रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। कोयले और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व और अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई है। मीथेन, ओज़ोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। इन सबका पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। विडंबना यह है कि यह प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव ही था जिसने पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी प्रदान कर जीवन के लिए अनुकूल बनाया और आज यही हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है और यही ऊर्जा इसकी सतह को गर्माती है। इस ऊर्जा का लगभग एक तिहाई भाग पृथ्वी को घेरने वाले गैसों के आवरण, जिसे वायुमंडल कहा जाता है, से गुजरते वक्त तितर-बितर हो जाता है। इस प्राप्त ऊर्जा का कुछ हिस्सा धरती और समुद्र की सतह से टकराकर वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। शेष हिस्सा, जो लगभग 70 प्रतिशत होता है, धरती को गर्माने के लिए रह जाता है। इसलिए, संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सौर ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो, वरना धरती असहनीय रूप से गर्म हो जाएगी। वायुमंडल में भी जलवाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड सरीखी कुछ गैसें इस परावर्तित ऊर्जा के कुछ अंश को सोख लेती हैं जिससे तापमान का स्तर ‘सामान्य सीमा’ में रखा जा सके । इस ‘आवरण प्रभाव’ की अनुपस्थिति में पृथ्वी अपने सामान्य तापमान से 30 डिग्री सेल्सियस अधिक सर्द हो सकती है।
चूंकि जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसें हमारे विश्व को गर्म रखती हैं, इसलिए इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैसें’ कहा जाता है। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हैं कि इस प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ की अनुपस्थिति में हमारे ग्रह का औसत सतही तापमान यहां जीवन के लिए प्रतिकूल होता और इस ग्रह पर भी जीवन की संभावना नहीं रहती। इस प्रभाव को सर्वप्रथम एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन बैपटिस्ट फोरियर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने वायुमंडल एवं नियंत्रित परिस्थितियों में पौधे उगाने के लिए प्रयुक्त ग्रीनहाउस में होने वाली क्रियाओं में समानताओं को इंगित किया था।
हालांकि प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव सदा से अपना कार्य करता आ रहा है और पृथ्वी को जीवन के लिए अनुकूल बनाए हुए है, परंतु लगभग पिछली एक सदी के दौरान मानवीय गतिविधियों, विशेषकर जीवाश्म ईंधन के दहन जैसी क्रियाओं ने इतनी अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित की हैं कि इनसे इस ग्रह की जलवायु के लिए खतरा पैदा हो गया है और इसी के चलते ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या वैश्विक तापवृद्धि की समस्या आज हमारे सामने खड़ी है। औद्योगिक काल से पहले की स्थितियों की तुलना में आज वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में 30 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो चुकी है।
वैश्विक तापवृद्धि, जैसा कि नाम से ही विदित होता है, पृथ्वी की सतह से समीप की हवा और महासागरों के औसत तापमान में वृद्धि को कहा जाता है। अब इस सच्चाई में कोई संदेह नहीं है कि पृथ्वी पर हाल के वर्षों में बढ़ी तपिश के लिए मानवीय गतिविधियों के चलते कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। इन गतिविधियों में औद्योगिक प्रक्रियाएं, जीवाश्म ईंधन का दहन और वनोन्मूलन जैसे ज़मीन के प्रयोग में बदलाव सम्मिलित है। पृथ्वी की जलवायु पर प्रभाव डालने के अतिरिक्त वैश्विक तापवृद्धि, मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है। यह कार्य प्रत्यक्ष रूप से बढ़ते तापमान द्वारा रोग की स्थितियों पर प्रभाव डालकर किया जा सकता है अथवा परोक्ष रूप से खाद्य उत्पादन, जल वितरण या अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर वैश्विक तापवृद्धि मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकती है। बढ़ती तपिश पहले से ही गरीबों और इस समस्या से जूझ रहे राष्ट्रों पर अत्यंत घातक प्रभाव डालेगी। यह एक ऐसा मुद्दा है कि हम सभी को, खासतौर पर चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े वर्ग को इसे अत्यंत गंभीरता से लेना होगा।
पृथ्वी की जलवायु में हो रहे बदलावों के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं। उपग्रहीय अध्ययनों से वक्त या इन्फ्रारेड विकिरण उत्सर्जन की सहायता से गर्माहट की प्रवृत्ति के फोटोग्राफिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं। परंतु इस प्रकार के अध्ययन अपेक्षाकृत नए हैं और इससे तुलनात्मक अध्ययन हेतु पूर्व के बहुत अधिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि 19वीं सदी से सतह पर तापमान मापन आधारित रिकॉर्ड उपलब्ध हैं और इनके माध्यम से तापमान की वर्तमान प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।
गुज़रे वक्त की जलवायु संबंधी अभिलेख या पुरा जलवायु आंकड़े, जो वृक्ष वलयों, प्रवालों, जीवाश्मों, तलछट अभ्यंतरों, परागों, हिम अभ्यंतरों और गुफाओं के आरोही निक्षेपों के अध्ययन से प्राप्त किए गए हैं, बढ़ते तापमान की वर्तमान प्रवृत्तियों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि करते हैं। इन अभिलेखों की मदद से हम गुज़री कई सदियों के दौरान वैश्विक तापमान के उतार-चढ़ाव का अध्ययन कर सकते हैं। इन अभिलेखों के कारण ही वैज्ञानिक सहस्राब्दि से पुराने आंकड़ों का परीक्षण कर पाने में सफल हुए हैं। इस प्रकार के अभिलेख ही हमें अत्यंत पुराने समय के लिए परिकल्पित गर्म कालों तक देख पाने की दृष्टि प्रदान करते हैं।
वैश्विक जलवायु मॉडल दरअसल सॉफ्टवेयर पैकेज हैं जो हमारे वायुमंडल के भूत, वर्तमान और भविष्य का अनुरूपण दर्शाते हैं। ये जलवायु मॉडल उत्कृष्ट साधन है और इनके भीतर जलवायु तंत्र में पाई जाने वाली भौतिक क्रियाओं की वर्तमान स्थिति की समझ, पारस्परिक क्रियाएं और संपूर्ण तंत्र की जानकारी समाहित रहती है। जलवायु मॉडल वायुमंडल, महासागरों, पृथ्वी की सतह और बर्फ की पारस्परिक क्रियाओं के अनुरूपण के लिए मात्रात्मक विधियों का प्रयोग करते हैं। इनका इस्तेमाल मौसम और जलवायु तंत्र की गतिकी के अध्ययन से लेकर भविष्य की जलवायु को प्रस्तुत करने तक के लिए किया जाता है।
जलवायु मॉडल अपेक्षाकृत सरल से लेकर अत्यंत जटिल प्रकार के हो सकते है। हालांकि ये मॉडल पूर्णता से अभी दूर हैं परंतु वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ये ग्रहीय जलवायु को संचालित करने वाली प्रमुख क्रियाओं को पकड़ लेते हैं। जैसे-जैसे जलवायु तंत्र के विभिन्न घटकों और उनकी पारस्परिक क्रियाओं के ज्ञान में वृद्धि होती है, जलवायु मॉडलों की जटिलता भी बढ़ती जाती है। सभी जलवायु मॉडलों में पृथ्वी पर आने वाली ऊर्जा और यहां से जाने वाली ऊर्जा का एक संतुलन होता है। किसी भी प्रकार का असंतुलन पृथ्वी के औसत तापमान में बदलाव का द्योतक होता है। वैश्विक जलवायु मॉडल तैयार करने में भविष्य की जनसंख्या वृद्धि और ऊर्जा के संभावित प्रयोग को गणना में लिया जाता है। इसके पश्चात इन जलवायु मॉडलों का अध्ययन आने वाले समय की जलवायु की भविष्यवाणी के लिए किया जाता है।
इस प्रकार के सभी अध्ययन इस दिशा की ओर इंगित करते हैं कि वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन स्तर में कमी नहीं आ रही है। इसलिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि जलवायु में बदलाव संबंधी मॉडलों का अध्ययन भविष्य की जलवायु में हो सकने वाले परिवर्तनों के आधार पर किया जाए। विभिन्न मॉडलों से प्राप्त परिणामों के आधार पर वैज्ञानिकों ने आने वाले सदी के लिए निम्नांकित भविष्यवाणियां की हैं:
1. जलवायु की चरम स्थिति की आवृत्ति या बारम्बारता में परिवर्तन संभावित है जिससे बाढ़ एवं सूखे का खतरा बढ़ जाएगा। सर्द काल में कमी आएगी और ग्रीष्म काल बढ़ेगा।
2. ‘अल नीनो’ की बारम्बारता और इसकी तीव्रता प्रभावित हो सकती है।
3. वर्ष 2100 तक विश्व के औसत समुद्र स्तर में 9.88 सेंटीमीटर की वृद्धि संभावित है।
रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। कोयले और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व और अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई है। मीथेन, ओज़ोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। इन सबका पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। विडंबना यह है कि यह प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव ही था जिसने पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी प्रदान कर जीवन के लिए अनुकूल बनाया और आज यही हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। सच ही है कि किसी भी चीज की अधिकता (अच्छी चीजों की भी) बुरी होती है।
परंतु हम यह कैसे जानते हैं कि पुराकाल में पृथ्वी की जलवायु कैसी थी? इसके लिए हम हिम अभ्यंतरों या बर्फ के सारभाग का अध्ययन करते हैं जो महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है। एक हिम अभ्यंतर का नमूना वह नमूना होता है जो हजारों-लाखों वर्षों से जमी बर्फ और बर्फीली चट्टानों को भेद कर प्राप्त किया जाता है और इसमें अलग-अलग समय के हवा के बुलबुले कैद होते हैं। इन हिम अभ्यंतरों का संघटन उस काल की जलवायु का चित्रण करता है। विशिष्ट हिम अभ्यंतर सामान्यतया अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड या अन्य ऊंचे पर्वतीय ग्लेशियरों पर बिछी बर्फ की चादरों से प्राप्त किए जाते हैं। चूंकि कठोर बर्फ साल दर साल गिरने वाली नरम बर्फ की परतों से ही बनती है, अंदर की परतें बाहर की परतों से पुरानी होती हैं। इस हिसाब से एक हिम अभ्यंतर कई वर्षों की बर्फ से मिलकर बना होता है। बर्फ या इसके भीतर मौजूद तत्वों के गुणधर्मों को प्रयोग कर हिम अभ्यंतर काल के जलवायु अभिलेख पुनर्निर्मित किए जा सकते हैं।
हिम अभ्यंतर अभिलेख दर्शाते हैं कि पुराकाल में जब भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है, तापमान में भी वृद्धि हुई है। हिम अभ्यंतरों के आधार पर प्राप्त पुराने परिवर्तनों की तुलना में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्तमान वृद्धि 200 गुना अधिक है। इसका वर्तमान स्तर 380 भाग प्रति दस लाख भाग (380 पी.पी.एम.) है जो विगत साढ़े छह लाख वर्षों में सर्वाधिक है और इसके घटने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
पृथ्वी पर गर्माहट बढ़ रही है, इसे सिद्ध करने के लिए आज किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। रिकार्ड में दर्ज 11 सर्वाधिक गर्म वर्ष 1990 के बाद के हैं। पूरी सहस्राब्दि में 1990 का दशक सर्वाधिक गर्म दशक था। 2003 में यूरोप में लू के गर्म थपेड़ों के प्रभाव से 35,000 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस तपिश के परिणामस्वरूप पृथ्वी में बदलाव आ रहा है, ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है और पर्वतों पर ग्लेशियर घट रहे हैं। समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। समुद्री स्तर बढ़ने से जनमसूहों का पलायन, खाद्य आपूर्ति बाधित होने के कारण कुपोषण, रोगाणुओं के प्रसार में सहायक कीटों के हमलों में वृद्धि और जलजनित रोग ऐसी समस्याएं हैं जिनकी तीव्रता विकासशील देशों में बढ़ सकती है।
मलेरिया और डेंगू जैसे रोगवाहकों के माध्यम से फैलने वाले रोग नए क्षेत्रों में पहुंच सकते हैं जहां ये ऐसी जनसंख्या को प्रभावित करेंगे जिनमें रोगरोधक क्षमता अत्यधिक कम है या बिल्कुल नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार छोटे द्वीपीय राष्ट्र सर्वाधिक नाजुक स्थिति में हैं। बहुत से विकाशील देश गंभीर पर्यावरणीय प्रभावों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए इससे भी कम राष्ट्रों की तैयारी है। यह परिदृश्य अभी से सक्रियता की मांग करता है सिर्फ जानकारी से पैदा हो सकती है।
इस बात का पूरा खतरा है कि बहुत से रोगों के माध्यम से धरा की तापवृद्धि मानव स्वास्ध्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि अत्यधिक तापमान प्रत्यक्ष रूप से ही जानलेवा होता है। इसके अतिरिक्त बहुत से गंभीर रोग गर्म क्षेत्रों में ही देखे जाते हैं। गर्म तापमान किसी क्षेत्र में वायु प्रदूषण में वृद्धि में सहायक होता है जिसके चलते सांस की समस्याएं बढ़ सकती है। श्वसन संबंधी रोगों, भू-स्खलन और बाढ़ जैसी समस्याओं में वृद्धि पूर्वानुमानित है और इस तरह अत्यधिक उच्च तापमान बड़ी संख्या में लोगों को मौत के मुह में ले जा सकता है। अपेक्षाकृत गर्म मौसम कीटों और अन्य रोगवाहकों को अपना विस्तार करने का मौका देता है और इस तरह से रोग उन क्षेत्रों में भी पहुंच सकते हैं जो क्षेत्र इनसे अछूते थे। इस तरह मच्छर और अन्य कीट रोगों को अभी तक इनसे बचे क्षेत्रों में पहुंचा सकते हैं।
बढ़ते तापमान के कारण कुछ संक्रामक रोगों (विशेषकर गर्म जलवायु में पाए जाने वाले रोगों का) का खतरा भी बढ़ जाता है। घातक रोग बहुधा गर्म मौसम से संबद्ध होते हैं, जैसे पश्चिमी नील विषाणु, हैजा और लाइम रोग पूरे उत्तरी अमेरिका और यूरोप में अपना प्रभाव दिखाने लगे हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में बढ़ते तापमान के कारण मच्छरों, किलनियों और चूहों जैसे रोगवाहकों को पनपने का मौका मिल गया है। अमेरिका और कनाडा में पश्चिमी नील विषाणु से पीड़ितों की संख्या 1999 के बाद से तेजी से गुणात्मक रूप से बढ़ी है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान बढ़ने से सूक्ष्मदर्शीय वनस्पति शैवाल (शैवालीय पुंज) में विस्फोटक वृद्धि देखी जा सकती है। प्रदूषित जल वाले क्षेत्रों में यह समस्या अत्यंत गंभीर हो सकती है जहां हैजा जैसे रोग, जो शैवालीय पुंजों के साथ फैलता है की गंभीरता बढ़ सकती है।
2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष तौर पर मलेरिया, कुपोषण और दस्त की बढ़ती समस्याओं से जुड़ा हुआ है। अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन हर वर्ष 1,50,000 मौतों और अनेक रोगों का कारण बनता है। 2070 तक दुनिया की लगभग 60 फीसदी आबादी ऐसे जलवायु क्षेत्र में वास कर रही होगी जो मलेरिया के विस्तार के लिए अनुकूल होगा। यह भी कहा गया है कि कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से परागों के उत्पादन में वृद्धि होगी जिससे भविष्य में एलर्जी संबंधी समस्याओं में इज़ाफा होगा। हालांकि, बढ़ते तापमान का परिणाम हमेशा ही दुखों को बढ़ाने वाला नहीं होगा। शीतोष्ण क्षेत्रों में किए गए अध्ययन दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन कुछ लाभ भी प्रदान करता है, जैसे शीत की चपेट में आकर मृत्यु दर में कमी। परंतु वृहद तौर पर यह संभावना है कि ये छोटे-मोटे लाभ बढ़ते तापमान के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के विशाल आकार के नीचे दब जाएंगे, विशेषकर विकासशील देशों में तो यही परिदृश्य होने की संभावना है।
दुनिया के कई देश जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के समझौते के अंतर्गत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की दिशा में कार्य कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश, वर्तमान अंतरराष्ट्रीय समझौते दुनिया में तेजी से बदल रही जलवायु और बढ़ते समुद्री स्तर को रोक पाने के लिए पर्याप्त नही हैं।
चूंकि जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसें हमारे विश्व को गर्म रखती हैं, इसलिए इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैसें’ कहा जाता है। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हैं कि इस प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ की अनुपस्थिति में हमारे ग्रह का औसत सतही तापमान यहां जीवन के लिए प्रतिकूल होता और इस ग्रह पर भी जीवन की संभावना नहीं रहती। इस प्रभाव को सर्वप्रथम एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन बैपटिस्ट फोरियर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने वायुमंडल एवं नियंत्रित परिस्थितियों में पौधे उगाने के लिए प्रयुक्त ग्रीनहाउस में होने वाली क्रियाओं में समानताओं को इंगित किया था।
हालांकि प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव सदा से अपना कार्य करता आ रहा है और पृथ्वी को जीवन के लिए अनुकूल बनाए हुए है, परंतु लगभग पिछली एक सदी के दौरान मानवीय गतिविधियों, विशेषकर जीवाश्म ईंधन के दहन जैसी क्रियाओं ने इतनी अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित की हैं कि इनसे इस ग्रह की जलवायु के लिए खतरा पैदा हो गया है और इसी के चलते ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या वैश्विक तापवृद्धि की समस्या आज हमारे सामने खड़ी है। औद्योगिक काल से पहले की स्थितियों की तुलना में आज वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में 30 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो चुकी है।
वैश्विक तापवृद्धि, जैसा कि नाम से ही विदित होता है, पृथ्वी की सतह से समीप की हवा और महासागरों के औसत तापमान में वृद्धि को कहा जाता है। अब इस सच्चाई में कोई संदेह नहीं है कि पृथ्वी पर हाल के वर्षों में बढ़ी तपिश के लिए मानवीय गतिविधियों के चलते कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। इन गतिविधियों में औद्योगिक प्रक्रियाएं, जीवाश्म ईंधन का दहन और वनोन्मूलन जैसे ज़मीन के प्रयोग में बदलाव सम्मिलित है। पृथ्वी की जलवायु पर प्रभाव डालने के अतिरिक्त वैश्विक तापवृद्धि, मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है। यह कार्य प्रत्यक्ष रूप से बढ़ते तापमान द्वारा रोग की स्थितियों पर प्रभाव डालकर किया जा सकता है अथवा परोक्ष रूप से खाद्य उत्पादन, जल वितरण या अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर वैश्विक तापवृद्धि मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकती है। बढ़ती तपिश पहले से ही गरीबों और इस समस्या से जूझ रहे राष्ट्रों पर अत्यंत घातक प्रभाव डालेगी। यह एक ऐसा मुद्दा है कि हम सभी को, खासतौर पर चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े वर्ग को इसे अत्यंत गंभीरता से लेना होगा।
बढ़ते तापमान का अध्ययन और आज की स्थिति
पृथ्वी की जलवायु में हो रहे बदलावों के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं। उपग्रहीय अध्ययनों से वक्त या इन्फ्रारेड विकिरण उत्सर्जन की सहायता से गर्माहट की प्रवृत्ति के फोटोग्राफिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं। परंतु इस प्रकार के अध्ययन अपेक्षाकृत नए हैं और इससे तुलनात्मक अध्ययन हेतु पूर्व के बहुत अधिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि 19वीं सदी से सतह पर तापमान मापन आधारित रिकॉर्ड उपलब्ध हैं और इनके माध्यम से तापमान की वर्तमान प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।
गुज़रे वक्त की जलवायु संबंधी अभिलेख या पुरा जलवायु आंकड़े, जो वृक्ष वलयों, प्रवालों, जीवाश्मों, तलछट अभ्यंतरों, परागों, हिम अभ्यंतरों और गुफाओं के आरोही निक्षेपों के अध्ययन से प्राप्त किए गए हैं, बढ़ते तापमान की वर्तमान प्रवृत्तियों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि करते हैं। इन अभिलेखों की मदद से हम गुज़री कई सदियों के दौरान वैश्विक तापमान के उतार-चढ़ाव का अध्ययन कर सकते हैं। इन अभिलेखों के कारण ही वैज्ञानिक सहस्राब्दि से पुराने आंकड़ों का परीक्षण कर पाने में सफल हुए हैं। इस प्रकार के अभिलेख ही हमें अत्यंत पुराने समय के लिए परिकल्पित गर्म कालों तक देख पाने की दृष्टि प्रदान करते हैं।
वर्तमान और भविष्य का नज़ारा
वैश्विक जलवायु मॉडल दरअसल सॉफ्टवेयर पैकेज हैं जो हमारे वायुमंडल के भूत, वर्तमान और भविष्य का अनुरूपण दर्शाते हैं। ये जलवायु मॉडल उत्कृष्ट साधन है और इनके भीतर जलवायु तंत्र में पाई जाने वाली भौतिक क्रियाओं की वर्तमान स्थिति की समझ, पारस्परिक क्रियाएं और संपूर्ण तंत्र की जानकारी समाहित रहती है। जलवायु मॉडल वायुमंडल, महासागरों, पृथ्वी की सतह और बर्फ की पारस्परिक क्रियाओं के अनुरूपण के लिए मात्रात्मक विधियों का प्रयोग करते हैं। इनका इस्तेमाल मौसम और जलवायु तंत्र की गतिकी के अध्ययन से लेकर भविष्य की जलवायु को प्रस्तुत करने तक के लिए किया जाता है।
जलवायु मॉडल अपेक्षाकृत सरल से लेकर अत्यंत जटिल प्रकार के हो सकते है। हालांकि ये मॉडल पूर्णता से अभी दूर हैं परंतु वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ये ग्रहीय जलवायु को संचालित करने वाली प्रमुख क्रियाओं को पकड़ लेते हैं। जैसे-जैसे जलवायु तंत्र के विभिन्न घटकों और उनकी पारस्परिक क्रियाओं के ज्ञान में वृद्धि होती है, जलवायु मॉडलों की जटिलता भी बढ़ती जाती है। सभी जलवायु मॉडलों में पृथ्वी पर आने वाली ऊर्जा और यहां से जाने वाली ऊर्जा का एक संतुलन होता है। किसी भी प्रकार का असंतुलन पृथ्वी के औसत तापमान में बदलाव का द्योतक होता है। वैश्विक जलवायु मॉडल तैयार करने में भविष्य की जनसंख्या वृद्धि और ऊर्जा के संभावित प्रयोग को गणना में लिया जाता है। इसके पश्चात इन जलवायु मॉडलों का अध्ययन आने वाले समय की जलवायु की भविष्यवाणी के लिए किया जाता है।
इस प्रकार के सभी अध्ययन इस दिशा की ओर इंगित करते हैं कि वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन स्तर में कमी नहीं आ रही है। इसलिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि जलवायु में बदलाव संबंधी मॉडलों का अध्ययन भविष्य की जलवायु में हो सकने वाले परिवर्तनों के आधार पर किया जाए। विभिन्न मॉडलों से प्राप्त परिणामों के आधार पर वैज्ञानिकों ने आने वाले सदी के लिए निम्नांकित भविष्यवाणियां की हैं:
1. जलवायु की चरम स्थिति की आवृत्ति या बारम्बारता में परिवर्तन संभावित है जिससे बाढ़ एवं सूखे का खतरा बढ़ जाएगा। सर्द काल में कमी आएगी और ग्रीष्म काल बढ़ेगा।
2. ‘अल नीनो’ की बारम्बारता और इसकी तीव्रता प्रभावित हो सकती है।
3. वर्ष 2100 तक विश्व के औसत समुद्र स्तर में 9.88 सेंटीमीटर की वृद्धि संभावित है।
बढ़ते तापमान के इतिहास की खोज
रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। कोयले और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व और अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई है। मीथेन, ओज़ोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। इन सबका पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। विडंबना यह है कि यह प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव ही था जिसने पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी प्रदान कर जीवन के लिए अनुकूल बनाया और आज यही हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। सच ही है कि किसी भी चीज की अधिकता (अच्छी चीजों की भी) बुरी होती है।
परंतु हम यह कैसे जानते हैं कि पुराकाल में पृथ्वी की जलवायु कैसी थी? इसके लिए हम हिम अभ्यंतरों या बर्फ के सारभाग का अध्ययन करते हैं जो महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है। एक हिम अभ्यंतर का नमूना वह नमूना होता है जो हजारों-लाखों वर्षों से जमी बर्फ और बर्फीली चट्टानों को भेद कर प्राप्त किया जाता है और इसमें अलग-अलग समय के हवा के बुलबुले कैद होते हैं। इन हिम अभ्यंतरों का संघटन उस काल की जलवायु का चित्रण करता है। विशिष्ट हिम अभ्यंतर सामान्यतया अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड या अन्य ऊंचे पर्वतीय ग्लेशियरों पर बिछी बर्फ की चादरों से प्राप्त किए जाते हैं। चूंकि कठोर बर्फ साल दर साल गिरने वाली नरम बर्फ की परतों से ही बनती है, अंदर की परतें बाहर की परतों से पुरानी होती हैं। इस हिसाब से एक हिम अभ्यंतर कई वर्षों की बर्फ से मिलकर बना होता है। बर्फ या इसके भीतर मौजूद तत्वों के गुणधर्मों को प्रयोग कर हिम अभ्यंतर काल के जलवायु अभिलेख पुनर्निर्मित किए जा सकते हैं।
हिम अभ्यंतर अभिलेख दर्शाते हैं कि पुराकाल में जब भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है, तापमान में भी वृद्धि हुई है। हिम अभ्यंतरों के आधार पर प्राप्त पुराने परिवर्तनों की तुलना में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्तमान वृद्धि 200 गुना अधिक है। इसका वर्तमान स्तर 380 भाग प्रति दस लाख भाग (380 पी.पी.एम.) है जो विगत साढ़े छह लाख वर्षों में सर्वाधिक है और इसके घटने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
बढ़ती तपिश के परिणामों की शुरुआत
पृथ्वी पर गर्माहट बढ़ रही है, इसे सिद्ध करने के लिए आज किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। रिकार्ड में दर्ज 11 सर्वाधिक गर्म वर्ष 1990 के बाद के हैं। पूरी सहस्राब्दि में 1990 का दशक सर्वाधिक गर्म दशक था। 2003 में यूरोप में लू के गर्म थपेड़ों के प्रभाव से 35,000 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस तपिश के परिणामस्वरूप पृथ्वी में बदलाव आ रहा है, ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है और पर्वतों पर ग्लेशियर घट रहे हैं। समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। समुद्री स्तर बढ़ने से जनमसूहों का पलायन, खाद्य आपूर्ति बाधित होने के कारण कुपोषण, रोगाणुओं के प्रसार में सहायक कीटों के हमलों में वृद्धि और जलजनित रोग ऐसी समस्याएं हैं जिनकी तीव्रता विकासशील देशों में बढ़ सकती है।
मलेरिया और डेंगू जैसे रोगवाहकों के माध्यम से फैलने वाले रोग नए क्षेत्रों में पहुंच सकते हैं जहां ये ऐसी जनसंख्या को प्रभावित करेंगे जिनमें रोगरोधक क्षमता अत्यधिक कम है या बिल्कुल नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार छोटे द्वीपीय राष्ट्र सर्वाधिक नाजुक स्थिति में हैं। बहुत से विकाशील देश गंभीर पर्यावरणीय प्रभावों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए इससे भी कम राष्ट्रों की तैयारी है। यह परिदृश्य अभी से सक्रियता की मांग करता है सिर्फ जानकारी से पैदा हो सकती है।
इस बात का पूरा खतरा है कि बहुत से रोगों के माध्यम से धरा की तापवृद्धि मानव स्वास्ध्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि अत्यधिक तापमान प्रत्यक्ष रूप से ही जानलेवा होता है। इसके अतिरिक्त बहुत से गंभीर रोग गर्म क्षेत्रों में ही देखे जाते हैं। गर्म तापमान किसी क्षेत्र में वायु प्रदूषण में वृद्धि में सहायक होता है जिसके चलते सांस की समस्याएं बढ़ सकती है। श्वसन संबंधी रोगों, भू-स्खलन और बाढ़ जैसी समस्याओं में वृद्धि पूर्वानुमानित है और इस तरह अत्यधिक उच्च तापमान बड़ी संख्या में लोगों को मौत के मुह में ले जा सकता है। अपेक्षाकृत गर्म मौसम कीटों और अन्य रोगवाहकों को अपना विस्तार करने का मौका देता है और इस तरह से रोग उन क्षेत्रों में भी पहुंच सकते हैं जो क्षेत्र इनसे अछूते थे। इस तरह मच्छर और अन्य कीट रोगों को अभी तक इनसे बचे क्षेत्रों में पहुंचा सकते हैं।
बढ़ते तापमान के कारण कुछ संक्रामक रोगों (विशेषकर गर्म जलवायु में पाए जाने वाले रोगों का) का खतरा भी बढ़ जाता है। घातक रोग बहुधा गर्म मौसम से संबद्ध होते हैं, जैसे पश्चिमी नील विषाणु, हैजा और लाइम रोग पूरे उत्तरी अमेरिका और यूरोप में अपना प्रभाव दिखाने लगे हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में बढ़ते तापमान के कारण मच्छरों, किलनियों और चूहों जैसे रोगवाहकों को पनपने का मौका मिल गया है। अमेरिका और कनाडा में पश्चिमी नील विषाणु से पीड़ितों की संख्या 1999 के बाद से तेजी से गुणात्मक रूप से बढ़ी है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान बढ़ने से सूक्ष्मदर्शीय वनस्पति शैवाल (शैवालीय पुंज) में विस्फोटक वृद्धि देखी जा सकती है। प्रदूषित जल वाले क्षेत्रों में यह समस्या अत्यंत गंभीर हो सकती है जहां हैजा जैसे रोग, जो शैवालीय पुंजों के साथ फैलता है की गंभीरता बढ़ सकती है।
2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष तौर पर मलेरिया, कुपोषण और दस्त की बढ़ती समस्याओं से जुड़ा हुआ है। अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन हर वर्ष 1,50,000 मौतों और अनेक रोगों का कारण बनता है। 2070 तक दुनिया की लगभग 60 फीसदी आबादी ऐसे जलवायु क्षेत्र में वास कर रही होगी जो मलेरिया के विस्तार के लिए अनुकूल होगा। यह भी कहा गया है कि कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से परागों के उत्पादन में वृद्धि होगी जिससे भविष्य में एलर्जी संबंधी समस्याओं में इज़ाफा होगा। हालांकि, बढ़ते तापमान का परिणाम हमेशा ही दुखों को बढ़ाने वाला नहीं होगा। शीतोष्ण क्षेत्रों में किए गए अध्ययन दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन कुछ लाभ भी प्रदान करता है, जैसे शीत की चपेट में आकर मृत्यु दर में कमी। परंतु वृहद तौर पर यह संभावना है कि ये छोटे-मोटे लाभ बढ़ते तापमान के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के विशाल आकार के नीचे दब जाएंगे, विशेषकर विकासशील देशों में तो यही परिदृश्य होने की संभावना है।
ताप घटाने के सम्मिलित प्रयास
दुनिया के कई देश जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के समझौते के अंतर्गत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की दिशा में कार्य कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश, वर्तमान अंतरराष्ट्रीय समझौते दुनिया में तेजी से बदल रही जलवायु और बढ़ते समुद्री स्तर को रोक पाने के लिए पर्याप्त नही हैं।
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