पर्यावरण से सम्बंधित गंभीर समस्याएं एवं चुनौतियाँ (Serious problems and challenges related to environment in Hindi)

झीनी होती ओजोन परत
झीनी होती ओजोन परत

वर्तमान में मानव को प्रदूषण संबंधी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं में जलवायु परिवर्तन की भी अहम भूमिका है। मनुष्य को तरह-तरह के संकेतों से प्रकृति समझा रही है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है। प्राकृतिक आपदाएं भी प्रकृति के ऐसे ही संकेतों का रूप है जिनके द्वारा हम समझ सकते हैं कि पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन हो रहा है।

प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता प्रकोप

प्रकृति के सजृनात्मक एवं ममतामयी रूप के चलते ही जीवन अपने सब रंग रूपों में इस धरती पर बिखरा पड़ा है। लेकिन इसी जीवनदायनी प्रकृति का एक डरावना चेहरा भी है जिसे हम आमतौर पर प्राकृतिक आपदाओं के नाम से जानते है। प्राकृतिक आपदाएं वह शक्तियां है जिनके सामने मानव पूरी तरह बेबस है। भूकंप, ज्वालामुखीय विस्फोट, बाढ़, चक्रवात, सुनामी आदि प्रकृति की ऐसी ही विध्वंसकारी ताकतें हैं जो जीवन के नामोंनिशान को पूरी तरह मिटाने में सक्षम हैं।

तटीय क्षेत्रों में प्रशांत तथा अटलांटिक महासागरों के तटीय क्षेत्रों पर भीषण तूफानों का खतरा मंडरा रहा है। ऐसी संभावना है कि हिमालय क्षेत्र के गंगोत्री जैसे अनेक ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने की दर में तेजी के कारण पहले बाढ़ और फिर सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी। अफ्रीका, मैक्सिको और दक्षिण एशिया के 18 देशों में बाढ़ का खतरा बढ़ता जा रहा है। पिघलते हिमनदों के कारण समुद्री जल स्तर में वृद्धि होने से ऊंची तूफानी लहरें उत्पन्न होती हैं जो तटीय इलाकों में तबाही का कारण बनती हैं। वैश्विक तापमान में वृद्धि का असर महासागरीय ऊष्मा के वितरण पर भी होगा, जिसके कारण उष्णकटिबंधीय चक्रवात अधिक आएंगे। महासागरों के ऊपर जलवाष्प की मात्रा में वृद्धि होने से चक्रवात, तूफान और टॉयफून जैसी आपदाएं अधिक आएंगी।

बढ़ते तापमान के कारण जंगलों में आग लगने की घटनाओं में भी वृद्धि हो रही है। जंगलों के विनाश से वहां उपस्थित जैव विविधता के प्रभावित होने के साथ ही जंगलों से प्राप्त होने वाले प्राकृतिक संसाधनों में भी कमी आती है। जंगलों के न रहने और जलवायु परिवर्तन के कारण भू-स्खलन जैसी घटनाओं से व्यापक स्तर पर होने वाली तबाही उस स्थल के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर देती है।

तूफान, सुनामी, भुकंप, भूस्खलन, बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं के कारण व्यापक तबाही होती है और प्रभावित क्षेत्रों से लोगों के पलायन करने के परिणामस्वरूप अकसर सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होती है और अशांति का महौल पैदा होता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न और पर्यावरणविद् नार्मेन मेयर्स द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व भर में प्राकृतिक आपदाओं के चलते 1990 में ढाई करोड़ लोग शरणार्थी शिविर में रहने मजबूर थे 2010 तक यह आंकड़ा 5 करोड़ और 2050 तक 15 करोड़ हो जाएगा। इस प्रकार भविष्य में करोड़ों लोगों को प्राकृतिक आपदाओं के चलते विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

झीनी होती ओजोन परत

प्रकृति ने जीवन को बनाए रखने के लिए अनेक व्यवस्थाएं की हैं। ओजोन परत पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक एक ऐसी ही प्राकृतिक व्यवस्था है। पृथ्वी के वायुमंडल में समताप मंडल नामक परत में स्थित ओजोन आवरण को पृथ्वी का रक्षा कवच भी कहा जा सकता है। यह रक्षात्मक आवरण सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों को रोक लेता है जिससे पृथ्वी पर उपस्थित जीवन इन विकिरणों के दुष्प्रभाव से बचा रहता है।

वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन का अणु सौर विकिरण की उपस्थिति में ऑक्सीजन के दो अकेले अणुओं में टूट जाता है। यह अकेला नया ऑक्सीजन अणु आक्सीजन (02) अणु के साथ जुड़कर ओजोन (03) का निर्माण करता है। इस प्रकार ओजोन के क्रमिक रूप से एकत्र होने के कारण लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में ओजोन आवरण का निर्माण हुआ है ।

ओजोन आवरण में बढ़ता छेद

ओजोन गैस अत्यन्त क्रियाशील गैस है। वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) तथा क्लोरीन युक्त अन्य यौगिक ओजोन के साथ क्रिया करके क्लोरीन मोनोआक्साइड बनाते हैं तथा ओजोन को ऑक्सीजन में तोड़ देते है। क्लोरीन के उत्प्रेरक का कार्य करने के कारण ओजोन का ऑक्सीजन में परिवर्तन होता रहता है। इसी घटना को ओजोन क्षरण कहते हैं । समताप मंडल में इस प्रकार ओजोन गैस की सांद्रता का कम होना ओजोन परत के छेद से भी जाना जाता है ।

औद्योगिक गतिविधियों से उत्सर्जित विभिन्न हानिकारक रसायनों जैसे सीएफसी, हैलोंस, कार्बन टेट्राक्लोराइड आदि के कारण विश्व के रक्षा कवच यानी ओजोन परत में छेद बढ़ता जा रहा है। सन् 2008 में अन्तर्राष्ट्रीय ओजोन दिवस के अवसर पर 'संयुक्त राष्ट्र विश्व मौसम विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया कि 13 सितम्बर, 2008 तक ओजोन छेद का आकार 27 लाख वर्ग किलोमीटर था। रिपोर्ट में कहा गया है कि ओजोन छेद का आकार लगातार बढ़ रहा है।

ओजोन परत को सुरक्षित बनाए रखने के लिए 1987 में मांट्रियल संधि के तहत पारित प्रस्ताव में ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों (ओडीएस) पर एक योजनाबद्ध तरीके से प्रतिबंध लगाने की बात कही गई थी। विश्व के कुछ देशों नें सीएफसी, हैलोंस, कार्बन टेट्राक्लोराइड आदि ओडीएस पदार्थों के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है या इस दिशा में प्रयासरत हैं। भारत सन् 2030 तक चरणबद्ध रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन को समाप्त करने के लिए प्रयासरत है। ओजोन परत की सुरक्षा के लिए हमारा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि हम ओजोन क्षरण पदार्थों यानी ओजोन डिप्लीटिंग सब्सटेंस (ओडीएस) का इस्तेमाल कम करते हुए ओजोन मित्र पदार्थों यानी ओजोन फ्रेंडली सब्सटेंस (ओएफएस) को ही अपनाएं। तभी प्रकृति की यह अनोखी ओजोन परत सदैव जीवन को अंतरिक्ष से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से सुरक्षा प्रदान करती रहेगी और यहां जीवन अपने विविध रूपों में मुस्कान बिखेरता रहेगा।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

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