पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं पर्यावरण प्रबंधन

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं पर्यावरण प्रबंधन
पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं पर्यावरण प्रबंधन

सारांश : 

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ई.आई.ए.) एक ऐसी महत्वपूर्ण विधा है जिसके द्वारा किसी भी परियोजना / क्रियाकलाप से संबंधित निर्णय लेते समय, उससे पर्यावरण प्रबंधन संबंधित मुद्दों को शामिल किया जाता है ताकि सतत् विकास सुनिश्चित किया जा सके कुछ वर्षों पूर्व परियोजनाओं को केवल तकनीकी एवं वित्तीय व्यावहारिकता (फाइनेंशियल लायबिलिटी) के आधार पर ही आंकलन किया जाता था एवं अनुमति दी जाती थी, लेकिन ई.आई.ए. की विधा किसी भी परियोजना क्रियाकलाप के क्रियान्वयन सहमति के लिए यह भी आवश्यक हो गया कि यह पर्यावरण की दृष्टि से भी अनुकूल हो। वास्तव में ई.आई.ए. का मुख्य उद्देश्य परियोजनाओं क्रियाकलापों के द्वारा पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को कम करके एक न्यूनतम मानक स्तर पर लाना रहता है। भारत में ई.आई.ए. की शुरुआत नदी घाटी परियोजनाओं के पर्यावरणीय आंकलन के साथ हुई थी, लेकिन उस समय इसे संवैधानिक कानूनी मान्यता नहीं मिली थी। 27 जनवरी 1994 को ई.आई.ए. अधिसूचना [ जिसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986) द्वारा जारी किया गया था को विभिन्न परियोजनाओं जिनका पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है, उनके लिए ई.आई.ए. प्रक्रिया से गुजरना जरूरी कर दिया गया और साथ ही साथ इसको एक वैधानिक कानूनी मान्यता भी प्रदान कर दी गयी। इसके बाद ई.आई.ए. अधिसूचना में अनेक सुधार किए गए। इनमें लोक सुनवाई जनसुनवाई के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं को ई.आई.ए. की प्रविधि में लाना शामिल है जिनका पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार से पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करना आवश्यक था। भारत में ई.आई.ए. की प्रक्रिया में और सुधार लाने के लिए 14 सितंबर 2006 को ई.आई.ए. की नई अधिसूचना जारी की गई। 

इस अधिसूचना के अनुसार परियोजनाओं क्रियाकलापों को पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करने के लिए आठ वर्गों में बांटा गया है जिन्हें केन्द्रीय स्तर पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार (प्रवर्ग 'क') अथवा राज्य स्तर पर राज्य स्तरीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण समिति (प्रवर्ग 'ख' ) से पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करना होता है। प्रवर्ग 'ख' की परियोजनाओं क्रियाकलापों को पुनः दो भागों में बांटा गया है। प्रवर्ग 'ख' में परियोजनाओं को ई.आई.ए. रिपोर्ट देनी होती है जबकि प्रवर्ग 'ख' की परियोजनाओं/ क्रियाकलापों को ई.आई.ए. रिपोर्ट देना जरूरी नहीं होता है। सितम्बर 2006 की अधिसूचना के अनुसार प्रवर्ग 'का' और प्रवर्ग 'ख 2 दोनों की तरह की परियोजनाओं क्रियाकलापों के लिए अधिसूचना में निर्धारित प्रक्रिया के तहत लोक सुनवाई जनसुनवाई (पब्लिक हियरिंग) करना आवश्यक होता है। कुछ समय पूर्व ही 19 जनवरी 2009 को ई.आई.ए. की एक प्रारूप (ड्राफ्ट) अधिसूचना प्रस्तावित की गई है जिसमें प्रवर्ग 'क' और प्रवर्ग 'ख 2' दोनों ही तरह की परियोजनाओं के लिए नई अवसीमा (थ्रेसहोल्ड क्राइटेरिया) प्रस्तावित की गई है साथ ही साथ ई.आई.ए. एवं पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शक व समाज/ जनहित के प्रति और उत्तरदायी बनाना है।

Abstract

Environmental Impact Assessment (EIA) is an important tool for integrating the objectives of environmental management into the decision-making process to ensure environmentally sound and sustainable development. Earlier, any developmental project/activity was reviewed keeping in view the technical feasibility and financial viability of the project only. However, with the introduction of the concept of EIA environmental considerations have also been included as one of the factors to be considered while deciding about the feasibility and sustainability of any developmental/industrial project/activity. In fact, the main purpose of EIA is to mitigate adverse environmental impacts (if any) of any project/activity and bringing them to an acceptable level and to project the community likely to be affected by the proposed project. In India, EIA was started in 1976-1977 to examine the river valley projects from an environmental angle. But during that time it lacked legislative support. On 27" of January 1994, EIA notification [under the Environmental (Protection) Act (1986)] was issued by which EIA process became "statutory requirement" rather than an "administrative requirement" for a number of projects/activities likely to have significant environmental impacts and health implications. Since then, the EIA notification has undergone several amendments incorporating provisions for "Public Hearing" and bringing in several important projects/activities into the purview of EIA, requiring "Environmental Clearance" by the Ministry of Environment and Forest (MoEF), Govt of India. To further improve the EIA procedure in India, EIA notification was revised on September 14", 2006. According to the notification, different projects/developmental activities have been divided into 8 major heads requiring "Environmental Clearance" (EC) either from the Central Government, i.e. MOEF (Category 'A') or at the State Level from the State Environmental Impact Assessment Authority (SEIAA) (Category 'B'). The category 'B' has been further divided into categories 'B1'(project requires submitting EIA report) and 'B2' project activities which don't require EIA report). All categories 'A' and 'B1' projects necessarily have to carry out EIA studies along with the "public Hearing" as per the procedure stipulated in the notification. In the draft notification (January 19" 2009), revised "threshold criteria" have been introduced for different project categories. Further, an effort has also been made to make the EIA procedure more transparent and to provide societal vigil of projects affecting the environment through"Public Hearing/Consultation" by moving the environment protection agenda into the public domain.

प्रस्तावना

वर्तमान रूप से पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन एक ज्वलंत मुद्दा है। समय के साथ-साथ मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर विकास तो कर लिया, पर जाने-अनजाने पर्यावरण को हो रही क्षति को वह नियंत्रित नहीं कर पाया, जिसके फलस्वरूप पर्यावरण की अपूर्णनीय क्षति हुई है। भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) के द्वारा होने वाले जलवायु परिवर्तन एवं संभावित समुद्र के जल स्तर का बढ़ना, वायुमंडल में ओजोन सतह का विनाशीकरण, ओजोन छिद्र, अम्लीय वर्षा (एसिड रेन), बहुत सारी प्रजातियों का विलुप्त होना, रेडियोधर्मी सामग्रियों से पर्यावरण को खतरा एवं जल, वायु प्रदूषण ये सभी पर्यावरण को हो रही क्षति के परिणाम हैं। अगर इस विनाशकारी प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो पर्यावरण के साथ-साथ मानव का विनाश भी लगभग तय है। इसी आशंका को देखते हुए पर्यावरण के इस संभावित विनाश को रोकने के लिए समय-समय पर पूरी दुनिया में लगातार कोशिशें की जा रही हैं। भारत में भी पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण एवं ज्वलंत मुद्दा रहा है। प्राचीन समय से ही हमने पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन को विशेष महत्व दिया है। हमारी प्राचीन संस्कृति मान्यताओं में भी प्रकृति के विभिन्न पहलुओं जैसे कि वायु, जल ( नदियां, झील इत्यादि) वन एवं वन्यजीवन, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, जंगलों, पर्वतों एवं समुद्र के संरक्षण की महत्ता को समझा गया और साथ ही इनके अनियंत्रित उपयोग एवं संभावित विनाश से होने वाले भीषण नुकसानों का भी उल्लेख किया गया है। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण वर्णित हैं जिनमें पर्यावरण संरक्षण के लिए व्यक्तियों ने कई प्रकार की तपस्या की हैं एवं बलिदान दिए हैं। हाल के कई वर्षों में अनेक गैर-सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों ने कई महत्वपूर्ण जन आंदोलन चलाए हैं जिनका उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पहलुओं जैसे कि वन्य जीवन संरक्षण, जल संरक्षण व प्रबंधन व पेड़- पौधों तथा वन्य प्राणियों की सुरक्षा रहा है। स्वतंत्रता के बाद भी भारत में पर्यावरण संरक्षण की मूल भावना को कायम रखा गया और संविधान में ऐसे कई प्रावधानों को समाहित किया गया जिनके तहत पर्यावरण के विभिन्न कारक जैसे कि नदियों, पर्वतों, वायुमंडल एवं वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों एवं पक्षियों का संरक्षण किया जा सके। भारत संभवतः उन गिने चुने देशों में से एक है जिसने पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं को नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों (फंडामेंटल ड्यूटीज ऑफ सिटिजन्स) में शामिल किया है। पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका भी बहुत ही सार्थक एवं सराहनीय रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों से भारत के संविधान के द्वारा दिए गए नागरिकों के विभिन्न मूलभूत अधिकारों के दायरे को बढ़ाते हुए पर्यावरण संरक्षण की मूलभूत भावना को भी शामिल किया है। भारत के विभिन्न न्यायालयों ने ऐसे कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जिनके द्वारा पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पहलुओं को बल मिला है एवं जनसाधारण में इसके प्रति जागरूकता बढ़ी है। इन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप केन्द्रीय व राज्य सरकारों ने पर्यावरण संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जिनके बहुत ही सार्थक परिणाम निकले हैं। न्यायपालिका के हस्तक्षेप से विभिन्न राज्य सरकारों एवं केन्द्रीय सरकार को कई ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय भी लेने पड़े जो कि पर्यावरण संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे परंतु संभवतः जनआक्रोश के भय से निर्णय लेने में सरकार हिचक रही थी। केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने ऐसे कई महत्वपूर्ण पर्यावरण संरक्षण संबंधित कानून / नियम बनाए हैं जिनसे कि प्रशासन और न्यायपालिकाओं को ऐसे कई महत्वपूर्ण अधिकार मिले हैं जिनसे पर्यावरण संरक्षण के साथ ही सतत् विकास को भी बढ़ावा मिला है। एक अनुमान के अनुसार भारत में इस समय लगभग 350 ऐसे कानून हैं जो परोक्ष रूप में पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन से जुड़े हैं।

विकास परियोजनाएं एवं पर्यावरण संरक्षण

मानव सभ्यता के विकसित होने के साथ ही विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच आपसी सामंजस्य बैठाना हमेशा से ही एक कठिन समस्या एवं विवाद का विषय रहा है। एक तरफ जहां विकास परियोजनाओं के अंधाधुंध क्रियान्वयन द्वारा पर्यावरण को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है, वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण के नाम पर कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं जिनमें कई भौतिक अवसंरचना (फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर) परियोजनाएं भी शामिल हैं, उनके क्रियान्वयन को रोक दिया गया जिनके बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि उन्हें उचित मार्गदर्शन एवं देख-रेख के द्वारा पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाए बिना पूरा किया जा सकता था। वास्तव में किसी भी परियोजना के क्रियान्वयन में पर्यावरण संरक्षण एक अभिन्न अंग होना चाहिए। जब भी कोई बड़ी भौतिक अवसंरचना से संबंधित परियोजना का क्रियान्वयन किया जाता है तो पर्यावरण की क्षति एवं उसमें असंतुलन होना स्वाभाविक है। परंतु यह सुनिश्चित होना चाहिए कि पर्यावरणीय क्षति इतनी हो कि जिसे उचित एवं पर्याप्त संसाधनों के क्रियान्वयन और पर्यावरण प्रबंध तकनीकों द्वारा न्यूनतम किया जा सके तथा जिससे समय के साथ पर्यावरण की क्षति को कम करके उसको अपनी पूर्वास्था में लाया जा सके। इन्हीं भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अब देश में ऐसी परियोजनाओं की जरूरत है जिनमें पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाई जाएं जिससे पर्यावरण के साथ देश का भी सतत् विकास हो सके, साथ ही साथ समाज के हर वर्ग को अपना अधिकार मिल सके और वे प्रगति में अपना हिस्सा पा सकेँ ।

वास्तव में सतत् विकास एक ऐसी अवधारणा है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार से इस्तेमाल किया जाता है जिसका लाभ वर्तमान के साथ-साथ भविष्य में भी मिले तथा आगे आने वाली कई पीढ़ियों तक आर्थिक एवं सामाजिक लाभ हो और पर्यावरण को कम से कम हानि हो । सतत् विकास में हमारा उद्देश्य पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना या कम से कम नुकसान पहुंचाकर परियोजना को संपादित करना होता है। इन्हीं सब कारणों के चलते पिछले कई दशकों से ऐसी विधि एवं तकनीक विकसित करने का प्रयास किया जाता रहा है जिससे कि पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरण के नुकसान का अध्ययन, मूल्यांकन, संरक्षण एवं वैज्ञानिक ढंग से निवारण किया जा सकें। भारत सहित पूरे विश्व में पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन ( एन्वायरॉनमेंटल इम्पैक्ट असेस्मेंट अथवा ई.आई.ए.) एक ऐसी ही प्रक्रिया है जिसमें पर्यावरण से संबंधित उपर्युक्त पहलुओं को वैज्ञानिक ढंग से समझने के निराकरण / प्रबंधन का प्रयास किया जाता है। वैसे भारत में पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन 1987 से ही प्रचलन में है जबकि उसको नदी घाटी परियोजनाओं में पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए सर्वप्रथम प्रचलन में लाया गया था। 1987 से 1994 तक ई.आई.ए. को कोई कानूनी अधिकार एवं मान्यता प्राप्त नहीं थी। मई 1994 की ई.आई.ए. की अधिसूचना [ जिसको कि केन्द्रीय सरकार ने पर्यावरण (संरक्षण) नियम 1986 के तहत लागू किया था ] के द्वारा उन विभिन्न परियोजनाओं उद्योगों प्रक्रियाओं जिनमें पर्यावरण संरक्षण एक ज्वलंत समस्या थी, साथ ही पर्यावरणीय क्षति के कारण अपूर्णनीय एवं गंभीर परिणाम हो सकते थे (यदि उनका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं किया जाए) को पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया (एन्वायरॉनमेंटल क्लियरेन्स) से गुजरना अनिवार्य घोषित किया गया था। इस प्रक्रिया के लिए ई. आई. ए. की प्रक्रिया निर्धारित की गई, जबकि मई 1994 के पहले विभिन्न बड़ी परियोजनाओं प्रक्रियाओं में ई.आई.ए. केवल एक प्रशासनिक जरूरत मात्र थी। मई 1994 की अधिसूचना के बाद ई.आई.ए. को एक कानूनी मान्यता मिल गई। ई.आई.ए. अधिसूचना का उद्देश्य भारत में चल रही बड़े स्तर की परियोजनाओं / प्रक्रियाओं पर नजर रखना था जिससे कि पर्यावरण पर हो रहे नुकसान को कम किया जा सके एवं उसके संरक्षण के प्रयासों को कानूनी मान्यता प्रदान की जा सके। 
ई.आई.ए. की प्रक्रिया को सरल एवं पारदर्शी बनाने के लिए भारत सरकार द्वारा और भी प्रयास किये गये। इसके अन्तर्गत 14 सितम्बर 2006 को ई.आई.ए. की नई अधिसूचना जारी की गई, जिसके अन्तर्गत मई 1994 की ई.आई.ए. अधिसूचना में कई महत्वपूर्ण संशोधन भी किये गये हैं, जिनसे पर्यावरण अनापत्ति प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ इस प्रक्रिया में होने वाले अनावश्यक विलम्ब को भी समाप्त करने का प्रयास किया गया है।

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं पर्यावरण प्रबंधन तकनीक

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी परियोजना प्रक्रिया के द्वारा पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, सामाजिक व्यवस्था इत्यादि) पर होने वाले संभावित प्रभावों का विश्लेषण किया जाता है एवं ऐसी पर्यावरणीय प्रबंधन योजना का क्रियान्वयन किया जाता है जिससे कि पर्यावरण को होने वाली क्षति को न्यूनतम कर सतत् विकास को बढ़ावा दिया जा सके। इस प्रक्रिया में उस परियोजना के विभिन्न विकल्पों (जिसमें प्रौद्योगिकी एवं स्थल विकल्प भी शामिल हैं) का अध्ययन किया जाता है ताकि ऐसे विकल्पों को सुनिश्चित किया जा सके जिनसे पर्यावरण को न्यूनतम हानि हो। इसके साथ ही भविष्य में परियोजनाओं के क्रियान्वयन के समय पर्यावरण मॉनीटरन कार्यक्रम भी निर्धारित कर दिया जाता है जिससे कि होने वाली पर्यावरणीय क्षति एवं उसमें सुधार के लिए दिए गए सुझावों का समय-समय पर तकनीकी विश्लेषण किया जा सके और जरूरत पड़ने पर उचित विधिसम्मत नियमानुसार कार्यवाही की जा सके।  

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना ( ई.आई.ए.) 14 सितम्बर 2006 के अनुसार उद्योगों, कार्यों तथा विकास से जुड़ी गतिविधियों को 8 भागों में बाँटा गया है। इन आठों तरह की परियोजनाओं को केन्द्र । सरकार (पर्यावरण एवं वन मंत्रालय) या राज्य सरकार (राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण समिति) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इन परियोजनाओं का वर्गीकरण, कार्यों के प्रभाव तथा मानव के स्वास्थ्य, प्रकृति तथा संसाधनों पर होने वाले प्रभावों पर निर्भर करता है। ई.आई. ए. अधिसूचना, 2006 के अनुसार परियोजनाओं को निम्नलिखित भागों में बांटा गया है

  • खनन, प्राकृतिक संसाधन का निष्कर्षण और विद्युत उत्पादन (माइनिंग, एक्सट्रैक्शन ऑफ नेचुरल रिसोर्स एण्ड पावर जनरेशन);
  • प्राथमिक प्रसंस्करण (प्राइमरी प्रोसेसिंग) 
  • सामग्री उत्पादन . . (मैटीरियल प्रोडक्शन); 
  • सामग्री प्रसंस्करण (मैटीरियल प्रोसेसिंग); .
  •  निर्माण / फैब्रिकेशन (मैन्युफैक्चरिंग फैब्रिकेशन); 
  • सेवा क्षेत्र (सर्विस सैक्टर);
  •  पर्यावरणीय सेवाओं सहित भौतिक अवसंरचना (फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर इंक्लूडिंग एन्वायरॉनमेंटल सर्विसेज); एवं 
  • भवन संनिर्माण परियोजनाएं / क्षेत्र विकास परियोजनाएं और शहरीकरण (बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट एरिया डेवलपमेंट प्रोजेक्ट टाउनशिप) ।

ई.आई.ए. अधिसूचना, 2006 के अनुसार, परियोजनाओं को 'क' तथा 'ख' वर्ग में बांटा गया है। ऐसी सभी परियोजनाएं जो केन्द्र सरकार (पर्यावरण एवं वन मंत्रालय) द्वारा नियंत्रित की जाती हैं उन्हें प्रवर्ग 'क' ( कैटेगरी 'ए') में रखा गया है तथा उन परियोजनाओं को जिन्हें राज्य सरकार (राज्य स्तर पर्यावरण समाधान निर्धारण प्राधिकरण ) द्वारा नियंत्रित किया जाता है को प्रवर्ग 'ख' में रखा जाता है। प्रवर्ग 'ख' को भी दो खंडों में विभाजित किया गया है 'ख 1' (बी-1 ) एवं 'ख 2' ( बी 2 ) । उन सभी परियोजनाओं को जिनमें ई आई ए जरूरी है, को 'ख 1' में रखा जाता है तथा उन परियोजनाओं को जिनमें पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन जरूरी नहीं है को 'ख 2' में रखा गया है। लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में पर्यावरणीय अनापत्ति राज्य स्तर के प्राधिकरण द्वारा दिया जाता है। प्रवर्ग 'ख' में कुछ परियोजनाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में प्रवर्ग 'क' की तरह नियंत्रित किया जाता है। 

  • यदि वह वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अधीन अधिसूचित संरक्षित क्षेत्र में आता हो; उसकी समय-समय पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र के रूप में पहचान की गई हो;
  • पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचित है, और अंतर्राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से दस किलोमीटर के भीतर संपूर्ण रूप से या आंशिक रूप से अवस्थित हो ।

ई.आई.ए. अधिसूचना, 2006 के अनुसार विभिन्न नई अथवा विस्तारीकरण एवं आधुनिकीकरण (एक्सपेन्शन एंड मॉडर्नाइजेशन) परियोजनाओं को पर्यावरणीय अनापत्ति (एन्वायरॉनमेंटल क्लीयरेंस) की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ये चार श्रृंखलाबद्ध क्रम होते हैं :

प्रक्रम 1

स्क्रीनिंग इस प्रक्रिया के तहत यह निर्धारित किया जाता है कि क्या परियोजना या क्रियाकलाप को ई.आई.ए. की 2006 अधिसूचना के तहत ई.आई.ए. की प्रक्रिया से गुजरकर पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करना आवश्यक है या नहीं और यदि आवश्यक है तो उसे केंद्र सरकार (प्रवर्ग 'क') अथवा राज्य सरकार ( प्रवर्ग 'ख' ) के तहत होने वाली पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। इसके अलावा इस प्रक्रिया में राज्य स्तरीय प्राधिकरण के द्वारा परियोजना / क्रियाकलापों को प्रवर्ग 'ख 1' तथा प्रवर्ग 'ख 2' में बांटा जाता है। प्रवर्ग 'ख' की परियोजनाओं को पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करने के लिए ई.आई.ए. की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, वहीं प्रवर्ग 'ख' को इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता।

प्रक्रम 2 

विस्तारण (स्कोपिंग) यह प्रवर्ग 'क' तथा प्रवर्ग 'ख 1 दोनों तरह की परियोजनाओं पर लागू होता है। इसके अंतर्गत आवेदन पत्र 1 / फार्म 1 अ के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। अनुसूची की मद 8 में प्रवर्ग 'ख' के रूप में सूचीबद्ध सभी परियोजनाओं / क्रियाकलापों के लिए विस्तार अपेक्षित नहीं होगा और उनका आकलन प्रारूप 1 / प्रारूप 1 क और धारण योजना के आधार पर किया जाएगा। सौंपे गए कृत्यों को प्रारूप 1 की प्राप्ति के साठ दिनों के भीतर विशेषज्ञ आंकलन समिति द्वारा आवेदक को प्रेषित किया जाता है जिसे पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की वेबसाइट पर भी प्रदर्शित किया जाता है।

प्रक्रम 3 

लोक परामर्श (पब्लिक कंसल्टेशन) : यह प्रवर्ग 'क' तथा प्रवर्ग 'ख' दोनों तरह की परियोजनाओं पर लागू होता है, सिवाय कुछ परियोजनाओं को छोड़कर जैसे कि सिंचाई परियोजनाओं का आधुनिकीकरण, सड़कों और राजमार्गों का विस्तार, सभी भवन / संनिर्माण परियोजनाएं / क्षेत्र विकास परियोजनाएं और नगरीय योजनाएं, सभी प्रवर्ग 'ख 2' परियोजनाएं और क्रियाकलाप, राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा से संबंधित सभी परियोजनाएं और क्रियाकलाप इत्यादि ।

लोक परामर्श के दो घटक हैं (1) लोक सुनवाई / जन सुनवाई (पब्लिक हियरिंग ) – इसके अंतर्गत उन लोगों के सुझाव लिए जाते हैं जो इस परियोजना से प्रभावित होते हैं अथवा प्रभावित होने की संभावना होती है। (2) किसी व्यक्ति द्वारा परियोजना के पर्यावरणीय पहलुओं पर न्यायसंगत लिखित प्रतिक्रिया विचारार्थ प्रस्तुत करना।

लोक परामर्श को ई.आई.ए. की आत्मा भी कहा जा सकता है क्योंकि लोक परामर्श में परियोजनाओं से प्रभावित रूप से स्थानीय रूप से प्रभावी व्यक्तियों के साथ-साथ अन्य कोई भी व्यक्ति जो उपर्युक्त परियोजना / क्रियाकलापों के बारे में अपना नजरिया रखता हो उसकी राय ली जाती है एवं समस्याओं को समझा जाता है। साथ ही साथ लोक सुनवाई के समय वे अपना सुझाव, विचार, मंतव्य या यदि कोई आपत्ति हो तो उसकी लिखित रूप से सूचना क्षेत्रीय / राज्य प्रदूषण नियंत्रण पार्षद के कार्यालय में जमा कर सकते हैं। साथ ही साथ संबंधित परियोजनाओं का पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्रतिवेदन तथा उसका कार्यकारी सारांश (एक्जिक्यूटिव समरी) की हार्ड कॉपी एवं सॉफ्ट कॉपी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय के साथ कई और भिन्न-भिन्न कार्यालयों में जिसकी सूचना समाचार पत्रों के माध्यम से भी दी जाती है, सामान्य जनता या इच्छुक व्यक्तियों के अवलोकनार्थ एवं सूचनार्थ उपलब्ध रहती है।

प्रक्रम 4

आंकलन (अप्राइसल) पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट तथा लोक परामर्श के आधार पर इस बात का निर्णय लिया जाता है कि परियोजना को पर्यावरणीय अनापत्ति प्रदान की जा सकती है और उसे आगे बढ़ाने की अनुमति दी जाए अथवा नहीं।

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन ( सितम्बर 14, 2006) अधिसूचना के महत्वपूर्ण बिंदु

सितंबर 2006 की ई.आई.ए. अधिसूचना का प्रमुख उद्देश्य इसके पूर्व की ई. आई. ए. अधिसूचना ( मई, 1994) की कमियों को दूर करके उसको तर्कसंगत बनाना था। साथ ही ई.आई.ए. प्रक्रिया को सरलीकृत करते हुए पारदर्शी भी बनाना था जिससे कि ई.आई.ए. प्रक्रिया का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग नहीं किया जा सके एवं इससे औद्योगिकरण अनावश्यक देरी को रोका जा सके, और पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन की मूल भावना को बिना क्षति पहुंचाए प्रगति के रास्ते को बढ़ाया जा सके। पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन को अधिसूचना 2006 में समालोचित किया गया है, जिसके महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं:

  • मई 1994 अधिसूचना में 29 परियोजनाओं को शामिल किया गया है जिसके लिए पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन जरूरी था (जिसे बाद में बढ़ाकर 32 परियोजनाओं तक कर दिया गया था) जबकि 2006 अधिसूचना के अनुसार विभिन्न परियोजनाओं को आठ प्रवर्गों भागों में बांटा गया है।
  • मई 1994 अधिसूचना में परियोजनाओं का वर्गीकरण पर्यावरणीय संवेदनशीलता तथा कार्यों पर होने वाले व्यय के आधार पर किया जाता था, लेकिन सितंबर 2006 अधिसूचना में परियोजनाओं का वर्गीकरण संवेदनशीलता तथा प्रदूषण और उसके प्रभाव के आधार पर किया गया है।
  • मई 1994 अधिसूचना के अनुसार सूची में सम्मिलित सभी 32 परियोजनाओं के लिए ई.आई.ए. जरूरी था, लेकिन सितंबर 2006 अधिसूचना के अनुसार प्रवर्ग ख 2 में निर्धारित परियोजनाओं / क्रियाकलापों के लिए ई.आई.ए. जरूरी नहीं है, एवं इसमें एस. ई. आई. ए. ए. के ( राज्य स्तर) द्वारा पर्यावरणीय अनापत्ति दी जाती है।
  • मई 1994 अधिसूचना में कार्यों को संपादित करने के लिए मूल्यांकन समिति द्वारा विस्तारण की दृष्टि से कोई पूर्व अनुमोदन करना जरूरी नहीं था लेकिन सितंबर 2006 अधिसूचना में संदर्भ की दृष्टि से फॉर्म 1 के आधार पर ई. ए. सी. / एस.ई.ए.सी. द्वारा अध्ययन किया जाता है। इसके द्वारा विशेषज्ञ आकलन समिति पर्यावरण के उन महत्वपूर्ण बिंदुओं को निर्धारित करती हैं जिसे क्रियाकलाप परियोजनाओं के संदर्भ में ई.आई.ए. अध्ययन में शामिल करना जरूरी होता है। उनसे यह अपेक्षा भी की जाती है कि ई.आई.ए. रिपोर्ट में इन बिंदुओं को समुचित ढंग से समाहित किया जाये । यह प्रवर्ग 'क' तथा 'ख 1' दोनों तरह की परियोजनाओं (मद 8 में प्रवर्ग 'ख' में आने वाली परियोजनाओं को छोड़कर) पर लागू होता है। मई 1994 अधिसूचना के अनुसार लोक परामर्श में केवल ऐसे लोगों को शामिल किया जाता था जो उस परियोजना से प्रभावित होते थे, लेकिन सिंतबर 2006 की अधिसूचना में विभिन्न हितधारकों (स्टेक होल्डरों) को भी शामिल किया गया। 
  • मई 1994 अधिसूचना में आंकलन का सारा अधिकार वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को दिया गया था परंतु सितंबर 2006 की अधिसूचना में यह अधिकार केन्द्रीय स्तर के साथ-साथ राज्य स्तर (एस.ई.ए.सी.) को भी प्रवर्ग 'ख' के तहत दिया गया है। 
  • मई 1994 अधिसूचना में पर्यावरणीय आंकलन केवल केन्द्रीय स्तर पर होता था और उससे संबंधित विशेषज्ञ आंकलन समिति का कार्यकाल निर्धारित नहीं किया गया था। इसके विपरीत नई ई.आई.ए. अधिसूचना (सितंबर 2006) में इसका कार्यकाल 3 वर्ष निर्धारित किया गया है और राज्य स्तर पर बनने वाली विशेषज्ञ आंकलन समिति को राज्य सरकार की अनुशंसा से केन्द्रीय सरकार की मंजूरी से ही बनाया जा सकता है।
  • मई 1994 अधिसूचना में ई.आई.ए. रिपोर्ट को संपादित करने का कोई निश्चित तरीका नहीं था, और इसमें विशिष्ट रूप से पर्यावरण प्रबंधन योजना की रूपरेखा निर्धारित नहीं की गई थी, जबकि सितम्बर 2006 अधिसूचना के अनुसार ई.आई.ए. रिपोर्ट का सारांश वेबसाइट पर भी प्रदर्शित किया जाना जरूरी था।
  • 1994 में ई.आई.ए. रिपोर्ट को समर्पित करने के लिए समय निर्धारित नहीं था लेकिन सितंबर 2006 अधिसूचना में ई.आई. ए. रिपोर्ट के सारे कार्यों का संपादन करने के लिए 105 दिनों का समय निर्धारित किया गया है।

ई. आई. ए. दस्तावेज / रिपोर्ट में साधारण संरचना का प्रारूप

ई.आई.ए. अधिसूचना 2006 में विभिन्न परिशिष्टों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए ई.आई.ए. अधिसूचना के विभिन्न पहलुओं जैसे कि आधारभूत जानकारियां जिसे प्ररूप 1 ( फार्म 1 ) में भरा जाता है। प्ररूप 2 जो कि केवल सूचीबद्ध निर्माण परियोजनाओं के लिए ही लागू होता है ।

ई.आई.ए. रिपोर्ट की संरचना संबंधित जानकारियां, लोक सुनवाई को संचालित करने की प्रक्रिया एवं केन्द्रीय सरकार द्वारा गठित किये जाने वाले प्रवर्ग के लिए सैक्टर परियोजना निर्दिष्ट विशेषज्ञ आकलन समिति की संरचना से जुड़ी हुई जानकारियों इत्यादि का उल्लेख किया गया है। इन सभी परिशिष्टों के बारे में संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है:

परिशिष्ट I

यह प्रवर्ग 'क' तथा 'ख' दोनों तरह की परियोजनाओं के लिए जरूरी है। इसके अंतर्गत परियोजनाओं की आधारभूत जानकारी देना जरूरी होता है। प्रारूप 1 ( फार्म 1 ) जैसे परियोजना की जगह,आकार, लागत मूल्य, स्क्रीनिंग, वर्ग, पर्यावरण संवेदनशीलता इत्यादि । इन सभी जानकारियों को प्रारूप 1 ( फार्म 1 ) में भर कर संबंधित आंकलन समिति को जमा किया जाता है।

परिशिष्ट II 

यह केवल निर्माण से जुड़ी हुई परियोजनाओं के लिए जरूरी है जिसको प्रारूप 1 ( फार्म 1 ) में भरा जाता है। इसमें पर्यावरणीय प्रभावों की जांच सूची होती है जिसके अंतर्गत भूमि, हवा, पानी, वनस्पति, जीव-जंतु, सौन्दर्य, बौद्धिक, सामाजिक-आर्थिक पहलू, निर्माण सामग्री, ऊर्जा संरक्षण तथा पर्यावरण प्रबंधन योजना आते हैं।

परिशिष्ट III

यह पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन दस्तावेज की संरचना को दर्शाता है जिसके अंतर्गत निम्नलिखित बिन्दु सम्मिलित रहते हैं। प्राक्कथन, परियोजना वर्णन, पर्यावरण का वर्णन, अनुमानित पर्यावरणीय समाघात और न्यूनीकरण उपाय, विकल्प का विश्लेषण, प्रौद्योगिकी और स्थल, पर्यावरणीय मॉनिटरिंग कार्यक्रम, अतिरिक्त अध्ययन परियोजना के फायदे, पर्यावरणीय लागत फायदा विश्लेषण, ई. एम.पी. संक्षिप्त सार एवं निष्कर्ष, नियोजित परामर्शियों का प्रकटन।

परिशिष्ट III (क) 

इसमें पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन के सारांश निहित हैं। परियोजना वर्णन, पर्यावरण का वर्णन, अनुमानित पर्यावरणीय प्रभाव और न्यूनीकरण उपाय, पर्यावरणीय मॉनिटरिंग कार्यक्रम, अतिरिक्त अध्ययन, परियोजना के फायदे तथा पर्यावरण प्रबंधन योजना।

परिशिष्ट IV

इसमें लोक सुनवाई को संचालित करने के लिए संपूर्ण प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस परिशिष्ट का उद्देश्य परियोजना द्वारा प्रभावित लोगों के लिए होने वाली सुनवाई को संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या संघ द्वारा होने वाली प्रक्रिया का वर्णन करना है जिसमें इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं जैसेकि प्रक्रिया, लोक सुनवाई की सूचना, वीडियोग्राफी एवं लोक सुनवाई को पूरा करने के लिए कार्यविधि का उल्लेख किया गया है।

परिशिष्ट V 

इस परिशिष्ट में आंकलन के लिए संबंधित विनियामक प्राधिकरण द्वारा की जाने वाली विहित प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है।

परिशिष्ट VI

प्रवर्ग 'क' परियोजनाओं के लिए सेक्टर परियोजना आंकलन समिति और प्रवर्ग 'ख' परियोजनाओं के लिए राज्य / संघ राज्य क्षेत्र स्तर आंकलन समितियों की संरचना का वर्णन किया गया है।

ई.आई.ए. अधिसूचना (सितम्बर 2006 ) के प्रस्तावित सुधार 19 जनवरी 2009 को पिछले लगभग 3 वर्षों के अनुभवों के साथ विभिन्न संस्थाओं (जिसमें कि गैर-सरकारी संस्थाएं भी शामिल हैं),उद्योगों एवं बड़ी परियोजनाओं से संबंधित विशेषज्ञों और पर्यावरण विशेषज्ञों के परामर्शो के आधार पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार ने सितंबर 2006 के ई.आई.ए. अधिसूचना में कई महत्वपूर्ण संशोधन प्रस्तावित किए हैं। प्रस्तावित सुधारों को प्रारूप अधिसूचना (ड्राफ्ट नोटिफिकेशन) के रूप में फिलहाल जारी किया गया है, जिसे उचित परामर्श के बाद अंतिम रूप से भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाएगा। विभिन्न प्रवर्ग 'क' तथा प्रवर्ग 'ख' में अर्थात् जिनका पर्यावरणीय अनापत्ति केन्द्र सरकार या राज्य सरकार के पर्यावरण समाघात निर्धारण प्राधिकरण (स्टेट एन्वायरॉनमेंटल इम्पैक्ट असेस्मेंट अथॉरिटी के द्वारा किया जाएगा) का अवसीमा मापदंड (थ्रेशहोल्ड क्राइटेरिया) के साथ-साथ लोक सुनवाई लोक परामर्श प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण फेरबदल प्रस्तावित हैं। प्रस्तावित अधिसूचना के अनुसार आवेदक को पर्यावरणीय अनापत्ति मंजूर होने के बाद ही स्थानीय समाचार पत्रों में संबंधित पर्यावरणीय समाघात निर्धारण प्राधिकरण की शर्तों एवं अनुशंसा को प्रकाशित करना पड़ेगा, और आवश्यकता पड़ने पर या ऐसी परिस्थितियों जिनके तहत प्रदेश के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा लोक सुनवाई संभव नहीं हो पा रही हो, किसी अन्य संस्था को भी प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अतिरिक्त ई.आई.ए. की 2006 अधिसूचना की प्रक्रिया के तहत लोक सुनवाई आयोजित करने का अधिकार प्रस्तावित है। इसका उद्देश्य स्थानीय स्तर पर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड द्वारा कई परियोजनाओं के लिए लोक सुनवाई में होने वाली देरी को दूर करना है जिसके कारण संबंधित परियोजनाओं / क्रियाकलापों को कई विशिष्ट परियोजनाओं में पर्यावरणीय अनापत्ति प्राप्त करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

निष्कर्ष

भारत सहित संपूर्ण विश्व में पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ई.आई. ए.) को तकनीकी एवं वैज्ञानिक मान्यता मिली है जिसके द्वारा किसी भी परियोजना / क्रियाकलाप द्वारा होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का तकनीकी ढंग से अध्ययन एवं मूल्यांकन किया जाता है। इसी अध्ययन के फलस्वरूप पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को पर्यावरण संरक्षण की विभिन्न तकनीकियों से दूर करने या कम करने का प्रयास किया जाता है। भारत में ई.आई.ए. को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत वैधानिक मान्यता दी गई है। जिसके फलस्वरूप सूचीबद्ध परियोजनाओं क्रियाकलापों को एक निर्धारित पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ई.आई.ए. की सितंबर, 2006 की नई अधिसूचना में मई, 1994 की ई.आई.ए. की अधिसूचना में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए हैं जिनका उद्देश्य मुख्यतः पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया का सरलीकरण एवं उसको और ज्यादा पारदर्शी एवं सार्थक बनाना है। इस अधिसूचना द्वारा लोक परामर्श प्रक्रिया में भी सुधार किया गया है ताकि जनसाधारण के विचारों को भी सरकार द्वारा निर्णय लेने की निर्धारित विधिवत प्रक्रिया में उचित स्थान दिया जा सके। इस अधिसूचना का एक और प्रमुख उद्देश्य भी था जिसके द्वारा यह अपेक्षा की गई कि विभिन्न उद्योगों, विकास आधारभूत परियोजनाओं में पर्यावरणीय प्रक्रिया द्वारा होने वाली तथाकथित देरी को दूर किया जा सके और इस पर्यावरणीय अनापत्ति प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण करके राज्य सरकार द्वारा अनुशासित विशेषज्ञ आंकलन समिति (प्रक्रिया प्रवर्ग 'ख' की परियोजनाओं) को भी निर्णय में शामिल किया जा सके। जनवरी 2009 में 3 वर्षों के अनुभवों के आधार पर ई.आई.ए. की सितम्बर 14, 2006 की अधिसूचना में भी कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं। इनके अनुसार विभिन्न परियोजनाओं क्रियाकलापों के अवसीमा का पुनर्निर्धारण प्रस्तावित किया गया है और लोक सुनवाई की प्रक्रिया में और भी सुधार प्रस्तावित किए गए हैं जिनके द्वारा किसी भी परियोजना संबंधित पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं के बारे में जन साधारण को संपूर्ण जानकारी पारदर्शी ढंग से उपलब्ध हो सके। प्रस्तावित सुधार यद्यपि भारत के राजपत्र में सूचित करने के बाद ही लागू होंगे, परंतु उम्मीद की जाती है कि ई.आई.ए. प्रक्रिया द्वारा पर्यावरण संरक्षण को और सार्थक बनाया जा सकेगा एवं उसके धरातल पर परिपालन को सुनिश्चित भी किया जा सकेगा।

आभार

लेखक, निदेशक, केन्द्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने इस शोध पत्र को प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की। लेखक राजभाषा अनुभाग के डा. अनंगपाल एवं श्रीमती संतोष खुट्टन का भी आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने इस शोधपत्र के लेखन में सहयोग दिया

संदर्भ

  1.  सरीन एस एम शर्मा नीरज शर्मा कीर्ति एवं सिंह ए एन ओवरव्यू ऑफ द बेहिक्युलर एमीशन लेजिस्लेशन्स इन इंडिया, इंडियन हाईवेज, 27 (12) (1999) 5-20.
  2.  गिलपिन ए एन्वायरॉनमेंटल इम्पैक्ट असेस्मेंट (ई.आई.ए.) कटिंग एज फॉर द ट्वन्टीएथ सेंचुरी कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, प्रथम संस्करण, (1999).
  3.  केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पॉल्यूशन कंट्रोल एक्ट, रूल्स एंड नोटिफिकेशन्स इश्यूड देयरअंडर पॉल्यूशन कंट्रोल लॉ सीरीज: पीसीएलएस / 02/2006 केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार (2006).
  4. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, हैंडबुक ऑफ एन्वायरॉनमेंटल प्रोसीजर्स एंड गाइडलाइन्स, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ एन्वायरॉनमेंट एंड फॉरेस्ट) भारत सरकार, नई दिल्ली (1994).
  5.  राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नेशनल गाइडेन्स मैन्युअल ऑन एन्वायरॉनमेंटल एम्पैक्ट असेस्मेंट (रिपोर्ट पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली के लिए बनाई गई) (2003).
  6.  पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार ( वेबसाइट http:/ www.envfor.nic.in)
  7. शर्मा एन नायर पी एवं गंगोपाध्याय एस, एन्वायरॉनमेंटल इम्पैक्ट असेस्मेंट ऑफ रोड प्रोजेक्ट, साइलेन्ट फीचर्स अंडर रिवाइज्ड नोटिफिकेशन्स ( सितम्बर 14, 2006), जर्नल ऑफ इंडियन रोड कांग्रेस, 68 (3) (2007) 253-270.

 लेखक :- पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं पर्यावरण प्रबंधन नीरज शर्मा,पंकज दत्त देव, एस गंगोपाध्याय एवं रजनी ध्यानी परिवहन योजना एवं पर्यावरण विभाग, केन्द्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान (सी. एस. आई. आर.), नई दिल्ली 
110020(Environmental impact Assessment & Environment Management Niraj Sharma, Pankaj Dutt Dev, S Gangopadhyay & Rajni Dhyani Central Road Research Institute (CSIR), New Delhi 110 020 Transport Planning & Environment Division)

स्रोत:- भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका वर्ष 17 अंक 2 दिसम्बर 2009 पृ. 101-107
 

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Post By: Shivendra
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