आज सारे संसार में पर्यावरण रक्षण की चेतना जागृत जाग चुकी है। पर्यावरण के प्रदूषण ने संसार के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। यह सही है कि धरती का यह संकट विशेषकर विकसित देशों की देन है। उनकी आर्थिक लिप्सा ने प्रकृति का इस तरह विध्वंस करना शुरु किया कि आज जो विभीषिका सामने आई है, जो त्रासदी दिखाई देने लगी है, उसके निवारण के लिए पूरा संसार चिंतित हो रहा है।
जिस पर्यावरण चेतना की बात ये विकसित देश अब कर रहे हैं, वह तो आदिकाल से ही भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है। यह चेतना सब जगह मुखरित हुई - हमारे साहित्य में, दर्शन में, आचार और व्यवहार में और यहाँ तक किनृत्य, संगीत, कला और लोक जीवन के प्रत्येक पक्ष में इसे संजोया गया, संवारा गया और इसके साहचर्य से मंगल की कामना की गई। इनका विस्तार सब जगह है वेद, पुराण, उपनिषद्, संस्कृत और सूफी साहित्य, दर्शन ग्रन्थ, आगम, पंचतंत्र और जातक कथाएँ सभी में प्रकृति के इस महान लोकमंगलकारी स्वरुप का वर्णन है। पर्यावरण की रक्षा और संवर्द्धन, उसका पोषण और पुष्टि, उसकी शुद्धि और पवित्रता हमारे लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी हमारे जीवन की ललक और अंतश्चेतना रहती है।
प्रकृति और संस्कृति का साहचर्य शताब्दियों पुराना है। इस सहचर्य को भारतीय मनीषा ने सबसे पहले पहचाना और लोकमंगल के लिए इसका उपयोग किया। जो संस्कृति तपोवनों में पल्लवित और पोषित हुई, उसकी आत्मा में प्रकृति का वास था। शुद्ध पर्यावरण ही उसकी शक्ति थी। इस शक्ति की अनुगूँज इसे सब जगह सुनाई दी। भारतीय वाङ्गमय ने तो आदिकाल से ही प्रकृति के महत्व को स्वीकार कर लिया था। वैदिक ऋचाएँ या पौराणिक आख्यान, उपनिषदों या गीता का दर्शन या पंचतंत्र और जातक कथाओं का सार सभी में वह महातत्व निरन्तर प्रवाहमान रहता है जिसे हम प्रकृति कहते हैं। भारतीय लोक जीवन प्रकृति की गोद में पला - प्रकृति में उसे माँ का वात्सल्य मिला है।
प्रकृति और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जो सृष्टि की सहायता करते हुए आगे बढ़े हैं। प्रकृति का दोहन और संस्कृति का पोषण एक साथ चला। पर्यावरण के कवच ने हर किसी देश के इतिहास और भूगोल, साहित्य और संस्कृति, लोकजीवन एवं लोक व्यवहार सबको सुरक्षा दी और उधर इन सबसे मिलकर पर्यावरण को शुद्ध और प्रदूषण रहित बनाये रखा। यह साझा प्रयास सदियों तक चलता रहा।
'भारतीय वाङ्गमय इस बात का साक्षी है कि उसमें आदिकाल से प्रकृति की अर्चना, आराधना और पूजा के भाव रहे हैं। हमने प्रकृति में ईश्वर का साक्षात रुप देखा, ऐसे में उसके प्रति वैरभाव का तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता। हमारे वेद, पुराण और उपनिषद्, आगम और निगम, संस्कृत और सूफी साहित्य, कला, दर्शन और इतिहास, आचार, व्यवहार एवं विचार तथा लोग जीवन और सम्बन्धों के समीकरण आदि सभी एक ही दिशा की ओर संकेत करते हैं। और वह है मनुष्य और प्रकृति के बीच में गहरी आत्मीयता की दिशा ।
हमारी संस्कृति की पोर - पोर में प्रकृति का वास है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति की जड़ों में जिन सूत्रों ने अमृत सिंचन किया वे सभी प्रकृति से प्राप्त हुए थे। संस्कृति ने हमारे विचारों को पवित्र रखा और इन्हीं विचारों के आधार पर हम प्रकृति को प्रदुषण रहित रखने में सफल रहे।
सभ्यता के पट परिवर्तन के साथ आज सारा फलक ही बदल गया है। समूचा विश्व पर्यावरण की समस्याओं को लेकर उद्वेलित एवं आशंकित है लेकिन जिस पाप के भागीदार हम स्वयं हो, उसके लिए दूसरे को दोष देना कहाँ की शराफत है। इंसान का अपराध बोध इतने गहरे तक बैठ गया है कि अब जाग पाना जरा कठिन सा लगने लगा है। प्रकृति के साथ अमानुषिक छेड़छाड़ करके इंसान ने अपनी आत्महत्या की है उसकी आखिरी मंजिल विनाश के स्टेशन की ओर ले जाने वाली है यह सोचने में जितना अधिक विलम्ब होगा उतना ही - वह मानव जाति के लिए भयावह होगा।
भारतीय मानव न तो इस स्थिति के प्रति उदासीन रह सकता है और न असहाय होकर तटस्थ दर्शक बनने को विवश ही हो सकता है। रोम को जलता देखकर नीरो बनकर बंशी बजाते रहना उसके स्वभाव में नहीं है। यह कारण है कि भारत ने पर्यावरण के संकट को पूरी गंभीरता से लिया है और विकसित देशों के लालची कुचक्र से शेष संसार को बचाने के लिए एक नैतिक नेतृत्व प्रदान किया है।
हम यह मानकर चलते हैं कि आधुनिक प्रौद्योगिकी की यह दंभ यात्रा अधिक टिकाऊ नही है एक न एक दिन उसके दर्प का खंडन होना ही है। मानवता के स्वास्थ्य के हित में आवश्यक है कि पर्यावरण भी स्वस्थ रहे उसका मिजाज नहीं बिगड़े और लगातार आक्रमण झेलने के कारण गुस्से में आकर कहीं उसमें प्रतिशोध के भाव नहीं जाग बैठे। यदि ऐसा हुआ तो करोड़ों लोगों की आँखों में जो हताशा जन्म ले चुकी है वह जीवन का एक स्थायी भाव बन जाएगी। तब उस जोखिम को उठाना हमारे लिए सचमुच ही कठिन हो जाएगा।
पर्यावरण ने हमें वह सारी भौतिक सम्पदा दी जो हमारे जीवन को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पर्याप्त है। धूप, पवन, पानी और धरती बिना किसी बँटवारे के मानव को बख्श दी गई। कहीं कोई प्रदूषण नहीं था। शुद्ध अन्न और शुद्ध मन साथ- साथ चल रहे थे कि अचानक तृष्णा राक्षसी जाग गई और उस पिशाचिनी ने पाश्चात्य देशों के घट में आकर संसार को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया।
जंगल साफ हो गये, लाचार वन वृक्षों को बिलखने लगे, पशु पक्षियों औरअन्य जीवों की प्रजातियाँ समाप्त होने लगी, वातावरण घूँए से भर गया, फेफड़े शुद्ध वायु को तरस गये, ओजोन की परत पतली होती चली गई, कार्बन डाइ आक्साइड को धूम मचाने की पूरी छूट हासिल हो गई, ग्रीन हाऊस गैसें अपनी पूरी तीव्रता के साथ धरती को तपाने लगी, तापमान बढ़ता चला गया। बाद और अकाल मनमर्जी से आने जाने लगे, मिट्टी रसायन पी पीकर उर्वरा शक्ति से हाथ धो बैठी और पानी में कचरा, अपशिष्ट और दूषित पदार्थ मिलते - मिलते उसका शील भंग हो गया।
विकास के नाम पर मनुष्य की यह ताबडतोड यात्रा कभी हमें भोपाल गैस त्रासदी के ओर ले जाती है तो कभी चेरनोविल की दुखान्तिका की ओर, कहीं धरती धसकती है तो कहीं भूकम्प आते हैं। चट्टानों का खिसकना, उपजाऊ मिट्टी का बिना प्रयोजन समुद्र में बहकर मिल जाना और सूखे का गुर्राते रहना आज हमारी किस्मत की रेखाओं का रुप धारण कर चुका है।
भारत ने इस विभीषिका को पहचाना। यही कारण है कि आज पर्यावरण रक्षा के लिए जन चेतना का एक व्यापक अभियान सा चल रहा है। तीसरी दुनिया की आँखें भारत के इन प्रयासों पर टिकी हुई है हमारा मानना है कि पर्यावरण रक्षा का विचार हमारी संस्कृति का मूल भाव है, और उसका अभिन्न अंग है। हमने यह विचार किसी दूसरे देश से उधार में नहीं लिया है। यह कोई आयातित सामग्री न होकर हमारे जीवन का मूल उत्स है यह एक ऐसी अन्तश्चेतना है जिसके उदाहरण हमें वेदों की ऋचाओं, उपनिषदों के मंत्रों, पुराणों के आख्यानों, पंचतंत्र, हितोपदेश और सुहृद भेद की कथाओं तथा दर्शन ग्रंथों में जगह- जगह देखने को मिलते हैं। पूरा संस्कृत वाङ्गम, संत और सुफी साहित्य, इतिहास, बोध, लोकजीवन और कलाजगत सभी इस बात को प्रमाणित करते हैं कि भारत में प्रकृति और संस्कृति साथ - साथ बढ़े हैं।
हमारी वनस्थलियों में हमारी शिक्षा प्रणाली पनपी और ऋषियों की तपस्याएँ फलीभूत हुई। आगम निगम हो या जातक कथाएँ, कुरान और बाइबिल, गुरुग्रंथ साहब हो अथवा अन्य कोई ग्रन्थ, सभी जगह इसी भाव को पोषित एवं पल्लवित किया गया है। हमारा संविधान भी पर्यावरण की रक्षा का एक जबर्दस्त हिमायती है। सारे कानून इसी दिशा में आगे बढ़ते हैं। इतिहास साक्षी है कि प्रकृति की रक्षा में लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दे दी तथा उसे सदैव देव तुल्य माना और प्रकृति ने भी हमें जीवन का वरदान देकर उपकृत किया।
स्रोत - पर्यावरण डाइजेस्ट मार्च 2024 वर्ष 38, अंक 03 मार्च 2024
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