पर्यावरण और विकास का द्वंद्व

पर्यावरण और विकास का द्वंद्व
पर्यावरण और विकास का द्वंद्व

बिगड़ते पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत करने वाले आन्दोलनों को उठे ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, पर यह काफी आगे बढ़े है। लेकिन इसके साथ ही विकास बनाम पर्यावरण सुरक्षा का विवाद भी उठ खड़ा हो गया है। लेखक का मानना है कि यह व्यर्थ का विवाद है इसे वही लोग चला रहे हैं जो विकास की उसी धारा के पक्षधर हैं जिसने पर्यावरण का विनाश किया है।

पांच जून 1972 को स्टाकहोम में हुए प्रथम विश्व पर्यावरण सम्मेलन की रजत जयन्ती तथा रीयो में पांच वर्ष पूर्व हुए पर्यावरण और विकास सम्मेलन के निर्णयों पर राजनेता और पर्यावरण की रक्षा के लिए समर्पित संगठन लेखा-जोखा लेकर विश्व पर्यावरण दिवस मनायेंगे। पिछले पच्चीस वर्षों में पर्यावरण पर बहुत लुभावनी घोषणाएं हुई हैं और लाखों पृष्ठों के साहित्य का सृजन हुआ है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि धनी देशों के ऊपर जहां ओज़ोन की छतरी पर छेद होने के कई प्रकार के परिस्थितिकीय उपद्रवों का खतरा मंडरा रहा है, गरीब देशों की सड़कों पर सर्वत्र प्रदूषण का धनीभूत होना महसूस किया जा सकता है। भारत की राजधानी दिल्ली का आई. टी. ओ. क्षेत्र इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां से सांयकाल गुजरने वाले व्यक्ति की आँखों से आँसू टपकते रहते हैं।

प्रदूषण का संकट केवल वायु-प्रदूषण तक ही सीमित नहीं है, जल-प्रदूषण और जल-संकट इसका दूसरा भयावह पहलू हैं। इसके अलावा बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि हमें भोजन देने वाली धरती माता गम्भीर रूप से बीमार है। उसकी प्राण शक्ति, उपजाऊ मिट्टी के जीवंत तत्व नष्ट हो रहे हैं। भू-क्षरण, खारा और दलदलीपन से उसके बड़े क्षेत्र ग्रस्त हैं। कुछ देशों में तो ऐसा अनुपजाऊ क्षेत्र प्रतिशत तक पहुंच गया है। भारत में यह पच्चीस प्रतिशत है।

पर्यावरण की चर्चा के साथ हाल के वर्षों में विकास का प्रश्न जुड़ गया है। अब शायद ही कोई ऐसा मंच हो, जहां इन दोनों की एक साथ चर्चा न होती हो। इन पच्चीस वर्षों में साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद के अलावा दो नए वादों का उदय हुआ है। वे हैं-पर्यावरणवाद और विकासवाद। जब कोई विचारवाद बन जाता है तो उस पर विवाद खड़ा हो जाता है। उसकी आत्मा लुप्त हो जाती है और अपने को प्रहारों से बचाने के लिए उसे एक कृत्रिम कवच बनाना पड़ता है। विकास और पर्यावरण आज इन कवचों से सुरक्षित और एक-दूसरे पर प्रहार के लिए मोर्चे पर तैनात हैं।

दूर हिमालय में प्रकृति पर होने वाले प्रहारों से विचलित, अपने अस्तित्व के आधार नदी, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए कार्यरत मेरे जैसे व्यक्ति को, हाल ही में भारत के औद्योगिक नगर मुम्बई में इसका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। एक टेलीविज़न कम्पनी द्वारा पर्यावरण और विकास पर परिचर्चा का आयोजन किया गया था। इसमें दो दलों में चर्चा करने वाले बिठाए गए थे। एक ओर हरित क्रान्ति के पुरोधा किसान नेता, उद्योगपति, अर्थशास्त्री और तंत्रज्ञ तो दूसरी ओर पर्यावरण के लिए कानूनी लड़ाई वाले वकील और आन्दोलनकारी।

विकास का गुणगान करने वालों का तर्क था कि हरित क्रान्ति न होती तो लोग भूखे मरते। आज़ादी के बाद औसत आयु 32 वर्ष से बढ़कर 65 वर्ष हो गई, औद्योगिक और कृषि उत्पादन कई गुना बढ़ गया है। बड़े बांधों से सिंचाई और बिजली का उत्पादन हुआ है। भारत का निर्यात कई गुना बढ़ गया है। यह निरन्तर बढ़ा ही जा रहा है। इस सारी प्रगति को देखकर पर्यावरणवादी रोड़े अटका रहे हैं। ये लोग विदेशी एजेंट हैं और देश की तरक्की नहीं चाहते ।पर्यावरण के पक्षधरों का जोर विकास के अस्थायी होने, इसके लाभ एक छोटे अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहे और जीवन के लिए आवश्यक शुद्ध वायु, पेयजल और पौष्टिक खुराक सबके लिए उपलब्धि न होने पर था।

वास्तव में इस विवाद का मुख्य कारण विकास की सही परिभाषा का न होना है। आज पूरे विश्व में विकास की जो परिभाषा छाई हुई है, वह दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर 20 जनवरी 1949 को अमरीकी कांग्रेस को अपने सम्बोधन में राष्ट्रपति टूमैन ने दी थी। उनके अनुसार विश्व के सामने मुख्य समस्या गरीबी थी और गरीबी के उन्मूलन का उपाय था-विकास । विकास, जो आर्थिक वृद्धि से होता । आर्थिक वृद्धि से विकास के द्वारा अवश्य ही उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है, लेकिन यह वृद्धि संसाधनों के निर्मम दोहन के कारण हुई अपूरणीय क्षति भी कर गई है। इसके लिए धरती पर जीवन बनाए रखने के लिए चार नवीकृत संसाधनों-चरागाह, वन, कृषि भूमि और समुद्र पर-क्षमता से अधिक बोझ है। फलतः चरागाह, वन और कृषि भूमि रेगिस्तानों में बदलने लगे हैं और समुद्र की उत्पादन क्षमता क्षीण हो रही है। इसकी भरपाई के लिए कृत्रिम रोपवानियां उगाई जा रही हैं। इनसे अवश्य ही औद्योगिक कच्चे माल का उत्पादन बढ़ गया है, लेकिन जैविक विविधता, जो प्रकृति में परस्परावलंबन की व्यवस्था कायम कर सन्तुलन बनाए रखती है, नष्ट हो गई है। फलतः आज कई पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े तथा अन्य जीव-जंतु प्रजतियां लुप्त हो गई हैं। मानव इनसे पोषण प्राप्त करता रहा है।

अतः अब कृत्रिम रूप से उपजाई जाने वाले कुछ ही अन्न, फल व सब्जी की प्रजातियां रह गई हैं। अधिक उत्पादन की तकनीकियों ने संकर प्रजातियों को जन्म दिया है। संकर प्रजाति में पुनः उत्पादन की कम क्षमता और कई मामलों में तो शून्य क्षमता होती है। वे बीमारियों का प्रतिरोध नहीं कर सकती। एक बार इंगलैंड में आलू को झुलसा रोग लगा और उस पर काबू पाने के सब कृत्रिम उपाय असफल रहे, तो अंत में जंगल से कुदरती दुश्मन ढूंढे गये और फसल बच गई। कृत्रिम तकनीकी इतनी तेज रफ्तार और धुंआधार प्रचार के साथ दौड़ रही है कि यह बुनियादी सत्य लोग भूल गये हैं। अतः पीढ़ियों से परीक्षित जिन्दा रहने की पद्धतियों को एक ही झटके में पुरातन या परम्परागत कहकर बदनाम किया जाता है।

आर्थिक विकास को चलाने में खनिज और धातुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। खनिजों में तेल का पहला स्थान है। हमारी आज की जमीन तेल पर इतनी आश्रित हो गयी है कि यातायात और संचार के लिए ही नहीं खाद्य उत्पादन और सुरक्षा के लिए भी यह अनिवार्य हो गया है। जुताई करने वाले ट्रैक्टर से लेकर और रोटी पकाने वाले चूल्हे तक सर्वत्र खनिज तेल व गैस का प्रयोग होता है। इसी प्रकार प्रातः उठकर हजामत बनाने के ब्लेड से लेकर आकाश में उड़ान भरने वाले वायुयान तक सब में धातु का प्रयोग होता है।

खनिज और धातु प्रदूषण फैलाने के सबसे बड़े कारक हैं। जब खनिज तेल, कोयला, गैस आदि जैव-शेषीय ईंधनों को, जो धरती या समुद्र के नीचे छिपे हैं, बाहर निकालने के बाद उपयोग में लाकर हम विस्फोट करते हैं तो उनसे निकलने वाली जहरीली गैसें वायुमण्डल में फैल जाती हैं। इसी प्रकार धातुओं के परस्किार और गलाने में प्रयुक्त होने वाले रसायनों से निकलने वाली गैसें वायुमण्डल में जमा हो जाती है और तेजाबी वर्षा के रूप में धरती पर उतर कर कहर मचाती हैं। ये औद्योगिक देशों में तेजाबी वर्षा कर वनों की हत्या कर रही हैं। जीवंत झीलें मृत हो रही हैं।

जब इन तथ्यों को प्रकाश में लाया जाता है तो आर्थिक विकास के पुरोधा कहते हैं थोड़ा-बहुत प्रदूषण तो होगा ही। यह थोड़ा-बहुत नहीं, इतना अधिक होता है कि कल-कारखानों के निकट प्रदूषण के कारण जीना मुश्किल हो गया है। जहां-जहां लोगों में जागृति आती है, वे इनसे मुक्ति के लिए आवाज उठाते हैं। कार्यपालिका सुनवाई न करें तो न्यायपालिका के दरवाजे खटखटाते हैं। पिछले दो वर्षों में उच्चतम न्यायालयों ने प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को हटाने व बन्द करने के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं, यद्यपि इन पर अमल न करने के लिए सरकार कोई न कोई बहाना ढूंढ लेती है।

ऐसी स्थिति में क्या करें ? कई कड़े कानूनों, घोषणाओं और परियोजनाओं के बावजूद पर्यावरण की रक्षा नहीं हो रही है। शुरूआत विकास को पुनः परिभाषित करने से होनी चाहिए। विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी, सुख, शान्ति और संतोष का उपभोग करते हों, आर्थिक विकास में व्यक्ति की तृष्णाक्षय से होती है। अतः विकास की कसौटी जन-जन की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए, न कि अभिजात्य वर्ग की विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन। आवश्यकताओं की पूर्ति भी निरन्तर पैदा होने वाले नवीकृत संसाधनों से होनी चाहिए। इसमें केन्द्रीय भूमिका पेड़-पौधों और जल के उत्पादनों की होगी। इससे जहां एक ओर घायल धरती के घाव भरेंगे, वायु-प्रदूषण और जल-संकट से मुक्ति मिलेगी।

ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऐसे उद्योगों के जो प्रदूषण फैलाते है, विकल्प ढूंढने होंगे। आज कोयला, आणविक शक्ति और बड़े बांधों से बिजली प्राप्त करने के बजाय मानव, पशु, वायु, सौर, पवन,समुद्रीय लहरों, भूमिगत ताप और नदी के बहाव से जल विद्युत पैदा करने की प्रणाली को अपनाना होगा, प्रदूषण और धरती के शोषण के लिए उत्तरदायी केन्द्रित उद्योगों के स्थान पर विकेन्द्रित उत्त्पादन को बढ़ावा देना होगा। यह एक गलत धारणा है कि यह तकनीकी विकास को छोड़ पीछे मुड़ना है। यह पीछे मुड़ना नहीं है, बल्कि मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते को छोड़कर जीवन की ओर बढ़ने का सही रास्ता है। आज भूरि बनती जा रही धरती को हरी-भरी वसुंधरा बनाने का मार्ग है। वास्तव में इसके लिए एक नई तकनीक की आवश्यकता है, जो काम के बोझ को हल्का करने वाली और व्यक्ति की क्षमता को बढ़ाने वाली हो। इस प्रकार की तकनीकी मानवीय होगी।

प्रश्न पर्यावरण बनाम विकास का नहीं, संरक्षण या विनाश का है। यदि संसाधनों का संरक्षण नहीं होता तो आने वाले दिनों में सांस लेना दूभर हो जाएगा, क्योंकि हमारे प्राणवायु के भण्डार और प्रदूषण का प्रचूषण करने वाले नहीं रहेंगे। इसी प्रकार पानी का संकट तो हमारे सामने मुंह बाये खड़ा ही है। इन दोनों का एकमात्र हल वनों का संरक्षण है। अब यह तय करना पड़ेगा कि वनों का प्रबन्ध उद्योगों के लिए कच्चे माल के लिए किया जाये या प्राणवायु और पानी के लिए। हम अपनी भूमि का उपजाऊपन बेचकर विदेशी मुद्रा कमावें या जन-जन के लिए खाना पैदा करें।

स्रोत :- (हिन्दुस्तान, 5 जून, 1997)

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Post By: Shivendra
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