धर्मेन्द्र की उम्र 21 साल भी नहीं हुई थी। 13 जनवरी को कैंसर से मारा गया। उसके कई अंगों में कैंसर फैल गया था। कैंसर का पता चलने के करीब चार महीने बाद कोलकाता के पीजीआई अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी माँ मीना देवी के सिर पर बालों के बीच करीब दो साल से एक फोड़ा हो गया है। पहले इससे कोई परेशानी नहीं थी। अब खून झलक रहा है। हाथ और पैर के नाखून पीले पड़ जाते हैं, फिर गिर जाते हैं।
धर्मेन्द्र के पिता अर्थात रामकुमार यादव स्वयं लगातार सरदर्द, शरीरदर्द से परेशान हैं। सिर्फ बैठे रहने का मन करता है। पर बैठे रहने से कैसे चलेगा? मजदूर आदमी हैं। पेट भरने के लिये दैनिक मजदूरी का असरा है। उनका गाँव ‘तिलक राय का हाता’ बक्सर जिले के सिमरी प्रखण्ड में गंगा के तट पर है।
तिलक राय का हाता का बकायदा सर्वेक्षण हुआ है। इसकी रिपोर्ट 2015 में प्रकाशित हुई। आर्सेनिकोसिस का फैलाव देखकर अध्ययनकर्ता चौंक गए। यहाँ के अधिकांश निवासियों में आर्सेनिकोसिस के लक्षण दिखते हैं। आर्सेनिकोसिस के लक्षण त्वचा, हथेली और पैर के तलवे पर पहले दिखते हैं। चमड़ी का रंग बदल जाता है। सफेद छींटे जैसे दाग हो जाते हैं। तलवों में काँटे जैसे निकल जाते हैं। हथेली में चमड़े के नीचे काँटेदार स्थल बनने से तलहटी खुरदुरी हो जाती है। अान्तरिक अंगों पर असर बाद में दिखता है। यह असर कैंसर की शक्ल में होता है। आँत, लीवर, फेफड़े व दूसरे अंगों में कैंसर के मरीज मिले हैं। पेयजल में आर्सेनिक होने की वजह से बिहार के जिन गाँवों में कैंसर फैल रहा है, उनमें यह गाँव भी है।
अध्ययन महाबीर कैंसर संस्थान और शोध केन्द्र के डॉ. अरुण कुमार ने किया था। उनके साथ सात शोधकर्ताओं की टीम थी। केन्द्र सरकार के विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय की सहायता से हुए अध्ययन की रिपोर्ट 28 अप्रैल 2015 को प्रकाशित हुई। तब कैंसर के 6 मामले मिले, चार की मौत हो गई थी। पूरा साल गुजर गया, सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई। किसी का इलाज कैंसर सेंटर में नहीं हुआ।
आर्सेनिकोसिस के शिकार गरीब लोग ठीक से इलाज भी नहीं करा पाते। धर्मेन्द्र का इलाज कराने की कोशिश हुई। पर बचाया नहीं जा सका। उसके बाद 25 वर्षीय मुलायम यादव की मौत हो गई। राजेश्वरी देवी, सीता देवी व कमल बसखरवार धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रहे हैं। गाँव में कैंसर के कितने रोगी हैं? नहीं कहा जा सकता क्योंकि कितनों की बीमारियों की जाँच ही नहीं हुई।
आर्सेनिक प्रभावित इलाके में चर्म रोग सबसे पहले दिखते हैं। इस गाँव में 28 प्रतिशत लोगों को हाईपर केराटोसिस और मेलोनोसिस 31 प्रतिशत लोगों में पाये गए। आँत की बीमारियों में 86 प्रतिशत लोगों को गैस्ट्रीक, 57 प्रतिशत लोगों को लीवर सम्बन्धी रोग, 46 प्रतिशत लोगों को पाचन और भूख की कमी जैसे रोग हैं। चौंकाने वाली सूचना यह है कि लोगों की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ रहा है।
नपुंसकता (एजूसपरमिया) 9 मर्दों और 6 औरतों में बाँझपन दिखा। 137 महिलाओं का मासिक-चक्र बिगड़ गया है जो दूसरी बीमारियों का संकेत है। सबसे खतरनाक प्राथमिक और मध्य विद्यालयों के बच्चों में भी आर्सेनिकोसिस के गम्भीर लक्षण दिखना है। दस प्रतिशत बच्चों की हथेली और तलुवों में हाईपर केराटोसिस के लक्षण दिखने लगे हैं। स्कूल के बच्चे उस चापाकल का पानी पीने के लिये विवश हैं जिसके पानी में आर्सेनिक की उपस्थिति 100 पीपीबी से ज्यादा है।
उल्लेखनीय है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरीकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने पेयजल में आर्सेनिक की अधिकतम सीमा 10 पीपीबी निर्धारित की है। पर भारत समेत कई देशों में इसे 50 पीपीबी मान लिया गया है। लेकिन इस पूरे गाँव के भूजल में आर्सेनिक 100 पीपीबी से अधिक है। अधिकतम स्तर 1908 पीपीबी दर्ज किया गया। पड़ोस के गाँव सिमरी में तो 1929 पीपीबी आर्सेनिक मिला। यह स्तर बिहार में सर्वाधिक है।
अब तक सर्वाधिक स्तर भोजपुर जिले के पांडेयटोला में 1861 पीपीबी पाया गया था। पूरे क्षेत्र में विभिन्न कामों के लिये भूजल पर निर्भरता है। पेयजल चापाकलों से आता है और सिंचाई के लिये नलकूप चलाए जाते हैं। उस पानी की गुणवत्ता जाँचने के लिये हर पचास मीटर पर स्थित चापाकल का पानी एकत्र किया गया।
प्रारम्भिक जाँच में जिन चापाकलों के पानी में अधिक आर्सेनिक मिला, ऐसे 120 नमूनों को गहन जाँच के लिये प्रयोगशाला लाया गया। इन चापाकलों का पानी इस्तेमाल करने वाले 120 लोगों के रक्त के नमूने भी लिये गए। प्रयोगशाला में उनकी जाँच और नतीजों का विश्लेषण किया गया। चौंकाने वाले परिणाम मिले।
गाँव की आबादी 5348 है, उनमें 1530 लोगों से पानी के उपयोग के बारे में बातचीत की गई जिसमें औरत, मर्द, बच्चे, बुढ़े सभी थे। जो लोग वर्षों से अधिक आर्सेनिक वाला पानी पी रहे हैं जिससे उनके रक्त की संरचना बदल गई है।
डॉ. अरुण ने ऐसे लोगों की सूची बनाई है जिनका रक्त खतरनाक ढंग से जहरीला हो गया है। रक्त में आर्सेनिक की अधिकतम मात्रा 664.7 पीपीबी दर्ज किया गया। टून्नी देवी के रक्त में 462 पीपीबी, भिखारी यादव 337 पीपीबी, गोपालजी यादव 364 पीपीबी, जगन्नाथ यादव 243 पीपीबी आर्सेनिक पाया गया। इससे लोगों को चर्म रोग और कैंसर तो हो ही रहे हैं, नपुंसकता का खतरा नजर आता है।
आर्सेनिक की उपस्थिति 60 फीट से एक सौ फीट की गहराई वाले चापाकलों के पानी में सर्वाधिक मिला और अधिकतर चापाकल इसी गहराई के हैं। जगन्नाथ यादव बताते हैं कि हमारे चापकल का पानी कुछ देर रखने के बाद पीला पड़ जाता है। बर्तन पर गहरे दाग पड़ गए हैं। हम खाना बनाने और पीने के लिये पानी बाहर से लाते हैं। उस पानी में दाल नहीं गलती, काली हो जाती है।
जगन्नाथ यादव के घर लगा चापाकल ही नहीं, गाँव के अधिकतर चापाकलों के आसपास पीले गहरे दाग दिखे। 350 पचास फीट गहरे चापाकल का पानी साफ है। परन्तु गाँव में ऐसे केवल तीन चापाकल हैं। जगन्नाथ यादव के घर के नजदीक साफ पानी वाला चापाकल है, सभी ऐसा नहीं कर पाते।
इस गाँव में तो अभी आर्सेनिक पीड़ित चापाकलों को चिन्हित कर उपयोग से बाहर भी नहीं किया गया है। यह सरकारी कवायद है। जिन चापाकलों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से अधिक पाई गई है, उन चापाकलों को लाल रंगकर परित्याग कर दिया जाता है। फिर जलशोधन प्रकल्प लगाने की कवायद आरम्भ होती हैं। बड़ी योजना बनती है। इसके अन्तर्गत जलस्रोत का विकास, इनटेक स्ट्रक्चर का निर्माण, ट्रांसमिशन लाइन, टैंक, ट्रीटमेंट प्लांट, क्लियर वाटर पम्प, मोटर पम्प और एप्रोच रोड का प्रावधान होता है। लम्बी चौड़ी योजना के लिये वित्त प्रबन्धन का मामला आता है। कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में देर होती है। और जब प्रकल्प बनकर तैयार होता है तो विभिन्न कारणों से साल-दो-साल में बन्द हो जाता है। सरकार और एनजीओ कोई सरल उपचार नहीं दे सके हैं।
यह गंगा नदी के तटबन्ध के भीतर का गाँव है। बाढ़ के समय गंगा का पानी गाँव तक आ जाता है। अगर यहाँ बड़े पैमान पर कुएँ बनें और कुओं को बाढ़ के पानी और गाँव की सामान्य गन्दगी- कूड़ा-कचरा से बचा लें तो इस गाँव की समस्या का बेहतर समाधान हो सकता है। अभी तो बाढ़ के बाद सिंचाई की जरूरतों के लिये नलकूपों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है।
भूजल भण्डार का भरपूर दोहन होता है। उसका पुनर्भरण नहीं हो पाता। वर्षा और बाढ़ के पानी को रोककर रखने का कोई इन्तजाम यहाँ नहीं है। पानी रोकने वाले गहरे खेत भी नहीं दिखते। दो निजी कुएँ हैं, एक कुएँ पर चापाकल लगा है। पर उसका इस्तेमाल आम ग्रामीण नहीं करते। शायद उसके महत्त्व से अनजान हैं।
नलकूपों के बजाय कुएँ बनाए सरकार
बिहार में आर्सेनिक के प्रकोप का दायरा लगातार बढ़ता गया है। इसके चपेट में 18 जिले आ गए हैं। पचास लाख से अधिक लोगों के स्वास्थ्य पर संकट है। बक्सर जिला सर्वाधिक संकटग्रस्त जिलों में है। पूरे राज्य में हर साल करीब 75 हजार कैंसर के नए मरीज चिन्हित किये जा रहे हैं। आधे से अधिक आर्सेनिक के शिकार होते हैं। परन्तु राज्य में आर्सेनिकजनित कैंसर की पहचान के लिये सार्वजनिक पैथोलॉजिकल लैब एक भी नहीं है।
महाबीर कैंसर संस्थान व शोधकेन्द्र में पहला उपकरण आया। इसका उल्लेख करते हुए भूजल में आर्सेनिक की समस्या पर लगातार शोधरत डॉक्टर एके घोष ने कहा कि पूरी गंगा घाटी में यह समस्या है। गंगा के दोनों ओर पाँच किलोमीटर में समस्या अधिक गम्भीर है। गंगा से दूरी बढ़ने पर उसकी मात्रा कम मिलती है। लेकिन आर्सेनिक की उपस्थिति नेपाल तराई के क्षेत्रों में भी है।
आर्सेनिक दरअसल धरती की कोख में पड़ा है। प्राकृतिक कारणों से अलग-अलग जगहों पर वह अलग-अलग रूपों और मात्रा में बिखरा हुआ है। गंगाघाटी में चापाकलों और नलकूपों के माध्यम से भूजल दोहन बड़े पैमाने पर होने से यह आर्सेनिक समस्या बन गया।
भूजल दोहन से धरती के भीतर के पर्यावरण में बदलाव हुआ। भूजल स्तर घटने से ऑक्सीजन को भूजल भण्डार में जाने का मौका मिला। ऑक्सीजन के सम्पर्क में आर्सेनिक के पुराने रूपों का विखण्डन हुआ और घूलनशील अवयवों में बदल जाने से वह पानी में घूलने लगा। पेयजल के साथ वह शरीर में प्रवेश तो कर जाता है, पर मल या मूत्र के माध्यम से शरीर से बाहर नहीं निकलता, वहीं पड़ा रहता है। यही संकट का कारण है।
डॉ घोष बताते हैं कि समूची गंगाघाटी की धरती के नीचे आर्सेनोपायरायट (आयरन आर्सेनिक सल्फाइड) के रूप में आर्सेनिक दबा हुआ है जो पानी में घूलनशील नहीं होता है। पर भूजल के अत्यधिक दोहन और ऑक्सीजन के प्रवेश करने से भूगर्भ का वातावरण बदलता है। आर्सेनोपायरायट का विखण्डन होकर आयरन और आर्सेनिक अलग हो जाता है और आवेशित रूप में आ जाते हैं। आवेशित अवस्था में आर्सेनिक जल में घूलनशील है और भूजल में आर्सेनिक घूलने लगता है। इसलिये भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ती गई है।
बिहार के भूजल में आर्सेनिक घूलने का पता सबसे पहले 2002 में भोजपुर जिले के शाहपुर प्रखण्ड के सेमरिया ओझवलिया गाँव में चला। शिक्षक कुनेश्वर ओझा लीवर कैंसर से अपनी माँ और पत्नी की मृत्यु हो जाने पर चिन्तित हुए। तब तक अखबारों के माध्यम से उन्हें बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में भूजल में आर्सेनिक घूले होने की जानकारी मिल गई थी। वे अपने चापाकल के पानी का नमूना लेकर कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के दीपंकर चक्रवर्ती के पास गए। श्री चक्रवर्ती की प्रयोगशाला में हुई जाँच में पानी में बहुत अधिक मात्रा में आर्सेनिक मिला।
इसका दायरा बढ़ता गया। 2004 में दो, (भोजपुर और पटना) 2005 में चार (वैशाली, भागलपुर शामिल) और 2007 में 12 जिलों में पसर गया था। 2009 में 16 जिलों के भूजल में आर्सेनिक के मामले दर्ज किये गए। 2015 में 17 जिलों में आर्सेनिक के मामले दर्ज किये गए हैं। हालांकि पर्यावरण विज्ञान के प्राध्यापक डॉ अशोक कुमार घोष का मामना है कि केवल दो जिलों- भभुआ और रोहतास को छोड़कर समूचे बिहार के भूजल में आर्सेनिक है। उनका आकलन है कि बिहार के 87 प्रतिशत क्षेत्र का भूजल आर्सेनिक से दूषित हो गया है। सर्वाधिक पीड़ित भोजपुर, बक्सर, वैशाली, भागलपुर, समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, छपरा, मुंगेर और दरभंगा जिले हैं। भूजल में आर्सेनिक की मात्रा मौसम के अनुसार घटती-बढ़ती भी है। कुछ स्थल ऐसे मिल सकते हैं जहाँ आर्सेनिक नहीं हो। इसलिये भूजल की नियमित जाँच आवश्यक है। परन्तु बिहार में पानी की जाँच करने की व्यवस्था ही पर्याप्त नहीं है।
आर्सेनिक के जहरीले प्रभाव से बचाव की कई तकनीकें हैं। पर इसका केवल तकनीकी समाधान नहीं हो सकता। सामुदायिक भागीदारी जरूरी है। अभी सरकारी स्तर पर आर्सेनिक से बचाव के तौर पर अधिक गहरे नलकूप और फिल्टर लगाए जाते हैं। इससे केवल फौरी राहत मिलती है। एकतरफ दोहन बढ़ने से भूजल के अधिक गहरे स्तर में आर्सेनिक दूषण का खतरा उत्पन्न होता है। दूसरे आर्सेनिक की अधिक सान्द्रता वाला कचरा निकलता है जिसे पास के खेतों में डाल दिया जाता है।
अभी पेयजल के तौर पर आर्सेनिक मुक्त पानी मुहैया कराने का केवल एक सरकारी प्रकल्प चल रहा है। वह रिस-रिसकर फिर भूगर्भ में पहुँचता है और पहले से अधिक बड़ी समस्या का कारण बताता है। वैसे संचालनगत कमजोरियोें, उचित निगरानी और रखरखाव के अभाव में फिल्टर जल्दी खराब हो जाते हैं। अभी केवल एक सरकारी प्रकल्प चल रहा है। भोजपुर जिले के मोजामपुर में यह प्रकल्प लगा है जो गंगा के पानी को साफ कर करीब 20 गाँव में आपूर्ति करता है।
गंगाघाटी में पेयजल का साधन पहले कुआँ था। सिंचाई के लिये भी कच्चे कुएँ बनते थे। कुओं की देखरेख सामूहिक तौर पर किया जाता था। जिन कुओं से पीने और दूसरे घरेलू कामों के लिये पानी लिया जाता था, उन्हें बाढ़ और नाले का पानी जाने से बचाया जाता था। बरसात के बाद उसमें उत्पन्न होने वाले रोगाणुओं की सफाई के लिये नीम के पत्ते या चूना डालने की विधि थी। पर कुएँ सभी लोगों को आसानी से उपलब्ध नहीं थे। फिर भी 70 के दशक तक कुएँ का उपयोग ही अधिक होता था। पर सतही प्रदूषण से उसके पानी में रोगाणु उत्पन्न हो जाते थे। इससे जलजनित रोग होते थे। शिशु और बाल मृत्युदर अधिक थी।
रोगाणु मुक्त पेयजल की जरूरत थी। बाढ़ग्रस्त इलाके में कुओं को सतही दूषण से बचाना कठिन था। बाढ़ का पानी प्रवेश करने पर उसके साथ आई सिल्ट से भी कुओं में बालू-मिट्टी भर जाता था। ऐसे में भूजल को सबसे अच्छा स्रोत माना गया। ताबड़तोड़ चापाकल और नलकूप लग गए। इससे बाल व शिशु मृत्यु दर में तो काफी कमी आई, भूजल का उपयोग बढ़ता गया। उसी दौर में सिंचाई के लिये नलकूप लगाने का प्रचलन आया। चापाकलों और नलकूपों की गहराई एक सी होती थी। दोनों 60 फीट से 100 फीट के बीच गहरे लगते हैं। इससे भूजल का तेजी से दोहन होने लगा। उधर कुओं का उपयोग बन्द हुआ, उनकी संख्या तेजी से घटती गई। इस तरह भूजल के पुनर्भरण बुरी तरह बाधित हुआ। डॉ. घोष ने बताया कि खुले कुएँ के पानी में आर्सेनिक नहीं मिलता। कारण है कि उसमें वर्षाजल भी एकत्र होता है जिससे जलस्तर कभी इतना नीचे नहीं जा पाता कि धरती के भीतर के वातावरण में ऑक्सीजन के सम्पर्क से आर्सेनिक के यौगिकों का विखण्डन हो।
डॉ घोष बताते हैं कि रिवर्स ओएसिस पद्धति के फिल्टरों से आर्सेनिक परिशोधन में एक बडा संकट है। परिशोधन में निकले कचरे में आर्सेनिक बहुत ही सान्द्र अवस्था में रहता है। उस आर्सेनिक का हवा या पानी के सम्पर्क में आना खतरनाक है। इसका जनस्वास्थ्य पर गहरा असर होगा। बताते हैं कि नेपोलियन कमरे में लगे कैलेंडर पर चिपके आर्सेनिक की हवा लगने से कैंसर का रोगी होकर मरा।
इस लिहाज से बहुत सकारात्मक प्रयोग मनेर में हो रहा है। जहाँ फिल्टर प्रकल्प से निकले कचरे को जैविक ढंग से निपटाने की व्यवस्था की गई है। इस प्रकल्प से मुक्त आर्सेनिक को धरती पर फेंकने के बजाय ईंटों के बीच चिपका देने के बारे में सोचा गया है। ईंटों में दब जाने पर यह हवा और पानी में घूल नहीं सकेगा और भविष्य में बड़ी समस्या उत्पन्न होने का खतरा नहीं रहेगा।
एक बार फिर उन्हीं कुओं की ओर लौटना बेहतर विकल्प है। जगह-जगह कुएँ बनाए जाएँ, उनमें वर्षाजल एकत्र किया जाय, सतही गन्दगी से बचाएँ और चाहें तो पम्प लगाकर पाइपलाइन के जरिए परिशोधित पेयजल घर-घर पहुँचाएँ, चाहें तो सिंचाई के लिये पानी निकालें।
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