पृथ्वी पर पानी, प्राकृतिक जलस्रोतों तथा मनुष्यों द्वारा बनाई संरचनाओं में मिलता है। प्राकृतिक जलस्रोतों में समुद्र, बादल, वर्षा, बर्फ की चादरें एवं हिमनदियाँ, दलदली भूमि, नदी, झरनों सहित भूजल भण्डार और गर्म पानी के सोते प्रमुख हैं। मानव निर्मित जल संरचनाओं में तालाब, तडाग, पोखर, जलाशय, सरोवर, पुष्कर, पुष्करणी, कुआँ, बावड़ी, वापी, बाँध, बैराज, नलकूप और स्टॉपडैम इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
भारतीय जल चिन्तकों के अनुसार भूमण्डल, हमारी पृथ्वी से कई गुना बड़ा है। लगभग एक अरब सन्तानवे करोड़ उन्नीस लाख पचासी हजार एक सौ दस साल पहले जब पृथ्वी वर्तमान स्वरूप में आई, उस समय भूमण्डल का विस्तार लगभग पचास करोड़ योजन था। उसके सात भूभाग थे जो एक दूसरे से दो गुना अधिक बड़े थे और एक दूसरे को वलय के रूप में घेरे हुए थे। वे सात समुद्रों से भी घिरे थे। सातों समुद्र, एक दूसरे से दो गुना बड़े थे। भूभागों को घेरने वाले समुद्र भी सम्बन्धित भूभाग को वलयाकार रूप में घेरे हुए थे। यह, पानी की भारतीय मान्यता है।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर पानी की मात्रा का अनुमान लगाया है और उसे दर्शाने के लिये अनेक प्रकार के आँकड़ों तथा सांख्यिकी आधारित विधियों का उपयोग किया है। जल विज्ञानियों और प्रबन्धकों के बीच सांख्यिकी विधियाँ ही सबसे अधिक प्रचलित विधियाँ हैं।
सांख्यिकी विधियों में मुख्यतः आँकड़ों को काम में लाया जाता है। आँकड़ों के अनुसार पृथ्वी पर पानी की कुल मात्रा अनुमानतः 13100 लाख घन किलोमीटर है। इस पानी का लगभग 97 प्रतिशत (12707 लाख घन किलोमीटर) समुद्रों में खारे पानी के रूप में तथा लगभग 3 प्रतिशत (393 लाख घन किलोमीटर) धरती पर साफ पानी के रूप में मौजूद है।
धरती पर मौजूद साफ पानी का 68.7 प्रतिशत हिमनदियों (ग्लेशियरों) एवं बर्फ की चोटियों में, 30.1 प्रतिशत पानी भूजल के रूप में तथा 0.3 प्रतिशत सतही जल और बाकी पानी अन्य स्रोतों में मिलता है। सतही जल का लगभग 2 प्रतिशत नदियों में, 87 प्रतिशत झीलों में और 11 प्रतिशत दलदली भूमि में मिलता है।
पृथ्वी पर भूजल का वितरण, उसे सहेजने वाली चट्टानों के गुणों पर निर्भर होने के कारण असमान है। लगभग 700 मीटर की गहराई तक, कुल उपलब्ध पानी का 13.2 प्रतिशत तथा 700 से 3800 मीटर की गहराई तक 16.8 प्रतिशत मिलता है। ये आँकड़े पानी की मात्रा का अनुमान प्रस्तुत कर आभास देते हैं कि पृथ्वी पर साफ पानी की मात्रा बहुत ही कम है। यह कमी आँकड़ों की दृष्टि से सही है पर क्या वह समस्त जीवधारियों की आवश्यकताओं के सन्दर्भ में कम है, कहना कठिन है।
प्राकृतिक जलचक्र, पृथ्वी पर पानी की सतत यात्रा का लेखा-जोखा पेश करता है। प्राकृतिक जलचक्र को चित्र 2.2 में दर्शाया गया है। वह दर्शाता है कि पानी अपनी यात्रा के दौरान कहाँ-कहाँ से गुजरता है। प्राकृतिक जलचक्र, पानी की मात्रा का सन्तुलन भी दर्शाता है। यह सन्तुलन काबिले तारीफ है। यह सन्तुलन दर्शाता है कि पृथ्वी से जितना पानी भाप बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है उतना ही पानी बरसात के रूप में पृथ्वी पर लौटता है।
वायुमण्डल में भाप के रूप में स्थायी रूप से पानी की जितनी मात्रा मौजूद होती है उतनी ही मात्रा नदियों तथा जमीन के नीचे के पानी द्वारा समुद्र को लौटाई जाती है। यह व्यवस्था विलक्षण है। वह जलचक्र के घटकों के बीच के विलक्षण सम्बन्ध और सन्तुलित प्रबन्ध को दर्शाती है। हिमयुग में पानी का कुछ हिस्सा बर्फ की चादर के रूप में यदि धरती पर एकत्रित हो जाता है तो वाष्पीकरण की मात्रा घट जाती है पर पानी का सकल सन्तुलन यथावत रहता है।
पृथ्वी पर सक्रिय प्राकृतिक जलचक्र भी, पानी के बारे में जानकारी देता है। इस जानकारी को दर्शाने के लिये बिलकुल ही सरल तरीका अपनाया जा सकता है। मान लो महाद्वीपों पर बरसने वाले पानी की मात्रा 100 इकाई है।
इस अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि हर साल समुद्रों से 424 इकाई और धरती से 61 इकाई पानी भाप बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है। वायुमण्डल से बरसात तथा बर्फ के रूप में समुद्रों पर 385 तथा धरती पर 100 इकाई पानी बरसता है। नदियों के द्वारा 38 इकाई पानी तथा भूजल (Base flow) द्वारा 1 इकाई पानी समुद्र को वापस होता है।
वायुमण्डल में मेघों के रूप में स्थायी रूप से 39 इकाई पानी बना रहता है। धरती पर बहने वाली नदियों का सालाना जल-प्रवाह भी पानी की मात्रा के बारे में कुछ जानकारी देता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि धरती पर बहने वाली सभी नदियों का औसतन सालाना प्रवाह 35600 लाख हेक्टेयर मीटर है।
सांख्यिकी के नजरिए से, यदि सालाना प्रवाह की मात्रा तथा महाद्वीपों के रकबे (134430 लाख हेक्टेयर) का सह-सम्बन्ध ज्ञात किया जाये तो पता चलता है कि सभी महाद्वीपों पर सम्मिलित रूप से नदियों के प्रवाह की औसत गहराई 26 सेंटीमीटर है।
उत्तर अमेरिका के लिये यह मात्रा (सालाना जल प्रवाह तथा महाद्वीप का रकबा) क्रमशः 6250 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 31 सेंटीमीटर, दक्षिण अमेरिका के लिये क्रमशः 8100 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 45 सेंटीमीटर, अफ्रीका के लिये क्रमशः 6000 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 20 सेंटीमीटर, यूरोप के लिये क्रमशः 2550 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 26 सेंटीमीटर, एशिया के लिये क्रमशः 7200 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 17 सेंटीमीटर और आस्ट्रेलिया के लिये क्रमशः 600 लाख हेक्टेयर मीटर तथा 8 सेंटीमीटर है।
इन आँकड़ों से पता चलता है कि नदियों के औसत जल-प्रवाह के मामले में दक्षिण अमेरिका सबसे समृद्ध तथा आस्ट्रेलिया सबसे नीचे के पायदान पर है। भारत के सकल रकबे और नदियों के सालाना जल-प्रवाह के सन्दर्भ में यह आँकड़ा लगभग 51 सेंटीमीटर है। यह सह-सम्बन्ध दर्शाता है कि भारत की नदियों का औसत सालाना जल-प्रवाह, किसी भी महाद्वीप की नदियों के सालाना औसत जल-प्रवाह की तुलना में अधिक है। यह औसत एशिया महाद्वीप के औसत से भी अधिक है।
पानी की कुछ मात्रा धरती के नीचे भूजल के रूप में मिलती है। यह मात्रा भी आँकड़ों के माध्यम से पानी के बारे में कुछ जानकारी देती है। धरती पर भूजल के रूप में लगभग 10 लाख घन किलोमीटर पानी उपलब्ध है वहीं भारत में उपलब्ध सकल भूजल की मात्रा 432 लाख हेक्टेयर मीटर और दोहन योग्य मात्रा 396 लाख हेक्टेयर मीटर है। भूजल की सकल मात्रा तथा देश के रकबे के सह-सम्बन्ध को ज्ञात किया जाये तो पता चलता है कि भारत में भूजल की औसत मोटाई लगभग 11 सेंटीमीटर है।
भारत की धरती पर बरसे पानी (हिमपात सहित) की कुल मात्रा 4000 लाख हेक्टेयर मीटर है। सकल मात्रा का आधे से अधिक भाग अर्थात लगभग 2127 लाख हेक्टेयर मीटर पर प्रकृति का नियंत्रण है। इस मात्रा में से लगभग 432 लाख हेक्टेयर मीटर पानी जमीन में रिसकर भूजल भण्डार बनाता है।
भारतीय नदियों में हर साल लगभग 1873 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बहता है और अन्ततोगत्वा समुद्र में मिल जाता है। उपर्युक्त आँकड़े सिद्ध करते हैं कि भारत, पानी के मामले में, दुनिया के समृद्धतम देशों में से एक है। उसे नदी प्रवाह के रूप में 51 सेंटीमीटर तथा भूजल के रूप में 11 सेंटीमीटर पानी उपलब्ध है। यह प्रकृति का वरदान है जो उसे, बिना प्रयास किये, हर साल प्राप्त है।
इस अध्याय में पानी की मात्रा को संख्या या आँकड़ों की मदद से प्रदर्शित किया गया है। आधुनिक युग में यही सर्वाधिक प्रचलित तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य तरीका है। दुनिया के सारे देश संख्या या प्रतीकों के माध्यम से अनेक विषयों से जुड़ी जानकारियों को वर्गीकृत कर प्रदर्शित करते हैं। अन्य तरीकों में ग्राफ या आकर्षक प्रतीक प्रचलित हैं।
कम्प्यूटर के आविष्कार तथा उसके माध्यम से जानकारियों, सूचनाओं और तथ्यों की विश्लेषण क्षमता में हुई तरक्की ने प्रस्तुति के नए आयाम स्थापित किये हैं। कम्प्यूटर प्रस्तुति के बढ़ते उपयोग के कारण, प्रस्तुति विधा में अकल्पनीय उन्नति हुई है। सांख्यिकी विज्ञान और कम्प्यूटर आधारित प्रस्तुति कला की जुगल-जोड़ी का करिश्मा लाजवाब है। वह करिश्मा, कुछ देर के लिये ही सही, पर सभी लोगों को अभिभूत कर देता है। प्रभाव उत्पन्न करने में कम्प्यूटर प्रस्तुतियाँ बेजोड़ सिद्ध हो रही हैं।
यह सही है कि आँकड़ों को देखकर, समझकर या विश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है पर पानी की मात्रा या उससे सम्बन्धित आँकड़ों को, उनकी हकीकत के सन्दर्भ में समझना आवश्यक है। सांख्यिकी के जानकार बताते हैं कि सम्पूर्ण सत्य को प्रतिपादित करने में आँकड़े एक सीमा तक ही मददगार होते हैं।
इस सीमा के कारण, विश्लेषित आँकड़ों की मदद से, कई बार, हकीकत जानना कठिन होता है। अनेक प्रकरणों में हकीकत जानना सम्भव भी नहीं होता पर आँकड़ों या उनकी प्रस्तुति में प्रयुक्त प्रतीकों की सहायता से परिवर्तनों या हो रहे बदलावों को बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। सांख्यिकी विज्ञान में प्रयुक्त आँकड़े, औसत स्थिति को दर्शाने में बहुत उपयोगी होते हैं पर किसी खास स्थिति या परिस्थिति को वे पूरी सत्यता से प्रस्तुत नहीं कर पाते।
इस तथ्य के मद्देनजर कहा जा सकता है कि आँकड़ों की मदद से परिणामों को, सिक्के के दो पहलुओं की तरह, जुदा-जुदा तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है। इस सच्चाई के कारण, कुछ लोगों को लगता है कि आँकड़े सच बोलते हैं, आँकड़े झूठ बोलते हैं तथा कई बार वे, सच और झूठ, एक साथ बोलते हैं। यह आँकड़ों का जादू नहीं अपितु कटु यथार्थ है। इसी यथार्थ को ध्यान में रख जल सम्बन्धी जानकारी का इस्तेमाल करना चाहिए।
भारतीय नदियों में हर साल लगभग 1873 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बहता है और अन्ततोगत्वा समुद्र में मिल जाता है। उपर्युक्त आँकड़े सिद्ध करते हैं कि भारत, पानी के मामले में, दुनिया के समृद्धतम देशों में से एक है। उसे नदी प्रवाह के रूप में 51 सेंटीमीटर तथा भूजल के रूप में 11 सेंटीमीटर पानी उपलब्ध है। यह प्रकृति का वरदान है जो उसे, बिना प्रयास किये, हर साल प्राप्त है।अब कुछ चर्चा, आँकड़ों के आईने में भारत में पानी की उपलब्धता की थोड़ी गम्भीर बातों की। पूर्व में कहा गया है कि भारत भूमि पर हर साल लगभग 4000 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बरसता है। सब जानते हैं कि हर साल हर जगह एक जैसी बरसात नहीं होती। वह, प्रत्येक स्थान पर, किसी साल कम तो किसी साल अधिक होती है। इसी प्रकार, देश के विभिन्न भागों में उसका औसत पृथक-पृथक तथा सालाना मात्रा परिवर्तनशील होती है।
उदाहरण के लिये आन्ध्र प्रदेश में औसत सालाना बरसात 1008 मिलीमीटर है तो असम और मेघालय में वह 2497 मिलीमीटर है। पश्चिमी राजस्थान में बरसात का सालाना औसत मात्र 310 मिलीमीटर तो पूर्वी राजस्थान में 647 मिलीमीटर है।
बरसात के उपर्युक्त आँकड़ों को देखने से पता चलता है कि बरसात की मात्रा तथा उसके वितरण में बहुत अधिक भिन्नता है। बरसात के चरित्र (मात्रा, वितरण तथा प्रवृत्ति) एवं नदी घाटी के क्षेत्रफल का असर नदी के प्रवाह पर पड़ता है। उदाहरण के लिये बरसात की मात्रा के कम होने के कारण राजस्थानी नदियों का औसत सालाना जल प्रवाह, असम या मेघालय की नदियों के कछार के क्षेत्रफल के समान होने के बावजूद, बहुत कम होगा।
दूसरे शब्दों में, नदी कछार का क्षेत्रफल जितना अधिक होगा, कछार में जितनी अधिक बरसात होगी, उसमें बहने वाले पानी की मात्रा या सालाना प्रवाह की औसत गहराई उतनी अधिक होगी। इसी कारण ब्रह्मपुत्र और गंगा नदी में यह मात्रा सर्वाधिक है। ब्रह्मपुत्र और गंगा की तुलना में भारतीय प्रायद्वीप में बहने वाली नदियों का सालाना जल प्रवाह अपेक्षाकृत बहुत कम है।
उल्लेखनीय है कि ब्रह्मपुत्र और गंगा नदी तंत्र की तुलना में गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, ताप्ती, महानदी इत्यादि नदी तंत्रों का क्षेत्रफल, सकल लम्बाई तथा कछार क्षेत्र की औसत वर्षा बहुत कम है। यदि नमी सहेजने के आधार पर सच्चाई जानना चाहें तो मिट्टी में नमी का संचय, सकल बरसात के स्थान पर, स्थानीय मिट्टी के पानी सहेजने के गुणों पर निर्भर होता है। कछारी तथा रेतीले इलाकों में पानी सहेजने का गुण, अन्य क्षेत्रों की तुलना में बेहतर होता है।
औसत दर्शाने वाले आँकड़ों के परिणामों को आसानी से बदला जा सकता है। वे परिवर्तनशील होते हैं। उदाहरण के लिये भारत में पानी की सालाना उपलब्धता का पूर्व में वर्णित आँकड़ा औसत स्थिति को दर्शाता है पर यदि सैम्पल वर्षों की संख्या में वृद्धि या कमी कर दी जाये तो औसत आँकड़ा बदल सकता है। उदाहरणार्थ भारतीय नदियों का सालाना औसत जल प्रवाह 1873 लाख हेक्टेयर मीटर तथा भूजल की औसत सालाना मात्रा 432 लाख हेक्टेयर मीटर है। यह, कतिपय वर्षों के आधार पर ज्ञात की गई औसत स्थिति है। इस स्थिति में बदलाव सम्भव है।
यह बदलाव सैम्पिल वर्षों की संख्या को कम या अधिक कर प्राप्त किया जा सकता है। बाँधों में संचित की जाने वाली सतही जल की मात्रा (690 लाख हेक्टेयर मीटर) में भी बदलाव सम्भव है। यह बदलाव बाँध की ऊँचाई को बदल कर हासिल किया जा सकता है। उपर्युक्त सभी सम्भावित आँकड़े हैं।
इनका उपयोग बाँध हेतु नदी जल संचय की सम्भावना या सम्भावित स्थिति दर्शाने के लिये किया जाता है। हकीकत में प्रवाह के रूप में आने वाले पानी की मात्रा मुख्यतः वर्षा तथा कैचमेंट के चरित्र (भूमि उपयोग, वनाच्छादन की स्थिति तथा मिट्टी की परत की पानी सोखने एवं सहेजने की क्षमता) इत्यादि अनेक घटकों पर निर्भर होती है। अन्य घटकों के यथावत रहने के बावजूद बरसात का चरित्र, उसे, सर्वाधिक प्रभावित करता है।
भारत को नदी प्रवाह के रूप में 51 सेंटीमीटर तथा भूजल के रूप में 11 सेंटीमीटर पानी उपलब्ध है पर उपर्युक्त आँकड़ों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि देश के प्रत्येक हिस्से में बहने वाली नदी में 51 सेंटीमीटर पानी बहता है। जल प्रवाह की यह मात्रा, केवल एक औसत संख्या है। इस संख्या के आधार पर नदी की समूची लम्बाई में प्रवाहित जल प्रवाह की गहराई को सांख्यिकी के आधार पर भले ही सही कहा जा सकता हो पर वास्तविकता के धरातल पर तद्नुसार उल्लेखित करना अतार्किक तथा गलत होगा।
पानी की उपलब्ध सकल मात्रा में आबादी का भाग देकर निकाला गया है इसलिये आबादी बढ़ने के साथ पानी की उपलब्धता घट रही है। यह काल्पनिक स्थिति है। यदि पानी की उपलब्धता जानने का तरीका बदल दिया जाये और पानी की सकल मात्रा में देश के रकबे का भाग देकर निष्कर्ष निकाला जाये तो पता चलेगा कि आजादी के बाद से पानी की उपलब्धता में कोई अन्तर नहीं आया है। यह भी काल्पनिक स्थिति है। आँकड़ों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि 51 सेंटीमीटर प्रवाह, नदी के किस भाग में तथा किस माह में मिलेगा। उपर्युक्त आधार पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह वर्ष के किस माह या किस मौसम में मिलेगा। यही तर्क, भूजल उपलब्धता पर लागू है। आँकड़ों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि 11 सेंटीमीटर भूजल, देश के किस भाग में तथा किस माह में मिलेगा।
उपर्युक्त आधार पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह वर्ष के किस माह या किस मौसम में मिलेगा। पूर्व की तरह, यह भी काल्पनिक आँकड़ा या औसत स्थिति है। हकीकत में, देश में नदी प्रवाह की गहराई या भूजल की उपलब्धता बेहद असमान है। सांख्यिकी की मदद से उसकी औसत स्थिति तो दर्शाई जा सकती है पर हकीकत को प्रदर्शित करना सम्भव नहीं है।
आँकड़ों की मदद से बिलकुल ही जुदा सन्देश देने वाले निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। भारत में अनेक बार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता को विभिन्न आधार वर्षों के आधार पर दर्शाया जाता है। इस विधि से दर्शाए आँकड़ों को देखकर प्रतीत होता है कि देश में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता साल-दर-साल घट रही है।
यह निष्कर्ष पानी की उपलब्ध सकल मात्रा में आबादी का भाग देकर निकाला गया है इसलिये आबादी बढ़ने के साथ पानी की उपलब्धता घट रही है। यह काल्पनिक स्थिति है। यदि पानी की उपलब्धता जानने का तरीका बदल दिया जाये और पानी की सकल मात्रा में देश के रकबे का भाग देकर निष्कर्ष निकाला जाये तो पता चलेगा कि आजादी के बाद से पानी की उपलब्धता में कोई अन्तर नहीं आया है। यह भी काल्पनिक स्थिति है।
इस काल्पनिक स्थिति को भी बदला जा सकता है। उदाहरण के लिये, आजादी के पहले, तत्कालीन भारत का क्षेत्रफल अधिक था इसलिये उस स्थिति में पानी की प्रति इकाई क्षेत्र उपलब्धता अलग आएगी। सांख्यिकी की दृष्टि से सभी परिणाम अपनी-अपनी जगह सही हैं। उनका विरोधाभास, प्रयुक्त तरीके के उपयोग की उपज है।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि आँकड़ों के पानी की वास्तविकता और उसकी जमीनी वास्तविकता पृथक-पृथक हैं। स्थानीय स्तर पर जमीनी हकीकत ही पानी की वास्तविक स्थिति है। वही हालात को अच्छी तरह प्रकट करती है। हकीकत में लोग, उसे ही समझते हैं। वही लोगों की समझ है। क्षेत्रीय या राज्य स्तरीय आयोजनाओं के लिये आँकड़े, न केवल महत्त्वपूर्ण हैं, वरन अनेक मामलों में वे अपरिहार्य भी हैं।
पृथ्वी पर पानी की उपलब्धता तथा सही मात्रा ज्ञात करने का प्रयास बेहद कठिन, असंख्य घटकों से नियंत्रित तथा जटिल है। अनेक क्षेत्रों तक तो हमारी पहुँच भी नहीं बन पाई है। अभी भी वे क्षेत्र रहस्य के धुँधलके में खोज की रोशनी की बाट जोह रहे हैं। इसी कारण, पानी की उपलब्धता तथा मात्रा का सही-सही अनुमान लगाना, नंगी आँखों से आसमान के तारे गिनने जैसा है। आधुनिक विज्ञान, शनैः शनैः इस कमी को दूर कर रहा है। इसी कारण, ज्ञान और आँकड़े लगातार परिमार्जित हो रहे हैं। यह यात्रा भविष्य में भी जारी रहेगी।
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Post By: RuralWater