धोलावीरा अपनी सुनिर्मित प्राचीरों के कारण सिंधु घाटी की सभ्यता के अन्य प्राचीन शहरों से अलग है। आमतौर पर यह देखा गया है कि शहर का किला ही प्राचीरों से सुरक्षित किया जाता है। धोलावीरा का निर्माण कुछ ऐसे किया गया कि न केवल किला किन्तु समूचा शहर एवं शहर के अन्य भाग जैसे मध्य नगर और निम्न नगर भी प्राचीरों से घिरे हुए हैं।
विज्ञान की एक विद्या-समुद्रीय पुरातत्व शास्त्र के अध्ययन एवं खोजों का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। समुद्र में डूबी द्वारिका के अस्तित्व में आने के बाद इस विद्या को पर्याप्त महत्त्व मिला है। समुद्रीय पुरातत्व से सम्बन्धित दो अन्य खोजें, लोथल का विश्व का सबसे पुरातन डॉकयार्ड एवं धोलावीरा स्थित प्राचीनतम नगर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। रण के कछार के बीचो-बीच खादिर बेट के उत्तर-पश्चिमी इलाके में स्थित धोलावीरा गाँव आज गुजरात प्रदेश का एक पिछड़ा इलाका है। वर्षा की कमी एवं कछार का प्रभाव धोलावीरा की बंजर जमीनों में साफ देखने को मिलता है। अधिकतर गाँववासी मवेशी पालकर या ज्वार बाजरे की खेती कर जीवन-यापन करते हैं। मीठे पानी की किल्लत भी प्रायः गाँव वासियों को झेलनी पड़ती है। आज का यह सुस्त पिछड़ा गाँव लगभग 5000 वर्ष से भी ज्यादा पहले हड़प्पा काल में एक फलता-फूलता शहर था। वर्ष 1990 से 2005 तक धोलावीरा में चले भारतीय पुरातत्व विभाग के खनन ने भारत के प्राचीन इतिहास में सुर्खाब के पर लगा दिये। भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. बिष्ट के अथक प्रयासों के फलस्वरूप देश को एक अनमोल धरोहर ‘धोलावीरा-पुरातत्व स्थल’ के रूप में प्राप्त हुई। लगभग 15 वर्ष पहले इस खनन ने, मिट्टी के टीलों के नीचे दबे एक पूरे शहर की खोज की। इस महत्त्वपूर्ण खोज के पश्चात धोलावीरा गाँव ‘हड़प्पा काल के धोलावीरा शहर’ के कारण प्रसिद्ध हो गया।
धोलावीरा की खोज के उपरान्त विशेषज्ञों ने इसे हड़प्पा काल के अन्य शहरों की तरह सुव्यवस्थित शहर बताया। विशेषज्ञों के अनुसार हड़प्पा काल में धोलावीरा शहर की विशेषता उसके बन्दरगाह की वजह से थी। बन्दरगाह से संचालित समुद्री मार्ग द्वारा अन्तरराष्ट्रीय व्यापार धोलावीरा की प्रमुखता की खास वजह थी। धोलावीरा सिंधु घाटी की सभ्यता के काल का भारत में दूसरा सबसे बड़ा अवशेष है एवं इकलौता स्थान है जहाँ प्राचीनतम काल का सबसे बड़ा बन्दरगाह होने के प्रमाण है।
धोलावीरा के उत्थान एवं पतन की गाथा विशेषज्ञों ने 7 हिस्सों में विभाजित की है। कहा गया है कि सर्वप्रथम लगभग 3000 से 2900 ईसा पूर्व में शहर के किले का निर्माण हुआ, इसे सिटाडेल (Citadel) बताया गया। सिटाडेल शहर के मुख्य संचालक अथवा राजा के रहने का स्थान माना जाता था। फलस्वरूप इसकी सुरक्षा का खास ख्याल रखते हुए किले के चारों ओर मजबूत प्राचीर बनाई गई। शहर का पुनः विस्तार सभ्यता के तीसरे चरण में हुआ लगभग 2800-2500 ईसा पूर्व। इस निर्माण चरण में हड़प्पा समाज के अन्य मुख्य वर्गों के लिये घर, सड़कें, बाजार, मैदान इत्यादि बनाये गये। विशेषज्ञों ने शहर के इस भाग को मध्य नगर (Middle Town) बताया। मध्य नगर की सीमाओं को भी दीवारों से सुरक्षित किया गया था। निर्माण के चौथे चरण में शहर का निम्न नगर (Lower Town) बनाया गया। माना जाता है कि हड़प्पा समाज के निचले वर्ग जैसे- कुम्हार, शिल्पकार, खेतिहर, मजदूर वर्ग के काम करने एवं रहने का स्थान लोअर टाउन था। पाँचवें, छठें, सातवें चरण में धीरे-धीरे करके धोलावीरा का पतन हो गया। सभ्यता और एक सक्षम शहर के वीराना होने का कारण अभी भी अज्ञात है।
धोलावीरा अपनी सुनिर्मित प्राचीरों के कारण सिंधु घाटी की सभ्यता के अन्य प्राचीन शहरों से अलग है। आमतौर पर यह देखा गया है कि शहर का किला ही प्राचीरों से सुरक्षित किया जाता है। धोलावीरा का निर्माण कुछ ऐसे किया गया कि न केवल किला किन्तु समूचा शहर एवं शहर के अन्य भाग जैसे मध्य नगर और निम्न नगर भी प्राचीरों से घिरे हुये हैं। विशेषज्ञों ने धोलावीरा के आर्किटेक्चर स्टाइल को अनोखा माना है। अवशेषों की तकनीकी मापकर यह ज्ञात हुआ है कि धोलावीरा की प्राचीर 13 से 18 मीटर चौड़ी है। धोलावीरा की असमान रूप से मोटी प्राचीर वैज्ञानिकों में चर्चा का विषय रही है क्योंकि इतनी मोटी दीवार बनाई गई जब कि अन्य अनेक किलों की दीवारों की मोटाई इससे कम ही है।
सिंधु घाटी की सभ्यता के अन्य शहरों को देखें तो हड़प्पा एवं लोथल में 12 से 13 मीटर चौड़ी दीवार बाढ़ से बचाव के लिये बनाई गई थी। यह दोनों शहर प्राचीन काल की दो मुख्य नदियों के किनारे स्थित थे। हड़प्पा शहर सिंधु नदी के किनारे और लोथल सरस्वती नदी के किनारे स्थित थे। इन शहरों के अवशेषों में बाढ़ से क्षतिग्रस्त होने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। परन्तु धोलावीरा में परिस्थितियाँ विपरीत पाई गईं। डॉ. बिष्ट के अनुसार धोलावीरा दो नहरों के बीच बसाया गया, जिनमें पानी का स्तर सिर्फ वर्षाऋतु में ही बढ़ता था। कहा जाता है कि बाढ़ के दुष्प्रभावों से बचने हेतु छोटी नहरों के बीच का स्थान चुना गया। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो कम क्षमता वाली नहरों के बीचो-बीच बसे शहर में पानी की कमी हो सकती है।
धोलावीरा में खनन के दौरान अनेकों गहरे कुएँ, नाले जलाशय इत्यादि किले के भीतर एवं इर्द-गिर्द पाये गये। यहाँ तक कि नहरों पर बाँध बने होने के प्रमाण मिले हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि धोलावीरा के प्राचीन नगर वासियों को जल एकत्रित करना एवं बारिश का पानी भली-भाँति एकत्र करना आता था। धोलावीरा की जमीनी/सतह की ऊँचाई भी नहरों में बढ़े हुये पानी के स्तर से काफी ज्यादा थी। हड़प्पा काल के शहर बहुत ही कुशलतापूर्वक एवं योजनापूर्वक बनाये एवं बसाये गये थे। इसका तात्पर्य है कि धोलावीरा में पाई जाने वाली असीम रूप से मोटी दीवारों के निर्माण के पीछे भी कोई अन्य मुख्य कारण होगा।
उपर्युक्त कारणों से यह विदित होता है कि हड़प्पा और लोथल की तरह धोलावीरा की चौड़ी दीवारें बाढ़ से बचाव के लिये नहीं बनाई गई थी। अन्य कारणों पर विचार करें तो एक सम्भावना युद्ध में सुरक्षा भी हो सकती है। परन्तु हड़प्पा काल में तीर कमान, भाला, गुलेल ही मुख्य हथियार हुआ करते थे। इनका इस्तेमाल अगर सम्भवतः किसी युद्ध में हो तो भी 13 से 18 मीटर मोटी दीवारों से सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन प्राचीन हथियारों के अलावा बारूद का उपयोग हड़प्पा काल में सम्भव नहीं था क्योंकि बारूद का आविष्कार छठी सदी में चीन में हुआ था और भारत में बारूद पहली बार 15वीं सदी में पानीपत की लड़ाई में मंगोलों द्वारा इस्तेमाल किया गया था। इससे यह प्रमाण मिलता है कि धोलावीरा की मोटी प्राचीर का निर्माण युद्ध से बचाव के लिये नहीं किया गया था।
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार को ध्यान में रखते हुए धोलावीरा को मुख्य बन्दरगाह के तौर पर स्थापित किया गया था। धोलावीरा का समुद्र तट से निकट होना एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी। क्या सम्भव है समुद्री तूफान या सुनामी जैसी आपदा से बचने हेतु धोलावीरा शहर को असमान रूप से मोटी दीवारों से सुरक्षित किया गया हो। अगर आज की स्थिति में देखें तो यह सम्भावना अतिशयोक्ति लगती है। परन्तु क्या आज से 5000 साल पहले भी यही परिस्थितियाँ थी। अगर कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो वर्तमान की दृष्टि से हड़प्पा काल के धोलावीरा शहर का मुख्य बन्दरगाह होना भी अतिशयोक्ति ही होगा! मगर ऐसा नहीं है।
पिछले 5000 वर्षों में भारत के पश्चिमी तट पर समुद्री जलस्तर एक समान नहीं रहा है। 5000 से 6000 साल पहले पश्चिमी तट पर समुद्री जलस्तर आज की तुलना में लगभग 6 मीटर ऊपर था। अर्थात 5000 साल पहले जब धोलावीरा मुख्य केन्द्र था तब समुद्र का छोर धोलावीरा के नजदीक था। सिर्फ समुद्री जलस्तर का ऊपर होना ही काफी नहीं है। समुद्री जलस्तर की तुलना में जमीन की ऊँचाई की भी स्थिति ध्यान में रखना आवश्यक है। जमीन की ऊँचाई में बदलाव समुद्री जलस्तर की स्थिति पर प्रभाव डालता है। धोलावीरा में जमीन की ऊँचाई वर्तमान समुद्री जलस्तर की तुलना में 12 से 28 मीटर ऊपर है। किले की जमीन की ऊँचाई मध्य नगर एवं निम्न नगर की तुलना में कम है। यही नहीं खादिर बेट के जिस इलाके में धोलावीरा है सतह में झुकाव पाया गया है। यहाँ पर यह जानना भी आवश्यक है कि गुजरात के तट पर ज्वर की ऊँचाई लगभग 2 मीटर है।
किले की मोटी दीवारों को अगर समुद्री स्तर, जमीन की ऊँचाई एवं सतह के झुकाव के संदर्भ में देखें तो यह ज्ञात होता है कि 13 से 18 मीटर मोटी दीवारों का निर्माण समुद्री आपदा से बचने हेतु किया गया था। समुद्री आपदाओं की सम्भावनाएँ होने के बावजूद अन्तरराष्ट्रीय व्यापार को ध्यान में रखकर, सुरक्षा की तैयारियाँ करके प्राचीन मानव ने धोलावीरा की स्थापना की। इन शोध परिणामों के अलावा यह भी पाया गया कि पश्चिमी समुद्री तट के जिस हिस्से में धोलावीरा स्थित है, व क्षेत्र (मकरान तटीय क्षेत्र) विनाशकारी समुद्री तूफानों एवं सुनामी के प्रभाव में रहा है। पिछले कुछ हजार सालों का ब्यौरा निकालें तो शोधकर्ताओं ने 8000 से 7000 साल पहले एवं कुछ 2000 साल पहले के सुनामी अवशेष इस इलाके से पाये गये हैं।
आधुनिक युग की बात की जाये तो दुनिया के सक्षम देश जैसे जापान एवं अमेरिका अपने समुद्री तट से नजदीक इलाकों में सुनामी और समुद्री तूफान से बचने के लिये ऐसी ही मोटी दीवारें बनाई हैं जैसे हमें धोलावीरा में मिलती हैं।
लेखक परिचय
सुश्री रूपल दूबे एवं श्री राजीव निगम
सीएसआईआर-राष्ट्रीय समुद्रीय संस्थान, दोना पाउला 403 004 (गोवा), ई-मेल : rdrupaldubey1@gmail.com
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