वन पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र के अभिन्न अंग हैं। हाल ही के कुछ वर्षो में भारतीय पर्वतीय प्रदेश से दावानलों की संख्या में वृद्धि देखी गयी है। जंगलों की आग की घटनाओं में वृद्धि भी जलवायु परिवर्तन के साथ जुड़े हुये प्रमुख बदलावों में से एक है । जंगलों की आग की आवृत्ति, परिमाण, तीव्रता, प्रकार आदि वनों की संरचना और प्रकार के अलावा स्थानीय मौसम और जलवायु पर भी निर्भर करती है । इन सब के अलावा जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष (जैसे गर्मी का प्रभाव, बाढ़ और तूफानों में मौत / चोट) और परोक्ष रूप से विभिन्न प्रकार के रोगाणु की सीमाओं में परिवर्तन के माध्यम से, जल-जनित रोगज़नकों, जलगुणवत्ता, वायु गुणवत्ता, खाद्यान्न की उपलब्धता और गुणवत्ता, संक्रामक रोगों के संचरण और कुपोषण से फसल नष्ट होने तक के शक्तिशाली प्रभाव पड़ते हैं ।
1. प्रस्तावना
जलवायु परिवर्तन एक बहुत ही विस्तृत विषय है और इसके लगभग सभी क्षेत्रों पर कुछ ना कुछ प्रभाव है, पर्वतीय क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। विश्व के सभी पहाड़ पृथ्वी की सतह के लगभग 20% के क्षेत्रफल पर फैले हुये हैं साथ ही विश्व की कुल जनसंख्या के 10% लोगों को घर और 50% लोगों को कृषि भूमि की सिंचाई हेतु जल, औद्योगिक उपयोग और घरेलू उपभोग के लिए मीठा पानी प्रदान करते हैं। पर्वतीय क्षेत्र हमेशा से आनुवंशिक एवं जैव विविधता और विपुलता के भंडार रहे हैं। इसके अलावा, पर्वतीय क्षेत्र अन्य आवश्यक संसाधन जैसे लकड़ी, खनिज, जल-विद्युत और मनोरंजक पर्यटन स्थल आदि उपलब्ध कराते है किन्तु पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन और विभिन्न अन्य कारकों जैसे वनों की निरंकुश कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन और असतत और अवैज्ञानिक कृषि पद्धति आदि के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के मनोहर वातावरणों को गंभीर संकटों का सामना करना पड़ रहा है और इस प्रकार मृदा की ऊपरी सतह का कटाव, वनस्पति आवरण की उत्तरोत्तर कमी और समग्र जैव विविधता के नुकसान के रूप में प्राकृतिक संसाधनों का अक्षतिपूर्तिय क्षरण हो रहा है।
जब पहाड़ के जंगलों को अंधाधुंध काट कर कृषि भूमि का निर्माण या पशुपालन या खनन किया जाता है तो सामान्य रूप से पर्वत के जल संग्रह क्षेत्रों के बहने वाला पानी अपनी बंजर ढलानों पर मृदा के कटाव को प्रोत्साहित करता है और घातक हिमस्खलन, भू-स्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है उपजाऊ मिट्टी, वन खो जाते हैं। पानी का प्रवाह और अपवाह बढ़ जाता है। नदियों और जलाशयों में गाद की वृद्धि होने से उनकी क्रमशः ढोने की क्षमता (Carrying Capacity) और संचयन क्षमता (Storage Capacity) कम हो जाती है। जिसके परिणामस्वरूप पानी की उपलब्धता में कमी, पारिस्थितिक तंत्र का क्षरण और कुल मिलाकर समग्र जैव विविधता की विनाश क्रिया सक्रिय हो जाती है पर्वतीय क्षेत्र दुनिया के एक प्रमुख पर्यवारण संसाधन यानि पानी के सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत क्षेत्र है।
2 . पर्वतीय क्षेत्रों की चुनौतियाँ और संभावनाएँ
समृद्ध जैव-विविधता, अत्यधिक परिवर्तनीय मौसम, बादलों को छूती ऊँचाईयां और अक्सर पानी की बहुतायत में उपलब्धता की विशेष पहचान रखने वाले पहाड़ हमेशा से एक जटिल और नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियों को प्रस्तुत करते रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों का जीवन सदा ही चुनौतीपूर्ण रहता है जिसमें सदा ही जोखिम का वातावरण बना रहता है, विशेष रूप से हिमस्खलन, भू-स्खलन हिमनदों की झीलों का निर्माण और तटबंधों का टूटना बाढ़ और भूकंप पहाड़ी क्षेत्रों में जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की सुदूरता, दुर्गमता और तकलीफदेह पहुँच मार्ग के कारण पहाड़ी क्षेत्र अक्सर विकास के हाशिए पर होते हैं। इन सभी समस्यायों के बावजूद पर्वतीय क्षेत्र अनेक महत्वपूर्ण व्यावसायिक अवसर प्रदान करते हैं कभी व्यावहारिक रूप से - आर्थिक विकास के प्रतिकूल समझे जाने वाले पर्वतीय क्षेत्र 21वीं सदी में पर्यटन और जल विद्युत परियोजनाओं के चलते - प्रमुख आर्थिक निवेश के पड़ाव बन गए हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों ने भी इन कठोर परिस्थितियों को अपनी दिनचर्या का एक हिस्सा बना लिया है और अपनी आवश्यकता के अनुरूप कृषि तकनीक, वानिकी प्रबंधन, जल प्रबंधन, स्थानीय संचार आदि का विकास किया है। पर्वतीय क्षेत्र की ऊँचाई के अनुसार किसानों द्वारा फसल चयन, पर्वतीय कृषि जैव-विविधता का बहुत महत्वपूर्ण कारक है। इसके साथ- साथ ही पर्वत निवासियों ने भी एक समृद्ध सांस्कृतिक विविधता का विकास किया है, इसलिए, अकसर तराई क्षेत्रों में या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को पर्यटन और मनोरंजन के लिए पर्वतीय क्षेत्र पसंद आते हैं।
तेजी से होते वैश्विक परिवर्तन से पहाड़ों के पारिस्थितिक तंत्र की, दोनों पहाड़ों और तराई के लोगों के लिए वस्तुओं और सेवाओं को उपलब्ध कराने के क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए तेजी से घटते हुये ग्लेशियर, अनुप्रवाही जन समुदायों (Downstream Community ) की जलापूर्ति और खाद्ययान्न सुरक्षा (Food Security) के लिए एक चिंतनीय विषय बन गए है। यह समस्या उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण क्षेत्रों में जैसे भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ब्राज़ील, पूर्वी अफ्रीकी देश आदि में और भी गंभीर है जहां आर्थिक रूप से कमजोर वैश्विक जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा रहता है। जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि, सघन भूमि उपयोग और परिवर्तन के कारण इन क्षेत्रों में जहां एक ओर जल संसाधनों की पहले से ही बहुत कमी है और दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन भी जल संसाधनों की उपलब्धता को संकीर्ण कर रहा है। जलापूर्ति के लिए यह बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा संघर्ष में बदल सकती है और जिसके अत्यंत भयावह परिणाम हो सकते हैं।
अभी हाल तक आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक परिवर्तन को वैश्वीकरण और पलायन के रूप में विचार किया गया था और यही पहाड़ों में परिवर्तन के मुख्य कारक माने जाते थे लेकिन आईपीसीसी (अन्तर सरकारी जलवायु परिवर्तन पर पैनल) की चौथी रिपोर्ट में संकलित और प्रस्तुत वैज्ञानिक आकलन और साक्ष्य जलवायु परिवर्तन को इंगित करता है। अनेक प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बाद भी पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन, जल विद्युत, जैव-विविधता आदि क्षेत्रों में विकास की अपार संभावनाएं हैं।
3. पर्वतीय क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
कई जलवायु वैज्ञानिकों का मानना है कि पर्वतीय क्षेत्रों पर पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले परिवर्तन वैश्विक जलवायु परिवर्तन के शुरूआती संकेत मात्र हैं। इस कारण से, यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि पहाड़ों के जैविक और भौतिक घटकों का आकलन और अध्ययन किया जाए। दुर्भाग्य से, कुछ पहाड़ों को छोड़कर पहाड़ों के जलवायु के लंबी अवधि के विश्वसनीय रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं। विशेष रूप से दुर्गम ऊँचाई वाले पहाड़ों के कोई सार्थक अवलोकन और जानकारियाँ उपलब्ध नहीं है। जलवायु परिवर्तन के प्रति पर्वतीय तंत्र की संवेदनशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रमुख संभावित प्रभावों को मोटे तौर पर भौतिकीय, जैविक, और सामाजिक-आर्थिक तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इन वर्गीकृत श्रेणियों का प्रभाव सम्पूर्ण रूप से भिन्न-भिन्न नहीं है अपितु आपस में कहीं ना कहीं जुड़े हैं।
3.1 भौतिकीय तंत्र पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के भौतिकीय तंत्र पर प्रभावों के अंतर्गत मुख्यतः जलविज्ञान, निम्नतापमंडल, भू-आकृति विज्ञान आदि में हो रहे बदलाव सम्मिलित हैं। विश्व की प्रमुख पर्वतीय श्रेणियों में जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर किए गए अध्ययनों से यह बात सामने आती है कि, जलवायु परिवर्तन, जल-वृष्टि और हिम-वृष्टि दोनों के वार्षिक चक्र और मौसमी चक्र में परिवर्तित कर सकता है और वर्षा चक्र में यह परिवर्तन चरम घटनाओं की आवृत्तियों को बढ़ा सकता है। इन परिवर्तनों के जो भी परिमाण और दिशायें हों पहाड़ और उनके नीचे रहने वाले जन समुदायों को उनके अनुसार ढालने को तैयार रहना चाहिए।
पहाड़ी क्षेत्रों की जलवायु को काफी हद तक उनकी ऊँचाईयों द्वारा निर्धारित किया जाता है जहां एक ओर पहाड़ी क्षेत्रों में हवा आने की दिशा बाली (Windward) ढलानों पर वर्षा की अधितायत होती है वहीं दूसरी ओर अनुवात (Leeward) ढलानों पर और दो पहाड़ों के बीच की घाटियों में कम वर्षा होती है। कहीं-कहीं यह प्रभाव इतने सक्रिय हो जाते हैं कि इतने ऊँचे पहाड़ों पर रेगिस्तान को जन्म दे देते हैं भारत का लद्दाख क्षेत्र, जो मध्य हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के उत्तर में स्थित है इसका एक जीवंत उदाहरण है। हिमालय की दक्षिणी ढलानें अधिकतर वायुमंडलीय नमी को वर्षा में परिणत कर देती हैं और लद्दाख क्षेत्र में अति अल्प वर्षा हो पाती है। इस क्षेत्र की औसत वार्षिक वर्षा 100mm के आस-पास है और इसलिए इसे ठंडे मरुस्थल के नाम से भी जाना जाता है वहीं दूसरी ओर पूर्वोत्तर हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं जैसे चेरापूंजी आदि में दुनिया कि उच्चतम औसत वर्षा (11000mm) होती है। प्रमुख वैश्विक पर्वतीय क्षेत्र जैसे हिमालय, इंडीस, आल्प्स आदि दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से 'कुछ के उद्गम स्रोत हैं। इन पर्वतीय क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सीधे तौर पर इन नदियों के जल प्रवाह पर पड़ेगा।
यदि हम निम्नतापमंडल (Cryosphere) की बात करें तो मुख्यतः ग्लेशियरों और हिमाच्छादित क्षेत्रों की बात आती हैं। निम्नतापमंडल पर तापमान और वर्षा में हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव और भी जटिल होता है और स्थान के हिसाब से बदलता रहता है। ग्लेशियरों का घटना, हिमनदों के झील का निर्माण और बाढ़ (Glacier Lake Outburst Floods GLOF ग्लोफ), भू-स्खलन, हिमस्खलन, दावानल (जंगलों की आग ) बारिश और बर्फबारी में परिवर्तन, तूफान, कोहरे, बाढ़ और सूखा की आवृत्ति में वृद्धि आदि प्रमुख हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के इन प्रभावों में ग्लेशियरों का लगातार घटना, फ्लैश बाढ़ और हिमनदों के झील का निर्माण और बाढ़ (GLOF) सबसे स्पष्ट दिखाई देने वाले और प्रमुखता से अध्ययन किए जाने वाले गंभीर प्रभाव हैं। पिछले दो दशकों के विशेष रूप से हिमालय के ग्लेशियर क्षेत्रों में अनेक ग्लोफ को दर्ज किया गया है। ग्लेशियरों के बहुतायत में पिघलने में वृद्धि के कारण कई हिमनदों झीलों का निर्माण हो गया है ये हिमनदों में झील जनित बाढ़ मानव जीवन वनस्पतियों और क्षेत्र के जीव-जंतुओं और साथ ही पर्वतीय क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के तबाही का कारण बनती है। हिमालय को धरती का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है भारत का प्रमुख पर्वतीय क्षेत्र है। हिमालय का लगभग 97,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल हिमाच्छादित है जो लगभग 12,930 घन किलोमीटर बर्फ की मात्रा के समतुल्य है। विभिन्न कारणों के चलते पिछले 40 वर्षों में हिमालय ग्लेशियरों में 40% की कमी देखी गयी है।
हाल के वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे घटने की औसत दर 30-60 मीटर प्रति दशक है जो एक चिंता का विषय है। प्रसिद्ध गंगोत्री ग्लेशियर प्रति वर्ष 28 मीटर की दर से पीछे को घट रहा। ग्लोफ, जिस में कुछ ही घंटों में जल की एक बड़ी मात्रा को रिहा करने की क्षमता होती है और जो नीचे की ओर सैकड़ों किलोमीटर तक भयानक बाढ़ ला सकता है और ग्लोफ से पैदा हुई बाढ़ अपार जन-धन हानि और जंगल, खेतों, और बुनियादी सुविधाओं को गंभीर क्षति पहुँचा सकती है। हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र में बसे देश भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान जहां एक खासी आबादी रहती है इन प्रभावों का अत्यधिक जोखिम बना हुआ है।
3.2 जैविक प्रभाव
किसी भी पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र में, पेड़- रेखा (Timberline) और हिम- रेखा ( Snowline ) दो सबसे महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो उस क्षेत्र की जैविक सीमाओं का निर्धारण करते हैं। इन जैविक सीमाओं का बदलना और हिम रेखा का ऊपर की ओर जाना और उनसे संबद्ध बायोटा में परिणामी परिवर्तन, केवल ग्लोवल वार्मिंग के साथ जुड़े हुये हैं विशेष रूप से यूरोपीय पर्वतीय क्षेत्रों में किए गए कई अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि कर चुके हैं हालांकि इस तरह के और अध्ययन हिमालय क्षेत्र के लिए किए जाने बाकी हैं। इन सीमा रेखों का बदलना पर्वतीय क्षेत्रों की जैव-विविधता और वन आवरण के लिए निहितार्थ हैं। उदाहरण के लिए, पूर्वी हिमालय क्षेत्र दुनिया की एक सबसे बड़ी जैव- विविधता का हॉटस्पॉट माना जाता है। हाल ही में हुये एक अध्ययन के अनुसार इस क्षेत्र में पाये जाने वाली जानवरों और पौधों की कुल मिलाकर 1 लाख प्रजातियों में से एक चौथाई इस सदी के मध्य तक विलुप्त हो सकती हैं। और इस विलोपन के मुख्य रूप कारण तापमान में वृद्धि, वानस्पतिक तंत्र में परिवर्तन, तेजी से वनों की कटाई और अन्य मानव जनित कारकों को बताया गया है।
वन पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र के अभिन्न अंग है। हाल ही के कुछ वर्षों में भारतीय पर्वतीय प्रदेश से दावानलों की संख्या में वृद्धि देखी गयी है जंगलों की आग की घटनाओं में वृद्धि भी जलवायु परिवर्तन के साथ जुड़े हुये प्रमुख बदलावों में से एक है। जंगलों की आग की आवृत्ति, परिमाण, तीव्रता, प्रकार आदि वनों की संरचना और प्रकार के अलावा स्थानीय मौसम और जलवायु पर भी निर्भर करती है। इन सब के अलावा जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष (जैसे गर्मी का प्रभाव, बाढ़ और तूफानों में मौत / चोट) और परोक्ष रूप से विभिन्न प्रकार के रोगाणु की सीमाओं में परिवर्तन के माध्यम से जल जनित रोगजनकों, जलगुणवत्ता, वायु गुणवत्ता, खाद्यान्न की उपलब्धता और गुणवत्ता, संक्रामक रोगों के संचरण और कुपोषण से फसल नष्ट होने तक के शक्तिशाली प्रभाव पड़ते हैं।
3.3 सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव
जलवायु एक बहु-आयामी क्षेत्र है अतः इसके परिवर्तन के भी बहु-आयामी प्रभाव होंगे। यदि हम जल की उपलब्धता की बात करें तो हो सकता है कि अल्पावधि में ग्लेशियरों के पिघलने पर अनुप्रवाही लोगों के लिए अधिक जल उपलब्ध हो जाए परंतु यदि ग्लेशियर लगातार पिघलकर गायब हो जाएं तो? तब हिमरेखा ऊपर की ओर खिसक जाएगी और नदियां अपना रास्ता बदल लेंगी और फिर पानी की कमी एक प्रमुख संकट बन सकती है। जल की अनुपलब्धता पर्वतीय पर्यटन के लिए भी खतरा है । उदाहरण के लिए, यूरोप और उत्तरी अमेरिका जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों में पिघलने और बर्फ की कमी के कारण सर्दियों के पर्यटन के नुकसान की क्षतिपूर्ति हेतु अन्य विकल्प तलाशे जा रहे हैं। इन देशों ने पर्वतीय पर्यटक स्थल के लिए अपनी सेवाओं में विविधता लाना शुरू कर दिया है अनेक देशों ने नीति स्तर पर भूमि उपयोग की योजनाओं, क्षेत्रीकरण आदि की समीक्षायें प्रारंभ कर दी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि, पहाड़ों और आसपास के नीचे के क्षेत्र दोनों में बाढ़, भू-स्खलन, और हिमस्खलन आदि का संकट और भी गंभीर हो जाने की संभावना है। आर्थिक मूल्य के संदर्भ में देखा जाये तो दुनिया के कृषि उत्पादन का एक बड़ा भाग पर्वतीय क्षेत्रों से आता है। कृषि उपज की परिवर्तनशीलता अकसर अधिक ऊँचाई पर बढ़ा जाती है, इसलिए जलवायु परिवर्तन से कृषि उपज की कमी का एक बड़ा खतरा हो सकता है। वैसे तो कृषि उपज की संवेदनशीलता क्षेत्र, फसल और प्रयुक्त कृषि- प्रणाली के अनुसार बदलती रहती है जैसे कुछ अध्ययन कहते हैं कि चीन में गरम जलवायु कृषि उत्पादकता में सामान्य वृद्धि करेगा विश्व के कुछ भागों में और विशेष रूप से विकासशील देशों में, खाद्यान्न उत्पादन और जल उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से पर्वतीय क्षेत्रों की जीवनपद्धति का पूरा विघटन आशंकित है। जलवायु परितर्वन के चलते अतिरेक जल प्रवाह, अति वृष्टि, सेडिमेंट प्रवाह, आदि संभावित हैं जो पनबिजली परियोजनाओं के लिए अभिशाप है। पनबिजली परियोजनाओं की सफलता, पर्वतीय क्षेत्रों के स्थिर एवं सटीक अनुमानित जल उपलब्धता पर निर्भर करती है। पर्वतीय क्षेत्रों के जलवायु परितर्वन के प्रति संवेदनशीलता पनबिजली परियोजनाओं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। ये परियोजनाएं पर्वतीय प्रदेशों की आर्थिक उन्नति के पायदान हैं और इनकी असफलता इन प्रदेशों के सर्वागीण विकास में बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगी। पर्यटन और शीतकालीन खेल उत्सव, अनेक पर्वतवासियों की जीविका का प्रमुख साधन है। किन्तु इनके लिए आवश्यक संसाधन जैसे प्राकृतिक और मानव निर्मित विहंगम परिदृश्य, शांत पारिस्थितिक तंत्र और स्वास्थ्यवर्धक परिस्थतियां आदि जलवायु पर निर्भर करते हैं। और ये संसाधन छोटी और लंबी अवधि में जलवायु परिवर्तनद्वारा प्रभावित हो सकते हैं जैसे पहले उल्लेखित किया जा चुका है कि पर्वतीय पारिस्थतिक तंत्र के अभिन्न अंग होने के अलावा वन इमारती लकड़ी, गैर इमारती लकड़ी, वन उत्पादों (जैसे औषधीय पौधे, फल, सूखे मेवे, सब्जी, कंद-मूल, रेजिन, सुगंध, बांस, छाल, फाइबर, घास) आदि अन्य सेवायें स्थानीय निवासियों को प्रदान करते हैं जो उनके जीविकोपार्जन में सहायक होता है। जलवायु परिवर्तन के पर्वतीय जैव-विविधता पर पड़ने वाले विपरीत परिणामों से गरीब, किसान और काश्तकार लोगों के सर्वाधिक प्रभावित होने की संभावना है जो लगभग सम्पूर्ण रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है।
4. सार और भविष्य की आवश्यकताएँ
पर्वतीय क्षेत्रों में न केवल प्राकृतिक संसाधनों के एक समृद्ध स्रोत नहीं हैं अपितु यह जैव विविधता, समुदाय विविधता, और सांस्कृतिक विविधताओं के भी केंद्र हैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पर्वतीय क्षेत्रों की उच्च संवेदनशीलता, वैश्विक परिवर्तन की प्रक्रिया और पर्वतीय क्षेत्रों से सामाजिक आर्थिक स्थितियों पर उनके प्रभाव का विश्लेषण और मॉडल करने के लिए स्वर्णिम अवसर प्रदान करती है। पिछले कुछ दशकों में पहाड़ी क्षेत्रों के वैश्विक महत्व के बारे में जागरूकता, कठिन जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता के बारे में काफी वृद्धि हुई है दुनिया की प्रमुख नदियों में से कई की जीवन रेखा पर्वतीय क्षेत्रों से ही आरंभ होती है। पर्वतीय क्षेत्रों पर स्थित ग्लेशियर पृथ्वी गृह के कूलर और वे पृथ्वी के कुल ताजा पानी के 75% भागीदारी है। अनेक मौसम वैज्ञानिक पर्वतीय क्षेत्रों के ग्लेशियरों की सुकड़ने की वजह मानव जनित वैश्विक तापमान की वृद्धि को मानते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में मानसूनी तूफान और बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि होना संभावित है। इस परिवर्तन से पर्वतीय क्षेत्र के मृदा कटाव, नदी के प्रवाह और तलछट निक्षेप (Sediment Deposit) का प्रतिमान (Pattern) बदल जाएगा। यह बदलाव सीधे तौर पर जल विद्युत जलाशयों की क्षमता और नई बनाई गयी निर्माण योजना को प्रभावित करेगा। इससे प्रभावित क्षेत्र में फसल चक्र और प्रतिमान में स्थिति बिगड़ सकती है।
पर्वतीय क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए और पूर्वानुमान और भविष्यवाणी करने के लिए एकीकृत, समन्वित, समाकलित और संघटित अनुसंधान की आवश्यकता जो डेटा संग्रह, प्राचल अवलोकन प्रयोगात्मक अध्ययन और मॉडलिंग का संतुलित प्रतिनिधित्व करता हो। इस के साथ-साथ, पर्वतीय पारिस्थतिक तंत्र की प्रणाली और इन तंत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में बेहतर समझ और परिपक्व विज्ञान को विकसित करने की आवश्यकता है।
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मनीष कुमार नेमा राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रुड़की
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