यह पुस्तक उस तालाब व्यवस्था को प्रस्तुत करती है जिसने बीकानेर के इतिहास को सींचा और उसके भविष्य की आशा भी बँधाती है।
किसी भी चीज की कमी उसे महत्त्वपूर्ण बना देती है। इसीलिये राजस्थान ने हमेशा ही पानी को किसी भी और जगह से ज्यादा पूजा। कम बरसात और खारे भूजल से बाध्य लोगों ने न सिर्फ सुन्दर और स्थिर संरचनाएँ बनाईं बल्कि उनसे सम्बन्धित सतत प्रथाएँ भी रचीं।
डॉ. ब्रजरत्न जोशी की पुस्तक ‘जल और समाज’ हमें इन्ही संरचनाओ और प्रथाओं से अवगत कराती है जिन्हें बीकानेर के लोगों ने स्थापित किया। डॉ. जोशी लम्बे वार्तालापों और शोध से पानी और शहरी जीवन के जटिल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं को खोज लाये हैं। यह प्रस्तुति इसलिये भी विशेष है क्योंकि इसमें ऐसी पीढ़ी की आवाज है जिसे हम तेजी से खोते जा रहे हैं। और उसके साथ ही खो रहे हैं विगत काल की प्रज्ञता।
जल और समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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‘जल और समाज’ महान पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की रचना ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से प्रेरित है और एक शहर पर केन्द्रित होकर उस काम को आगे भी ले जाती है। हर शहर और बस्ती को ऐसी रचना चाहिए जो उसके जल विरासत को आलेखित करे क्योंकि यही संरचनाएँ उसके वर्तमान और भावी जल संकट का निदान है। जैसा कि अनुपम मिश्र इस किताब की भूमिका में लिखते हैं: “यह शहर का इतिहास नहीं है। यह उसका भविष्य भी बन सकता है।”
बीकानेर के सौ से ज्यादा तालाबों और तलाईयों में से दस भी ऐसे नहीं जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। लोगों ने खुद मेहनत की और धन और सामान इकट्ठा कर इनका निर्माण और संरक्षण किया। यह जलाशय सिर्फ पानी के भण्डार नहीं थे। इनके आसपास घने पेड़ और जड़ी-बूटियाँ इन्हें जैवविवधता केन्द्र बनाते जहाँ वन, वन्य जीव और इंसान का अद्भुत मेल होता था। जहाँ लहरों में तैराकी परीक्षण और आस-पास कुश्ती के अखाड़े कुशल तैराक और पहलवान बनाते थे वहीं बौद्धिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गोष्ठियाँ मन को पोषण करते।
अपनी इतनी उपयोगिताओं की वजह से तालाब हमेशा साफ-सुथरे और इनका जल निर्मल रहा। कुछ जलाशयों की देख-रेख के लिये रखवाले भी रखे जाते। शुभ अवसरों पर इन्हें भेंट दी जाती। खासतौर पर शादी के बाद नव दम्पति का अपने समाज के तालाब पर जाना और उनके संरक्षकों का अभिवादन करना अनिवार्य था।
जातिवाद को बीते भारतीय युग का अभिशाप माना जाता रहा है परन्तु जैसा कि यह पुस्तक दर्शाती है यह विसंगति पिछले कुछ दशकों में ही ज्यादा दृढ़ हुई है। बीकानेर में काफी तालाब अलग-अलग जाति और समाज ने बनवाए पर उनका उपयोग सार्वजनिक रहा। मिसाल के तौर पर खरनाडा तलाई ब्राह्मण सुनारों ने बनवाई पर इस पर लगे मेले मगरों में सभी की भागेदारी और प्रबन्धन रहा।
इसी तरह स्न्सोलाव तालाब, जिसे सामो जी ने बनवाया, गेमना पीर के मेले से लौटकर आने वाले मुस्लिम श्रद्धालुओं का विश्राम स्थल रहा। उस इलाके के ब्राह्मण इन यात्रियों की देखभाल करते।
सभी छोटे बड़े जलाशयों की जानकारी का संग्रह होने के अलावा, ‘जल और समाज’ भूगर्भशास्त्र, भूगोल और ज्योतिष की मिली-जुली समझ द्वारा तालाब के लिये जमीन की चयन प्रक्रिया को भी चिन्हित करती है। मिट्टी की गुणवत्ता और उसके जल को रोकने की क्षमता का परीक्षण तथा विशेष औजारों द्वारा तालाबों का निर्माण और पानी के स्तर का माप अपने आप में उस समय का अनूठा विज्ञान था।
लेखक की इस विषय में शोध पर दक्षता पुस्तक के परिशिष्ट में और प्रबल दिखती है जहाँ अभिलेख सूचना संग्रहण से प्राप्त दस्तावेजों द्वारा रियासतकालीन बीकानेर के बन्दोबस्त में आये विभिन्न तलाईयों का आगोर भूमि सहित ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह इन जलाशयों पर लगने वाले तिथि अनुसार मेले और आगोर में पाई जाने वाली औषधियों की जानकारी भी उल्लेखनीय है। सामग्री स्रोतों की पूरी जानकारी तथा अभिलेखीय सन्दर्भों के साथ-साथ बीकानेर का जलाशय मानचित्र इस पुस्तक को विश्वसनीय और सहज बना देते हैं।
‘जल और समाज’ स्थानीय बोली की मिठास भी लेकर आती है। जल से जुड़ी आंचलिक कहावतों के साथ साथ, सन 1975 में लिखी उदय चंद जैन जी की बीकानेरी गजल को विशेष स्थान मिला है। यह गजल शहर के बाजार, लोगों और खासतौर पर इसके तालाबों का सुन्दर वर्णन करती है।
अफसोस की बात है कि उन सौ ताल, तलाइयों में से अब 1 प्रतिशत भी अच्छी दशा में नहीं है। पाइपलाइन के विस्तार ने घर-घर में पानी पहुँचा दिया जिससे तालाबों की महत्ता घटती गई और इनके आगोरों में अतिक्रमण और खनन की आँधी चल पड़ी। ज्यादातर तालाब किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं थे जिससे कि कानूनी कार्रवाई में भी मुश्किलें आई।
पूर्व के सावर्जनिक तालाबों से वर्तमान के बोतलबन्द पानी की तुलना करते हुए यह पुस्तक समाज के जल के साथ बदलते रिश्ते पर भी कटाक्ष करती है। जहाँ निजी कम्पनियाँ हमें अपने अधीन बना रही हैं वहीं तालाब आत्मनिर्भरता के सूचक हैं। जहाँ पाइपलाइन पर करोड़ों रुपए खर्चे जाने पर भी पानी की सप्लाई की समस्या बनी रहती है वहीं तालाब ऊर्जा और धन दोनों पक्षों से उपादेय हैं। अगर नदियों को बाँधने या बोरवेल से भूजल खींचने के बजाय तालाबों को संरक्षित किया जाये तो करोड़ों रुपए की बचत की जा सकती है।
मजेदार बात यह भी है कि तालाब जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में भी विधिमान्य हैं। यह न सिर्फ कम बरसात में उपयोगी माने गए हैं बल्कि बाढ़ के पानी को भी अपने अन्दर समा कर शहरों को खतरे से बचाते हैं। मुम्बई और चेन्नई जैसे शहरों ने अपने तालाबों पर अतिक्रमण कर जो आपदाएँ झेली हैं वो जग जाहिर हैं। इस वजह से तालाब व उससे जुड़ी संस्कृति का महत्त्व उस जमाने से ज्यादा इस जमाने में है।
हालांकि बीकानेर के कुछ समाजों ने अपने तालाबों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, उनका दृष्टिकोण आधुनिक भूनिर्माण की तरफ अधिक और प्राकृतिक परिवेश की तरफ कम रहा है। डॉ. जोशी उन सब खामियों को उजागर करते हैं जिससे बीकानेर में संरक्षण के भावी कामों में मदद होगी। और शहर भी अगर अपनी जल संस्कृति को ऐसे सन्दर्भों और विश्लेषणों में पिरो पाएँ तो वास्तव में स्मार्ट सिटी बनने की तरफ अग्रसर होंगे।
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Post By: RuralWater