विशाल भारत- जैसे दुनिया में बहुत कम देश हैं जिनकी कृषि मौसमी वर्षा पर निर्भर करती है। इसी विशेषता की वजह से भारतीय कृषि व्यवसाय एक अलग ढंग का कार्य है। यहां कृषि उपज तथा विभिन्न प्रकार की फसलों की पैदावार बहुत हद तक मानसूनी वर्षा के परिणाम और उसकी सामयिकता से संबंधित हैं। यह सुविदित तथ्य है कि यहां की जनसंख्या का अधिकांश भाग परंपरागत कृषि कार्य में लगा है। साथ ही तेजी से बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्यान्न उपलब्ध करा पाना एक समस्या तथा राष्ट्रीय चुनौती है। देश की आबादी एक अरब से ऊपर हो गई है। इसके लिए हमें 2000 लाख टन से अधिक खाद्यान्न की जरूरत है। ऐसी स्थिति में आबादी और कृषि उत्पादन में संतुलन बनाए रखने के लिए कृषि-उत्पादन की सालाना विकास दर पांच प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए।
मानसूनी जलवायु की कई ऐसी विशेषताएं है, जिन्हें समयानुसार किसी क्षेत्र के लिए वरदान कहा जा सकता है। लेकिन यदि समय से वर्षा न हुई तो कृषि के लिए यही वरदान अभिशाप बन जाता है। ऐसी घटना पिछले दशक में वर्ष 1979 में हुई जबकि समयानुसार मानसूनी वर्षा नहीं हुई। फलस्वरुप कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ और उत्पादन में पंद्रह से बीस प्रतिशत की कमी आ गई थी। ऐसी स्थिति में केवल खाद्यान्न में ही कमी नहीं होती है, बल्कि राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होती है। महंगाई बढ़ती है तथा कई सामग्रियों के आयात की विवशता हो जाती है। कई क्षेत्रों में सूखे और अकाल के कारण अनेक प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं।
मूलतः कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की आर्थिक गतिविधियां कृषि-उत्पादन से जुड़ी हैं। विकासशील आर्थिक व्यवस्था में प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने के साथ ही अच्छे जीवन-यापन की लालसा में खाद्य-सामग्री की मांग भी बढ़ती जाती है, जिससे कृषि पर उत्तरोत्तर दबाव पड़ता है। स्वतंत्रता के पचास वर्षों बाद कृषि-उत्पादन की बढ़ोतरी की दर तीन प्रतिशत के करीब है, जबकि आर्थिक विश्लेषण तथा अनुमान के आधार पर पांच प्रतिशत की सालाना दर होनी चाहिए। कृषि उपज बढाने के लिए उर्वरकों तथा देशी खाद के इस्तेमाल पर जोर देने की बात भी कही गई है। इस सुझाव से सहमत होते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने जल-प्रबंध के महत्व पर भी विचार किया है। ऐसा अनुमान किया गया है कि यथेष्ट मात्रा में उर्वरकों के उपयोग तथा समुचित जल प्रबंधन के द्वारा कृषि-उत्पादन में पंद्रह से बीस प्रतिशत वृद्धि की जा सकती है।
कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए किए जा रहे अनेक उपायों से अच्छे परिणाम मिलने की संभावना है। लेकिन इस संदर्भ में यह तथ्य भी उजागर है कि जल प्रबंधन, उर्वरकों का उपयोग तथा कृषि कार्य के नित नई तकनीकों के अपनाए जाने के बावजूद भारतीय कृषि की जलवायु पर निर्भरता बनी रहेगी। वैज्ञानिकों के द्वारा किए जा रहे अथक प्रयासों के अच्छे परिणाम मिलते रहे हैं। फिर भी भारतीय कृषि की मानसूनी जल वर्षा पर निर्भरता को समाप्त नहीं किया जा सकता है। हां, पिछले दशकों में भारतीय कृषि की पूर्ण निर्भरता को कम करने के प्रयास में कुछ सफलता मिली है। यह कार्य मौसम विज्ञान के द्वारा जल वर्षा के पूर्वानुमान से संभव हो सका है। इस कार्य के लिए भारत के अलावा एशिया के अन्य देश तथा विश्व संगठन के वैज्ञानिक भी प्रयत्नशील हैं।
मानसून की वर्षा और उसके पूर्वानुमान के लिए भारतीय मौसमविज्ञान विभाग की भूमिका सराहनीय कही जा सकती है। मौसम वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए संपूर्ण भारत को पैंतीस उपमंडलों में विभाजित किया गया है और वहां से प्रति दिन मौसम संबंधी सूचनाएं प्राप्त की जाती हैं। ऐसे प्रत्येक उपमंडल में जिला स्तर पर कई मौसम वैज्ञानिक केंद्र स्थापित किए गए हैं जिनकी सहायता से क्षेत्रीय तथा उपक्षेत्रीय स्तर पर मौसम में हो रहे दैनिक परिवर्तनों का समुचित आकलन किया जाता रहे।
इस संदर्भ में यह ध्यान देने की बात है कि भारत-जैसे विशाल देश के लिए केवल राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक स्तर पर नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर मौसम का पूर्वानुमान देना भी अपेक्षित है। लेकिन प्रचलित मौसम पूर्वानुमान पद्धति के अनुसार क्षेत्रीय अथवा स्थानीय रूप में दीर्घावधि अनुमान देना कठिन होता है।
भारत के किसान मौसम-पूर्वानुमान के मामले में सबसे अधिक महत्व वर्षा तथा उसकी मात्रा को देते हैं जबकि मानसूनी प्रकार की जलवायु में वर्षा की सही मात्रा का अनुमान कर पाना कठिन होता है। विशेषकर क्षेत्रीय तथा जिला स्तर पर मानसून के समय वर्षा की मात्रा का अनुमान प्रायः गलत हो जाया करता है। फलस्वरूप किसानों में अवांछित असंतोष फैलने लगता है और मौसम-पूर्वानुमान पद्धति से विश्वास उठने लगता है, जो उचित नहीं है।
मानसूनी जलवायु के अंतर्गत पूर्वानुमान में जल वर्षा की मात्रा बता पाना कठिन है, किंतु उससे भी कठिन कार्य उसके सामयिक वितरण का है। बरसात के मौसम में अपनी मतवाली चाल के लिए मानसूनी पवन सदैव कुख्यात रहा है। विशेषकर धान उपजाने वाले क्षेत्रों में जब जल वर्षा की अधिक जरूरत रही है, तब किसानों पर क्या बीतती है, यह कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। इससे भी अधिक दुखदायी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब मेघ प्रस्फोट यानी ‘बादल फटने’ (क्लाउड बर्स्ट) की वजह से अचानक अवांछित रूप में भारी हो जाती है और खेतों में लगी फसल बरबाद हो जाती है।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की कार्य पद्धति के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर पूर्वानुमान को दो मुख्य वर्गों में विभाजित कर प्रचलित किया जाता रहा है। प्रथम दीर्घकालीन तथा द्वितीय-अल्पकालीन या अल्पावधि के पूर्वानुमान। राष्ट्रीय स्तर पर दीर्घावधि अर्थात एक सप्ताह के पूर्वानुमान को सामान्यतः उचित (साठ से सत्तर प्रतिशत) मान्यता मिलती रही है। किंतु क्षेत्रीय अथवा जिला स्तर पर एक सप्ताह का पूर्वानुमान भी कठिन होता है और सदैव संदिग्ध रहता है।
इस दिशा में उचित क्षमता प्राप्त करने के लिए पिछले दो दशकों से अनेक प्राकर के वैज्ञानिक प्रयास किए जाते रहे हैं।
भारतीय कृषि फसलों की स्थिति, कृषि कार्य की परिपाटी और ग्रामीण किसानों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अल्पावधि पूर्वानुमान तैयार करने तथा सामयिक परीक्षण के लिए अनुसंधान और विकास का विशेष कार्यक्रम चलाया गया है। विदित है कि विश्व में मौसम विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में हो रही प्रगति को देखते हुए अनुसंधान का कार्य भी व्यय साध्य तथा जटिल होता जा रहा है फिर भी भारत में कृषि की प्रमुखता को देखते हुए इसे प्राथमिकता प्रदान की गई है। सन् 1976 में भारतीय कृषि पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट ने भी इसकी आवश्यकता के संबंध में सिफारिश की थी। साथ ही देश में जल वर्षा तथा उसके वितरण की स्थिति के आकलन के लिए बरसात के तीन महीनों में जल वर्षा के आधार पर भारत को पांच वर्षा-अंचलों में विभाजित कर अध्ययन प्रस्तुत किया था।
मानसून का पूर्वानुमान - उदाहरण 1998
पिछले दस वर्षों से भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी बरसात के दौरान सामान्य वर्षा हो रही है। वर्ष 1988 में विकसित और परिचालित किए गए 16 प्राचल (पैरामीटर) वाले दीर्घअवधि पूर्वानुमान मॉडल के उपयोग से भारत-मौसमविज्ञान विभाग ने तब से प्रत्येक वर्ष मानसूनी वर्षा की सही भविष्यवाणी की है। समूचे देश के लिए जून से सितंबर तक चार महीनों के दौरान होने वाली मानसून की वर्षा उस समय सामान्य कहलाती है जब यही मात्रा अपनी दीर्घावधि के औसत मान के दस के अंदर रहे जो कि 88 सेमी. हैं। यह परिभाषा मानसूनी वर्षा के साल-दर-साल परिवर्तन की सांख्यिकी प्रवृत्ति पर आधारित है।
भारत-मौसमविज्ञान विभाग के प्रचलित दीर्घावधि पूर्वानुमान मॉडलों में 16 क्षेत्रीय और भौगोलिक स्थल-समुद्र और वायुमंडलीय प्राचलों का प्रयोग किया जाता है, जो कि भारत की मानसूनी वर्षा के साथ भौतिक रूप से संबंधित है। मॉडल का प्रत्येक प्राचल एक निश्चित स्थान पर और मानसून से पहले लिए गए परीक्षणों पर आधारित होता है। मॉडल के पूर्वानुमान की त्रुटि लगभग 4 प्रतिशत तक होती है। साथ ही मानसूनी वर्षा के समय होने वाली घटनाओं से भी प्रभावित होती है। जिसका पूर्वाभास मई में दीर्घावधि पूर्वानुमान तैयार करने के समय पूरी तरह से नहीं हो पाता है। कुछ परिस्थितियों में इसके कारण भविष्यवाणी में कुछ अनिश्चितता आ जाती है जो कि 4 प्रतिशत मॉडल त्रुटि से अधिक हो सकती है।
वर्ष 1998 का पूर्वानुमान
भारत-मौसम विज्ञान विभाग के 16 प्राचल वाले मॉडल के दो अलग भाग हैं। पैरामिट्रिक माडल में 16 स्थल समुद्र-वायुमंडलीय प्राचलों में से अनुकूल और प्रतिकूल संकेतों की संरचना का विश्लेषण किया जाता है और मानसूनी वर्षा के प्रदर्शन का गुणात्मक अनुमान लगाया जाता है।
इस वर्ष 16 माडल प्राचलों में से 9 अनुकूल पाए गए हैं और पैरामिट्रिक मॉडल से संकेत मिलते थे कि वर्ष 1998 में दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा सामान्य होने की संभावना है। वर्ष 1998 के लिए भारत मौसम-विज्ञान विभाग का दक्षिण-पश्चिम मानसून के समय की वर्षा का अधिकृत पूर्वानुमान इस प्राकर था-
क) 1998 के दौरान समूचे देश के लिए संपूर्ण दक्षिण-पश्चिम मानसूनी बरसात (जून से सितंबर) में वर्षा के सामान्य रहने की संभावना थी। अतः 1998 का वर्ष लगातार ग्यारहवां सामान्य मानसूनी वर्षा का स्थल हो गया था।
ख) मात्रात्मक रूप में समूचे देश के लिए संपूर्ण दक्षिण-पश्चिम मानसून ऋतु के दौरान दीर्घावधि औसत मान की लगभग 99 प्रतिशत वर्षा होने की संभावना थी। इसकी अनुमानित त्रुटि करीब 4 प्रतिशत रहेगी।
मानसून की विचित्र विशेषताएं
उष्णकटिबंधीय भाग में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप में मानसूनी प्रकार की जलवायु है, जिसकी अपनी कुछ विशेषताएं है जो इस जलवायु को दूसरे से अलग करती हैं। इनमें कतिपय महत्वपूर्ण विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1. मानसून वर्षा का अधिकांश भाग वर्षा के चार महीनों जून से सितंबर के बीच होता है, जिससे यहां एक अलग प्रकार की ऋतु का सृजन होता है, जिसे वर्षाऋतु कहा जाता है।
2. गर्मी के महीने अर्थात जून में मानसूनी वर्षा लाने वाले पवन का आगमन एकदम दक्षिण केरल प्रदेश से प्रायः जून की पहली तारीख से होता है। फिर दस दिनों के अंतराल में दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट तथा उत्तर-पूर्वी भारत के हिमालयी क्षेत्र में छा जाता है।
3. मानसून का अधिक प्रभाव पश्चिमी घाट तथा पूर्वोत्तर हिमालयी इलाके में होता है जबकि पश्चिमोत्तर भारत, विशेषकर पश्चिम राजस्थान और उत्तरी गुजरात के क्षेत्रों में बहुत न्यून वर्षा होती है।
4. भारत की कुल सालाना जल वर्षा का करीब तीन चौथाई भाग मानसूनी बरसात के तीन-चार महीनों (जून से सितंबर) में प्राप्त हो जाता है। साल के शेष महीने प्रायः शुष्क रहते हैं।
5. मानसून पवन के द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में जल वर्षा वाष्पीभवन प्रक्रिया से होती है, जो भूम्याकारों विशेषकर पर्वत श्रंखलाओं से प्रभावित होती है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि हिमालय की ऊँची दीवार नहीं होती तो मानसून पवन बिना वर्षा के उत्तर की ओर निकल जाता और संपूर्ण उत्तरी भारत रेगिस्तान बना रहता।
6. प्रत्येक वर्ष जून के महीने में गर्जन-तर्जन के साथ विशाल मेघराशि लेकर मानसून आगमन और पहली वर्षा का एक चमत्कारी और प्रभावोत्पादक दृश्य होता है।
7. मानसूनी वर्षा की समाप्ति अचानक नहीं होकर धीरे-धीरे होती रहती है। कभी सितंबर तो कभी अक्टूबर में दक्षिण-पश्चिम मानसून शिथिल होकर समाप्त होता है।
8. मानसूनी बरसात और मानसूनी पवन की सबसे बड़ी विचित्र विशेषता इसकी वर्षा की मात्रा और क्षेत्रीय आधार पर बहाव दिशा का परिवर्तन है। मानसूनी बरसात के दौरान होने वाली जलवर्षा की मात्रा में प्रतिवर्ष अंतर आता रहता है। जून-सितंबर के मौसम के दौरान ही भारत के किसी क्षेत्र में सूखा-बाढ़-सूखा का चक्र चलता रहता है।
9. मानसूनी बरसात के पूर्व तथा मध्य में कतिपय वास्तविक कारणों से चक्रवात का सृजन भी होता है। जब जुलाई-अगस्त के बीच 30-40 दिनों में, मानसून का विश्रांतिकाल होता है, तब अरब सागर और बंगाल का खाड़ी में चक्रवातीय तूफानों के सृजन की स्थिति पैदा हो जाती है।
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