बिहार के जल संकट की कहानी का आरम्भ राजधानी पटना से होता है। गंगा के दक्षिण और पुनपुन के उत्तर स्थित पटना शहर के नीचे सोन नदी की प्राचीन धारा है और इसके अधिकांश भूगर्भीय जलकुण्डों का सम्पर्क सोन नदी से है। लेकिन हर वर्ष गर्मी आते ही पानी की मारामारी आरम्भ होती है। पानी की कमी और गन्दे पानी की सप्लाई को लेकर अक्सर इस या उस मुहल्ले में हाहाकार मचता है। पानी की अवस्था, आपूर्ति की व्यवस्था और प्रशासनिक कुव्यवस्था का जायजा लेना दिलचस्प है।
आधुनिक किस्म की सरकारी जलापूर्ति व्यवस्था शहर के 60 प्रतिशत से अधिक हिस्से को नहीं समेट पाता। जिस सिस्टम से जलापूर्ति होती है, वह पाइपलाइन आजादी के पाँच साल बाद 1952 में बिछी थी। तब से आबादी बढ़ती गई और पाइपलाइनें बूढ़ी होती गईं। उसका दायरा बढ़ाना तो दूर, देखरेख करने में गहरी लापरवाही बरती गई। पम्पों की संख्या बढ़कर तीन गुनी हो गई और उन्हें इन्हीं पुरानी पाइपलाइनों से जोड़ दिया गया।
पानी के दबाव झेलने में पुरानी पाइपें नाकाम होती हैं। नतीजन रोजाना तीन-चार सौ जगहों पर लीकेज होता है। पानी बर्बाद होता है और पाइपों के जरिए नालियों का गन्दा पानी घरों में जाता है। काले, पीले और मटमैले पानी की शिकायत आम है। यानी डायरिया, पीलिया, टायफाइड, गैस्ट्रोइंटाइटिस जैसे रोग फैलते हैं।
यह मामला 1987 में जनहित याचिका के जरिए हाइकोर्ट में उठा। सौ दिन से अधिक बहस चली। अदालत ने सितम्बर 1990 में जलापूर्ति की नई पाइपलाइन बिछाने और सीवेज लाइनों को अलग रखने की हिदायत दी। पर हालत तो यह है कि जलापूर्ति पाइप लाइन का बुनियादी नक्शा भी उपलब्ध नहीं है। अदालत में काफी फजीहत के बाद राज्य सरकार ने 1994 में 35 वर्षों की जरूरत का ध्यान रखते हुए योजना बनाने के लिये एक कमेटी बना दी। इस बीच पटना की आबादी बढ़ती गई। प्रस्तावित योजना में बढ़ी आबादी और क्षेत्रफल का समावेश किया जाता रहा।
आखिरकार 2020 की आबादी और क्षेत्रफल के अनुमान के आधार पर एक योजना 2004 में बन पाई, जिसकी लागत 800 करोेड़ से बढ़कर 1400 करोड़ रुपए हो गई है। पर इस योजना के लिये जापान स्थित अन्तरराष्ट्रीय संस्था से कर्ज लेने की बातचीत पूरी नहीं हुई है। कर्ज की उम्मीद में लोग भरमाए जाते हैं।
भरमाने का स्तर यह है कि पटना में चौबीस घंटे जलापूर्ति की केन्द्र सम्पोषित योजना आरम्भ होने के पहले ही बन्द हो गई है। यह योजना जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन के अन्तर्गत पटना, दानापुर, खगौल और मुजफ्फरपुर में लागू होनी थी। इसे लेकर सीएजी ने बिहार सरकार की जमकर खिंचाई की है। करार के मुताबिक समय पर काम नहीं होने की वजह से सरकार ने निर्माण एजेंसी को बर्खास्त तो कर दिया पर जिस सरकारी रकम की बर्बादी हुई, उसे वसूलने की कार्रवाई नहीं की।
इस योजना के अन्तर्गत गंगा का पानी साफ कर विभिन्न जलमीनारों में भण्डारण किया जाता जहाँ से पाइपलाइनों के माध्यम से मुहल्लों में जलापूर्ति होती। नगर निगम के सभी 72 वार्डों में जल मीनार बनाया जाना था। पर निर्माण एजेंसी ने तीन जलमीनारों का निर्माण नगर निगम से अनापत्ति पत्र प्राप्त किये बगैर आरम्भ कर दिया था। नौ महीने के बाद भी वह 72 स्थलों में केवल 26 स्थलों को चिन्हित कर पाया था। उल्लेखनीय है कि गंगा के पानी का परिशोधन कर पेयजल के तौर पर आपूर्ति करने की यह पहली योजना होती। अभी पटना पूरी तरह भूजल पर आश्रित है।
सरकारी जलापूर्ति व्यवस्था जिस दायरे की सीमित आबादी को समेटती है, उसके बाहर की आबादी निजी नलकूपों और चापाकलों पर निर्भर रहती है। पुराने शहर अर्थात पटना सिटी की अस्सी प्रतिशत आबादी उस सरकारी नलकूपों व पाइपलाइनों पर निर्भर हैं जिनमें नब्बे प्रतिशत जर्जर हो गए हैं।
दिलचस्प यह है कि 135 लीटर प्रति व्यक्ति की दर से पटना को प्रतिदिन 1 करोड़ 32 लाख लीटर पानी की जरूरत है, पर प्रतिदिन 2 करोड़ 27 लाख लीटर की आपूर्ति होती है। परन्तु पूरी गर्मी पानी को लेकर हाहाकार मचा रहता है। दरअसल गर्मी में जैसे ही तापमान 40 डिग्री से ऊपर जाता है, भूजल का स्तर 5-7 फुट नीचे खिसक जाता है। पम्पों से पानी की निकासी कम हो जाती है। लीकेज की वजह से नाले का पानी भी सप्लाई के पानी में सम्मिलित हो जाती है।
गन्दे पानी का निपटारा सही ढंग से नहीं होने पर भूजल भण्डार के प्रदूषित होने का खतरा भी है। अभी 102 पम्प हैं जिनके सही संचालन के लिये 200 से अधिक आपरेटरों की जरूरत है, पर केवल 110 उपलब्ध हैं। आपरेटरों की कमी की वजह से कई इलाकों में स्थानीय निवासी ही पम्पों को चलाते हैं। पम्प खराब होने की घटनाएँँ अधिक होती हैं, फिर मरम्मत में विलम्ब होता है। इसलिये कई वार्डों (जैसे वार्ड नम्बर-4, 5, 20, 21, 35, 40, 41, 44, 45 इत्यादि) में गर्मी भर संकट बना रहता है।
नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने पटना के साथ-साथ दानापुर, खगौल और मुजफ्फरपुर के लिये 700 करोड़ की योजनाएँँ मंजूर किया था। काम आरम्भ होने में विलम्ब होने की वजह से पटना की योजना की लागत 427 करोड़ से बढ़कर 548 करोड़ हो गई। कारार के मुताबिक समय पर काम नहीं होने पर सरकार ने जुलाई 2014 में अनुबन्ध रद्द कर दिया लेकिन आज तक दूसरी निर्माण एजेंसी नहीं खोज पाई। इसलिये केन्द्र से 160 करोड़ रुपए की अगली किस्त नहीं मिल पाई।
हालांकि बिहार का जल संकट राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र या दिल्ली जैसा नहीं है, जहाँ भूजल भण्डार सूख गया है या फिर भूगर्भ का पानी खारा हो गया है। यहाँ का संकट मूलतः कुव्यवस्था की वजह से है। परम्परा से विकसित व्यवस्थाएँँ अज्ञान और उदासीनता की वजह से नष्ट हो गई हैं और नई व्यवस्थाएँँ कारगर नहीं हो पाई।
ग्लेशियरों का पानी लेकर हिमालय से आने वाली नदियों और समूचे उत्तर भारत के भूजल प्रवाह की वजह से बिहार में वैसा संकट उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी भरोसे पूरा सरकारी तंत्र और स्थानीय समाज जल के कुप्रबन्धन की ओर से लापरवाह बना हुआ है।
यह राहत की बात जरूर है कि पटना के भूजल में अभी आर्सेनिक या फ्लोराइड जैसे जहरीले रसायन नहीं मिले। लेकिन आसपास के इलाकों खासकर मनेर के भूजल में आर्सेनिक मान्य मात्रा से अधिक पाई गई है। पटना के भूजल में आर्सेनिक नहीं मिलने का कारण पर्यावरण विज्ञानी यह बताते हैं कि यहाँ के भूजल कुण्ड सोन की प्राचीन धारा से सम्बन्धित हैं, गंगा से नहीं।
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