इस क्षेत्र में महिलायें अहम् भूमिका निभा सकती हैं। महिलायें जहां एक और अपने शिशुओं को पर्यावरण के महत्व को बखूबी समझ सकती हैं, वहीं दूसरी ओर समाज को भी राह दिखा सकती हैं। राजस्थान में बिश्नोई जाति की महिलाओं का वृक्षों के प्रति प्रेम तथा उनके द्वारा वृक्षों की रक्षा हेतु अपना बलिदान सराहनीय है। इतिहास साक्षी है जब-जब महिलाओं ने किसी भी संकट का सामना किया है, वह संकट खत्म हो गया है। अतः यह जरूरी है कि महिलायें एक बार फिर से आगे आयें तथा पर्यावरण की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लें। स्वास्थ्य लाभ के लिए आज कोई भू-भाग खाली नहीं है। यहाँ-वहाँ सारे जहान पर प्रदूषण का राज्य है। हमने अपने स्वार्थ के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक दोहन किया है जिसके कारण वातावरण प्रदूषित होता रहा है। जल, वायु, कूड़ा-करकट, औद्योगिक इकाइयां, आधुनिक हथियार, अणु बम, परमाणु बम, प्रक्षेपास्त्र आदि ने तो पर्यावरण प्रदूषित करने में अहम् भूमिका निभायी है।
प्रकृति और पर्यावरण को अमीरों ने काफी नुकसान पहुंचाया है। लिहाजा पर्यावरण संरक्षण को गरीब अपना मुद्दा भी नहीं मानता है। गरीब अमीरों के आकर्षण आरामतलब, मौज-मस्ती की ओर आकर्षित होकर पर्यावरण को नष्ट करने में भागीदार बनते जा रहे हैं। पर्यावरण रक्षा पर गरीब और ग्रामीण महिलायें कहती हैं कि पर्यावरण को दूषित अमीर करते हैं इसकी चिन्ता वे ही करें, हम तो पेड़-पौधों को पूजते हैं। तुलसी को सुबह-शाम, वट और पीपल की शादी-विवाह जैसे शुभ कार्य में, श्रावण में आंवला, बृहस्पतिवार को केले के पेड़, बेल के पेड़ को पूजकर नागदेव, महादेव को चढ़ाते हैं। इस तरह हमारी रग-रग में पेड़-पौधों को लगाने, उसे पूजने का रिवाज है और हम अपने रिवाज को छोड़ना भी नहीं चाहते हैं।
भारतीय का दिल चीत्कार कर रहा है कि कुछ वर्षों पूर्व हमारी प्रकृति पूजन पद्धति को अमीरों ने ढकोसला कहकर चिढ़ाया फिर भी हमने अपमान सहते हुए अपनाये रखा। आज जब संकट सिर के ऊपर से गुजरने लगा है तो फिर हमारी याद सताने लगी है। हम भारतीय ग्रामीण नारी आज भी पर्यावरण जो हमारी चारों ओर का आवरणं भौतिक, जैविक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश, आर्थिक व्यवहार और राजनैतिक क्रिया-कलाप को प्रभावित करता है, की रक्षा के लिए अपनी क्षमतानुसार कार्य करती हैं।
पर्यावरण प्रदूषित द्रुतगति से हो रहा है। पर्यावरण का असंतुलन बहुत कुछ सीधे अनुपात में पृथ्वी के संसाधनों और ऊर्जा के उपयोग से जुड़ा है। आज बीस प्रतिशत धनी वर्ग और विकसित देश पृथ्वी के कुछ उपयोगी संसाधनों का लगभग अस्सी प्रतिशत उपयोग कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में पर्यावरण संरक्षण की जागरूकता हम गरीबों में नहीं बल्कि इन विकसित देशों व धनी वर्गों में होनी चाहिए जिसके पास सुख-सुविधा की प्रत्येक सामग्री उपलब्ध है। हमारे सारे क्रिया-कलाप इसी वर्ग की सुख-सुविधा में डूबे रहते हैं।
जब पर्यावरण संरक्षण हम अपने रीति-रिवाज को छोड़कर अन्य रूप में करने लगेंगे तो हमारी आर्थिक विकास की सम्भावनाएं क्षीण होती जाएंगी यहां तक की खत्म भी हो सकती हैं। बल्कि जीवन की सम्भावनाएं भी खत्म हो जायेंगी। यही कारण है कि कूड़े की गंदगी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, यह जानते हुए भी गरीब हाथ डालकर अपने लिए कुछ चुन लेता है। पर्यावरण दिवस के रूप में 5 जून को चुना है। कुछ पढ़े-लिखे 5 जून को याद तो रखते हैं लेकिन अधिकांश को मालूम नहीं कि पर्यावरण दिवस क्या है।
आज देखने में आता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं मात्र सरकारी धन की ओर आंखें लगाये रहती हैं। जब धन का आबंटन होता है। तो मात्र खानापूर्ति के तौर पर रिकॉर्ड बनाने के लिए कुछ न कुछ कर दिया जाता है। इस तरह से पर्यावरण बचाव के लिए निर्धारित भाग निष्क्रिय है जो पर्यावरण नियन्त्रण में अहम् भूमिका निभाता है। आज पर्यावरण रक्षा के लिए फूंक-फूंक कदम बढ़ाने की तथा उस पर निगरानी रखने की जरूरत है।
आज हमारा देश प्रदूषण से आक्रांत है। यहां जनसंख्या का बढ़ता दबाव,आधुनिक औद्योगिकरण की प्रगति तथा इसके कारण वनस्पतियों की,जीव-जन्तुओं की संख्या व प्रजातियों में दिन-प्रतिदिन होने वाली कमी ने परिस्थितिकीय तन्त्र के असंतुलन को जन्म दिया है, जो आज पर्यावरण के मुख्य आधार वायु, जल,भूमि को प्रदूषित कर मानव जीवन के लिए घातक बन गया है।विश्व का ध्यान अधिक से अधिक ओजोन परत को बंटते जाने, तेज वर्षा, ग्रीन हाउस का प्रभाव, जलवायु, भूमि सम्बन्धी परिवर्तन जैसे विषयों की ओर उत्तोरत्तर केन्द्रित हो रहा है। यह पर्यावरण संरक्षण तथा सामूहिक प्रयासों के समन्वित कार्यक्रमों के लिए आवश्यक है।
पर्यावरण की समस्या आज विश्वव्यापी समस्या बन गयी है। पर्यावरण की रक्षा हमें हर हाल में करनी पड़ेगी अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। इस क्षेत्र में महिलाएं जहां अहम् भूमिका निभा सकती हैं। महिलाएं जहां एक ओर अपने शिशुकों को पर्यावरण के महत्व को बखूबी समझा सकती हैं वही दूसरी ओर समाज को भी राह दिखा सकती है। राजस्थान में विश्नोई जाति की महिलाओं का वृक्षों के प्रति प्रेम तथा उनके द्वारा वृक्षों की रक्षा हेतु अपने बलिदान सराहनीय हैं। इतिहास साक्षी है जब-जब महिलाओं ने किसी भी संकट का सामना किया है वह संकट खत्म हो गया है। अतः यह जरूरी है कि महिलाएं एक बार फिर से आगे आएं तथा पर्यावरण की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लें। इस सम्बन्ध मे कर्नाटक की एक महिला जिन्हें प्रेम से लोग 'अम्मा' कहते हैं, का उहाहरण दिया जा सकता है।
यह पिछले 20 वर्षों से गांवों में घूम-घूम कर बरगद के पेड़ को लगा रही है। इस महान कार्य का फल भी सामने आया है। पर्यावरणविदों का मानना है कि इन वृक्षों की वजह से ही प्रदूषण इन क्षेत्रों में घट रहा है तथा वातावरण में सन्तुलन आ रहा है। अगर ऐसी ही महिलाएं आगे आएं तथा अन्य समाज-सेवी संस्थाओं से मिलकर कार्य करें तो यह निश्चित है कि पर्यावरण की समस्या को बहुत अधिक समाप्त किया जा सकता है। जरूरत है केवल दृढ़ शक्ति तथा संकल्प की।
एक बार महिलाएं आगे आ जाएं तो पुरुष तथा युवावर्ग भी पीछे नहीं रहेंगे। जिस तरह से अनेक प्रदेशों में महिलाओं ने शराब तथा नशाखोरी के खिलाफ अभियान छेड़ा तथा उसमें सफलता भी पाई, ठीक इसी तरह महिलाएं एक बार अगर पर्यावरण की रक्षा हेतु आगे आ जाएं तो इस विश्वव्यपी संकट को खत्म किया जा सकता है।
स्रोत :- (दैनिक ट्रिब्यून, 12 जून, 1997)
/articles/paryavarn-sanrkashan-mein-piche-nahi-hai-mahilayein