विभिन्न अखबारों और अन्य मीडिया में देश में उपलब्ध पेयजल और भूजल में बढ़ते रासायनिक प्रदूषण के बारे में लगातार रिपोर्ट प्रकाशित होती रहती हैं। बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से धरती की ऊपरी सतह से लेकर 200-500 फ़ुट गहराई तक का भूजल धीरे-धीरे प्रदूषित होता जा रहा है। इसी प्रकार की एक रिपोर्ट अशोक शर्मा ने सुदूर उत्तर-पूर्व शिलांग से भेजी है। इसके अनुसार पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के लाखों लोग “आर्सेनिक” नाम का धीमा जहर रोज़ाना मजबूरन पेयजल के जरिये निगल रहे हैं। असल में उस इलाके की मुख्य फ़सल चावल है और चावल की कुछ किस्में जमीन से “आर्सेनिक” सोखती हैं, जिसके कारण क्षेत्र में कई गम्भीर बीमारियाँ फ़ैल रही हैं।
देश की एक प्रमुख शोध संस्था, काउंसिल ऑफ़ साइंटिफ़िक एण्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) के निदेशक श्री समीर ब्रह्मचारी ने बताया कि इस विकराल होती समस्या के लिये संस्था ने कुछ उपाय खोजे हैं। जापानी वैज्ञानिकों ने एक शोध के जरिये बताया है कि चावल की कुछ खास किस्में भूजल के स्रोतों से सिंचाई किये जाने पर आर्सेनिक की भारी मात्रा अवशोषित कर लेते हैं, उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के भूजल में आर्सेनिक ज्यादा पाया जाता है। आर्सेनिक एक ऐसा रसायन है जो “त्वचा कैंसर” के लिये कारणीभूत होता है। जापानी वैज्ञानिकों की यह खोज “प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकेडेमी ऑफ़ साइंसेस जर्नल” में प्रकाशित भी हो चुकी है।
जापानी वैज्ञानिकों ने पाया कि चावल के पौधे में मौजूद दो प्रोटीन आर्सेनिक को चावल तक पहुँचाने में सर्वाधिक जिम्मेदार होते हैं। दोनों ही प्रोटीन पौधे की जड़ों में होते हैं। इनमें से एक प्रोटीन LSi1 आर्सेनिक को जड़ों से खींचता है, जबकि दूसरा प्रोटीन LSi2 उस आर्सेनिक का बहाव तने और चावल के दाने तक पहुँचाता है। 96 वीं विज्ञान काँग्रेस में भाग लेने आये श्री ब्रह्मचारी ने बताया कि CSIR ऐसे पौधों की खोज में है जो अन्न के रूप में अनुपयोगी हों लेकिन ज़मीन से आर्सेनिक सोखते हों, इससे उन इलाकों में जहाँ आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा है वहाँ इनको भारी मात्रा में उगाया जाये ताकि ऐसे पौधे आर्सेनिक की अधिकतम मात्रा ज़मीन और भूजल से सोख लें और पानी को आर्सेनिक मुक्त किया जा सके।
आर्सेनिक युक्त चावल की समस्या से विश्व के अन्य देश भी अछूते नहीं हैं, अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देश इससे जूझ रहे हैं। अमेरिका के कार्नेल विश्वविद्यालय द्वारा एक अध्ययन किया गया जिसके अनुसार अमेरिका में पाये गये आर्सेनिक युक्त चावल को अपेक्षाकृत कम घातक पाया गया, वैज्ञानिकों ने कहा कि चावल की कुछ ऐसी किस्मों को बोना चाहिये जो आर्सेनिक अकार्बनिक रूप को कार्बनिक रूप में बदल दे, क्योंकि आर्सेनिक का कार्बनिक रूप कम जहरीला पाया गया है और मनुष्यों की मल-मूत्र उत्सर्जन क्षमता इसे जल्दी से शरीर के बाहर निकाल फ़ेंकती है।
उत्तर-पूर्व में स्थित सीमेंट उद्योग और कोयला खदानों द्वारा पानी में फ़ैलते भारी पर्यावरणीय प्रदूषण के बारे में पूछने पर श्री ब्रह्मचारी ने कहा कि “आसाम में उत्पन्न होने वाले कोयले में राख की मात्रा कम है, जबकि सल्फ़र की मात्रा काफ़ी है। इस क्षेत्र के कोयले में 7 से 9 प्रतिशत तक सल्फ़र होता है जो कि 0.7 प्रतिशत के सामान्य स्तर से बहुत ही ज्यादा है। अतः मुख्य समस्या कार्बनिक और अकार्बनिक सल्फ़र की मात्रा के कारण है। अभी हम इस समस्या का हल पूरी तरह नहीं ढूँढ सके, लेकिन हमारी कोशिशें जारी हैं…”। सीमेंट उद्योग और कोयला खदानों के कारण उत्तर-पूर्व की सभी नदियों में प्रदूषण बढ़ गया है। इसका सर्वाधिक प्रभाव मछली पालन के छोटे-छोटे उद्योगों पर पड़ा है जो कि इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य आय-साधन है।
मूल रिपोर्ट – अशोक शर्मा (http://www.financialexpress.com/news/arsenic-intake-a-serious-menace-in-wb-bdesh/406664/0)
अनुवाद – सुरेश चिपलूनकर
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