भूगर्भ में जल उत्पन्न तो होता नहीं, वहाँ पाया जाने वाला सम्पूर्ण जल ऊपरी धरातल से समाया हुआ जल होता है, जो वर्षा काल में बरसा हुआ जल रिस-रिस कर अन्दर पहुँचता है। जब से वर्षा का क्रम बदला है तब से ऊपरी जल का पृथ्वी में समाना भी कम हो गया है।
सम्पूर्ण धरा पर पेयजल के स्रोत घट रहे हैं। यद्यपि धरा का ऊपरी आवरण का 3/4 भाग जल से ढका है परन्तु वह सम्पूर्ण जल पीने योग्य नहीं है। पेयजल का यह अभाव एक दिन, एक माह अथवा एक साल में नहीं हो गया है। पृथ्वी पर प्राणी, जगत की उत्पत्ति से ही जल का सेवन कर रहा है। प्रारम्भ में यह नदियों, झरनों अथवा स्रोतों के जल से अपनी प्यास को बुझाता था, परन्तु जैसे-जैसे इसका विकास हुआ और उसने शुद्ध-अशुद्ध के अन्तर को पहचाना तो शुद्ध जल की खोज करते-करते वह भूजल तक जा पहुँचा और उसे प्राप्त करने के उपाय भी खोजें। मानव के विकास की गति बढ़ती गई और भूजल को निकालने के ढंग बदलते गए। विगत कुछ काल से नवीनतम साधनों के माध्यम से इतनी तीव्र गति से भूजल का दोहन हुआ कि जल का भयंकर अपव्यय होने लगा। साथ ही जन-बल बढ़ने के कारण प्रदूषण भी बढ़ा।
अत्यधिक दोहन, अपव्यय एवं प्रदूषण के कारण पेयजल समाप्त होते जा रहे हैं। जागृत प्रबुद्ध नागरिक और सरकार इस समस्या से विशेष चिन्तित हैं परन्तु जन-साधारण में इस समस्या के आने का न ही कोई भय है और न कोई चिन्ता। उसने अपने कार्य एवं व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया है। वह कल जिस प्रकार पानी को बर्बाद कर रहा था वैसे ही आज भी कर रहा है। जो अशिक्षित लोग हैं उनकी तो बात अलग है परन्तु यहाँ तो पढ़े-लिखे समझदार लोग भी जल को बर्बाद कर रहे हैं। जब से कुएँ एवं हैण्डपम्प समाप्त हुए और उनका स्थान सबमर्सिबल ने लिया तब से इस व्यवहार को अधिक ही देखा गया है। लगातार घंटों जल को नालियों में व्यर्थ बहाया जाता है। दुकान और मकान के सामने घंटों धुलाई की जाती है। सड़कों को धोया जाता है और अमूल्य अमृत समान जल नालियों में बहता रहता है। ऐसी परिस्थिति में कठोर शक्तिपूर्ण कानून की भी आवश्यकता है।
एक ओर जहाँ जल का अपव्यय रोकना परम आवश्यक है वहीं दूसरी ओर अब तक जो क्षति हुई है उसकी भरपाई का भी प्रबन्ध होना चाहिए। आप किसी से कुछ लेते हैं तो उसे वापस करना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। अगर लेकर दोगे नहीं तो एक समय देने वाला बन्द कर देगा। यही हुआ है भूजल के सम्बन्ध में। भूगर्भ में जल उत्पन्न तो होता नहीं, वहाँ पाया जाने वाला सम्पूर्ण जल ऊपरी धरातल से समाया हुआ जल होता है, जो वर्षा काल में बरसा हुआ जल रिस-रिस कर अन्दर पहुँचता है। जब से वर्षा का क्रम बदला है तब से ऊपरी जल का पृथ्वी में समाना भी कम हो गया है जबकि जल का निष्कासन पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गया है। अतः धीरे-धीरे भूजल का भण्डार घट गया जो आज भयानक स्थिति में पहुँच चुका है। अब हमारा दायित्व बनता है कि हम जिस गति से जल का दोहन करते हैं, उसी गति से उसे वापस भी करें। अर्थात भूजल का पुनर्भरण होना चाहिए। हम वर्षा के जल को नाली, नाले, नदियों द्वारा बहकर समुद्र में नहीं जाने दें। वर्षा से प्राप्त अधिकांश जल को पृथ्वी के अन्दर प्रवेश कराने के प्रयास करें। जो जल स्वतः प्रवेश करता है वह तो करता ही है, शेष जो जल बह जाता है उसे भी भूगर्भ में पहुँचाने के प्रयास करें। अगर हम ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से पेयजल अभाव की समस्या को समाप्त कर सकते हैं। परन्तु हमारी मानवीय संवेदनाएँ मर चुकी हैं। मात्रा अपने विषय में सोचना हमारी नियति बन चुकी है, हम स्वार्थी हो चुके हैं जन सामान्य, जीव-जन्तु, प्रकृति एवं पृथ्वी के विषय में सोचना मूर्खता एवं पिछड़ापन समझने लगे हैं। लेकिन अब परिस्थितियाँ ऐसी बन चुकी हैं कि हमें अपनी संकुचित मानसिकता के दायरे से बाहर निकलना ही होगा। हमें व्यापक स्तर पर सोचना होगा, यही नियति है।
मानव जीवन की जीवन-यात्रा में अनेक वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उपभोग करते-करते वे उपयोगिता शून्य हो जाती हैं और उपभोग के योग्य नहीं रहती हैं। ऐसी वस्तुओं को अनुपयोगी समझकर हम उन्हें छोड़ देते हैं। उपयोगिता घटने पर हम उन्हें अपने ध्यान से भी निकाल देते हैं तथा व्यर्थ का कबाड़ा समझकर कभी उस ओर दृष्टिपात नहीं करते। अपना दृष्टिकोण बदलकर उस ओर देखें तो वह वस्तु पुनः किसी दूसरे रूप में अत्यधिक उपयोगी हो सकती है। जिस प्रकार कंडे या लकड़ी के जलने की उपयोगिता समाप्त होने पर राख से बर्तन साफ किये जा सकते हैं तथा तृतीय रूप में वह खेत में खाद का काम करती है। अब देखा जाये तो कंडे की उपयोगिता जलने पर भी कम नहीं हुई, मात्र उसका स्वरूप एवं उपभोग का क्षेत्र ही बदला। इसी प्रकार अनेक अवशिष्ट पदार्थ हो सकते हैं जिनका किसी अन्य रूप में उपयोग सम्भव है।
इसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए जल के पुनर्भरण के क्षेत्र में भी बेकार पड़े हैण्डपम्पों, ट्यूबवेलों के बोरिंगों का उपयोग इस कार्य में कर सकते हैं। सूखे हुए पुराने पक्के कुएँ भी इस कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि इसके लिये हमें क्या करना होगा? वैसे कुछ खास नहीं करना। लगभग हर मोहल्ले, हर गाँव में एक-दो हैण्डपम्प होते थे। भूजल का स्तर गिर जाने से वे सब बेकार हो गए और अब अनुपयोगी खड़े हैं। उन सबसे हैण्डपम्प का सेक्शन वाला भाग निकाल लिया जाये और प्लास्टिक पाइप के बोर को सुरक्षित रखा जाय। जिस गली और मौहल्ले का बोर हो उस मोहल्ले के सभी मकानों की छत के पानी का पाइप उस बोर से जोड़ दिया जाये। कच्चे मकान हों तो उन्हें इसमें सम्मिलित न करें। वर्षाकाल में उस मोहल्ले की सम्पूर्ण छतों का पानी बोर के माध्यम से सीधा भूगर्भ में चला जाएगा और नालियों में बहकर बर्बाद नहीं होगा। यही कार्य ट्यूबवेल बोर के साथ भी हो सकता है। जहाँ हैण्डपम्प अथवा ट्यूबवेल नहीं हैं वहाँ यह कार्य सरकारी सहयोग से अथवा आपसी सहयोग से किया जा सकता है।
प्राचीन काल में तालाब बहुत थे। तालाब भूजल के पुनर्भरण में बहुत सहायक थे। यद्यपि नदियों और नहरों से भी भूजल पुनर्भरण होता था, परन्तु बहता हुआ जल अधिक पुनर्भरण नहीं करता, यह कार्य तो रुके हुए जल से ही अधिक सम्भव है। अतः यह कार्य करते थे तालाब। तालाब शब्द तल+आब से निर्मित हैं जिसका अर्थ होता है सतह का पानी जो भूगर्भ में समाहित होता रहता है। खुले जल का वाष्पन भी होता है परन्तु जल का अधिक भाग भूगर्भ में समाहित हो जाता है बदले समय में लोगों में भूमि और धन-सम्पत्ति की बढ़ती भूख ने तालाबों को नष्ट कर दिया। वर्षा का क्रम बिगड़ने से तालाब सूखे और भू-माफियाओं ने उन्हें पाटकर उन पर बड़े-बड़े भवन खड़े कर दिये अथवा कृषिफार्म बना लिये। अब सरकार को चाहिए कि पुराने तालाबों को चिन्हित कर उन्हें खाली करा कर खुदाई कराए तथा पुनः तालाब का स्वरूप प्रदान करे। बचत की भूमियों का उपयोग कर कुछ नए तालाबों को भी जन्म दे तथा वर्षाकाल में उनमें वर्षाजल का संचय करें। जल को बर्बाद होने से रोका जाये। तालाब भूजल का तो पुनर्भरण करते ही हैं, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि जंगली जीवों को आश्रय भी प्रदान करते हैं।
वर्षाकाल में कुछ क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होते हैं। बाढ़ से असंख्य धन, जन, सम्पत्ति एवं कृषि फसलों का विनाश हो जाता है साथ ही अपार जलराशि बहकर समुद्र में चली जाती है। दोनों प्रकार से हानि-ही-हानि है। इस क्षेत्र में सरकार को ही कार्य करने की आवश्यकता है। ऐसे क्षेत्रों में नदियों पर बाँध बनाकर भारी मात्रा में जल शोधन यंत्र लगाए जाएँ और उनसे शुद्ध हुए जल का सम्बन्ध जल विहीन क्षेत्रों से किया जाये। जल को पीने योग्य बनाकर देश के उन समस्त क्षेत्रों तक पाइप लाइनों द्वारा पहुँचाया जाये जहाँ जल का अभाव है। साथ ही ऐसे क्षेत्रों में निवास करने वाले हर परिवार पर यह कानूनी दबाव हो कि वे अपने घरों में जल संचय की व्यवस्था करें। इसके लिये घर के फर्श के नीचे एक विशाल पक्का/कच्चा टैंक भी बनाया जा सकता है जो पूर्णरूप से सुरक्षित एवं ढँका हुआ हो। संचय से अधिक जल यदि प्राप्त हो तो उसका सम्बन्ध भी भूगर्भ से कर दिया जाये। इस प्रकार सम्पूर्ण देश में पर्याप्त जल भी उपलब्ध होगा, पुनर्भरण भी होगा और बाढ़ रोकने में भी सहायक होगा। जल शोधन के उपरान्त जो अधिक लवणों वाला कचरा युक्त अवशेष जल बचे उसे ही समुद्र तक जाने दिया जाये।
यदि हम ऐसी व्यवस्था बनाने में सफल होते हैं तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पेयजल की समस्या को समाप्त किया जा सकता है। एक असम्भव से लग रहे कार्य को सम्भव बनाया जा सकता है। भूजल का यह पुनर्भरण, मृत्यु के मुँह पर खड़े समस्त प्राणी जगत के लिये पुनर्जीवन का स्वरूप धारण कर सकता है।
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