नाम उस दिशा के अनुसार दिया जाता है जिससे वह आ रही होती है। सागर पर पवन आमतौर से एक सी गति से और बिना किसी रुकावट के बहती हैं जबकि थल पर से बहते समय उसे पेड़-पौधों, पर्वतों अथवा मानव निर्मित संरचनाओं का सामना करना पड़ता है। ये वस्तुएं घर्षण उत्पन्न करती हैं। इसलिए थल पर पवन की गति एक समान नहीं रह पाती।
घर्षण के प्रभावस्वरूप भू-पृष्ठीय पवन सागर की तुलना में थल पर अधिक हलकी हो जाती है। आमतौर से धरती की सतह पर बहने वाली हल्की पवन में झोंके अधिक उत्पन्न होते हैं। ये झोंके वायु प्रवाह के विक्षोभों के कारण उत्पन्न होते हैं। धरती की सतह से लगभग 500 मीटर अथवा उससे अधिक ऊंचाई पर तेज और एकसमान गति से बहने वाली पवन को, भूपृष्ठ की ओर खींच लिए जाने के अक्सर विक्षोभ पैदा हो जाते हैं।
कुछ पवन हमेशा एक ही दिशा में बहती हैं जबकि कुछ अपनी दिशाएं बदलती रहती हैं। एक ही दिशा में बहने वाली पवन “स्थायी पवन” कहलाती हैं और दिशा बदलने वाली “अस्थायी पवन”।
अस्थायी पवन में वे पवन भी शामिल हैं जो दिन के समय एक दिशा में रहती हैं और रात के समय विपरीत दिशा में जल और थल समीरें तथा पर्वतों पर बहने वाली “आरोही” और “अवरोही” पवन ऐसी ही पवन हैं। पर कुछ अस्थायी पवन ऋतुओं-गर्मी और सर्दी के अनुसार अपनी दिशाएं बदलती हैं। मानसून इसी प्रकार की अस्थायी पवन हैं।
आप पढ़ चुके हैं कि पृथ्वी के मध्य भाग में- भूमध्यरेखा के आसपास के क्षेत्र में- सूर्य की किरणें सदैव लगभग सीधी पड़ती रहती हैं। वैसे पृथ्वी की धुरी के झुकाव के कारण यह क्षेत्र कुछ सीमाओं में अपना स्थान बदलता रहता है। उत्तरी गर्मी में वह कर्क रेखा (23½0 उत्तर अक्षांश) के अधिक निकट आ जाता है तो दक्षिणी गर्मी में मकर रेखा (23½0 दक्षिण अक्षांश) के निकट।
सौर किरणों के सीधी पड़ने से भूमध्यरेखा के आसपास वर्ष भर गर्मी पड़ती है। इससे इस क्षेत्र की वायु गर्म हो जाती है और हल्की होकर ऊपर उठती रहती है। यहां पवन के बहने की दिशा हमेशा नीचे से ऊपर की ओर होती-क्षैतिज रूप में नहीं। ऊपर उठकर पवन का कुछ भाग उत्तर की ओर चला जाता है और कुछ दक्षिण की ओर लगभग 300 उत्तर और दक्षिण अक्षांशों तक पहुंचते-पहुंचते ये दोनों भाग ठंडे होने लगते हैं।
इन क्षेत्रों में ये पवन फिर से दो भागों में विभक्त हो जाती हैं। एक भाग ध्रुव की ओर चला जाता है जबकि दूसरा भाग 300 और 350 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र में, धरती की सतह पर उतर जाता है। ध्रुवों की ओर जाने वाला भाग बाद में प्रतिकूल व्यापारी पवन (पश्चिमी पवन) में सम्मिलित हो जाता है। ऐसा दोनों गोलार्धों में होता है।
यहां यह बता देना उपयुक्त होगा कि ऊंचाई के साथ-साथ पवन वेगमान होती जाती हैं। पवन के नीचे उतर आने से 30 से 350 अक्षाशों के बीच, अधिक दाब वाला, “शांत क्षेत्र” बन जाता है। इस क्षेत्र में पवन की हलचल बहुत कम होती है पर उनका दाब काफी अधिक होता है। इसलिए इन क्षेत्रों से पवन कम दाब वाले क्षेत्रों की ओर बहना आरंभ कर देती हैं। कम दाब वाले क्षेत्रों में एक भूमध्यरेखा के आसपास स्थित होता है और दूसरा दोनों गोलार्धों में 60-650 अक्षांशों के बीच इसलिए पवन दो भागों में विभक्त होकर इन दोनों क्षेत्रों की ओर बहने लगती है। 30-350 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र को नाविक “अश्व अक्षांश” (हॉर्स लैटीट्यूड) के नाम से पुकारते हैं यद्यपि इन क्षेत्रों का घोड़ों के साथ कोई संबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य युग में मध्य और दक्षिण अमेरिका को पद्दलित करने हेतु जाने वाली स्पेन की सेनाओं के अधिकांश घोड़े यूरोप से इस क्षेत्र तक पहुंचते-पहुंचते, लगातार हफ्तों तक शांत रहे आने के कारण, मर जाते थे और उन्हें समुद्र में फेंकना पड़ता था। अश्व अक्षांशों से भूमध्य रेखा की ओर बहने वाली पवन, “व्यापारी पवन” (ट्रेड विंड) कहलाती हैं। मंद, धीरे-धीरे बहन वाली इन पवनों का नामकरण “ट्रेड विंड” करने के पीछे कदाचित् “ट्रेड” शब्द का पुराना अर्थ “पाथ” (पथ) निहित है। इस प्रकार “ब्लो ट्रेड” का अर्थ हुआ “एक ही दिशा में निरंतर और स्थायी रूप से बहना।” व्यापारी पवन पर यह परिभाषा पूरी उतरती है। वे सदा एक ही दिशा में, एक ही पथ पर बहती रहती हैं।
व्यापारी पवन के भूमध्यरेखीय क्षेत्र में पहुंचने पर संवहन चक्र पूरा जो जाता है। वहां से उस पवन का, जो गर्म होकर ऊपर उठ गई थीं, स्थान ले लेती है। इस भूमध्यरैखिक संवहन चक्र को मौसमवैज्ञानिक आमतौर पर जार्ज हैडले के सम्मान में, जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में पहली बार इस प्रकार के चक्र का अस्तित्व सुझाया था, “हैडले चक्र” (हैडले सैल) भी कहते हैं।
ब्रिटिश वैज्ञानिक जार्ज हैडले (1685-1768) ने सर्वप्रथम, 1735 में, रॉयल सोसायटी के समक्ष अपने एक शोध-पत्र में यह सुझाया था कि पृथ्वी का घूमना भी, पवनों के बहने का एक कारण हो सकता है परंतु इस सुझाव की ओर उस समय तक किसी ने ध्यान नहीं दिया जब तक 60 वर्ष बाद, जॉन डाल्टन ने इसकी ओर ध्यान आकर्षित नहीं कराया।
यद्यपि उपर्युक्त वर्णन के अनुसार व्यापारी पवन को उत्तरी गोलार्ध में उत्तर दिशा से और दक्षिण गोलार्ध में दक्षिण दिशा से आना चाहिए परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता क्योंकि पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर, 1690 किमी. प्रति घंटे की गति से घूमती रहती है इसका प्रभाव व्यापारी पवन (यथार्थ में सब पवनों तथा जल धाराओं) पर भी पड़ता है। इस प्रभाव को “कोरिओलिस बल” कहा जाता है। यह नामकरण उन्नीसवीं सदी के फ्रेंच गणितज्ञ, गैसपर्द गुस्ताव द कोरिओलिस, के नाम पर किया गया जिन्होंने सर्वप्रथम इसका वर्णन किया था। वैसे परिशुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार कोरिओलिस बल वास्तव में “बल” है ही नहीं।
कोरिओलिस बल के अनुसार पृथ्वी के घूर्णन के फलस्वरूप उत्तरी गोलार्ध में हर गतिशील वस्तु का पथ दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्ध में बांयी ओर झुक जाता है। इसीलिए व्यापारी पवन उत्तरी गोलार्ध में उत्तर से दक्षिण की ओर न बहकर उत्तर-पूर्व में दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हैं तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण दिशा में न आकर दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं।
आप पढ़ चुके हैं कि भूमध्यरैखिक क्षेत्र से आने वाली पवन का केवल एक अंश ही 30-350 अक्षांश क्षेत्रों में नीचे उतरता है। दूसरा अंश ध्रुवों की ओर बढ़ता जाता है। इस अंश में अश्व अक्षांशों के उच्च दाब वाले क्षेत्रों से ध्रुवों की ओर बहने वाली पवन भी शामिल हो जाती हैं। कोरिओलिस बल के फलस्वरूप वे पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं। इसलिए वे उत्तरी गोलार्ध में दक्षिण-पश्चिम से और दक्षिणी गोलार्ध में उत्तर-पश्चिम से आती हैं। वे उस समय तक इन दिशाओं में बहती रहती हैं जब तक लगभग 600 अक्षांशों तक नहीं पहुंच जातीं। वहां, 60 से 650 अक्षांशों के बीच, पृथ्वी के घूर्णन के फलस्वरूप निम्न दाब वाले क्षेत्र बन जाते हैं। इसलिए ये वहां उतर जाती हैं।
व्यापारी पवन से विपरीत दिशाओं में बहने के कारण पहले इन्हें “प्रतिकूल व्यापारी पवन” (एंटीट्रेड विंड) कहा जाता था। पर पश्चिम दिशा (दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम) से आने के फलस्वरूप उनका “पश्चिमी पवन” (वेस्टरलीज़) नाम अधिक प्रचलित हो गया है।
पश्चिमी पवन व्यापारी पवन के समान मंद गति से नहीं बहती। उनकी गति काफी तेज होती है और अनेक क्षेत्रों में वे प्रचंड हो जाती हैं। इसका एक कारण यह भी है कि इनमें जेट प्रवाह शामिल हो जाते हैं। वैसे धरती की सतह पर भी पश्चिमी पवन की गति काफी तेज होती है। वास्तव में स्थायी पवनों में ये सबसे तेज बहने वाली पवन हैं। दक्षिणी गोलार्ध में, जहां थल अपेक्षाकृत कम है, ये हजारों किमी. तक बिना किसी रोक-टोक के सागर पर से बहती हैं। वहां ये लगभग तूफान जैसी स्थिति पैदा कर देती हैं। सागर में वे 18 मीटर जैसी ऊंची लहरें उत्पन्न कर देती हैं। ऐसा 40 से 500 दक्षिण अक्षांशों के बीच वाले क्षेत्र में अक्सर होता है। वहां ये बहुत शोर भी करती हैं। मध्य युग में छोटी-मोटी नौकाओं में यात्रा करने वाले नाविकों ने इनके भयानक शोर से घबराकर इन्हें “गरजती चालीसा” (रोरिंग फार्टीज़) जैसा विचित्र नाम दे दिया था। यह नाम आज भी प्रचलित है। पर कदाचित् प्रचंड गति से बहने वाली पश्चिमी पवन अपने इस नाम से “प्रसन्न” होकर शांत नहीं होतीं वरन् अपनी गति को और तीव्र कर देती हैं। वे और भयावह हो जाती है। उनकी यह गति लगभग 600 दक्षिण अक्षांश तक बनी रहती है। इसीलिए 50 से 600 दक्षिण अक्षांशों के बीच “भयानक पचासा” (फ्यूरियस फिफ्टीज़) और 600 से 700 दक्षिण अक्षांशों के बीच “चीखते साठा” (श्रीकिंग सिक्सटीज़) कहलाती हैं। उसके बाद उनकी गति काफी धीमी पड़ने लगती है। वास्तव में दोनों गोलार्धों में उन्हें 600 अक्षांशों के बाद ध्रुवों से आने वाली पुरवैया (ईस्टरलीज मील जाती है। इसीलिए ये 60-650 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र में नीचे उतरने लगती हैं।
ध्रुवीय पूर्वी पवन धुर्वों से भी ठंडी, भारी, पवनें चारों ओर बहती हैं। उन पर भी कोरिओलिस बल के प्रभाव पड़ते हैं। इसलिए वे उत्तरी गोलार्ध में उत्तर से न आकर उत्तर-पूर्व से और दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण से न आकर दक्षिण-पूर्व से आती हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अत्यंत ऊंची उड़ान भरते समय वायुयानों के पायलटों को एक विशेष अनुभव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जब वे प्रशांत महासागर पर से उच्च गति से, अमेरिका से जापान की ओर उड़ते थे, तब उनकी गति अपने-आप घट जाती थी। साथ ही पूर्व और पश्चिम दिशाओं में, समान दूरियों की उड़ान भरने में उन्हें अलग-अलग समय लगता था। बाद में शिकागों विश्वविद्यालय में कार्यरत, स्वीडन के मौसमवैज्ञानिक सी.जी. रॉसबी के नेतृत्व में इसके कारण ज्ञात करने के लिए गहन अध्ययन किए गए। उनमें पता चला कि धरती की सतह से लगभग 10 किमी. ऊंचाई पर 160 से 320 किमी. प्रति घंटे तक कि गति से पवन बहती रहती हैं। ये पवन ही वायुयानों की गति को कम कर देती थीं। ये घुमावदार होती हैं। रॉसबी ने इनका नाम “जेट प्रवाह” सुझाया था जो आज भी प्रचलित है। इनमें पवन की पट्टियां होती हैं। आमतौर से ये कुछ सौ किमी. दूरी तक बहने के बाद शांत हो जाती हैं। परंतु कुछ पृथ्वी की आधी से भी अधिक प्ररिक्रमा कर लेती हैं। इनमें पवन गति 30 से लेकर 150 मीटर प्रति सैकंड तक, कुछ भी हो सकती है।
प्रत्येक गोलार्ध में दो-दो जेट प्रवाह उपस्थित हैं- एक उपोष्ण क्षेत्र में और दूसरा ध्रुवीय क्षेत्र में। सर्दियों में ये अधिक प्रबल हो जाते हैं। ये आमतौर से पश्चिम से पूर्व की ओर बहते हैं पर इनमें पवन अपनी ऊंचाई और गति बदलती रहती है। इससे पवन की छल्ले जैसी आकृतियां बन जाती है। इन छल्लों की आकृतियां और स्थितियां भी निरंतर बदलती रहती हैं। यद्यपि जेट प्रवाह काफी ऊंचाई पर, क्षोभसीमा में, बहते हैं, परंतु ये निचले वायुमंडल के निम्न और उच्च दाब वाले क्षेत्रों को भी प्रभावित करते हैं। गर्मी में हमारे देश के दक्षिणी भाग से अफ्रीका के ऊपर तक बहने वाला प्रवाह ही एक मात्र ऐसा जेट प्रवाह है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहता है।
हमारे देश के दक्षिणी भाग से अदन की खाड़ी तक बहने वाले इस पूर्वी जेट प्रवाह की मौजूदगी के बारे में सबसे पहले सन् 1952 में, भारतीय मौसम वैज्ञानिक पी.आर. कृष्ण राव और पी. कोटेश्वरम् ने ही बताया था। बाद में इस पूर्वी जेट प्रवाह के गहन अध्ययन किए गए और आज हमें इसके बारे में काफी जानकारी है।
गर्मी की मानसून के मौसम में, बहने वाले इस पूर्वी जेट प्रवाह में पवन पश्चिमी जेट प्रवाह की तुलना में अधिक ऊंचाई पर (लगभग 13 किमी. ऊंचाई) पर बहती हैं। यह जेट तिरुअनन्तपुरम से लेकर कोलकाता तक फैला होता है और इसमें पवन की गति 100 नॉट से भी अधिक हो जाती है। यह अपनी स्थिति, मानसूनों के साथ उत्तर या दक्षिण की ओर बदलता रहता है। इसमें वायु की बहुत बड़ी मात्रा मौजूद होती है। यह वाष्प वर्षा के रूप में हमारे देश के ऊपर बरसती है।
भारत में हिमालय के दक्षिणी ढालों पर एक पश्चिमी जेट प्रवाह भी बहता है। सर्दियों में यह हिमालय के दक्षिण में स्थित होता है पर गर्मी की मानसून का आगमन होते ही यह हिमालय के उत्तर की ओर चला जाता है। इस बारे में यह सुझाया गया है कि इस जेट प्रवाह का उत्तर की ओर सरक जाना भारत के ऊपर मानसून आ जाने का प्रथम संकेत माना जा सकता है।
मौसमवैज्ञानिकों ने अफ्रीका के पूर्वी तट पर सोमालिया के निकट, गर्मी के ऋतु में, काफी कम ऊंचाई पर बहने वाले एक प्रबल पश्चिमी जेट प्रवाह का पता लगाया है। इसमें पवन 1.5 किमी. जैसी कम ऊंचाई पर, 60 से 100 नॉट की गति बहती पायी गई हैं। जून से सितंबर तक की अवधि में, जब गर्मी की मानसून अपने शिखर पर होती है, यह जेट प्रवाह 100 उत्तर अक्षांश के आसपास के क्षेत्र में अरब सागर से भारतीय प्रायद्वीप तक बहता रहता है।
यद्यपि जेट प्रवाहों में वायु की गति अत्यंत तीव्र-हरीकेन की गति से भी कहीं अधिक होती है पर क्षोभसीमा में स्थित होने के कारण इनमें वायु बहुत पतली होती है और इसमें निहित ऊर्जा धरती की सतह पर बहने वाली पवन की ऊर्जा से बहुत कम होती है। इसीलिए जेट प्रवाह किसी क्षेत्र के मौसम को उस प्रकार प्रभावित नहीं कर पाते जैसे चक्रवात करते हैं।
जल और थल समीर : सागर के तट के निकट के इलाकों में गर्मी और सर्दी के तापों में तथा दिन और रात के तापों में अधिक अंतर न हो पाने की कारण हैं जल और थल समीर।
सूर्य की ऊर्जा थल में कुछ सेमी. नीचे तक ही प्रवेश कर पाती है। इसलिए उसकी ऊपरी सतह का ताप काफी अधिक हो जाता है। उसके ऊपर की वायु भी गर्म हो जाती है और उसका दाब कम हो जाता है। उसकी तुलना में जल में सौर ऊर्जा लगभग 100 मीटर गहराई तक प्रवेश कर जाती है। साथ ही जल की ऊष्माधारिता थल की तुलना में लगभग 2.5 गुनी हैं। इसलिए जल का ताप बहुत कम बढ़ता है। उसके ऊपर की वायु अपेक्षाकृत कम गर्म होती है और उसका दाब थल के ऊपर की वायु के दाब की तुलना में काफी अधिक रहता है। वायु अपना दाब समान रखने के गुण के फलस्वरूप जल से थल की ओर बहने लगती है। यह “जल समीर” या “सागर समीर” कहलाती है।
परन्तु रात में हवा के बहने का “चक्र” उलट जाता है। थल जल की अपेक्षा अधिक मात्रा में ऊष्मा परावर्तित करता है। इसलिए जल की अपेक्षा उसका ताप कम हो जाता है। उस समय थल पर वायु का दाब अधिक होता है और जल पर कम। इसलिए वायु थल से जल की ओर बहने लगती है। इसकी वजह से थल का ताप उतना कम नहीं हो पाता जितना ठंडी वायु के उस पर जमा होने से होता।
उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों के तटीय इलाकों में जल और थल समीरें नियमित रूप से बहती है। पर समशीतोष्ण इलाकों में जल समीर की प्रवृत्ति “मौसमी” हो जाती है। वह अपेक्षाकृत गर्म मौसम में, विशेष रूप से जून और जुलाई के महीनों के दौरान ही, बहती है। वह आमतौर से दिन में 10 और 11 बजे के बीच आरंभ हो जाती है, दोपहर 2 बजे के करीब उसका बहाव मंद पड़ने लगता है और शाम के 7-8 बजे के बीच वह पूर्णतः समाप्त हो जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों में जल समीर को बहुत सुंदर नामों से पुकारा जाता है। चिली में इसे “विराजॉन” (Virazon), जिब्राल्टर में “दातू”, मोरक्को में “इम्बात” इटली में “पोनेन्ते” (Ponente), पवनई द्वीप में कपालिलुआ (Kapalilua) और अनेक अंग्रेजी भाषा-भाषी क्षेत्रों में “डॉक्टर” के नाम से पुकारा जाता है।
जल और थल समीरों के बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि जलवायु जितनी अधिक गर्म होगी ये समीर उतनी ही अधिक तेजी से और उतनी ही अधिक दूरी तक जाएंगी तथा उनमें वायु की मात्रा भी उतनी ही अधिक होगी। दोपहर के समय जब ताप सबसे अधिक होता है उनकी गति भी अधिकतम होती है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में उनकी गति आमतौर से 15 से 20 किमी. प्रति घंटा होती है पर गर्म इलाकों में वे 30 से 40 किमी. प्रति घंटा हैं। इसी प्रकार समशीतोष्ण क्षेत्रों में थल पर वे औसतन 15 किमी. ऊंचाई तक चली जाती हैं। इसके विपरीत उष्ण कटिबंध में वे 1200 मीटर या उससे भी अधिक ऊंचाई पर बहती हैं और थल पर लगभग 150 किमी. अंदर तक पहुंच जाती हैं। मानसून पवन भी जल और थल समीरों के सिद्धांत पर उत्पन्न होती और बहती हैं। इनकी उत्पत्ति तथा गतिविधियों के बारे में “वरुणदूत : मानसून” अध्याय में पढ़िए।
लगभग 4 वर्ष पहले (1998 में) कांडला (गुजरात) में पवन के रौद्र रूप द्वारा विनाशकारी तांडव नृत्य को आसानी से नहीं भुलाया जा सकता। उस “नृत्य” ने सैकड़ों व्यक्तियों को काल के गाल में पहुंचा दिया था और अरबों रुपए मूल्य की संपत्ति नष्ट कर दी थी। यह पवन का ऐसा रौद्र रूप था जिसे किसी भी हालत में रोका नहीं जा सकता था। अधिक से अधिक उसके आगमन के बारे में पूर्वसूचना दी जा सकती थी जिससे लोग अपने बचाव के लिए ज्यादा से ज्यादा दूर चले जाने का प्रयत्न कर सकते थे।
कांडला में आने वाला चक्रवात कोई अनोखी प्राकृतिक घटना नहीं थी। ऐसी दुखद घटनाएं हमारे पूर्वी तट पर अक्सर ही और पश्चिमी तट पर कभी-कभी होती ही रहती हैं। साथ ही वे विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी, कहीं अधिक भयंकर रूप से भी घटती रहती हैं और कहीं अधिक विनाश का कारण बनती हैं।
नवंबर 1977 में, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के तट पर दो अत्यंत विनाशकारी चक्रवात आए थे। ये एक-दूसरे के कुछ दिनों के अंतर पर आए थे। बंगाल की खाड़ी में नवंबर 1977 के प्रथम सप्ताह में उत्पन्न चक्रवात ने 12 नवंबर को श्रीलंका के उत्तर से तमिलनाडु में प्रवेश किया था। वहां भयंकर तबाही मचाता हुआ और 400 से भी अधिक लोगों को मृत्यु की गोद में सुलाता हुआ वह पश्चिम की ओर बढ़ता गया और अरब सागर के तट को पार कर गया। पर तीन दिन बाद ही यह फिर लौट पड़ा और 22 नवंबर को पश्चिमी तट को पार करके फिर से हमारे देश में आ घुसा। वहां भी उसने काफी तबाही मचा दी थी। वहां इसने बहुत अधिक वर्षा की थी पर वह तमिलनाडु में मचायी उक्त तबाही की तुलना में बहुत कम थी।
अभी लोग उक्त विनाश लीला के कारण त्राहि-त्राहि कर ही रहे थे कि 18 नवंबर को एक अन्य चक्रवात फिर हमारे पूर्वी तट से देश में प्रवेश कर गया। इस बार वह उत्तर की ओर मुड़ गया। उसका असली निशाना बना आंध्र प्रदेश। वहां उसने 19 और 20 नवंबर को जमकर वर्षा की और सागर में बहुत ऊंची-ऊंची लहरें उत्पन्न की जो थल पर भी कई किमी. अंदर तक घुस आयीं इनसे करोड़ों रुपयों मूल्य की फसलें नष्ट हो गईं, हजारों मकान उजड़ गए और सैंकडों लोगों की जानें गईं।
पवन अक्सर ही अपने इन रौद्र रूपों को धारण करती रहती है। वह ऐसा उष्ण कटिबंधों में भी करती हैं और समशीतोष्ण कटिबंधों में भी। इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर भारत, बांग्लादेश और आस्ट्रेलिया तक, सब देशों के निवासी, विशेष रूप से इन देशों के तटीय प्रदेशों के निवासी, सदा ही इनसे त्रस्त रहते हैं। मौसमवैज्ञानिक पवन के इन रौद्र रूपों को अक्सर ही “साइक्लोन”, “टाइफून”, “टोरनेडो”, आदि नामों से पुकारते हैं। यद्यपि साधारण बोलचाल की भाषा में इनमें कोई अंतर नहीं होता परंतु मौसमवैज्ञानिकों के अनुसार ये भिन्न-भिन्न होते हैं। वैसे “साइक्लोन” का हिंदी पर्याय “चक्रवात” है। मौसमवैज्ञानिक “साइक्लोन” और हरीकेन में अंतर मानते हैं। इसलिए हम भी “साइक्लोन”, “हरिकेन”, “टाइफून” और “टॉरनेडो” को उनके प्रचलित अंग्रेजी नामों से ही पुकारेंगे।
आमतौर से बंगाल की खाड़ी, दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर और आस्ट्रेलिया के उत्तर में स्थित सागरों से आने वाले चक्रवातों को “साइक्लोन” कहा जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रशांत महासागर में विशेष रूप से चीन सागर में, उत्पन्न होने वाले चक्रवात “टाइफून” कहलाते हैं जबकि पश्चिमी अंध महासागर में उत्पन्न होने वाले चक्रवात “हरिकेन” आस्ट्रेलिया में आने वाले चक्रवातों को भी “हरिकेन” नाम से पुकारा जाता है।
साइक्लोन या उष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्ण कटिबंधों में उत्पन्न होने वाली “निम्न दाब पवन संचरण प्रणाली” है जिसमें पवन की गति 60 किमी. प्रति घंटा से अधिक परंतु 120 किमी. प्रति घंटे से कम होती है। बोफर्ट पैमाने के अनुसार पवन-गति 8 से अधिक पर 12 से कम होती है (परिशिष्ट ख भी देखिए)
हरिकेन और टाइफून एक ही प्रकार के चक्रवातों के अलग-अलग नाम हैं। ये साइक्लोनों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं। इनमें पवन की गति 120 किमी. प्रति घंटे से भी अधिक हो जाती है और ये साइक्लोनों की अपेक्षा अधिक बड़े क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।
इनसे कम शक्तिशाली चक्रवातों को मौसमवैज्ञानिकों “उष्ण कटिबंधीय तूफान” (ट्रॉपिकल स्टॉर्म) कहते हैं। यद्यपि इनमें भी बादल उपस्थित होते हैं और वे भी वर्षा करते हैं परंतु उनमें पवन की अधिकतम गति 17 से 30 मीटर प्रति सेकंड तक होती है। “उष्णकटिबंधीय अवनमन” (ट्रॉपिकल डिप्रैशन) में भी पवन की गति 17 मीटर प्रति सेकंड से कम होती है।
“हरिकेन” नाम की उत्पत्ति रेड इंडियनों के तूफान के देवता “हुर्रकन” के नाम से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है “विशाल पवन” । जब 15वीं शताब्दी में स्पेनवासियों ने वेस्टइंडीज में प्रवेश किया तब तक उन्हें अपने देश में कभी इतनी शक्तिशाली पवनों का सामना नहीं करना पड़ा था। इसलिए उन्होंने भी इन पवनओं को हुर्रकन (Hurrcan) कहना शुरू कर दिया। बाद में इसी से “हरिकेन” शब्द बना।
“टाइफून” नाम चीनी भाषा के “ताइफुंग” अर्थात पवन जो टकराती है शब्द से बना है। कुछ लोगों का यह मत भी है कि “टाइफून” शब्द यूनान के पौराणिक दैत्य “टाइफोन” से उत्पन्न हुआ है जबकि कुछ लोग इसकी उत्पत्ति तूफानी पवनों के जनक “टाइफोइकस” से मानते हैं।
साइक्लोन, हरीकेन और टाइफून के उत्पन्न होने की क्रियाएं एक जैसी ही होती हैं और उसके लिए दो वस्तुएं आवश्यक होती हैं वे हैं ऊष्मा और नमी। इसीलिए वे केवल उष्ण कटिबंधों में ही 5 से 200 अक्षांशों के बीच के क्षेत्रों में जहां सागर का ताप 270 सै. से अधिक होता है, उत्पन्न होते हैं। साथ उनका जन्म एक क्षुद्र विक्षोभ के रूप में होता है। यह विक्षोभ किस प्रकार इतना विशाल और रौद्र रूप धारण कर लेता है इस बारे में अब भी वैज्ञानिकों को पूर्ण जानकारी नहीं है पर वे जानते हैं कि इस क्रिया में क्षोभमंडल की ऊपरी और निचली परतों की पवनों के बीच अंतः क्रियाएं होती हैं। सामान्यतः उष्ण कटिबंधों में इन पवनों के बीच बहुत कम अंतःक्रियाएं होती हैं क्योंकि ऊपरी परतों की पवनें आमतौर से हल्की होती हैं और उनकी अभिसारी और अपसारी पैटर्न क्षीण होते हैं। परंतु जब ऊपरी अपसरण नवनिर्मित विक्षोभ के ऊपर से गुजरता है तब चूषण क्रिया आरंभ हो जाती है। यह अपसरण ऊपर उठती हुई वायु को “चूसने” लगता है जिससे सागर सतह पर होने वाली अभिसरण क्रिया प्रबल हो जाती है।
चक्रवात को पूर्ण रूप से विकसित होने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा की जरूरत होती है और यह ऊर्जा प्राप्त होती है जल वाष्प की गुप्त ऊष्मा से जब जल वाष्प द्रव में परिवर्तित होती है तब बड़ी मात्रा में (लगभग 536 कैलौरी प्रति ग्राम की दर से) ऊर्जा मुक्त होती है। निश्चय ही वह आसपास के वातावरण के ताप को बढ़ा देती है। इससे वायु गर्म होकर ऊपर उठती है और जैसे-जैसे वह अधिक गर्म होती जाती है उसके ऊपर उठने की दर भी तेज होती जाती है। इसके प्रभावस्वरूप सागर की सतह से और अधिक मात्रा में जल वाष्प से युक्त वायु ऊपर उठने लगती है जिससे और अधिक मात्रा में ऊष्मा मुक्त होने लगती है।
एक बार यह श्रृंखला-प्रक्रिया आरंभ हो जाने पर वह निरंतर चलती रहती है और चक्रवात पूरी तरह विकसित हो जाता है। उसमें वायु बहुत तेज गति से, सर्पिलाकार घूमती हुई, ऊपर उठने लगती है। विशाल कपासी मेघ उत्पन्न हो जाते हैं और उनसे मूसलाधार वर्षा होने लगती है। परंतु चक्रवात के अंतरतम भाग में जिसे उसकी “आंख” (आई) कहा जाता है, कोष्ण वायु धीरे-धीरे नीचे उतरती रहती है। चक्रवात के बाह्य अंगों में वायु का दाब बहुत उच्च होता है परंतु उसे अंतरतम भाग में वह निम्न रहता है उस भाग में न तो बादल रहते हैं और न वर्षा। वास्तव में “चक्रवात की आंख” बहुत “शांत क्षेत्र” रहता है।
अपने निर्माण के बाद चक्रवात पहले पश्चिम की ओर चलते हैं और फिर भूमध्यरैखिक क्षेत्र से अपना नाता तोड़ते हुए उत्तर या दक्षिण की ओर चल पड़ते हैं। यदि उनके मार्ग में थल आ जाता है। तब वे वहां तबाही मचा देते हैं परंतु कुछ दूरी तक जाते-जाते अपने ऊर्जा स्रोत से वंचित हो जाने के कारण-जल वाष्प युक्त वायु (जिससे वे वाष्प की गुप्त उष्मा प्राप्त करते रहते हैं) की सप्लाई समाप्त हो जाने पर- वे समाप्त हो जाते हैं वैसे यह “कुछ दूरी” कई सौ किमी. तक की दूरी भी हो सकती है।
यदि चक्रवात सागर पर ही रहे आते हैं, तब वे उस समय तक आगे रहते हैं जब तक उन्हें ठंडा पानी नहीं मिल जाता। वहां उनकी ऊर्जा सप्लाई समाप्त हो जाती है और शांत हो जाते हैं।
चक्रवातों के विकास के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि ऊपर उठने वाली वायु में जब वाष्प की मात्रा पर्याप्त नहीं होती अथवा वायु बहुत ठंडी होती है तब उपर्युक्त श्रृंखला प्रक्रिया आरंभ ही नहीं होती। इसीलिए हरीकेन केवल उष्ण कटिबंधों के कोष्ण सागरों के ऊपर ही, जहां ताप सदा 270 सै. से ऊपर रहता है, बन सकते हैं। इसी कारण वे थल पर चले जाने अथवा उष्ण कटिबंध से दूर चले जाने पर शीघ्र ही समाप्त हो जाते हैं। साथ ही हरीकेन भूमध्यरेखा पर तथा उसके उत्तर और दक्षिण में 50 अक्षांशों तक की संकरी पट्टी में पैदा नहीं हो सकते। इस पट्टी में कोरिओलिस बल अनुपस्थित होता है। वहां वायु को आरम्भिक घूर्णन बल नहीं मिल पाता। इसलिए वह किसी निम्न दाब वाले क्षेत्र के इर्द-गिर्द घूमना आरंभ नहीं कर पाती। साथ ही इस संकरी पट्टी में जब कभी निम्न दाब क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है तब आसपास की वायु शीघ्र ही वहां पहुंच जाती है। पर इस पट्टी के बाहर कोरिओलिस बल अपना प्रभाव दिखाने लगता है और निम्न दाब वाले क्षेत्र की ओर तेजी से आती हुई वायु को मोड़ देता है। इससे वायु सर्पिलाकार घूमना आरंभ कर देती है।
हरीकेन स्यवं को जीवित रखने के लिए एक बहुत दक्ष क्रियाविधि का उपयोग करता है। जल वाष्प से युक्त वायु केंद्र की ओर जाते समय कुंडली की भांति घूमती हुई ऊपर उठती है और तब वह वलय कपासी मेघों की दीवार जैसी आकृति बना देती है। इस दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा वायु को और ऊपर उठाने के लिए प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार मेघ, वर्षा और प्रचंड पवन की लगभग 20 किमी. मोटी एक पट्टी बन जाती है। यह पट्टी हरीकेन के केंद्र से लगभग 30 किमी. दूर होती है। इस पट्टी से बाहर मेघ बिखरे होते हैं, वर्षा झोंकों में होती है और पवन का वेग काफी कम होता है। ऊपरी क्षोभमंडल में जल की बुंदकियां बर्फ के रवों में बदल जाती हैं। इनसे कपासी मेघ बन जाते हैं।
ये मेघ पवन के घूमने के फलस्वरूप एक “फैलती हुई अपसारी कुंडली” की आकृति धारण कर लेते हैं। इसलिए उपग्रह से हरीकेन का चित्र लेने पर वह “सर्पिल नीहारिका” सदृश्य दिखता है।
हरीकेन का आंतरिक भाग आमतौर से मेघों से मुक्त होता है। उसमें कोष्ण वायु, मंद गति से नीचे की ओर आती रहती है। वहां दाब भी बहुत कम होता है। वहां धरती की सतह पर ताप बहुत थोड़ा बढ़ता है परंतु क्षोभमंडल के मध्य में, लगभग 5.5 किमी. की ऊंचाई पर (लगभग 500 मिलीबार दाब पर), ताप काफी अधिक हो सकता है। उतनी ऊंचाई पर हरीकेन के बाह्य भाग का ताप 200 सैं. तक हो सकता है।
हरीकेन का यह कोष्णतर आंतरिक भाग उसका एक आवश्यक अंग होता है। उसी की वजह से उसकी आंख पर कम दाब बना रहता है और आसपास की वायु निरंतर उस की ओर खिंचती रहती है।
यद्यपि कोई भी दो हरीकेन एकदम समान नहीं होते फिर भी एक सामान्य “प्रौढ़” हरिकेन का व्यास 600 किमी. जैसा विशाल हो सकता है जिसमें वायु घूमती हुई, उसके केंद्र की ओर, 50 मीटर प्रति सेकेंड की गति से बहती है। उसकी आंख का व्यास 6 से लेकिर 40 किमी. तक कितना भी बड़ा हो सकता है। हरीकेन के केंद्र में दाब 950 मिलीबार जैसा कम होता है, यद्यपि सर्वाधिक ज्ञात निम्न दाब 870 मिलीबार पाया गया। अक्तूबर 1979 में गॉम द्वीप (प्रशांत महासागर) पर से गुजरने वाले एक हरीकेन का व्यास 2220 किमी. था और उसमें पवन की अधिकतम गति 85 मीटर प्रति सैंकड जैसी तीव्र थी। यह गति इतनी अधिक थी कि आंधी में उड़ता हुआ लकड़ी का एक पटिया नारियल के पेड़ को काटता हुआ निकल गया था और छतों पर कीलों से कसी टिन की चादरें उतर कर पत्तों की भांति उड़ने लगी थीं।
हरीकेनों के विस्तार और वेग के समान ही उनके द्वारा की जाने वाली वर्षा की मात्रा भी बहुत अधिक होती है। एक हरीकेन के दौरान 80 से 150 मिमी. वर्षा हो जाना आम बात है। यद्यपि जब पवन की गति 25 मीटर प्रति सैकंड से अधिक हो जाती है तब प्रचलित वर्षामापक यंत्र वर्षा को मापने में असमर्थ हो जाते हैं। उस समय अधिकांश पानी की बूंदे पवन के साथ “उड़” जाती हैं।
कुछ हरीकेनों के वर्षा करने के रिकार्ड वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। वर्ष 1896 में मॉरीशस में आए एक हरीकेन ने चार दिनों में 1200 मिमी. (47 इंच) पानी बरसा दिया था। पर बागुइओ (फिलीपीन) में वर्ष 1911 में हरीकेन ने केवल एक ही दिन में 1170 मिमी. (46 इंच) वर्षा कर दी थी। विचित्र बात यह थी कि इतना पानी बरसा देने के बाद भी उसका “गुस्सा” ठंडा नहीं हुआ था। अतएव वह और तीन दिन तक पानी बरसाता रहा था। इस प्रकार चार दिनों में उसने कुल 2200 मिमी. (56 इंच) पानी बरसाया था। इतनी अधिक वर्षा का एक कारण जल वाष्प से भरी पवन का जबरदस्ती ऊपर उठना भी था। वैसे मैदानों में भी हरीकेन भयंकर वर्षा कर देते हैं।
इतनी भारी वर्षा के लिए ऊर्जा की बहुत विशाल मात्रा चाहिए। यह ऊर्जा पवन में उपस्थित जल वाष्प के पानी में परिवर्तित होने के फलस्वरूप प्राप्त होती है। यही ऊर्जा चक्रवात को आगे बढ़ने में मदद देती है। ऊर्जा की इस मात्रा का अनुमान एक आम हरीकेन के मेघों से मुक्त होने वाली ऊर्जा से लगाया जा सकता है। वह 10x1012 किलोवाट-अवर प्रति दिन जैसी होती है। यह मात्रा संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश, जो विश्व में सबसे अधिक ऊर्जा का उत्पादन करता है, के वार्षिक उत्पादन से 1000 गुनी अधिक है।
जिस वस्तु में इतनी ऊर्जा भरी हो वह कितना कहर ढा सकता है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। एक अकेला हरीकेन किसी भी छोटे द्वीप का सम्पूर्ण भूगोल ही बदल सकता है। वह उन संरचनाओं को, जो हजारों वर्षों से सामान्य मौसम के थपेड़ें खाकर भी भलीभांति खड़ी रहती हैं, पल भर में, समूल नष्ट कर सकता है। हरीकेन की वेगवान पवनें कुछ घंटों में ही खड़ी फसलों को एकदम तहस-नहस कर सकती हैं। वे पूरी बस्ती को उजाड़ सकती हैं। भाग्यवश ऐसे हरीकेन बहुत कम आते हैं।
हरीकेन के समशीतोष्ण कटिबंध में प्रवेश कर जाने पर उसका व्यवहार बदल जाता है। वहां वह आमतौर पर एक साधारण-सा तूफान बन कर ही रह जाता है। परन्तु वहां पश्चिमी पवनों की निम्न दाब की सक्रिय, नम, द्रोणिका मिल जाने पर उसे पुनःजीवन मिल जाता है।
सागर से थल पर आ जाने के तुरन्त बाद हरीकेन धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। उसके निचले भाग में बहने वाली पवन पर्याप्त रूप से नम नहीं रह पाती। फलस्वरूप हरीकेन को समुचित मात्रा में ऊर्जा नहीं मिल पाती और वह धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। उसकी आंख “लुप्त” हो जाती है और पवनों की गति धीमी हो जाती है। जहां तक उसके द्वारा की जाने वाली वर्षा का प्रश्न है उसमें वृद्धि होने लगती है क्योंकि अब पवन को, उस समय की तुलना में जब हरीकेन सागर पर था, अधिक घर्षण सहन करना पड़ता है। इससे वह धीमी तो पड़ती ही है साथ ही हरीकेन की आंख की ओर भी मुड़ जाती है। वहां वह ऊपर की ओर उठती है और अपने में भरी हुई जल वाष्प को अधिक से अधिक मात्रा में त्याग देती है। इससे काफी बड़े क्षेत्र पर जोर की वर्षा होती है। यद्यपि हरीकेन का सागर से थल की ओर आगमन उसके ‘अंत की शुरूआत’ होती है पर इसी स्थिति में वह सर्वाधिक प्रलयकारी होता है।
जहां तक एक सीमित क्षेत्र में प्रचंड विनाश लीला करने का प्रश्न है कोई भी तूफान, आंधी, झंझा इतना प्रलयकारी नहीं होता जितना टोरनेडो। वैसे टोरनेडो भी हरीकेनों की भांति अत्यंत चंचल, वेगवान, शक्तिशाली वायुराशि होती है जो निम्न दाब के क्षेत्र के इर्द-गिर्द, सर्पिल आकार में, अत्यंत तेजी से घूमती है। परन्तु दोनों की समानता यहां ही समाप्त हो जाती है। एक आम हरीकेन का व्यास 500 किमी. तक हो सकता है जबकि एक बड़े टोरनेडो का व्यास केवल 500 मीटर ही होता है। छोटे टोरनेडो तो व्यास में 50 मीटर ही होते हैं। वे भूमि पर केवल 100 फुट (30 मीटर) तक जा सकते हैं और 100 मील (160 किमी.) तक भी। जब टोरनेडो पूरे ‘जोश’ में होता है तब वास्तव में बादलों मे से एक पतली-सी धारा निकल कर धरती तक आ जाती है। आमतौर से इस धारा की आकृति चाड़ी जैसी होती है-ऊपर से चौड़ी और नीचे से पतली। पर उसकी आकृति हाथी की सूंड जैसी पतली, अथवा बटी हुई रस्सी जैसी भी हो सकती है। यद्यपि हरिकेन काफी बड़े क्षेत्र में, काफी देर तक तबाही मचाता रहता है पर उसकी विनाश लीला की भयंकरता इतनी अधिक नहीं होती जितनी टोरनेडो की छोटे क्षेत्र में होती है। यह विनाश लीला कुछ मिनटों में ही सम्पन्न हो जाती है।
“टोरनेडो” शब्द की उत्पत्ति स्पेनिश भाषा के “त्रोनादा” (tronada) से हुई है जिसका अर्थ है “तड़ित झंझा” यानी तेज आंधी, काले मेघ मसूलाधार वर्षा बिजली का रह-रह कर चमकना। वास्तव में टोरनेडो में ये सब होते हैं और साथ ही होती है एक हरी-पीली रोशनी जो रह-रह कर चमकती रहती है और पूरे इलाके को रोशन करती रहती है। इससे काले बादल आश्चर्यजनक रूप से हरे और पीले दिखने लगते हैं। टोरनेडो में भयंकर गडगड़ाहट होती है जो ऐसी लगती है मानों कहीं निकट ही हजारों एक्सप्रेस गाड़ियां पूरी रफ्तार से दौड़ रही हों। यद्यपि टोरनेडो पृथ्वी के अनेक भागों में आते हैं परंतु जितनी जल्दी-जल्दी और जितने भयंकर रूप में वे संयुक्त राज्य अमेरिका में आते हैं उतने अन्य किसी क्षेत्र में नहीं। वहां हर वर्ष 500 से 600 तक टोरनेडो आते हैं। वहां भी एक पट्टी है जो टेक्सास से आरंभ होकर कंसास होती हुई इलीनॉय तक और उसके बाद कनाडा तक चली जाती है। यह विशेष रूप से “टोरनेडो-ग्रस्त” क्षेत्र है। इस पट्टी में ही सबसे अधिक टोरनेडो आते हैं। वैसे तो टोरनेडो वर्ष के किसी भी समय आ सकते हैं पर अप्रैल से सितम्बर तक का समय इनका “मनपसंद” समय है। उस दौरान ये सबसे अधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें से अधिकांश दोपहर बाद, दिन के सर्वाधिक गर्म भाग के बीत जाने के बाद आते हैं।
हरीकेन की भांति टोरनेडो के अंदरूनी भाग में भी वायु का दाब कम होता है पर वह हरीकेन की अपेक्षा बहुत कम होता है। इसिलिए जब टोरनेडो किसी इमारत पर से गुजरता है उस समय इमारत के इर्द-गिर्द के क्षेत्र की वायु का दाब इमारत के अंदर के वायु दाब से बहुत कम हो जाता है। इससे इमारत अक्सर फट जाती है। साथ ही टोरनेडो में अत्यंत वेग से ऊपर उठती पवन इतनी शक्तिशाली होती है कि अक्सर ही जानवरों या आदमियों को अपने साथ उड़ा ले जाती है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार जब तीव्र गति से बहने वाली ठंडी, सूखी, वायु नम, कोष्ण वायु के नीचे न जाकर उसके ऊपर चली जाती है तब भयंकर असन्तुलन पैदा हो जाता है। उस समय कोष्ण वायु बहुत तीव्र गति से कभी-कभी 300 किमी. जैसी तीव्र गति से ऊपर उठने लगती है। बाजुओं से बहने वाले प्रवाह इस वायु को घुमा देते हैं। इस प्रकार जो भंवर पैदा हो जाता है वह घूमने लगता है। इससे टोरनेडो उत्पन्न होता है।
यद्यपि टोरनेडो की प्रबल वातावर्त (वर्लविंड) की गति अब तक भी सही-सही मापी नहीं जा सकी है, क्योंकि कोई भी यंत्र टोरनेडो के अंधड़ के सामने टिक नहीं पाता, परन्तु परोक्ष तरीकों से लगाए गए अनुमानों से वह 150 से 250 मील (240 से 400 किमी.) प्रति घंटे तक होती है। साथ ही टोरनेडो के किनारों पर छोटे-छोटे सहायक वर्त लगातार बनते-बिगड़ते रहते हैं और झोंके उत्पन्न करते रहते हैं। ये झोंके मुख्य पवन प्रवाह से कहीं अधिक शक्तिशाली और विनाशकारी होते हैं।
टोरनेडों के इतने शक्तिशाली होने के कारण उनकी संहारक शक्ति भी बहुत अधिक होती है। वे न केवल झोपड़ियों की छतों को उड़ा देते है, उनकी दीवारों को भी गिरा देते हैं वरन् पक्की इमारतों की खिड़कियों, दरवाजों को तोड़ते हुए उन्हें भी तहस-नहस कर देते हैं। वे खड़ी फसलों को नष्ट कर देते हैं, पेड़ों को उखाड़ देते हैं, बिजली के खम्भों को गिरा देते हैं, और वे भी अपने साथ भयंकर वर्षा लाते हैं। भयंकर गति से बहती हुई आंधी में इतनी ताकत होती है कि रेलगाड़ी के भारी इंजन भी अपनी पटरी से नीचे गिर जाते हैं। हल्की मोटर कारें तो आंधी के साथ उड़ ही जाती हैं। इस भयंकर आंधी में बंदूक की गोली की गति से उड़ते धूल कण लोगों के मांस में घुस जाते हैं। विडम्बना यह है कि टोरनेडो की गिरफ्त में फंसे लोगों को पक्की इमारतें भी पूर्ण सुरक्षा प्रदान नहीं कर पातीं क्योंकि टोरनेडो के समक्ष वे स्वयं को ‘असहाय महसूस करने लगती हैं।’ इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे प्रगतिशील देश में भी टोरनेडो से हर वर्ष सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो जाती है और करोड़ो-अरबों डालर मूल्य की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है।
टोरनेडो के बारे में एक विचित्र तथ्य यह है कि सन् 1916 के बाद से टोरनेडो की संख्या में अचानक वृद्धि हो गई है। अधिकांश व्यक्ति इसका कारण टोरनेडो के आगमन की सूचना देने वाली प्रणाली की बढ़ी हुई दक्षता को बताते हैं। पर कुछ लोगों का मत है कि टोरनेडो की उत्पत्ति और सूर्य के धब्बों के आगमन चक्र के बीच घनिष्ठ संबंध हो सकता है। जैसा कि आप जानते हैं कि सूर्य के धब्बों की क्रियाशीलता में वृद्धि के चक्र का काल 11 वर्ष कुछ अधिक होता है। ऐसे चार चक्र-कालों तक (लगभग 45 वर्षों तक) टोरनेडो की संख्या में वृद्धि होती रहती है। बाद में अगले 45 वर्ष के चक्र में वह घटने लगती है। पर इस बारे में कोई स्पष्ट सम्बंध स्थापित करने से पहले काफी शोध और अध्ययन करने होंगे।
पवन की ऊर्जा उसके बहने में निहित होती है। उक्त सब कार्य वह उस समय ही कर सकती है जब बह रही होती है। पवन को बहने के लिए कौन प्रेरित करता है? यह कार्य करता है विभिन्न स्थानों पर वायुमंडल के दाबों में अंतर। वायुमंडल के विभिन्न भाग सदैव एक ही ताप पर नहीं रहते। उनमें सदा अंतर होता है। ये तापांतर ही वायुमंडल के विभिन्न क्षेत्रों के दाबों में अंतर उत्पन्न कर देते हैं। भौतिकी के एक प्रसिद्ध नियम के अनुसार “वायुमंडल के दाबों के असंतुलन को दूर करने के लिए ही पवन बहती है।” वह सदैव उच्च दाब वाले क्षेत्र से निम्न दाब वाले क्षेत्र की ओर बहती है। पवन को नाम उस दिशा के अनुसार दिया जाता है जिससे वह आ रही होती है। सागर पर पवन आमतौर से एक सी गति से और बिना किसी रुकावट के बहती हैं जबकि थल पर से बहते समय उसे पेड़-पौधों, पर्वतों अथवा मानव निर्मित संरचनाओं का सामना करना पड़ता है। ये वस्तुएं घर्षण उत्पन्न करती हैं। इसलिए थल पर पवन की गति एक समान नहीं रह पाती।
घर्षण के प्रभावस्वरूप भू-पृष्ठीय पवन सागर की तुलना में थल पर अधिक हलकी हो जाती है। आमतौर से धरती की सतह पर बहने वाली हल्की पवन में झोंके अधिक उत्पन्न होते हैं। ये झोंके वायु प्रवाह के विक्षोभों के कारण उत्पन्न होते हैं। धरती की सतह से लगभग 500 मीटर अथवा उससे अधिक ऊंचाई पर तेज और एकसमान गति से बहने वाली पवन को, भूपृष्ठ की ओर खींच लिए जाने के अक्सर विक्षोभ पैदा हो जाते हैं।
कुछ पवन हमेशा एक ही दिशा में बहती हैं जबकि कुछ अपनी दिशाएं बदलती रहती हैं। एक ही दिशा में बहने वाली पवन “स्थायी पवन” कहलाती हैं और दिशा बदलने वाली “अस्थायी पवन”।
अस्थायी पवन में वे पवन भी शामिल हैं जो दिन के समय एक दिशा में रहती हैं और रात के समय विपरीत दिशा में जल और थल समीरें तथा पर्वतों पर बहने वाली “आरोही” और “अवरोही” पवन ऐसी ही पवन हैं। पर कुछ अस्थायी पवन ऋतुओं-गर्मी और सर्दी के अनुसार अपनी दिशाएं बदलती हैं। मानसून इसी प्रकार की अस्थायी पवन हैं।
स्थायी पवन
आप पढ़ चुके हैं कि पृथ्वी के मध्य भाग में- भूमध्यरेखा के आसपास के क्षेत्र में- सूर्य की किरणें सदैव लगभग सीधी पड़ती रहती हैं। वैसे पृथ्वी की धुरी के झुकाव के कारण यह क्षेत्र कुछ सीमाओं में अपना स्थान बदलता रहता है। उत्तरी गर्मी में वह कर्क रेखा (23½0 उत्तर अक्षांश) के अधिक निकट आ जाता है तो दक्षिणी गर्मी में मकर रेखा (23½0 दक्षिण अक्षांश) के निकट।
सौर किरणों के सीधी पड़ने से भूमध्यरेखा के आसपास वर्ष भर गर्मी पड़ती है। इससे इस क्षेत्र की वायु गर्म हो जाती है और हल्की होकर ऊपर उठती रहती है। यहां पवन के बहने की दिशा हमेशा नीचे से ऊपर की ओर होती-क्षैतिज रूप में नहीं। ऊपर उठकर पवन का कुछ भाग उत्तर की ओर चला जाता है और कुछ दक्षिण की ओर लगभग 300 उत्तर और दक्षिण अक्षांशों तक पहुंचते-पहुंचते ये दोनों भाग ठंडे होने लगते हैं।
इन क्षेत्रों में ये पवन फिर से दो भागों में विभक्त हो जाती हैं। एक भाग ध्रुव की ओर चला जाता है जबकि दूसरा भाग 300 और 350 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र में, धरती की सतह पर उतर जाता है। ध्रुवों की ओर जाने वाला भाग बाद में प्रतिकूल व्यापारी पवन (पश्चिमी पवन) में सम्मिलित हो जाता है। ऐसा दोनों गोलार्धों में होता है।
यहां यह बता देना उपयुक्त होगा कि ऊंचाई के साथ-साथ पवन वेगमान होती जाती हैं। पवन के नीचे उतर आने से 30 से 350 अक्षाशों के बीच, अधिक दाब वाला, “शांत क्षेत्र” बन जाता है। इस क्षेत्र में पवन की हलचल बहुत कम होती है पर उनका दाब काफी अधिक होता है। इसलिए इन क्षेत्रों से पवन कम दाब वाले क्षेत्रों की ओर बहना आरंभ कर देती हैं। कम दाब वाले क्षेत्रों में एक भूमध्यरेखा के आसपास स्थित होता है और दूसरा दोनों गोलार्धों में 60-650 अक्षांशों के बीच इसलिए पवन दो भागों में विभक्त होकर इन दोनों क्षेत्रों की ओर बहने लगती है। 30-350 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र को नाविक “अश्व अक्षांश” (हॉर्स लैटीट्यूड) के नाम से पुकारते हैं यद्यपि इन क्षेत्रों का घोड़ों के साथ कोई संबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य युग में मध्य और दक्षिण अमेरिका को पद्दलित करने हेतु जाने वाली स्पेन की सेनाओं के अधिकांश घोड़े यूरोप से इस क्षेत्र तक पहुंचते-पहुंचते, लगातार हफ्तों तक शांत रहे आने के कारण, मर जाते थे और उन्हें समुद्र में फेंकना पड़ता था। अश्व अक्षांशों से भूमध्य रेखा की ओर बहने वाली पवन, “व्यापारी पवन” (ट्रेड विंड) कहलाती हैं। मंद, धीरे-धीरे बहन वाली इन पवनों का नामकरण “ट्रेड विंड” करने के पीछे कदाचित् “ट्रेड” शब्द का पुराना अर्थ “पाथ” (पथ) निहित है। इस प्रकार “ब्लो ट्रेड” का अर्थ हुआ “एक ही दिशा में निरंतर और स्थायी रूप से बहना।” व्यापारी पवन पर यह परिभाषा पूरी उतरती है। वे सदा एक ही दिशा में, एक ही पथ पर बहती रहती हैं।
व्यापारी पवन के भूमध्यरेखीय क्षेत्र में पहुंचने पर संवहन चक्र पूरा जो जाता है। वहां से उस पवन का, जो गर्म होकर ऊपर उठ गई थीं, स्थान ले लेती है। इस भूमध्यरैखिक संवहन चक्र को मौसमवैज्ञानिक आमतौर पर जार्ज हैडले के सम्मान में, जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में पहली बार इस प्रकार के चक्र का अस्तित्व सुझाया था, “हैडले चक्र” (हैडले सैल) भी कहते हैं।
ब्रिटिश वैज्ञानिक जार्ज हैडले (1685-1768) ने सर्वप्रथम, 1735 में, रॉयल सोसायटी के समक्ष अपने एक शोध-पत्र में यह सुझाया था कि पृथ्वी का घूमना भी, पवनों के बहने का एक कारण हो सकता है परंतु इस सुझाव की ओर उस समय तक किसी ने ध्यान नहीं दिया जब तक 60 वर्ष बाद, जॉन डाल्टन ने इसकी ओर ध्यान आकर्षित नहीं कराया।
यद्यपि उपर्युक्त वर्णन के अनुसार व्यापारी पवन को उत्तरी गोलार्ध में उत्तर दिशा से और दक्षिण गोलार्ध में दक्षिण दिशा से आना चाहिए परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता क्योंकि पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर, 1690 किमी. प्रति घंटे की गति से घूमती रहती है इसका प्रभाव व्यापारी पवन (यथार्थ में सब पवनों तथा जल धाराओं) पर भी पड़ता है। इस प्रभाव को “कोरिओलिस बल” कहा जाता है। यह नामकरण उन्नीसवीं सदी के फ्रेंच गणितज्ञ, गैसपर्द गुस्ताव द कोरिओलिस, के नाम पर किया गया जिन्होंने सर्वप्रथम इसका वर्णन किया था। वैसे परिशुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार कोरिओलिस बल वास्तव में “बल” है ही नहीं।
कोरिओलिस बल के अनुसार पृथ्वी के घूर्णन के फलस्वरूप उत्तरी गोलार्ध में हर गतिशील वस्तु का पथ दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्ध में बांयी ओर झुक जाता है। इसीलिए व्यापारी पवन उत्तरी गोलार्ध में उत्तर से दक्षिण की ओर न बहकर उत्तर-पूर्व में दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हैं तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण दिशा में न आकर दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं।
पश्चिमी पवन :
आप पढ़ चुके हैं कि भूमध्यरैखिक क्षेत्र से आने वाली पवन का केवल एक अंश ही 30-350 अक्षांश क्षेत्रों में नीचे उतरता है। दूसरा अंश ध्रुवों की ओर बढ़ता जाता है। इस अंश में अश्व अक्षांशों के उच्च दाब वाले क्षेत्रों से ध्रुवों की ओर बहने वाली पवन भी शामिल हो जाती हैं। कोरिओलिस बल के फलस्वरूप वे पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं। इसलिए वे उत्तरी गोलार्ध में दक्षिण-पश्चिम से और दक्षिणी गोलार्ध में उत्तर-पश्चिम से आती हैं। वे उस समय तक इन दिशाओं में बहती रहती हैं जब तक लगभग 600 अक्षांशों तक नहीं पहुंच जातीं। वहां, 60 से 650 अक्षांशों के बीच, पृथ्वी के घूर्णन के फलस्वरूप निम्न दाब वाले क्षेत्र बन जाते हैं। इसलिए ये वहां उतर जाती हैं।
व्यापारी पवन से विपरीत दिशाओं में बहने के कारण पहले इन्हें “प्रतिकूल व्यापारी पवन” (एंटीट्रेड विंड) कहा जाता था। पर पश्चिम दिशा (दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम) से आने के फलस्वरूप उनका “पश्चिमी पवन” (वेस्टरलीज़) नाम अधिक प्रचलित हो गया है।
पश्चिमी पवन व्यापारी पवन के समान मंद गति से नहीं बहती। उनकी गति काफी तेज होती है और अनेक क्षेत्रों में वे प्रचंड हो जाती हैं। इसका एक कारण यह भी है कि इनमें जेट प्रवाह शामिल हो जाते हैं। वैसे धरती की सतह पर भी पश्चिमी पवन की गति काफी तेज होती है। वास्तव में स्थायी पवनों में ये सबसे तेज बहने वाली पवन हैं। दक्षिणी गोलार्ध में, जहां थल अपेक्षाकृत कम है, ये हजारों किमी. तक बिना किसी रोक-टोक के सागर पर से बहती हैं। वहां ये लगभग तूफान जैसी स्थिति पैदा कर देती हैं। सागर में वे 18 मीटर जैसी ऊंची लहरें उत्पन्न कर देती हैं। ऐसा 40 से 500 दक्षिण अक्षांशों के बीच वाले क्षेत्र में अक्सर होता है। वहां ये बहुत शोर भी करती हैं। मध्य युग में छोटी-मोटी नौकाओं में यात्रा करने वाले नाविकों ने इनके भयानक शोर से घबराकर इन्हें “गरजती चालीसा” (रोरिंग फार्टीज़) जैसा विचित्र नाम दे दिया था। यह नाम आज भी प्रचलित है। पर कदाचित् प्रचंड गति से बहने वाली पश्चिमी पवन अपने इस नाम से “प्रसन्न” होकर शांत नहीं होतीं वरन् अपनी गति को और तीव्र कर देती हैं। वे और भयावह हो जाती है। उनकी यह गति लगभग 600 दक्षिण अक्षांश तक बनी रहती है। इसीलिए 50 से 600 दक्षिण अक्षांशों के बीच “भयानक पचासा” (फ्यूरियस फिफ्टीज़) और 600 से 700 दक्षिण अक्षांशों के बीच “चीखते साठा” (श्रीकिंग सिक्सटीज़) कहलाती हैं। उसके बाद उनकी गति काफी धीमी पड़ने लगती है। वास्तव में दोनों गोलार्धों में उन्हें 600 अक्षांशों के बाद ध्रुवों से आने वाली पुरवैया (ईस्टरलीज मील जाती है। इसीलिए ये 60-650 अक्षांशों के बीच के क्षेत्र में नीचे उतरने लगती हैं।
ध्रुवीय पूर्वी पवन धुर्वों से भी ठंडी, भारी, पवनें चारों ओर बहती हैं। उन पर भी कोरिओलिस बल के प्रभाव पड़ते हैं। इसलिए वे उत्तरी गोलार्ध में उत्तर से न आकर उत्तर-पूर्व से और दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण से न आकर दक्षिण-पूर्व से आती हैं।
जेट प्रवाह :
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अत्यंत ऊंची उड़ान भरते समय वायुयानों के पायलटों को एक विशेष अनुभव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जब वे प्रशांत महासागर पर से उच्च गति से, अमेरिका से जापान की ओर उड़ते थे, तब उनकी गति अपने-आप घट जाती थी। साथ ही पूर्व और पश्चिम दिशाओं में, समान दूरियों की उड़ान भरने में उन्हें अलग-अलग समय लगता था। बाद में शिकागों विश्वविद्यालय में कार्यरत, स्वीडन के मौसमवैज्ञानिक सी.जी. रॉसबी के नेतृत्व में इसके कारण ज्ञात करने के लिए गहन अध्ययन किए गए। उनमें पता चला कि धरती की सतह से लगभग 10 किमी. ऊंचाई पर 160 से 320 किमी. प्रति घंटे तक कि गति से पवन बहती रहती हैं। ये पवन ही वायुयानों की गति को कम कर देती थीं। ये घुमावदार होती हैं। रॉसबी ने इनका नाम “जेट प्रवाह” सुझाया था जो आज भी प्रचलित है। इनमें पवन की पट्टियां होती हैं। आमतौर से ये कुछ सौ किमी. दूरी तक बहने के बाद शांत हो जाती हैं। परंतु कुछ पृथ्वी की आधी से भी अधिक प्ररिक्रमा कर लेती हैं। इनमें पवन गति 30 से लेकर 150 मीटर प्रति सैकंड तक, कुछ भी हो सकती है।
प्रत्येक गोलार्ध में दो-दो जेट प्रवाह उपस्थित हैं- एक उपोष्ण क्षेत्र में और दूसरा ध्रुवीय क्षेत्र में। सर्दियों में ये अधिक प्रबल हो जाते हैं। ये आमतौर से पश्चिम से पूर्व की ओर बहते हैं पर इनमें पवन अपनी ऊंचाई और गति बदलती रहती है। इससे पवन की छल्ले जैसी आकृतियां बन जाती है। इन छल्लों की आकृतियां और स्थितियां भी निरंतर बदलती रहती हैं। यद्यपि जेट प्रवाह काफी ऊंचाई पर, क्षोभसीमा में, बहते हैं, परंतु ये निचले वायुमंडल के निम्न और उच्च दाब वाले क्षेत्रों को भी प्रभावित करते हैं। गर्मी में हमारे देश के दक्षिणी भाग से अफ्रीका के ऊपर तक बहने वाला प्रवाह ही एक मात्र ऐसा जेट प्रवाह है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहता है।
हमारे देश के दक्षिणी भाग से अदन की खाड़ी तक बहने वाले इस पूर्वी जेट प्रवाह की मौजूदगी के बारे में सबसे पहले सन् 1952 में, भारतीय मौसम वैज्ञानिक पी.आर. कृष्ण राव और पी. कोटेश्वरम् ने ही बताया था। बाद में इस पूर्वी जेट प्रवाह के गहन अध्ययन किए गए और आज हमें इसके बारे में काफी जानकारी है।
गर्मी की मानसून के मौसम में, बहने वाले इस पूर्वी जेट प्रवाह में पवन पश्चिमी जेट प्रवाह की तुलना में अधिक ऊंचाई पर (लगभग 13 किमी. ऊंचाई) पर बहती हैं। यह जेट तिरुअनन्तपुरम से लेकर कोलकाता तक फैला होता है और इसमें पवन की गति 100 नॉट से भी अधिक हो जाती है। यह अपनी स्थिति, मानसूनों के साथ उत्तर या दक्षिण की ओर बदलता रहता है। इसमें वायु की बहुत बड़ी मात्रा मौजूद होती है। यह वाष्प वर्षा के रूप में हमारे देश के ऊपर बरसती है।
भारत में हिमालय के दक्षिणी ढालों पर एक पश्चिमी जेट प्रवाह भी बहता है। सर्दियों में यह हिमालय के दक्षिण में स्थित होता है पर गर्मी की मानसून का आगमन होते ही यह हिमालय के उत्तर की ओर चला जाता है। इस बारे में यह सुझाया गया है कि इस जेट प्रवाह का उत्तर की ओर सरक जाना भारत के ऊपर मानसून आ जाने का प्रथम संकेत माना जा सकता है।
मौसमवैज्ञानिकों ने अफ्रीका के पूर्वी तट पर सोमालिया के निकट, गर्मी के ऋतु में, काफी कम ऊंचाई पर बहने वाले एक प्रबल पश्चिमी जेट प्रवाह का पता लगाया है। इसमें पवन 1.5 किमी. जैसी कम ऊंचाई पर, 60 से 100 नॉट की गति बहती पायी गई हैं। जून से सितंबर तक की अवधि में, जब गर्मी की मानसून अपने शिखर पर होती है, यह जेट प्रवाह 100 उत्तर अक्षांश के आसपास के क्षेत्र में अरब सागर से भारतीय प्रायद्वीप तक बहता रहता है।
यद्यपि जेट प्रवाहों में वायु की गति अत्यंत तीव्र-हरीकेन की गति से भी कहीं अधिक होती है पर क्षोभसीमा में स्थित होने के कारण इनमें वायु बहुत पतली होती है और इसमें निहित ऊर्जा धरती की सतह पर बहने वाली पवन की ऊर्जा से बहुत कम होती है। इसीलिए जेट प्रवाह किसी क्षेत्र के मौसम को उस प्रकार प्रभावित नहीं कर पाते जैसे चक्रवात करते हैं।
अस्थायी पवन
जल और थल समीर : सागर के तट के निकट के इलाकों में गर्मी और सर्दी के तापों में तथा दिन और रात के तापों में अधिक अंतर न हो पाने की कारण हैं जल और थल समीर।
सूर्य की ऊर्जा थल में कुछ सेमी. नीचे तक ही प्रवेश कर पाती है। इसलिए उसकी ऊपरी सतह का ताप काफी अधिक हो जाता है। उसके ऊपर की वायु भी गर्म हो जाती है और उसका दाब कम हो जाता है। उसकी तुलना में जल में सौर ऊर्जा लगभग 100 मीटर गहराई तक प्रवेश कर जाती है। साथ ही जल की ऊष्माधारिता थल की तुलना में लगभग 2.5 गुनी हैं। इसलिए जल का ताप बहुत कम बढ़ता है। उसके ऊपर की वायु अपेक्षाकृत कम गर्म होती है और उसका दाब थल के ऊपर की वायु के दाब की तुलना में काफी अधिक रहता है। वायु अपना दाब समान रखने के गुण के फलस्वरूप जल से थल की ओर बहने लगती है। यह “जल समीर” या “सागर समीर” कहलाती है।
परन्तु रात में हवा के बहने का “चक्र” उलट जाता है। थल जल की अपेक्षा अधिक मात्रा में ऊष्मा परावर्तित करता है। इसलिए जल की अपेक्षा उसका ताप कम हो जाता है। उस समय थल पर वायु का दाब अधिक होता है और जल पर कम। इसलिए वायु थल से जल की ओर बहने लगती है। इसकी वजह से थल का ताप उतना कम नहीं हो पाता जितना ठंडी वायु के उस पर जमा होने से होता।
उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों के तटीय इलाकों में जल और थल समीरें नियमित रूप से बहती है। पर समशीतोष्ण इलाकों में जल समीर की प्रवृत्ति “मौसमी” हो जाती है। वह अपेक्षाकृत गर्म मौसम में, विशेष रूप से जून और जुलाई के महीनों के दौरान ही, बहती है। वह आमतौर से दिन में 10 और 11 बजे के बीच आरंभ हो जाती है, दोपहर 2 बजे के करीब उसका बहाव मंद पड़ने लगता है और शाम के 7-8 बजे के बीच वह पूर्णतः समाप्त हो जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों में जल समीर को बहुत सुंदर नामों से पुकारा जाता है। चिली में इसे “विराजॉन” (Virazon), जिब्राल्टर में “दातू”, मोरक्को में “इम्बात” इटली में “पोनेन्ते” (Ponente), पवनई द्वीप में कपालिलुआ (Kapalilua) और अनेक अंग्रेजी भाषा-भाषी क्षेत्रों में “डॉक्टर” के नाम से पुकारा जाता है।
जल और थल समीरों के बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि जलवायु जितनी अधिक गर्म होगी ये समीर उतनी ही अधिक तेजी से और उतनी ही अधिक दूरी तक जाएंगी तथा उनमें वायु की मात्रा भी उतनी ही अधिक होगी। दोपहर के समय जब ताप सबसे अधिक होता है उनकी गति भी अधिकतम होती है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में उनकी गति आमतौर से 15 से 20 किमी. प्रति घंटा होती है पर गर्म इलाकों में वे 30 से 40 किमी. प्रति घंटा हैं। इसी प्रकार समशीतोष्ण क्षेत्रों में थल पर वे औसतन 15 किमी. ऊंचाई तक चली जाती हैं। इसके विपरीत उष्ण कटिबंध में वे 1200 मीटर या उससे भी अधिक ऊंचाई पर बहती हैं और थल पर लगभग 150 किमी. अंदर तक पहुंच जाती हैं। मानसून पवन भी जल और थल समीरों के सिद्धांत पर उत्पन्न होती और बहती हैं। इनकी उत्पत्ति तथा गतिविधियों के बारे में “वरुणदूत : मानसून” अध्याय में पढ़िए।
पवन के रौद्र रूप
लगभग 4 वर्ष पहले (1998 में) कांडला (गुजरात) में पवन के रौद्र रूप द्वारा विनाशकारी तांडव नृत्य को आसानी से नहीं भुलाया जा सकता। उस “नृत्य” ने सैकड़ों व्यक्तियों को काल के गाल में पहुंचा दिया था और अरबों रुपए मूल्य की संपत्ति नष्ट कर दी थी। यह पवन का ऐसा रौद्र रूप था जिसे किसी भी हालत में रोका नहीं जा सकता था। अधिक से अधिक उसके आगमन के बारे में पूर्वसूचना दी जा सकती थी जिससे लोग अपने बचाव के लिए ज्यादा से ज्यादा दूर चले जाने का प्रयत्न कर सकते थे।
कांडला में आने वाला चक्रवात कोई अनोखी प्राकृतिक घटना नहीं थी। ऐसी दुखद घटनाएं हमारे पूर्वी तट पर अक्सर ही और पश्चिमी तट पर कभी-कभी होती ही रहती हैं। साथ ही वे विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी, कहीं अधिक भयंकर रूप से भी घटती रहती हैं और कहीं अधिक विनाश का कारण बनती हैं।
नवंबर 1977 में, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के तट पर दो अत्यंत विनाशकारी चक्रवात आए थे। ये एक-दूसरे के कुछ दिनों के अंतर पर आए थे। बंगाल की खाड़ी में नवंबर 1977 के प्रथम सप्ताह में उत्पन्न चक्रवात ने 12 नवंबर को श्रीलंका के उत्तर से तमिलनाडु में प्रवेश किया था। वहां भयंकर तबाही मचाता हुआ और 400 से भी अधिक लोगों को मृत्यु की गोद में सुलाता हुआ वह पश्चिम की ओर बढ़ता गया और अरब सागर के तट को पार कर गया। पर तीन दिन बाद ही यह फिर लौट पड़ा और 22 नवंबर को पश्चिमी तट को पार करके फिर से हमारे देश में आ घुसा। वहां भी उसने काफी तबाही मचा दी थी। वहां इसने बहुत अधिक वर्षा की थी पर वह तमिलनाडु में मचायी उक्त तबाही की तुलना में बहुत कम थी।
अभी लोग उक्त विनाश लीला के कारण त्राहि-त्राहि कर ही रहे थे कि 18 नवंबर को एक अन्य चक्रवात फिर हमारे पूर्वी तट से देश में प्रवेश कर गया। इस बार वह उत्तर की ओर मुड़ गया। उसका असली निशाना बना आंध्र प्रदेश। वहां उसने 19 और 20 नवंबर को जमकर वर्षा की और सागर में बहुत ऊंची-ऊंची लहरें उत्पन्न की जो थल पर भी कई किमी. अंदर तक घुस आयीं इनसे करोड़ों रुपयों मूल्य की फसलें नष्ट हो गईं, हजारों मकान उजड़ गए और सैंकडों लोगों की जानें गईं।
पवन अक्सर ही अपने इन रौद्र रूपों को धारण करती रहती है। वह ऐसा उष्ण कटिबंधों में भी करती हैं और समशीतोष्ण कटिबंधों में भी। इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर भारत, बांग्लादेश और आस्ट्रेलिया तक, सब देशों के निवासी, विशेष रूप से इन देशों के तटीय प्रदेशों के निवासी, सदा ही इनसे त्रस्त रहते हैं। मौसमवैज्ञानिक पवन के इन रौद्र रूपों को अक्सर ही “साइक्लोन”, “टाइफून”, “टोरनेडो”, आदि नामों से पुकारते हैं। यद्यपि साधारण बोलचाल की भाषा में इनमें कोई अंतर नहीं होता परंतु मौसमवैज्ञानिकों के अनुसार ये भिन्न-भिन्न होते हैं। वैसे “साइक्लोन” का हिंदी पर्याय “चक्रवात” है। मौसमवैज्ञानिक “साइक्लोन” और हरीकेन में अंतर मानते हैं। इसलिए हम भी “साइक्लोन”, “हरिकेन”, “टाइफून” और “टॉरनेडो” को उनके प्रचलित अंग्रेजी नामों से ही पुकारेंगे।
आमतौर से बंगाल की खाड़ी, दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर और आस्ट्रेलिया के उत्तर में स्थित सागरों से आने वाले चक्रवातों को “साइक्लोन” कहा जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रशांत महासागर में विशेष रूप से चीन सागर में, उत्पन्न होने वाले चक्रवात “टाइफून” कहलाते हैं जबकि पश्चिमी अंध महासागर में उत्पन्न होने वाले चक्रवात “हरिकेन” आस्ट्रेलिया में आने वाले चक्रवातों को भी “हरिकेन” नाम से पुकारा जाता है।
साइक्लोन या उष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्ण कटिबंधों में उत्पन्न होने वाली “निम्न दाब पवन संचरण प्रणाली” है जिसमें पवन की गति 60 किमी. प्रति घंटा से अधिक परंतु 120 किमी. प्रति घंटे से कम होती है। बोफर्ट पैमाने के अनुसार पवन-गति 8 से अधिक पर 12 से कम होती है (परिशिष्ट ख भी देखिए)
हरिकेन और टाइफून एक ही प्रकार के चक्रवातों के अलग-अलग नाम हैं। ये साइक्लोनों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं। इनमें पवन की गति 120 किमी. प्रति घंटे से भी अधिक हो जाती है और ये साइक्लोनों की अपेक्षा अधिक बड़े क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।
इनसे कम शक्तिशाली चक्रवातों को मौसमवैज्ञानिकों “उष्ण कटिबंधीय तूफान” (ट्रॉपिकल स्टॉर्म) कहते हैं। यद्यपि इनमें भी बादल उपस्थित होते हैं और वे भी वर्षा करते हैं परंतु उनमें पवन की अधिकतम गति 17 से 30 मीटर प्रति सेकंड तक होती है। “उष्णकटिबंधीय अवनमन” (ट्रॉपिकल डिप्रैशन) में भी पवन की गति 17 मीटर प्रति सेकंड से कम होती है।
“हरिकेन” नाम की उत्पत्ति रेड इंडियनों के तूफान के देवता “हुर्रकन” के नाम से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है “विशाल पवन” । जब 15वीं शताब्दी में स्पेनवासियों ने वेस्टइंडीज में प्रवेश किया तब तक उन्हें अपने देश में कभी इतनी शक्तिशाली पवनों का सामना नहीं करना पड़ा था। इसलिए उन्होंने भी इन पवनओं को हुर्रकन (Hurrcan) कहना शुरू कर दिया। बाद में इसी से “हरिकेन” शब्द बना।
“टाइफून” नाम चीनी भाषा के “ताइफुंग” अर्थात पवन जो टकराती है शब्द से बना है। कुछ लोगों का यह मत भी है कि “टाइफून” शब्द यूनान के पौराणिक दैत्य “टाइफोन” से उत्पन्न हुआ है जबकि कुछ लोग इसकी उत्पत्ति तूफानी पवनों के जनक “टाइफोइकस” से मानते हैं।
उत्पत्ति :
साइक्लोन, हरीकेन और टाइफून के उत्पन्न होने की क्रियाएं एक जैसी ही होती हैं और उसके लिए दो वस्तुएं आवश्यक होती हैं वे हैं ऊष्मा और नमी। इसीलिए वे केवल उष्ण कटिबंधों में ही 5 से 200 अक्षांशों के बीच के क्षेत्रों में जहां सागर का ताप 270 सै. से अधिक होता है, उत्पन्न होते हैं। साथ उनका जन्म एक क्षुद्र विक्षोभ के रूप में होता है। यह विक्षोभ किस प्रकार इतना विशाल और रौद्र रूप धारण कर लेता है इस बारे में अब भी वैज्ञानिकों को पूर्ण जानकारी नहीं है पर वे जानते हैं कि इस क्रिया में क्षोभमंडल की ऊपरी और निचली परतों की पवनों के बीच अंतः क्रियाएं होती हैं। सामान्यतः उष्ण कटिबंधों में इन पवनों के बीच बहुत कम अंतःक्रियाएं होती हैं क्योंकि ऊपरी परतों की पवनें आमतौर से हल्की होती हैं और उनकी अभिसारी और अपसारी पैटर्न क्षीण होते हैं। परंतु जब ऊपरी अपसरण नवनिर्मित विक्षोभ के ऊपर से गुजरता है तब चूषण क्रिया आरंभ हो जाती है। यह अपसरण ऊपर उठती हुई वायु को “चूसने” लगता है जिससे सागर सतह पर होने वाली अभिसरण क्रिया प्रबल हो जाती है।
चक्रवात को पूर्ण रूप से विकसित होने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा की जरूरत होती है और यह ऊर्जा प्राप्त होती है जल वाष्प की गुप्त ऊष्मा से जब जल वाष्प द्रव में परिवर्तित होती है तब बड़ी मात्रा में (लगभग 536 कैलौरी प्रति ग्राम की दर से) ऊर्जा मुक्त होती है। निश्चय ही वह आसपास के वातावरण के ताप को बढ़ा देती है। इससे वायु गर्म होकर ऊपर उठती है और जैसे-जैसे वह अधिक गर्म होती जाती है उसके ऊपर उठने की दर भी तेज होती जाती है। इसके प्रभावस्वरूप सागर की सतह से और अधिक मात्रा में जल वाष्प से युक्त वायु ऊपर उठने लगती है जिससे और अधिक मात्रा में ऊष्मा मुक्त होने लगती है।
एक बार यह श्रृंखला-प्रक्रिया आरंभ हो जाने पर वह निरंतर चलती रहती है और चक्रवात पूरी तरह विकसित हो जाता है। उसमें वायु बहुत तेज गति से, सर्पिलाकार घूमती हुई, ऊपर उठने लगती है। विशाल कपासी मेघ उत्पन्न हो जाते हैं और उनसे मूसलाधार वर्षा होने लगती है। परंतु चक्रवात के अंतरतम भाग में जिसे उसकी “आंख” (आई) कहा जाता है, कोष्ण वायु धीरे-धीरे नीचे उतरती रहती है। चक्रवात के बाह्य अंगों में वायु का दाब बहुत उच्च होता है परंतु उसे अंतरतम भाग में वह निम्न रहता है उस भाग में न तो बादल रहते हैं और न वर्षा। वास्तव में “चक्रवात की आंख” बहुत “शांत क्षेत्र” रहता है।
अपने निर्माण के बाद चक्रवात पहले पश्चिम की ओर चलते हैं और फिर भूमध्यरैखिक क्षेत्र से अपना नाता तोड़ते हुए उत्तर या दक्षिण की ओर चल पड़ते हैं। यदि उनके मार्ग में थल आ जाता है। तब वे वहां तबाही मचा देते हैं परंतु कुछ दूरी तक जाते-जाते अपने ऊर्जा स्रोत से वंचित हो जाने के कारण-जल वाष्प युक्त वायु (जिससे वे वाष्प की गुप्त उष्मा प्राप्त करते रहते हैं) की सप्लाई समाप्त हो जाने पर- वे समाप्त हो जाते हैं वैसे यह “कुछ दूरी” कई सौ किमी. तक की दूरी भी हो सकती है।
यदि चक्रवात सागर पर ही रहे आते हैं, तब वे उस समय तक आगे रहते हैं जब तक उन्हें ठंडा पानी नहीं मिल जाता। वहां उनकी ऊर्जा सप्लाई समाप्त हो जाती है और शांत हो जाते हैं।
चक्रवातों के विकास के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि ऊपर उठने वाली वायु में जब वाष्प की मात्रा पर्याप्त नहीं होती अथवा वायु बहुत ठंडी होती है तब उपर्युक्त श्रृंखला प्रक्रिया आरंभ ही नहीं होती। इसीलिए हरीकेन केवल उष्ण कटिबंधों के कोष्ण सागरों के ऊपर ही, जहां ताप सदा 270 सै. से ऊपर रहता है, बन सकते हैं। इसी कारण वे थल पर चले जाने अथवा उष्ण कटिबंध से दूर चले जाने पर शीघ्र ही समाप्त हो जाते हैं। साथ ही हरीकेन भूमध्यरेखा पर तथा उसके उत्तर और दक्षिण में 50 अक्षांशों तक की संकरी पट्टी में पैदा नहीं हो सकते। इस पट्टी में कोरिओलिस बल अनुपस्थित होता है। वहां वायु को आरम्भिक घूर्णन बल नहीं मिल पाता। इसलिए वह किसी निम्न दाब वाले क्षेत्र के इर्द-गिर्द घूमना आरंभ नहीं कर पाती। साथ ही इस संकरी पट्टी में जब कभी निम्न दाब क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है तब आसपास की वायु शीघ्र ही वहां पहुंच जाती है। पर इस पट्टी के बाहर कोरिओलिस बल अपना प्रभाव दिखाने लगता है और निम्न दाब वाले क्षेत्र की ओर तेजी से आती हुई वायु को मोड़ देता है। इससे वायु सर्पिलाकार घूमना आरंभ कर देती है।
हरीकेन :
हरीकेन स्यवं को जीवित रखने के लिए एक बहुत दक्ष क्रियाविधि का उपयोग करता है। जल वाष्प से युक्त वायु केंद्र की ओर जाते समय कुंडली की भांति घूमती हुई ऊपर उठती है और तब वह वलय कपासी मेघों की दीवार जैसी आकृति बना देती है। इस दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा वायु को और ऊपर उठाने के लिए प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार मेघ, वर्षा और प्रचंड पवन की लगभग 20 किमी. मोटी एक पट्टी बन जाती है। यह पट्टी हरीकेन के केंद्र से लगभग 30 किमी. दूर होती है। इस पट्टी से बाहर मेघ बिखरे होते हैं, वर्षा झोंकों में होती है और पवन का वेग काफी कम होता है। ऊपरी क्षोभमंडल में जल की बुंदकियां बर्फ के रवों में बदल जाती हैं। इनसे कपासी मेघ बन जाते हैं।
ये मेघ पवन के घूमने के फलस्वरूप एक “फैलती हुई अपसारी कुंडली” की आकृति धारण कर लेते हैं। इसलिए उपग्रह से हरीकेन का चित्र लेने पर वह “सर्पिल नीहारिका” सदृश्य दिखता है।
हरीकेन का आंतरिक भाग आमतौर से मेघों से मुक्त होता है। उसमें कोष्ण वायु, मंद गति से नीचे की ओर आती रहती है। वहां दाब भी बहुत कम होता है। वहां धरती की सतह पर ताप बहुत थोड़ा बढ़ता है परंतु क्षोभमंडल के मध्य में, लगभग 5.5 किमी. की ऊंचाई पर (लगभग 500 मिलीबार दाब पर), ताप काफी अधिक हो सकता है। उतनी ऊंचाई पर हरीकेन के बाह्य भाग का ताप 200 सैं. तक हो सकता है।
हरीकेन का यह कोष्णतर आंतरिक भाग उसका एक आवश्यक अंग होता है। उसी की वजह से उसकी आंख पर कम दाब बना रहता है और आसपास की वायु निरंतर उस की ओर खिंचती रहती है।
यद्यपि कोई भी दो हरीकेन एकदम समान नहीं होते फिर भी एक सामान्य “प्रौढ़” हरिकेन का व्यास 600 किमी. जैसा विशाल हो सकता है जिसमें वायु घूमती हुई, उसके केंद्र की ओर, 50 मीटर प्रति सेकेंड की गति से बहती है। उसकी आंख का व्यास 6 से लेकिर 40 किमी. तक कितना भी बड़ा हो सकता है। हरीकेन के केंद्र में दाब 950 मिलीबार जैसा कम होता है, यद्यपि सर्वाधिक ज्ञात निम्न दाब 870 मिलीबार पाया गया। अक्तूबर 1979 में गॉम द्वीप (प्रशांत महासागर) पर से गुजरने वाले एक हरीकेन का व्यास 2220 किमी. था और उसमें पवन की अधिकतम गति 85 मीटर प्रति सैंकड जैसी तीव्र थी। यह गति इतनी अधिक थी कि आंधी में उड़ता हुआ लकड़ी का एक पटिया नारियल के पेड़ को काटता हुआ निकल गया था और छतों पर कीलों से कसी टिन की चादरें उतर कर पत्तों की भांति उड़ने लगी थीं।
हरीकेनों के विस्तार और वेग के समान ही उनके द्वारा की जाने वाली वर्षा की मात्रा भी बहुत अधिक होती है। एक हरीकेन के दौरान 80 से 150 मिमी. वर्षा हो जाना आम बात है। यद्यपि जब पवन की गति 25 मीटर प्रति सैकंड से अधिक हो जाती है तब प्रचलित वर्षामापक यंत्र वर्षा को मापने में असमर्थ हो जाते हैं। उस समय अधिकांश पानी की बूंदे पवन के साथ “उड़” जाती हैं।
कुछ हरीकेनों के वर्षा करने के रिकार्ड वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। वर्ष 1896 में मॉरीशस में आए एक हरीकेन ने चार दिनों में 1200 मिमी. (47 इंच) पानी बरसा दिया था। पर बागुइओ (फिलीपीन) में वर्ष 1911 में हरीकेन ने केवल एक ही दिन में 1170 मिमी. (46 इंच) वर्षा कर दी थी। विचित्र बात यह थी कि इतना पानी बरसा देने के बाद भी उसका “गुस्सा” ठंडा नहीं हुआ था। अतएव वह और तीन दिन तक पानी बरसाता रहा था। इस प्रकार चार दिनों में उसने कुल 2200 मिमी. (56 इंच) पानी बरसाया था। इतनी अधिक वर्षा का एक कारण जल वाष्प से भरी पवन का जबरदस्ती ऊपर उठना भी था। वैसे मैदानों में भी हरीकेन भयंकर वर्षा कर देते हैं।
इतनी भारी वर्षा के लिए ऊर्जा की बहुत विशाल मात्रा चाहिए। यह ऊर्जा पवन में उपस्थित जल वाष्प के पानी में परिवर्तित होने के फलस्वरूप प्राप्त होती है। यही ऊर्जा चक्रवात को आगे बढ़ने में मदद देती है। ऊर्जा की इस मात्रा का अनुमान एक आम हरीकेन के मेघों से मुक्त होने वाली ऊर्जा से लगाया जा सकता है। वह 10x1012 किलोवाट-अवर प्रति दिन जैसी होती है। यह मात्रा संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश, जो विश्व में सबसे अधिक ऊर्जा का उत्पादन करता है, के वार्षिक उत्पादन से 1000 गुनी अधिक है।
जिस वस्तु में इतनी ऊर्जा भरी हो वह कितना कहर ढा सकता है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। एक अकेला हरीकेन किसी भी छोटे द्वीप का सम्पूर्ण भूगोल ही बदल सकता है। वह उन संरचनाओं को, जो हजारों वर्षों से सामान्य मौसम के थपेड़ें खाकर भी भलीभांति खड़ी रहती हैं, पल भर में, समूल नष्ट कर सकता है। हरीकेन की वेगवान पवनें कुछ घंटों में ही खड़ी फसलों को एकदम तहस-नहस कर सकती हैं। वे पूरी बस्ती को उजाड़ सकती हैं। भाग्यवश ऐसे हरीकेन बहुत कम आते हैं।
हरीकेन के समशीतोष्ण कटिबंध में प्रवेश कर जाने पर उसका व्यवहार बदल जाता है। वहां वह आमतौर पर एक साधारण-सा तूफान बन कर ही रह जाता है। परन्तु वहां पश्चिमी पवनों की निम्न दाब की सक्रिय, नम, द्रोणिका मिल जाने पर उसे पुनःजीवन मिल जाता है।
सागर से थल पर आ जाने के तुरन्त बाद हरीकेन धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। उसके निचले भाग में बहने वाली पवन पर्याप्त रूप से नम नहीं रह पाती। फलस्वरूप हरीकेन को समुचित मात्रा में ऊर्जा नहीं मिल पाती और वह धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। उसकी आंख “लुप्त” हो जाती है और पवनों की गति धीमी हो जाती है। जहां तक उसके द्वारा की जाने वाली वर्षा का प्रश्न है उसमें वृद्धि होने लगती है क्योंकि अब पवन को, उस समय की तुलना में जब हरीकेन सागर पर था, अधिक घर्षण सहन करना पड़ता है। इससे वह धीमी तो पड़ती ही है साथ ही हरीकेन की आंख की ओर भी मुड़ जाती है। वहां वह ऊपर की ओर उठती है और अपने में भरी हुई जल वाष्प को अधिक से अधिक मात्रा में त्याग देती है। इससे काफी बड़े क्षेत्र पर जोर की वर्षा होती है। यद्यपि हरीकेन का सागर से थल की ओर आगमन उसके ‘अंत की शुरूआत’ होती है पर इसी स्थिति में वह सर्वाधिक प्रलयकारी होता है।
टोरनेडोः-
जहां तक एक सीमित क्षेत्र में प्रचंड विनाश लीला करने का प्रश्न है कोई भी तूफान, आंधी, झंझा इतना प्रलयकारी नहीं होता जितना टोरनेडो। वैसे टोरनेडो भी हरीकेनों की भांति अत्यंत चंचल, वेगवान, शक्तिशाली वायुराशि होती है जो निम्न दाब के क्षेत्र के इर्द-गिर्द, सर्पिल आकार में, अत्यंत तेजी से घूमती है। परन्तु दोनों की समानता यहां ही समाप्त हो जाती है। एक आम हरीकेन का व्यास 500 किमी. तक हो सकता है जबकि एक बड़े टोरनेडो का व्यास केवल 500 मीटर ही होता है। छोटे टोरनेडो तो व्यास में 50 मीटर ही होते हैं। वे भूमि पर केवल 100 फुट (30 मीटर) तक जा सकते हैं और 100 मील (160 किमी.) तक भी। जब टोरनेडो पूरे ‘जोश’ में होता है तब वास्तव में बादलों मे से एक पतली-सी धारा निकल कर धरती तक आ जाती है। आमतौर से इस धारा की आकृति चाड़ी जैसी होती है-ऊपर से चौड़ी और नीचे से पतली। पर उसकी आकृति हाथी की सूंड जैसी पतली, अथवा बटी हुई रस्सी जैसी भी हो सकती है। यद्यपि हरिकेन काफी बड़े क्षेत्र में, काफी देर तक तबाही मचाता रहता है पर उसकी विनाश लीला की भयंकरता इतनी अधिक नहीं होती जितनी टोरनेडो की छोटे क्षेत्र में होती है। यह विनाश लीला कुछ मिनटों में ही सम्पन्न हो जाती है।
“टोरनेडो” शब्द की उत्पत्ति स्पेनिश भाषा के “त्रोनादा” (tronada) से हुई है जिसका अर्थ है “तड़ित झंझा” यानी तेज आंधी, काले मेघ मसूलाधार वर्षा बिजली का रह-रह कर चमकना। वास्तव में टोरनेडो में ये सब होते हैं और साथ ही होती है एक हरी-पीली रोशनी जो रह-रह कर चमकती रहती है और पूरे इलाके को रोशन करती रहती है। इससे काले बादल आश्चर्यजनक रूप से हरे और पीले दिखने लगते हैं। टोरनेडो में भयंकर गडगड़ाहट होती है जो ऐसी लगती है मानों कहीं निकट ही हजारों एक्सप्रेस गाड़ियां पूरी रफ्तार से दौड़ रही हों। यद्यपि टोरनेडो पृथ्वी के अनेक भागों में आते हैं परंतु जितनी जल्दी-जल्दी और जितने भयंकर रूप में वे संयुक्त राज्य अमेरिका में आते हैं उतने अन्य किसी क्षेत्र में नहीं। वहां हर वर्ष 500 से 600 तक टोरनेडो आते हैं। वहां भी एक पट्टी है जो टेक्सास से आरंभ होकर कंसास होती हुई इलीनॉय तक और उसके बाद कनाडा तक चली जाती है। यह विशेष रूप से “टोरनेडो-ग्रस्त” क्षेत्र है। इस पट्टी में ही सबसे अधिक टोरनेडो आते हैं। वैसे तो टोरनेडो वर्ष के किसी भी समय आ सकते हैं पर अप्रैल से सितम्बर तक का समय इनका “मनपसंद” समय है। उस दौरान ये सबसे अधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें से अधिकांश दोपहर बाद, दिन के सर्वाधिक गर्म भाग के बीत जाने के बाद आते हैं।
हरीकेन की भांति टोरनेडो के अंदरूनी भाग में भी वायु का दाब कम होता है पर वह हरीकेन की अपेक्षा बहुत कम होता है। इसिलिए जब टोरनेडो किसी इमारत पर से गुजरता है उस समय इमारत के इर्द-गिर्द के क्षेत्र की वायु का दाब इमारत के अंदर के वायु दाब से बहुत कम हो जाता है। इससे इमारत अक्सर फट जाती है। साथ ही टोरनेडो में अत्यंत वेग से ऊपर उठती पवन इतनी शक्तिशाली होती है कि अक्सर ही जानवरों या आदमियों को अपने साथ उड़ा ले जाती है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार जब तीव्र गति से बहने वाली ठंडी, सूखी, वायु नम, कोष्ण वायु के नीचे न जाकर उसके ऊपर चली जाती है तब भयंकर असन्तुलन पैदा हो जाता है। उस समय कोष्ण वायु बहुत तीव्र गति से कभी-कभी 300 किमी. जैसी तीव्र गति से ऊपर उठने लगती है। बाजुओं से बहने वाले प्रवाह इस वायु को घुमा देते हैं। इस प्रकार जो भंवर पैदा हो जाता है वह घूमने लगता है। इससे टोरनेडो उत्पन्न होता है।
यद्यपि टोरनेडो की प्रबल वातावर्त (वर्लविंड) की गति अब तक भी सही-सही मापी नहीं जा सकी है, क्योंकि कोई भी यंत्र टोरनेडो के अंधड़ के सामने टिक नहीं पाता, परन्तु परोक्ष तरीकों से लगाए गए अनुमानों से वह 150 से 250 मील (240 से 400 किमी.) प्रति घंटे तक होती है। साथ ही टोरनेडो के किनारों पर छोटे-छोटे सहायक वर्त लगातार बनते-बिगड़ते रहते हैं और झोंके उत्पन्न करते रहते हैं। ये झोंके मुख्य पवन प्रवाह से कहीं अधिक शक्तिशाली और विनाशकारी होते हैं।
टोरनेडों के इतने शक्तिशाली होने के कारण उनकी संहारक शक्ति भी बहुत अधिक होती है। वे न केवल झोपड़ियों की छतों को उड़ा देते है, उनकी दीवारों को भी गिरा देते हैं वरन् पक्की इमारतों की खिड़कियों, दरवाजों को तोड़ते हुए उन्हें भी तहस-नहस कर देते हैं। वे खड़ी फसलों को नष्ट कर देते हैं, पेड़ों को उखाड़ देते हैं, बिजली के खम्भों को गिरा देते हैं, और वे भी अपने साथ भयंकर वर्षा लाते हैं। भयंकर गति से बहती हुई आंधी में इतनी ताकत होती है कि रेलगाड़ी के भारी इंजन भी अपनी पटरी से नीचे गिर जाते हैं। हल्की मोटर कारें तो आंधी के साथ उड़ ही जाती हैं। इस भयंकर आंधी में बंदूक की गोली की गति से उड़ते धूल कण लोगों के मांस में घुस जाते हैं। विडम्बना यह है कि टोरनेडो की गिरफ्त में फंसे लोगों को पक्की इमारतें भी पूर्ण सुरक्षा प्रदान नहीं कर पातीं क्योंकि टोरनेडो के समक्ष वे स्वयं को ‘असहाय महसूस करने लगती हैं।’ इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे प्रगतिशील देश में भी टोरनेडो से हर वर्ष सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो जाती है और करोड़ो-अरबों डालर मूल्य की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है।
टोरनेडो के बारे में एक विचित्र तथ्य यह है कि सन् 1916 के बाद से टोरनेडो की संख्या में अचानक वृद्धि हो गई है। अधिकांश व्यक्ति इसका कारण टोरनेडो के आगमन की सूचना देने वाली प्रणाली की बढ़ी हुई दक्षता को बताते हैं। पर कुछ लोगों का मत है कि टोरनेडो की उत्पत्ति और सूर्य के धब्बों के आगमन चक्र के बीच घनिष्ठ संबंध हो सकता है। जैसा कि आप जानते हैं कि सूर्य के धब्बों की क्रियाशीलता में वृद्धि के चक्र का काल 11 वर्ष कुछ अधिक होता है। ऐसे चार चक्र-कालों तक (लगभग 45 वर्षों तक) टोरनेडो की संख्या में वृद्धि होती रहती है। बाद में अगले 45 वर्ष के चक्र में वह घटने लगती है। पर इस बारे में कोई स्पष्ट सम्बंध स्थापित करने से पहले काफी शोध और अध्ययन करने होंगे।
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