पूर्वजों ने संजोया हमने खोया

राजस्थान में प्राचीन काल से ही पानी को घी से भी ज्यादा मूल्यवान माना गया है। विडंबना की बात यह है कि पूर्वजों द्वारा संजोकर रखी गई यह अनमोल धरोहर अब धरती के गर्भ में समाती जा रही है । सतही जल के अंधाधुंध दोहन और बेजां इस्तेमाल के कारण राजस्थान में 239 में से 207 ब्लॉक डार्क जोन (सूखा क्षेत्र) घोषित किए जा चुके है । इन 207 ब्लॉक में बस इतना ही पानी बचा है जिससे कुछ साल तक यहां के बाशिंदों की प्यास तो बुझ सकती है लेकिन खेती-बाड़ी और पानी का दूसरे कामों में इस्तेमाल मुश्किल है । अंधाधुंध दोहन का ही नतीजा है कि पिछले तीस साल में राजस्थान में भूजल स्तर दस से 30 मीटर तक नीचे चला गया है।

जिस राजस्थान में जल सहेजने की प्राचीन परंपरा रही है वहीं उसके अंधाधुंध दोहन से सूखा क्षेत्र बढ़ रहा है । सरकार की कोशिशें नाकाम हैं

पिछले दो साल से राजस्थान पर मानसून मेहरबान है । राज्य के ज्यादातर इलाकों में हुई वर्षा के जल को संजोकर रखने के लिए किसी तरह के इंतजाम नहीं हुए । नतीजतन, मानसून के आगमन के साथ ही लाखों बिलियन क्यूबिक फुट पानी व्यर्थ बहे जा रहा है । अरावली पर्वत श्रृंखला के दोनों तरफ बसे राजस्थान में वर्षा जल संरक्षण की अपार संभावनाएं हैं । अरावली के पश्चिम भाग का अधिकांश इलाका रेगिस्तानी है जिससे यहां वर्षा जल के पुनर्भरण की संभावना अधिक है । पश्चिम राजस्थान में औसतन 150 से लेकर 500 मिलीमीटर तक वर्षा होती है । उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में गिने जाने वाले गंगानगर, हनुमानगढ़, जैसलमेर, बाड़मेर, जालौर, नागौर, चूरू, सीकर, झुंझुनूं, जोधपुर, पाली में तापमान अधिक होने के कारण पानी का वाष्पीकरण बहुत तेज गति से होता है जिससे यहां बरसात का पानी हाथो-हाथ सूख जाता है । ऐसे में वर्षा जल पुनर्भरण ढांचे बनाकर इस क्षेत्र में वर्षा जल को सीधे धरती के गर्भ में भेजा जा सकता है । इसके अलावा, इस क्षेत्र में भूगर्भ के नीचे स्थित एक्वाफायर पानी के संरक्षण में अधिक कारगर साबित हो सकते हैं । लाठी बेसिन एक्वाफायर, नागौर-पलाना बेसिन एक्वाफायर, नागौर-जोधपुर-पाली बेसिन एक्वाफायर, झुंझुनूं-सीकर-नागौर बेसिन एक्वाफायर और नागौर-चूरू-बीकानेर बेसिन एक्वाफायर में 92 से 93 बिलियन क्यूबिक मीटर वर्षा जल संरक्षित हो सकता है, जो पूरे राजस्थान की डेढ़ से दो साल तक प्यास बुझा सकता है । इन एक्वाफायर में फिलहाल महज 20 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी ही संग्रहीत है ।

पूरे देश का 10.04 प्रतिशत क्षेत्रफल और पांच प्रतिशत जनसंख्या होने के बावजूद राजस्थान में पानी की मात्रा महज 1.11 फीसदी ही है । इसमें से भी दोहन योग्य जल की मात्रा केवल 1.72 प्रतिशत है । राजस्थान में पानी की कमी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद के 63 साल में राजस्थान ने 43 बार अकाल की विभीषिका झेली है । खारे पानी व फ्लोराइड की समस्या राजस्थान में सबसे ज्यादा है । भारत के 33,290 क्षेत्र खारे पानी वाले हैं जबकि अकेले राजस्थान में ऐसे क्षेत्रों की तादाद 16,344 है ।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल में 'पानी बचाओ-बिजली बचाओ-सबको पढ़ाओ' नारा दिया था । इस बार उन्होंने वर्षा जल संरक्षित करने का कानून बनाया है । दूसरी बार सत्ता संभालते ही अशोक गहलोत ने जल पुनर्भरण एक्ट में संशोधन कर शहरी क्षेत्रों में 300 वर्गमीटर से बड़े मकानों में वर्षा जल पुनर्भरण संयंत्र अनिवार्य रूप से लगाने का प्रावधान लागू किया । इस एक्ट में पानी के बेजां इस्तेमाल पर सजा का प्रावधान किया गया है । इसमें सात दिनों से लेकर तीन माह तक की कैद और 25 हजार से एक लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है । हालांकि पिछले डेढ़ साल में राज्य में एक भी व्यक्ति को गलत तरीके से जलदोहन के लिए दंडित नहीं किया गया है।

राजस्थान में बेहतर जल प्रबंधन के लिए मुहिम चला रही जलसेना के अध्यक्ष रामसिंह कस्वां का मानना है कि इस मामले में सबसे ज्यादा दोषी सरकारी अफसर हैं जिन्होंने कानून के पालन के लिए समुचित के प्रयास नहीं किए । राजधानी जयपुर में ज्यादातर मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों को 300 वर्ग मीटर से बड़े बंगले मिले हुए हैं लेकिन किसी भी अफसर ने अपने बंगले में वर्षा जल पुनर्भरण संयत्र लगाने की जहमत नहीं उठाई । मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और जल संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा के सरकारी आवास के अलावा एक भी मंत्री के आवास में वर्षा जल पुनर्भरण संयंत्र नहीं लगाए गए हैं । सचिवालय, राजभवन और जलदाय विभाग के कार्यालय को छोड़कर एक भी सरकारी विभाग में यह संयंत्र नहीं है । हजारों वर्ग मीटर क्षेत्र में फैले सचिवालय में जहां 25-30 वर्षा जल पुनर्भरण संयंत्र लगने चाहिए थे, वहां अब तक महज दो संयत्र ही लगाए गए हैं । जल सेना के एक आकलन के अनुसार राजस्थान में 300 वर्ग मीटर से बड़ी 92-93 फीसदी इमारतें ऐसी हैं जिनमें यह संयंत्र नहीं लगाए गए हैं । राजधानी जयपुर में ही इस दायरे में आने वाली डेढ़ लाख इमारतें ऐसी हैं जिनमें यह ढांचा ही विकसित नहीं किया गया है ।

रामसिंह कस्वां का मानना है कि राज्य सरकार को सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर पद्धति को प्रोत्साहन देना चाहिए क्योंकि इससे सिंचाई होने पर पानी की 40 प्रतिशत तक बचत होती है तथा उपज भी 15-20 फीसदी तक बढ़ जाती है । राज्य के नहरी क्षेत्रों में भी यदि यह व्यवस्था लागू कर दी जाती है तो प्रदेश में सिंचित क्षेत्र का आकार 14 लाख हेक्टेयर से बढ़ाकर 20 लाख हेक्टेयर तक किया जा सकता है ।

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