पृथ्वी पर विनाश के मंडराते खतरे


आज पृथ्वी को विनाश से बचाना मानव और समाज के लिये उसके वैज्ञानिक एवं प्राविधिक विकास के स्तर को बचाये रखने के लिये मुख्य कसौटी बन गया है अतः हम जहाँ हैं, वहीं से पृथ्वी को विनाश से बचाने का प्रयास करें, अन्यथा हम अपना विनाश अपने ही हाथों कर डालेंगे और अन्ततः कुछ नहीं कर पायेंगे।

हमारा पर्यावरण एक वृहद मशीन की तरह है और समस्त पेड़-पौधे तथा प्राणी इसके पेंच व पुर्जे हैं। भौतिक रासायनिक एवं जैविक कारणों से इन पेंच-पुर्जों में गड़बड़ी उत्पन्न होती है तो पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ जाता है। मशीन की नैसर्गिक क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है और जीवों के साथ-साथ मानव को भी इसका परिणाम भुगतना पड़ता है।

मनुष्य ने अपने साधनों की पूर्ति हेतु प्रकृति के साथ इस तरह खिलवाड़ किया है कि इसके द्वारा स्थापित पारिस्थितिकी सन्तुलन ही नष्ट होता जा रहा है, जिसके चलते सम्पूर्ण मानव जगत पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।

पृथ्वी के संसाधन एवं पारिस्थितिकी का सबसे अधिक दुरुपयोग औद्योगिक विकास के चलते हुआ है। एक आकलन के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 1000 से अधिक पशु-प्रजातियों एवं 20,000 पादप पुष्पों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मँडराता रहता है। प्रायः एक तिहाई ज्ञात जीव-जातियाँ समाप्त प्रायः हो गयी हैं।

हमारी विकास की विभिन्न परियोजनाएँ एवं प्राविधिकी, जो मानव कल्याण के लिये उपयोग में लायी जा रही हैं, या तो अशिक्षा एवं अज्ञानता के चलते या भीषण पर्यावरणीय संकट का कारण बनती जा रही है। इसके लिये हम स्वयं उत्तरदायी हैं। कारण कि हम अपने तात्कालिक लाभ हेतु अदूरदर्शितापूर्ण वातावरण के विभिन्न अवयवों का दोहन एवं गलत उपयोग करते हैं। इस तरह अति उपभोगवाद की सभ्यता में औद्योगिक उत्पादन प्राकृतिक संसाधनों तथा ऊर्जा स्रोत के भण्डारों पर निर्भर हैं। जबकि ये दोनों ही शीघ्रता से समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। इस प्रक्रिया में संसाधनों द्वारा ही निर्मित जीवनोपयोगी तंत्र संकीर्ण, दूषित एवं विषाक्त होता जा रहा है। इस तरह इस भोग विलासी संस्कृति के चलते मानव जाति का सर्वनाश स्पष्ट नजर आ रहा है। वैसे इस सर्वनाश का कारण जनसंख्या विस्फोट, अशिक्षा एवं अज्ञानता, गरीबी, आर्थिक विकास में व्याप्त असमानता, उच्च भौतिक जीवन स्तर को बढ़ाने की होड़ एवं औद्योगिकी तथा प्रौद्योगिकी का तीव्र विकास है, जिसके चलते पारिस्थितिकी में जो बदलाव आया है उससे मानव जगत का सम्पूर्ण पर्यावरण ही दूषित होता जा रहा है।

मानव गतिविधि के भयंकर परिणाम पारिस्थितिकी के समस्त प्रमुख क्षेत्रों में प्रकट होने लगे हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि समाज एवं प्रकृति के अन्तर्विरोध अब अत्यन्त ही जटिल हो गए हैं। मनुष्य की रूपान्तरणकारी गतिविधियाँ अधिकतर उन प्रक्रियाओं से टकरा रही हैं, जो सम्पूर्ण पारिस्थितिकी मंडल एवं संगठन के विभिन्न स्तरों पर गतिशील सन्तुलन को नियंत्रित करती हैं तथा इससे प्राकृतिक प्रणालियों में खतरनाक परिवर्तनों तथा उनके परिणामस्वरूप वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के लिये एवं उत्पादक शक्तियों के विकास के लिये आवश्यक प्राकृतिक परिस्थितियों तथा संसाधनों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ने का खतरा मँडराने लगा है।

इस दशक से पूर्व मानव की गतिविधि का हानिकारक प्रभाव मुख्य रूप से वन्य जीवन, वनस्पति जगत एवं प्राकृतिक भूदृश्य के क्षेत्रों तक ही सीमित था, किन्तु वर्तमान दशक में पर्यावरण का खतरनाक एवं भयावह प्रदूषण तथा संसाधनों का विनाशकारी उपयोगीकरण के रूप में इसके अन्तर्गत शामिल हो गया है। जैविक प्रदूषण के पूर्ववर्ती उच्च स्तरों के अलावा जहाँ तक पर्यावरण सम्बन्धी प्रदूषण का सम्बन्ध है तो रासायनिक एवं भौतिक प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि हुई है। विश्व के औद्योगिक उत्पादों में वर्तमान समय में लगभग 30,000 रासायनिक वस्तुएँ शामिल हैं। यही नहीं इसमें सैकड़ों नये प्रकार के रासायनिक पदार्थ प्रतिवर्ष बढ़ते जा रहे हैं।

औद्योगिक प्रगति के कारण वर्तमान समय में गर्मी, शोर, कम्पन, विकिरण जैसे प्रदूषण के भौतिक रूपों एवं विद्युत चुम्बकीय प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। जिसका आकलन ‘अन्तरराष्ट्रीय अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी निगम’ ने प्रस्तुत किया है। इसे तालिका में दिखाया गया है।

तालिका में प्रस्तुत आँकड़े भी वर्तमान प्रदूषण का सही चित्र प्रस्तुत नहीं करते हैं। साथ ही साथ वर्ष 2000 के लिये जो आकलन प्रस्तुत किया गया है, वह वर्ष 1970 के स्तर पर है, जिसमें अतिशय वृद्धि हो गयी है। अतः यह कई गुना बढ़ जायेगा।

मानव की आर्थिक क्रियाओं के कारण 2 खरब हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में प्रयुक्त की जा रही है और वर्तमान समय में तो कृषि भूमि के गहन उपयोग से इस प्रक्रिया में और वृद्धि हुई है। कृषि के कुल क्षेत्र में 2 करोड़ वर्ग कि.मी. की कमी आ गई है, जो उस सम्पूर्ण क्षेत्र से अधिक है, जिस पर खेती की जा रही है। निर्माण सम्बन्धी गतिविधियाँ, खनन कार्यों, भू-क्षरण एवं मरुस्थलीकरण तथा लवणीकरण के कारण प्रतिवर्ष 50,000 से 70,000 वर्ग कि.मी. भूमि कृषि से परे होती जा रही है। मात्र कटाव से ही प्रतिवर्ष 2.5 अरब टन मिट्टी नष्ट हो रही है। हाल के वर्षों में जुती हुई जमीनों एवं चरागाहों के 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र मरुस्थल से हाथ धोना पड़ रहा है। विकसित देशों में कृषि भूमि का 3,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र प्रतिवर्ष शहरी विकास के लिये प्रयुक्त किया जा रहा है।

 

तालिका

उत्पादन एवं उपभोग के कुछ चुने हुए अपशिष्ट पदार्थ (10 लाख टनों में)

  

वर्ष

क्रम सं.

अपशिष्ट पदार्थ

1970

2000 (प्रायोजित)

1.

वायु के मुख्य गैस प्रदूषक

19,709

50,959

2.

वायु में कड़े कड़ों के विसर्जन

241

721

3.

ठोस अकार्बनिक उत्सर्जित पदार्थ

5,000

15,000

4.

पेट्रोलियम उत्पाद

69

244

5.

कृषि एवं घरेलू कार्बनिक उत्सर्जित पदार्थ

14.110

37370

6.

औद्योगिक घरेलू उपभोग से निःसृत बेकार जल की कुल मात्रा

91,45,000

94,70,000

7.

जलाशयों में गर्म जल के उत्सर्जन की मात्रा

16,00,000

58,00,000

 

पृथ्वी के विनाश में सबसे अहम भूमिका आधुनिक औद्योगिक एवं प्रौद्योगिकी ने निभाई है। उद्योगों से निःसृत धुएँ के कारण वायुमण्डल में कार्बन-ऑक्साइड की मात्रा में अतिशय वृद्धि हुई है, जिससे तापमान में भी वृद्धि होती जा रही है और ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ की समस्या उत्पन्न हो गयी है।

वायु मंडल में अब तक 36 लाख टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस की वृद्धि हो चुकी है एवं 24 लाख टन ऑक्सीजन गैस समाप्त हो चुकी है और तापमान में विगत 50 वर्षों में 0 सें.ग्रे. तापमान में वृद्धि हो चुकी है।

इसी तरह ओजोन परत के नष्ट होने से सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्वी पर आने लगेंगी, जिससे सम्पूर्ण पादप जगत एवं जीव जगत ही समाप्त हो जायेगा। शोध से यह ज्ञात हुआ है कि अन्टार्कटिका के वायुमण्डल में ओजोन में 7 प्रतिशत की कमी हो गयी है और आगामी 30 वर्षों में 10 से 20 प्रतिशत की कमी आ सकती है।

औद्योगिक क्रान्ति की तीसरी महत्त्वपूर्ण विनाशकारी देन है अम्ल वर्षा। अम्ल वर्षा के चलते वनों, खेतों, नदियों एवं झीलों के खनिज सन्तुलन में कमी आ जायेगी, फसलों, वनोपज एवं जलीय उत्पादकता में कमी आ जायेगी, स्थलीय एवं जलीय तन्त्रों के जाति वैविध्य एवं प्रतिरोध में कमी आ जायेगी महत्त्वपूर्ण मृदीय सूक्ष्म जीवों की सक्रियता में कमी आ जायेगी एवं भौतिक पदार्थों का क्षरण प्रारम्भ हो जायेगा। इस तरह अम्ल वर्षा से हमारा सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र अव्यवस्थित हो जायेगा, जो पृथ्वी के विनाश का कारण बनेगा।

जल संसाधन की हालत यह है कि विश्व के स्थाई जल प्रवाह का 40 प्रतिशत भाग बेकार चला जाता है एवं यदि जल प्रदूषण की यही रफ्तार बनी रही तो इस शताब्दी के अंत तक जल के स्थायी संसाधन पूरे तौर पर समाप्त हो जायेंगे।

आज तक प्रतिवर्ष 60 लाख हेक्टेयर से भी अधिक की दर से जंगल काटे जा रहे हैं, जिससे प्रतिवर्ष ऑक्सीजन की मात्रा में 10-12 अरब टन की दर से कमी हो रही है, जिसकी किसी भी तरह से क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती है। वन कटने से वन्य जीवों का भी विनाश होता है। आज प्रतिवर्ष एक जाति विनष्ट हो रही है। इस धरती पर लगभग 300 से अधिक जीवजातियाँ एवं उपजातियाँ समाप्त हो चुकी हैं। ‘रेड डाटा बुक’ के अनुसार 400 पक्षियों, 138 उभयचर, 305 स्तनधारी जन्तुओं, 193 प्रकार की मछलियों की जातियों एवं उपजातियों के लुप्त होने का डर है। लगभग 25,000 पौधों की जातियाँ खतरे में हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार आज लगभग 20,000 वनस्पतियों एवं 900 मेरूदण्डधारी पशुओं के अस्तित्व को खतरा हो गया है।

आज पृथ्वी को विनाश से बचाना मानव और समाज के लिये उसके वैज्ञानिक एवं प्राविधिक विकास के स्तर को बचाये रखने के लिये मुख्य कसौटी बन गया है अतः हम जहाँ हैं, वहीं से पृथ्वी को विनाश से बचाने का प्रयास करें, अन्यथा हम अपना विनाश अपने ही हाथों कर डालेंगे और अन्ततः कुछ नहीं कर पायेंगे।

प्रतिभा प्रकाशन, बलिया, (उ.प्र.) 277001
डाॅ. गणेश कुमार पाठक, प्राध्यापक, महाविद्यालय, दुबे, छपरा

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