पतित-पावनी गंगा

गंगा को पतित-पावनी कहा गया है। गीता से लेकर पुराणों तक में इसकी चर्चा मिलती है। वहीं शंकराचार्य से लेकर मुस्लिम कवि रहीम और तानसेन तक ने गंगा की महिमा का बखान किया है।

गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- ‘धाराओं में, नदियों में मैं गंगा हूँ।’ ऋग्वेद के दशम मण्डल के प्रसिद्ध नदी सूक्त (75-5) में जिन 20 नदियों के नामों का उल्लेख है, उनमें गंगा सर्वप्रथम है। शतपथ एवं ऐतरेय ब्राह्मणों में भी गंगा का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में गंगाअवतरण का विस्तृत विवरण है। महाभारत के अरण्यपर्व के अध्याय 85 में गंगा की प्रशस्ति में अनेक श्लोक हैं। (88-97) वहीं महाभारत के अनुशासन पर्व में भी गंगा के माहात्म्य का विशद् वर्णन है। इतना ही नहीं, प्राय: सभी पुराणों में गंगाअवतरण की कथा तथा गंगाजल की महिमा की व्याख्या की गई है। विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मत्स्य पुराण, वराह पुराण, पद्य पुराण, कर्म पुराण, गरुड़ एवं भागवत पुराण प्रमुख हैं।

स्मृतियों में भी गंगा का माहात्म्य वर्णित है। मनुस्मृति में साक्षी के सत्योच्चारण के क्रम में ‘‘माँ गंगा माँ कुरुन् गम:’’ (8/92) कहा गया है। वहीं गीत-गोविन्द के रचयिता जयदेव ने दशावतार वर्णन में भी गंगा की उत्पत्ति का संकेत करते हुए लिखा है कि वामनाअवतार विष्णु भगवान के चरण-नख से निकली हुई भगवती गंगा के प्रवाह से सम्पूर्ण धरा-धाम पवित्र है।

पदन खनीर जनित जन पावन
केशव धृतवामनरूप जय जगदीश हरे।।


महर्षि वाल्मीकि की रचना के रूप में प्रसिद्ध एक स्रोत ‘गंगाष्टक’ में कहा गया है कि ‘भगवान विष्णु के चरणों से निकली हुई गंगा भगवान शंकर के मस्तक पर विचरती हुई हमें पवित्र करें।’

विष्णु से शिव तक गंगा की यात्रा में एक और पड़ाव पुराणों में माना गया है। विष्णु के चरणों से निकलकर वह ब्रह्मा के कमण्डल में समा जाती हैं, पुन: वहाँ से निकलती हुई शिव की जटा का आश्रय लेती हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में ब्रह्मा द्वारा गंगाजल के धारण की कथा आई है। इसके प्रकृति खण्ड के 11वें अध्याय में कहा गया है:- चंद्रशेखर भगवान शिव की जटा में घूमती हुई गंगा पृथ्वी की ओर चली। शिव की जटा में गंगा के इस भ्रमण का वर्णन रावण कृत ‘शिवताण्डवस्त्रोत’ में मार्मिक रूप से हुआ है- ‘यह महात्मा भागीरथ का अथक प्रयास था कि गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आई।’

श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध के नवम अध्याय में गंगाअवतरण का संक्षिप्त किन्तु समग्र वृतान्त उपलब्ध है, जिसके अनुसार कपिल मुनि के शाप से जब सगर के हजारों पुत्र भस्म हो गए, तब सगर की दूसरी पत्नी केशिनी से उत्पन्न पुत्र अंशुमान् यज्ञ के घोड़ा के अन्वेषण में निकलें और कपिल मुनि के आश्रम में अपने पितृव्यों के भस्म देखे। कपिल मुनि को प्रसन्न कर उन्होंने उनके उद्धार का उपाय पूछा। तब उनके उपदेश से वे अश्व को लेकर राजधानी लौटे। सगर ने यज्ञ समाप्त किया और अंशुमान को राजा बना कर संन्यास ग्रहण किया। अंशुमान भी गंगावतरण के लिए तपस्या करते हुए दिवंगत हुए तब अंशुमान के पुत्र दिलीप भी आजीवन तप करते रहे। पुन: दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगा की आराधना करते हुए घोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा ने कहा कि मेरी धारा के वेग से पृथ्वी में छिद्र हो जाएगा और मैं सीधे पाताल लोक चली जाऊँगी। इस पर भगीरथ भगवान शंकर की आराधना करने लगे। प्रसन्न होकर शंकर ने गंगा के वेग को अपनी जटा पर धारण किया और बाद में गंगा धीरे-धीरे पृथ्वी पर भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चल पड़ी, जिससे गंगा का नाम ‘भागीरथी’ पड़ा। एक अन्य कथा के अनुसार इस रास्ते में महामुनि ‘जह्नु’ तपस्या कर रहे थे। उन्होंने गंगा के प्रवाह को उनका औद्धत्य समझ कर क्रोध से चुल्लू में उठाकर पी लिया। बाद में भगीरथ द्वारा वस्तुस्थिति प्रकट करने पर और स्तुति करने पर प्रसन्न होकर जह्नु ने अपनी जंघा चीड़कर गंगा को मुक्त किया, जिससे वह ‘जाह्नवी’ के नाम से विख्यात हुई। ब्रह्मवैवर्त-पुराण के कृष्णजन्म-खण्ड के 34वें अध्याय (20-22) में भी गंगा के विभिन्न नाम के साथ नामकरण के कारण की चर्चा की गई है।

गंगा भारत की नदियों में श्रेष्ठ मानी गई है। ऋग्वैदिक काल से आजतक इसकी महिमा गाई जाती रही है। गंगा के बारे में यहाँ तक कहा गया है कि गंगा के जल को स्पर्श करने वाली वायु के स्पर्श से भी सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। (ब्रह्मवैवर्त. प्रकृति खण्ड : 10/20)

शंकराचार्य ने भी गंगा की स्तुति करते हुए कहा कि ‘हे गंगे! तुम्हारे जल में कछुआ या मछली बनकर रहना अथवा तुम्हारे तट पर क्षुद्र जीव गिरगिट बन कर रहना मुझे पसन्द है किन्तु तुम्हारे तट से दूर कुलीन राजा बनकर भी रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।’

इतना ही नहीं सत्रहवीं सदी में पण्डितराज जगन्नाथ ने भी गंगा के प्रति अपनी भक्ति-भावना प्रदर्शित करते हुए ‘पीयूष-लहरी’ नामक काव्य का प्रणयन किया, जिसके मंगलाचरण में ही उसे पृथ्वी की सौभाग्यरेखा, महादेव का ऐश्वर्य, वेदों का सार सर्वस्व, देवताओं का मूर्तिमान पुण्य तथा अमृत-सहोदर माना है।

गंगा की महिमा संस्कृत साहित्य में ही नहीं, बल्कि आधुनिक भारतीय भाषा के काव्यों की परम्परा में भी विभिन्न कवियों ने गाई है। विद्यापति की भावना तो माता गंगा के साथ इतनी अद्वैतमयी हो जाती है कि गंगाा स्नान के समय अपने चरणों से गंगा के स्पर्श पर उन्हें अपराध बोध होता है और वे कह उठते हैं- ‘एक अपराध छमब मोर जानि परसल माय पाय तुअ पानि।।’ इतना ही नहीं तानसेन, रहीम आदि मुस्लिम कवियों ने भी गंगा की भाव- भीनी स्तुति की है। रहीम कहते हैं-

अच्युत चरन तरंगिनी शिव सिर मालति माल।
हरि न बनायो सुरसरी की जो इंदव भाल।।


वहीं तानसेन कहते हैं-
ईस सीस मध विराजत त्रई पावन किए
जीव जन्तु खग मृग सुर नर मुनि मानी।
तानसेन प्रभु तेरो अस्तुत करता दाता
भक्त जनन की मुक्ति की बरदानी।।


धर्मशास्त्र की परम्परा में भी गंगाजल को अत्यन्त पवित्र मानकर उसे सदापुण्या कहा गया है और श्रावण एवं भाद्रपद के दिनों अन्य नदियों को रजस्वला मानकर स्नान करने का निषेध किया गया है, लेकिन वहाँ यमुना, गोदावरी आदि नदियों के साथ गंगा को भी पवित्र माना गया है। गंगा पर अनेक धर्मशास्त्रीय ग्रन्थ पृथक् रूप से लिखे गए हैं, जिनमें विद्यापति कृत गंगा-भक्ति तरंगिणी एवं वर्द्धमान उपाध्याय कृत ‘गंगाकृत्यविवेक’ महत्त्वपूर्ण हैं। इन शास्त्रकारों ने एक व्यवस्था दी है कि गंगा के जल में अन्य जल को मिश्रित करना पाप है; अर्थात गंगाजल को दूषित करना पाप का कारण माना गया है। इसके विपरीत यदि सामान्य जल में थोड़ा सा भी गंगाजल मिला दिया जाए तो वह सम्पूर्ण जल पवित्र हो जाता है। गंगाजल को ‘परमौषधि’ कहा गया है- ‘औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणों हरि:।

लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रह चुके हैं। इन दिनों वे महावीर मन्दिर पटना के सचिव और बिहार राज्य धर्मार्थ ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं।

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