पर्यावरणीय विकास सुनिश्चित करने की पहल

भारत में बुरांश की करीब 50 प्रजातियाँ हैं। जिनमें हिमालय क्षेत्र में इसकी करीब 98 प्रतिशत प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से 72 प्रतिशत प्रजातियाँ सिक्किम हिमालय में मिलती हैं और 36 में से 8 प्रजातियाँ खतरे में हैं। इसका कारण इन प्रजातियों के मानव बसाहट के बहुत करीब होना है। जंगलों के कटने, निर्माण कार्य होने तथा पर्यटन क्षेत्रों का विस्तार होने से बुरांश पर खतरा बढ़ रहा है।पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र में सुदृढ़ पर्यावरणीय विकास को सुनिश्चित करने, वैज्ञानिक ज्ञान के प्रसार और समेकित रणनीतियों को विकसित करने तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की दिशा में उनकी क्षमता के प्रदर्शन हेतु पिछले दो दशक से लगातार प्रयास जारी हैं। पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय के अन्तर्गत गोविन्द वल्लभ पन्त हिमालय एवं पर्यावरण संस्थान की वर्ष 1988-89 में एक स्वायत्तशासी संस्थान के रूप में स्थापना की गई थी।

संस्थान का मुख्यालय अल्मोड़ा जिले के कोसी-कटारमल में है। संस्थान की चार क्षेत्रीय इकाइयों में दो पूर्वोत्तर इकाई और सिक्किम इकाई है। इन इकाइयों में जैव-प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग, सामाजिक-आर्थिक विकास, पर्यावरणीय विश्लेषण और प्रबन्धन, जलागम प्रविधियाँ और प्रबन्धन, ज्ञान उत्पाद और क्षमता निर्माण, जैव-विविधता संरक्षण और प्रबन्धन पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। जो तीन क्रियाशील समूहों और छह विषय क्षेत्रों में पुनः वर्गीकृत किए गए हैं।

संस्थान के निदेशक डॉ. एल.एम.एस. पालनी ने बताया कि इकाइयों की अनुसन्धान एवं विकास प्राथमिकताएँ निर्धारित की गई हैं। पूर्वोत्तर इकाई ईटानगर (अरुणाचल प्रदेश) और सिक्किम इकाई पांगथांग, गंगटोक में अलग-अलग वैज्ञानिक प्रभारी के अधीन कार्यरत हैं।

पूर्वोत्तर इकाई की स्थापना सन 1989 में नागालैण्ड में हुई थी और 1997 में इसे ईटानगर में स्थापित किया गया जो लगातार उस क्षेत्र के संरक्षण एवं विकास के कार्यों में सकारात्मक योगदान कर रही है। इस क्षेत्र में अन्य समुदायों सहित 145 जनजाति समूह निवास करते हैं जो करीब 220 बोलियाँ बोलते हैं। इण्डिया रेड डाटा पुस्तक के अनुसार इस क्षेत्र में देश की 55 प्रतिशत फूलों की प्रजातियाँ हैं। यह क्षेत्र जैविक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध है। दुर्भाग्य से पूर्वोत्तर क्षेत्र की समृद्ध जैव-विविधता विभिन्न खतरों से जूझ रही है। वनों के कटाव, भूमि कटाव और भू-स्खलन, बसावट का विस्तार, अन्धाधुन्ध शिकार आदि तमाम खतरों का सामना कर रही जैव-विविधता को संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन की रणनीतियों पर संस्थान की इकाई सक्रियता से कार्य कर रही है।

पूर्वोत्तर इकाई के वैज्ञानिक प्रभारी डॉ. प्रसन्ना के. सामल ने बताया कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के जैविक संसाधनों तथा सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न अनूठे जातीय समूहों के विकास के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों के सहयोग से पहल की गई है। इस समूची प्रक्रिया को गतिशील बनाने के लिए 35 अनुसन्धान एवं विकास परियोजनाएँ संचालित की जा रही हैं।

वनों के कटाव, भूमि कटाव और भू-स्खलन, बसावट का विस्तार, अन्धाधुन्ध शिकार आदि तमाम खतरों का सामना कर रही जैव-विविधता को संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन की रणनीतियों पर पूर्वोत्तर इकाई सक्रियता से कार्य कर रही है।झूम खेती के क्षेत्र में जनकेन्द्रित भू-उपयोग मॉडल अपनाने, जनजातीय समुदायों में देशज ज्ञान प्रणालियों और प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन के विकल्प, जैव-विविधता, संरक्षण और समग्र विकास तथा आजीविका सुधार हेतु कम लागत की उपयुक्त तकनीकी पर पूर्वोत्तर इकाइयाँ सतत कार्यरत हैं। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, यूनेस्को मैक ऑर्थर, जीओयू-यूएनडीपी-सीसीएफ-II, पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय आदि की प्रायोजित करीब आधा दर्जन परियोजनाएँ पूर्वोत्तर क्षेत्रों में चल रही हैं।

पूर्वोत्तर राज्यों के 15 से भी अधिक राज्य सरकारों के विभाग, संस्थान, विश्वविद्यालय और कॉलेज, केन्द्र सरकार के 10 संस्थान तथा 30 से भी अधिक गैर-सरकारी संगठन क्षेत्र में विभिन्न रचनात्मक कार्यों में भागीदारी निभा रहे हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की मछलियों की 84 प्रजातियों (एसपीपी) को रेड डाटा में सूचीबद्ध करने के लिए आईयूसीएन के परामर्श सेवाएँ, सांस्कृतिक लैण्डस्केप हेतु कार्य के लिए यूनेस्को से सम्पर्क तथा काठमाण्डू स्थित आईसीआईएमओडी से राष्ट्रीय पार्कों के लिए अनुसन्धान करने की दिशा में पूर्वोत्तर इकाई काम कर रही है।

डॉ. सामल ने बताया कि राज्य सरकारों की भागीदारी एवं सहयोग से संस्थान की पूर्वोत्तर इकाई द्वारा किए जा रहे कार्यों को बेहतर तरीके से पूरा करने के प्रयासों को बल मिला है।

दो नयी मछली प्रजातियों की खोज


संस्थान की पूर्वोत्तर इकाई ने मछली की दो नयी प्रजातियों को खोज निकाला है। यह कैट फिश की नयी प्रजातियाँ वैज्ञानिकों के लिए भी नयी हैं।

संस्थान की पूर्वोत्तर इकाई एकीकृत परियोजनाओं के माध्यम से पाँच राज्यों के 49 गाँवों और 11 जनजातीय समूहों के विकास के लिए कार्य कर रही हैं। इन राज्यों के 4 हजार से भी अधिक जनजाति किसान कई प्रौद्योगिकों का उपयोग कर रहे हैं तथा 1,500 परिवारों ने कम लागत की 17 तकनीकों में से कई तकनीकों को अपनाया है। इन राज्यों में 69 स्व-सहायता समूह, एक मार्केटिंग कमेटी तथा तीन किसान क्लब काम कर रहे हैं। कम लागत की तकनीकें अपनाने से पूर्वोत्तर क्षेत्र के किसानों को उच्च उत्पादकता, उद्यमिता और सामाजिक-आर्थिक विकास के अवसर मिल रहे हैं, जिससे जनजातीय पुरुषों एवं महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार दिखने लगा है।

घरेलू वाटिका हेतु जालियाँ


पूर्वोत्तर राज्यों में देश के अन्य पहाड़ी राज्यों की तरह छोटे और मझोले किसान हैं जिनके पास सीमित कृषि भूमि है। पूर्वोत्तर क्षेत्र में खेती के लिए जालियों का इस्तेमाल परम्परागत तरीके से होता आया है लेकिन वे दो से अधिक फसलों का बोझ सहन नहीं कर सकती। इन जालियों के आकार और डिजाइन को संशोधित कर उन्हें और अधिक उपयोगी बनाया गया है। साधारण जालियों में कच्चे माल के रूप में बांस का उपयोग किया जाता है जिससे कम क्षेत्र में एक से अधिक फसलें लेना सम्भव तो होता है, साथ ही उत्पादन में भी वृद्धि होती है। कई जालियाँ तो इतनी खूबसूरत होती हैं कि दूर से ही आकर्षित करती हैं।

जीबीपीआईएचईडी की पूर्वोत्तर इकाई ने पाँच किस्म की जालियाँ विकसित की हैं। जिनमें बांस को चार कोनों पर एक-डेढ़ मीटर की दूरी पर लगा दिया जाता है और फिर उन पर तीन-तीन मीटर की छत डाल दी जाती है। वर्गाकार जाली के अलावा टी-आकार जाली, टेबल टॉप जाली, अर्ध्च चन्द्राकार जाली और वेब आकार जाली सब्जियाँ उगाने के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुई है। पूर्वोत्तर क्षेत्रों में गृह-वाटिका के लिए जाली का इस्तेमाल उत्पादन और मुनाफा बढ़ाने में किसानों के लिए बेहतर होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक सिद्ध हुई है।

सिक्किम में मुख्य उपलब्धियाँ


संस्थान की सिक्किम इकाई ने भू-आपदाओं का भू-गर्भीय पर्यावरणीय आकलन, बचाव रणनीतियाँ, कंचनजंगा जैव-आरक्षण और दूसरे अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में मानवीय आयाम संकेन्द्रित जैव-विविधता संरक्षण सम्बन्धी अध्ययन तथा समेकित जलागम प्रबन्धन अनुसन्धान एवं विकास प्राथमिकताएँ कार्यान्वित करने की दिशा में उपलब्धियाँ अर्जित की।

सिक्किम इकाई के वैज्ञानिक प्रभारी डॉ. के.के. सिंह ने बताया कि सिक्किम में पारि-पर्यटन को प्रोत्साहन देकर, संस्थान मुख्यालय में ग्रामीण तकनीकी परिसर की स्थापना प्रमुख उपलब्धि है। संस्थान ने भारतीय हिमालय की जैव-विविधता के संरक्षण हेतु कार्य योजना और राष्ट्रीय जैव-विविधता रणनीति एवं कार्य योजना के अन्तर्गत वन्य पादप विविधता के लिए रणनीति एवं कार्य योजना बनाई है।

पिछले डेढ़ दशक के दौरान एकीकृत जलागम प्रबन्धन, सिक्किम जैव-विविधता एवं ईको-पर्यटन परियोजना, बायोस्फेयर रिजर्व, सिक्किम की कृषि वानिकी में मृदा उर्वरकता उत्पादकता, ऊर्जायन एवं रख-रखाव, कृषि आधारित सरल प्रौद्योगिकी का पहाड़ी किसानों एवं महिलाओं के लिए क्षमता निर्माण एवं प्रदर्शन, प्रौद्योगिकी सूचना के कृषि सम्भाव्यता पर प्रौद्योगिकी विजन 2020 मिशन प्रोजेक्ट, समुदाय वन प्रबन्धन, आपदा प्रबन्धन संकाय, जीन बैंक स्थापना आदि परियोजनाओं को पूरा किया गया। वर्तमान में सिक्किम इकाई बाहरी एवं आन्तरिक एक दर्जन परियोजनाओं पर कार्य कर रही है।

डॉ. सिंह ने बताया कि प्रौद्योगिकी उपलब्धियों के मामले में भी सिक्किम इकाई ने अनेक उपलब्धियाँ अर्जित की हैं। पंगथांग में दस एकड़ से भी अधिक क्षेत्र में नर्सरी का विकास, कृषि-वानिकी मॉडल विकास, दक्षिणी सिक्किम के नौ विकास खण्डों के 30 गाँवों में एकीकृत जलागम प्रबन्धन परियोजना का संचालन, प्रौद्योगिकी पैकेज का विस्तार, बायोस्फेयर रिजर्व परियोजना के अन्तर्गत 8 गाँवों का सामाजिक-आर्थिक तथा पारिस्थितिकी की दृष्टि से कवर करना, गंगटोक में दुर्लभ एवं संकटापन्न पौध संरक्षण पार्क का विकास आदि समेत डेढ़ दर्जन से भी अधिक प्रौद्योगिकी उपलब्धियाँ हैं।

हिमालय के बारे में विभिन्न पहलुओं पर संस्थान के वैज्ञानिकों की देखरेख में अनेक शोध किए जा रहे हैं। पहाड़ी खेती प्रबन्धन में अनेक प्रौद्योगिकियाँ संस्थान द्वारा प्रयुक्त की जा रही हैं। इनमें बायोग्लोब्युल्स, अनचाहे घास एवं खरपतवार से जैविक मल, जल-संचायिका टैंक (जलाशय), इलायची सुखाने के लिए उन्नत किस्म की भट्टी, बांस प्रजनन प्रौद्योगिकी, पालिहाउस व पालिबेड, पोलिपीट, ढालू जमीन में कृषि प्रौद्योगिकी आदि प्रमुख हैं।

भू-स्खलन तथा उनकी रोकथाम


भू-स्खलन व भू-क्षरण सिक्किम हिमालय में पूरे वर्ष घटित होने वाली सामान्य-सी घटना है। कमजोर चट्टानें, असंगठित मिट्टी, तेज वर्षा व तीव्र ढलान आदि भू-स्खलन के मुख्य कारण हैं। सिक्किम का एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग 31-ए है जो सिक्किम को अन्य राज्यों से जोड़ता है। भू-स्खलन के कारण यह सड़क जगह-जगह से बन्द हो जाती है जिसकी वजह से सिक्किम का पूरे देश से सम्पर्क कट जाता है।

भू-स्खलन व भू-क्षरण सिक्किम हिमालय में पूरे वर्ष घटित होने वाली सामान्य-सी घटना है। कमजोर चट्टानें, असंगठित मिट्टी, तेज वर्षा व तीव्र ढलान आदि भू-स्खलन के मुख्य कारण हैं।भू-स्खलन रोकने के लिए सिक्किम में अभियान्त्रिकी एवं जैव-अभियान्त्रिकी विधियाँ बहुत कारगर सिद्ध हुई हैं। इन तकनीकों को अपनाने से कई स्थानों पर भू-स्खलन रोकने में सफलता मिली है। चाँदमारी, बी-टू और नौ माइल (पूर्व सिक्किम) तथा दोनक सेती खोला (दक्षिण सिक्किम) इन स्थानों में प्रमुख हैं। भू-स्खलनों से बचाने के लिए अनेक कदम उपयुक्त बताए गए हैं जिनमें तीव्र ढलानों पर निर्माण कार्यों से बचने, पानी की उपयुक्त निकासी एवं संवेदित स्थानों पर पानी का रिसाव रोकने, जंगलों को कटने से बचाने एवं संवेदित स्थानों पर उचित वृक्षारोपण करने, भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों में निर्माण कार्यों से बचने, किसी भी विकास कार्य से पूर्व वहाँ के भू-स्खलनों की तकनीकी जानकारी हासिल करने तथा निर्माण एवं विकास कार्य करने से पहले तकनीकी विशेषज्ञ से परामर्श करना आदि शामिल है।

सामुदायिक सहभागिता


अरुणाचल के तवांग जिले और कमेंग जिले के पश्चिमी भाग को विश्व शान्ति पार्क के रूप में नामांकित किया गया है। इसे उच्च तापमान वाले बायोस्फेयर रिजर्व तथा विश्व विरासत स्थल के रूप में भी प्रस्तावित किया गया है। इसका एक हिस्सा टैलीवैली वन्य-जीव अभयारण्य के रूप में घोषित किया जा चुका है। इस क्षेत्र के समृद्ध जैव-विविधता को समुदाय आधारित प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन के माध्यम से संरक्षित किया जा रहा है।

बुरांश (होडोडेण्ड्रोन) के संरक्षण के प्रयास


भारत में बुरांश (होडोडेण्ड्रोन) की करीब 50 प्रजातियाँ हैं। जिनमें हिमालय क्षेत्र में इसकी करीब 98 प्रतिशत प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से 72 प्रतिशत प्रजातियाँ सिक्किम हिमालय में मिलती हैं और 36 में से 8 प्रजातियाँ खतरे में हैं। इसका कारण इन प्रजातियों के मानव बसाहट के बहुत करीब होना है। जंगलों के कटने, निर्माण कार्य होने तथा पर्यटन क्षेत्रों का विस्तार होने से बुरांश पर खतरा बढ़ रहा है।

जैव प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार की सहायता से प्रमुख अनुसन्धानकर्ता के.के. सिंह एवं एल.के. राय ने बुरांश जीन के संरक्षण तथा जैव प्रौद्योगिकी साधन के रूप में इसका इस्तेमाल करने के बारे में जनचेतना फैलाने हेतु चार-वर्षीय परियोजना चलाई थी। जिससे बुरांश के संरक्षण और इसे सफलतापूर्वक उगाने एवं उसे अन्य खेतों में लगाने में सफलता मिली।

पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय क्षेत्रों में सरल ग्रामीण तकनीकों पर आधारित उद्यमिता विकास को आगे बढ़ाने, झूम कृषि प्रणाली के अन्तर्गत तांगखुलस समुदाय की परती प्रबन्धन प्रणाली आदि के माध्यम से आजीविका सुरक्षा में वृद्धि हुई है। भारतीय मध्य हिमालय में पारम्परिक बांस संसाधनों के उपयोग से ग्रामीणों की आर्थिक सुरक्षा बढ़ाने में मदद मिली है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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