नर्मदा विस्थापितों का आन्दोलन उस समय दिलचस्प मोड़ पर आ गया जब अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निरोधक कानून के अन्तर्गत पुनर्वास अधिकारी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दी गई।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि सरदार सरोवर बाँध से प्रभावित किसानों को पुनर्वास में रिहाइशी जमीन के साथ खेती की जमीन और नागरिक सुविधाएँ पाने का हक है, पर मध्य प्रदेश सरकार और नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण उन्हें इस हक से वंचित करने की साजिश कर रही हैं जो जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। विस्थापितों को मामूली नगद मुआवजा स्वीकार करने के लिये मजबूर किया जा रहा है और धमकियाँ दी जा रही हैं।
जिन विस्थापितों के भूमि अधिकार स्पष्ट नहीं थे, उन्हें वर्षों पहले गुजरात भेज दिया गया या ऐसी जमीन आवंटित की गई जो खेती के लायक कतई नहीं है। ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट के 15 मार्च 2005 के निर्णय के खिलाफ था। जिन लोगों ने जमीन के अधिकार से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया ऐसे लोग बड़ी संख्या में सतपुड़ा, जिला अलिराजपुर और निमाड़ तराई के क्षेत्र में रह रहे हैं। जिन लोगों ने मजबूर होकर नगद मुआवजा स्वीकार कर लिया है, उनके साथ धोखा हुआ है और मुआवजे का भुगतान बीच में ही रोक दिया गया है।
जस्टिस झा आयोग ने सात साल लम्बी जाँच-पड़ताल के बाद कहा कि जमीन के बदले विशेष पुनर्वास पैकेज देने की नीति गलत थी और इसने अफसर-दलाल गठजोड़ को जन्म दिया। इनकी मिलीभगत में 1589 फर्जी रजिस्ट्रियाँ हुईं। उन भ्रष्ट अफसरों और दलालों पर कार्रवाई करने के बजाय सरकार नगद मुआवजे की नीति को आगे बढ़ाने में लगी है। परियोजना प्रभावित कई हजार परिवारों को अभी तक जमीन की पेशकश ही नहीं की गई है।
जमीन की चाहत में गुजरात गए लोगों को छोड़कर कोई चट्टानी और पहाड़ी जमीन स्वीकार नहीं करने वाला, चाहे वहाँ कॉलोनी बनी हो या कोई तालाब बना मौजूद हो। फिर उन्हें बरगलाकर मुआवजा के तौर पर मामूली नगद देने की कोशिश होती है। बहकावे में कुछ लोगों ने नगद मुआवजे की एक किश्त स्वीकार कर ली तो उन्हें दलालों को उनका हिस्सा देना पड़ा। उन्हें एनसीए के आदेश के अनुसार जमीन का अधिकार मिलना अभी बाकी है।
इस बात को स्वीकार करने के बजाय उन गरीब आदिवासी, दलित किसानों को लगातार बैंक पासपोर्ट लाकर बाकी रकम का भुगतान लेने के लिये बरगलाया जा रहा है। कई गाँवों में नोटिस देकर कहा गया है कि जो लोग 30 दिसम्बर तक नगद मुआवजा नहीं उठाएँगे, उन्हें पुनर्वासित माना जाएगा और वे पुनर्वास का अधिकार खो देंगे।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन का कहना है कि आदिवासियों के साथ इस तरह छल करके उनके भूमि अधिकार को समाप्त करना अनुसूचित जाति/जनजाति अन्याचार निरोधक अधिनियम 1989 की धारा-3,4,5 का हनन है। इसे लेकर परियोजना प्रभावित हजारों परिवार 29 दिसम्बर को बड़वानी में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के कार्यालय का घेराव किया। पुनर्वास अधिकारी श्री गुहा के साथ आन्दोलनकारियों का वाद- विवाद हुआ। बाद में बड़वानी तहसील के पिछौडी गाँव के मायाराम पिता सुकया ने पुनर्वास अधिकारी वीएस गुहा के खिलाफ बड़वानी विशेष थाना में दलित उत्पीड़न निरोधक कानून के अन्तर्गत मुकदमा दर्ज करा दिया।
धरना में शामिल वक्ताओं ने विस्थापितों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द की। उन्होंने कहा कि विस्थापितों का पुनर्वास केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी होना चाहिए। अर्थात डूब में आने वाले प्राचीन ऐतिहासिक धरोहरों, पूजा स्थल आदि को भी नई जगह पर ले जाना होगा।
पुनर्वास स्थलों पर सभी जरूरी नागरिक सुविधाएँ मुहैया करानी होगी। कसरावाड़ गाँव के कैलाश यादव ने सभा को बताया कि उनके गाँव को डूब क्षेत्र की नई गणना में डूब क्षेत्र के बाहर बताया जा रहा है। अगर ऐसा है तो उन 15 हजार से अधिक परिवारों की जमीन का अधिग्रहण निरस्त करके जमीन वापस मिल जानी चाहिए जिन्हें डूब क्षेत्र के बाहर बताया जा रहा है और मुआवजा देने से इनकार किया जा रहा है। हालांकि नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने डूब क्षेत्र की इस गणना को फर्जी बताते हुए चुनौती दी है। वैसे गुजरात के वेबसाइट पर पुराने आँकड़े ही मौजूद हैं।
वैसे नगद मुआवजे के तौर पर वर्षों पहले 2.79 लाख रुपयों का भुगतान हुआ था। अब बकाया ढाई-तीन लाख ले जाने के लिये कहा जा रहा है। जबकि इस दौरान जमीन की कीमत बेतहाशा बढ़ी है और अब 5 एकड़ जमीन की कीमत 50 लाख से दो करोड़ के बीच होगी। ऐसे में जमीन के बदले की नगद की बात करना छल के सिवा कुछ भी नहीं।
एनबीए की विज्ञप्ति में नोटबन्दी के ताजा दौर का जिक्र करते हुए कहा गया है कि जब पूरे देश में कैशलेस इकोनॉमी की हवा बनाई जा रही है तब सदियों से नगदी के बिना जीवनयापन करने वाले आदिवासियों को नगद स्वीकार करने के लिये मजबूर क्यों किया जा रहा है?
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