अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के विशेषज्ञों ने गत वर्ष अनुमान लगाया था कि कृषि में आ रही रुकावटों, वनों के विनाश, समुद्र तटों पर बाढ़, किनारों के कटाव, औद्योगिक दुर्घटनाओं और प्रदूषण की वजह से सन् 2020 तक करीब 5 करोड़ लोग शरणार्थी बन जाएंगे। वहीं अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि सन् 2050 तक यह संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जाएगी। आधुनिक विश्व शरणार्थियों के बारे में केवल राजनीतिक शब्दावली में ही सोच पाता है। यानि प्रतिस्पर्धात्मक विचारधारा से दो फाड़ में बटे विश्व के शिकार। लेकिन जलवायु परिवर्तन के अबाध गति से चलते रहने से हो रहे पर्यावरणीय विनाश से लोगों के घर रहने योग्य न बच पाने के कारण विस्थापित पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की जनसंख्या भी लगातार वृद्धि हो रही है। उनकी बढ़ती संख्या और जरुरतों के बावजूद अधिकांश देशों ने उन्हें मान्यता प्रदान नहीं की है। सन् 1951 के शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में शरणार्थी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया था जिसे किसी विशिष्ट सामाजिक समूह या वर्ग का होने की वजह से उसे अपना गंभीर उत्पीड़न किए जाने का वास्तविक डर या अंदेशा हो। पर्यावरणीय शरणार्थी का अनिवार्यतः उत्पीड़न तो नहीं होता लेकिन उसे भागने के लिए तो मजबूर होना ही पड़ता है। लेकिन वह इस परिभाषा में नहीं आता।
पहले जहां जंगल हुआ करते थे अब वहां बंजर पहाड़ियां नजर आती हैं और अब वहां होने वाली मूसलाधार वर्षा गांवों को मिट्टी से भर देती हैं। फसलें सूखी धरती में लेट जाती हैं। पशु मर जाते हैं। पिघलते ग्लेशियर एवं बढ़ता समुद्री जलस्तर द्वीपों और निचले देशों को लील जाता है और वहां के धान खेतों को क्षारीय बना देता है। जहर उगलते कारखानों का पानी नदियों और समुद्रों में मिलकर जलीय जीवों को मार देता हैं एवं पीढ़ियों से चलते रोजगार छीन लेते हैं और इसी वजह से लोग वहां से भागते हैं। उनमें से कुछ राष्ट्र के भीतर ही विस्थापित हो जाते हैं और बाकी के जिंदा रहने के लिए सीमा पार चले जाते हैं।
अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के विशेषज्ञों ने गत वर्ष अनुमान लगाया था कि कृषि में आ रही रुकावटों, वनों के विनाश, समुद्र तटों पर बाढ़, किनारों के कटाव, औद्योगिक दुर्घटनाओं और प्रदूषण की वजह से सन् 2020 तक करीब 5 करोड़ लोग शरणार्थी बन जाएंगे। वहीं अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि सन् 2050 तक यह संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जाएगी। यह भी माना जा रहा है कि पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या पहले ही राजनीतिक शरणार्थियों की संख्या जो कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयुक्त के हिसाब से एक करोड़ 20 लाख है, को पार कर चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस ने वर्ष 1999 में बताया था कि पर्यावरणीय विनाश के कारण विस्थापित लोगों की संख्या 2.5 करोड़ को पार कर गई है। वहीं संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयुक्त के अनुसार 2009 में यह संख्या 3.6 करोड़ है, जिसमें से 2 करोड़ वे हैं, जो कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित मद्दों के शिकार हुए हैं।
इससे अधिक विश्वसनीय आंकड़े सामने आना कठिन है क्योंकि ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ शब्द को आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है और अनेक देश इनको गिनने की जहमत तक नहीं उठाते, खासकर उस परिस्थिति में जबकि जनसंख्या का आंतरिक विस्थापन हुआ हो। अन्य देश उन्हें पलायनकर्ता मानते हैं और अक्सर उनका दस्तावेजीकरण आप्रवासक के रूप में करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे शरणार्थियों को दी जाने वाली सुविधाओं के पात्र नहीं होते। एक अन्य पहलू पर भी गौर करना आवश्यक है। वह यह कि कई बार इनकी संख्या में एकाएक वृद्धि होती है जैसे कि गत वर्ष हुए फुकुशिमा परमाणु विध्वंस या हैती में सन् 2010 में आए भूकंप के कारण कुछ ही घंटों के भीतर 30 लाख लोग विस्थापित हो गए।
दो दशक पूर्व प्रसिद्ध पर्यारणविद नारमन मार्यस ने भविष्यवाणी की थी कि मानवता धीरे-धीरे एक ‘छुपी हुई समस्या’ की ओर बढ़ती जा रही है, जिसके अंतर्गत स्थानीय पारिस्थितिकी अपने निवासियों को संभाल पाने में असफल हो जाएगी और उन्हें कहीं और जाकर सहारा लेना होगा। केटरीना और रीटा जैसे समुद्री तूफानों से उपजी समस्याओं ने इस दर्दभरी स्थिति को बहुत अच्छे से समझा दिया है। अमेरिका में विस्थापित हुए हजारों-हजार लोगों को अपने लिए नए घर ढूंढते हुए देखने के बाद महसूस होता है कि दुनिया के सबसे अमीर देश के निवासी फिर वे चाहे कितने भी धनी या शक्तिशाली क्यों न हो, जलवायु से संबंधित विध्वंस के खतरे से बच नहीं सकते।
इतना ही नहीं समुद्री जलस्तर के बढ़ने से किरिबाती, मालदीव एवं टुवालु के विलुप्त होने को 21वीं शताब्दी के एक मिथक के रूप में जाना जाएगा। विश्व बैंक का अनुमान है कि समुद्र के स्तर में एक मीटर की वृद्धि होने से बांग्लादेश जिसकी आबादी 14 करोड़ है, की 17.5 प्रतिशत भूमि नष्ट हो जाएगी। इसके अलावा वहां नदी के किनारों का क्षरण, क्षारीयता, बाढ़, अधोसंरचना को हानि, फसल हानि, मछलियों का नष्ट होना और जैव विविधता की हानि जैसे संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। अभी जो लोग पड़ोसी देश भारत में गए हैं, उसके पीछे की वजहें अधिकांशतः बाढ़, अनेक मुश्किलों का सामना और भेदभाव हैं।
चीन विशेष रूप से पर्यावरणीय विध्वंस का मुख्य केंद्र बनता जा रहा है। इसकी वजह है उसका गैर टिकाऊ विकास को अपनाना, जिसकी वजह से वायु प्रदूषण एवं नदियों के जहरीला होने की गति में अत्यधिक तेजी आई है। इसके अतिरिक्त रेगिस्तानीकरण सहित अनेक मानव निर्मित विभीषिकाओं की वजह से लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं। पर्यावरणीय शिक्षा मीडिया परियोजना के निदेशक जॉन लियु, जिन्होंने चीन में 25 वर्ष बिताए हैं और वहां हो रहे विध्वंसों के साक्षी रहे हैं, का कहना है ‘इस ग्रह की प्रत्येक पारिस्थितिकी प्रणाली नष्ट हो जाने के कगार पर खड़ी है। यदि हमने इस तथ्य को स्वीकार कर तुरंत समाधान के प्रयास प्रारंभ नहीं किए तो यह नष्ट हो जाएगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा द्वारा हैती में आए भूकंप के बाद बिना दस्तावेजों के अमेरिका में रह रहे हैती नागरिकों को अस्थायी सुरक्षित दर्जा प्रदान करना सही दिशा में उठाया गया कदम था क्योंकि अब तक हुए सबसे बड़े विध्वंस में से एक का सामना कर रहे इस गरीब देश के नागरिकों के साथ यदि यह व्यवहार नहीं किया जाता तो यह न केवल अनैतिक होता बल्कि मानवता के प्रति भी एक अपराध होता। दुख की बात है बिरले ही ऐसे अवसर आते हैं और जब आते भी हैं तो बहुत कम लोगों को इसका फायदा मिल पाता है वरना अधिकांश को इस दौरान कानूनी और मानवीय सहायता उपलब्ध भी नहीं हो पाती है। विशेषज्ञ जिस एक समाधान पर एकमत हैं वह है कि पर्यावरणीय शरणार्थियों की आवश्यकताओं की अनिवार्य पहचान और इस ग्रह पर निवास कर रहे सभी लोगों को इस विपदा में एक समझा जाए।
जलवायु शरणार्थियों के लिए बनने वाली नीतियों में पुनः वनीकरण, खराब भूमि एवं मिट्टी का उपचार एवं निचले समुद्री इलाकों में क्षारीयता समाप्त करने के उपायों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसी के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के गठन की आवश्यकता है, जो मानव निर्मित आपदाओं और पर्यावरणीय विध्वंसों जैसे अवैध खनन, वनों की कटाई और जहरीले पदार्थों के भंडार के लिए जिम्मेदारों को दंडित कर सके। प्रसिद्ध राजनीतिक वैज्ञानिक वाल्ट एंडरसन ने अपनी पुस्तक ‘आल कनेक्टेड नाऊ’ में लिखा हैं ‘वैश्विक सभ्यता की पहचान इस बात से होगी कि हम किस हद तक व्यापक समस्याओं और उनके व्यापक समाधानों की ओर बढ़ सकते हैं। विश्व के किसी एक भाग में होने वाली घटना पर समूचे विश्व को ध्यान देकर सामूहिक समाधान की ओर बढ़ना होगा। यही हमारे समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा भी है। ‘एक उठती लहर सभी नावों को ऊपर उठा सकती है।’ परंतु पिघलते ग्लेशियरों के इस युग में आने वाली प्रत्येक लहर और अधिक शरणार्थी लाएगी और यदि इस तथ्य की अवहेलना की गई तो यह पूरी मानवता को लील जाएगी।
न मान्यता न गिनती
पहले जहां जंगल हुआ करते थे अब वहां बंजर पहाड़ियां नजर आती हैं और अब वहां होने वाली मूसलाधार वर्षा गांवों को मिट्टी से भर देती हैं। फसलें सूखी धरती में लेट जाती हैं। पशु मर जाते हैं। पिघलते ग्लेशियर एवं बढ़ता समुद्री जलस्तर द्वीपों और निचले देशों को लील जाता है और वहां के धान खेतों को क्षारीय बना देता है। जहर उगलते कारखानों का पानी नदियों और समुद्रों में मिलकर जलीय जीवों को मार देता हैं एवं पीढ़ियों से चलते रोजगार छीन लेते हैं और इसी वजह से लोग वहां से भागते हैं। उनमें से कुछ राष्ट्र के भीतर ही विस्थापित हो जाते हैं और बाकी के जिंदा रहने के लिए सीमा पार चले जाते हैं।
अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के विशेषज्ञों ने गत वर्ष अनुमान लगाया था कि कृषि में आ रही रुकावटों, वनों के विनाश, समुद्र तटों पर बाढ़, किनारों के कटाव, औद्योगिक दुर्घटनाओं और प्रदूषण की वजह से सन् 2020 तक करीब 5 करोड़ लोग शरणार्थी बन जाएंगे। वहीं अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि सन् 2050 तक यह संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जाएगी। यह भी माना जा रहा है कि पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या पहले ही राजनीतिक शरणार्थियों की संख्या जो कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयुक्त के हिसाब से एक करोड़ 20 लाख है, को पार कर चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस ने वर्ष 1999 में बताया था कि पर्यावरणीय विनाश के कारण विस्थापित लोगों की संख्या 2.5 करोड़ को पार कर गई है। वहीं संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयुक्त के अनुसार 2009 में यह संख्या 3.6 करोड़ है, जिसमें से 2 करोड़ वे हैं, जो कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित मद्दों के शिकार हुए हैं।
इससे अधिक विश्वसनीय आंकड़े सामने आना कठिन है क्योंकि ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ शब्द को आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है और अनेक देश इनको गिनने की जहमत तक नहीं उठाते, खासकर उस परिस्थिति में जबकि जनसंख्या का आंतरिक विस्थापन हुआ हो। अन्य देश उन्हें पलायनकर्ता मानते हैं और अक्सर उनका दस्तावेजीकरण आप्रवासक के रूप में करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे शरणार्थियों को दी जाने वाली सुविधाओं के पात्र नहीं होते। एक अन्य पहलू पर भी गौर करना आवश्यक है। वह यह कि कई बार इनकी संख्या में एकाएक वृद्धि होती है जैसे कि गत वर्ष हुए फुकुशिमा परमाणु विध्वंस या हैती में सन् 2010 में आए भूकंप के कारण कुछ ही घंटों के भीतर 30 लाख लोग विस्थापित हो गए।
दो दशक पूर्व प्रसिद्ध पर्यारणविद नारमन मार्यस ने भविष्यवाणी की थी कि मानवता धीरे-धीरे एक ‘छुपी हुई समस्या’ की ओर बढ़ती जा रही है, जिसके अंतर्गत स्थानीय पारिस्थितिकी अपने निवासियों को संभाल पाने में असफल हो जाएगी और उन्हें कहीं और जाकर सहारा लेना होगा। केटरीना और रीटा जैसे समुद्री तूफानों से उपजी समस्याओं ने इस दर्दभरी स्थिति को बहुत अच्छे से समझा दिया है। अमेरिका में विस्थापित हुए हजारों-हजार लोगों को अपने लिए नए घर ढूंढते हुए देखने के बाद महसूस होता है कि दुनिया के सबसे अमीर देश के निवासी फिर वे चाहे कितने भी धनी या शक्तिशाली क्यों न हो, जलवायु से संबंधित विध्वंस के खतरे से बच नहीं सकते।
इतना ही नहीं समुद्री जलस्तर के बढ़ने से किरिबाती, मालदीव एवं टुवालु के विलुप्त होने को 21वीं शताब्दी के एक मिथक के रूप में जाना जाएगा। विश्व बैंक का अनुमान है कि समुद्र के स्तर में एक मीटर की वृद्धि होने से बांग्लादेश जिसकी आबादी 14 करोड़ है, की 17.5 प्रतिशत भूमि नष्ट हो जाएगी। इसके अलावा वहां नदी के किनारों का क्षरण, क्षारीयता, बाढ़, अधोसंरचना को हानि, फसल हानि, मछलियों का नष्ट होना और जैव विविधता की हानि जैसे संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। अभी जो लोग पड़ोसी देश भारत में गए हैं, उसके पीछे की वजहें अधिकांशतः बाढ़, अनेक मुश्किलों का सामना और भेदभाव हैं।
चीन विशेष रूप से पर्यावरणीय विध्वंस का मुख्य केंद्र बनता जा रहा है। इसकी वजह है उसका गैर टिकाऊ विकास को अपनाना, जिसकी वजह से वायु प्रदूषण एवं नदियों के जहरीला होने की गति में अत्यधिक तेजी आई है। इसके अतिरिक्त रेगिस्तानीकरण सहित अनेक मानव निर्मित विभीषिकाओं की वजह से लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं। पर्यावरणीय शिक्षा मीडिया परियोजना के निदेशक जॉन लियु, जिन्होंने चीन में 25 वर्ष बिताए हैं और वहां हो रहे विध्वंसों के साक्षी रहे हैं, का कहना है ‘इस ग्रह की प्रत्येक पारिस्थितिकी प्रणाली नष्ट हो जाने के कगार पर खड़ी है। यदि हमने इस तथ्य को स्वीकार कर तुरंत समाधान के प्रयास प्रारंभ नहीं किए तो यह नष्ट हो जाएगी।
बढ़ी संख्या, घटते विकल्प
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा द्वारा हैती में आए भूकंप के बाद बिना दस्तावेजों के अमेरिका में रह रहे हैती नागरिकों को अस्थायी सुरक्षित दर्जा प्रदान करना सही दिशा में उठाया गया कदम था क्योंकि अब तक हुए सबसे बड़े विध्वंस में से एक का सामना कर रहे इस गरीब देश के नागरिकों के साथ यदि यह व्यवहार नहीं किया जाता तो यह न केवल अनैतिक होता बल्कि मानवता के प्रति भी एक अपराध होता। दुख की बात है बिरले ही ऐसे अवसर आते हैं और जब आते भी हैं तो बहुत कम लोगों को इसका फायदा मिल पाता है वरना अधिकांश को इस दौरान कानूनी और मानवीय सहायता उपलब्ध भी नहीं हो पाती है। विशेषज्ञ जिस एक समाधान पर एकमत हैं वह है कि पर्यावरणीय शरणार्थियों की आवश्यकताओं की अनिवार्य पहचान और इस ग्रह पर निवास कर रहे सभी लोगों को इस विपदा में एक समझा जाए।
जलवायु शरणार्थियों के लिए बनने वाली नीतियों में पुनः वनीकरण, खराब भूमि एवं मिट्टी का उपचार एवं निचले समुद्री इलाकों में क्षारीयता समाप्त करने के उपायों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसी के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के गठन की आवश्यकता है, जो मानव निर्मित आपदाओं और पर्यावरणीय विध्वंसों जैसे अवैध खनन, वनों की कटाई और जहरीले पदार्थों के भंडार के लिए जिम्मेदारों को दंडित कर सके। प्रसिद्ध राजनीतिक वैज्ञानिक वाल्ट एंडरसन ने अपनी पुस्तक ‘आल कनेक्टेड नाऊ’ में लिखा हैं ‘वैश्विक सभ्यता की पहचान इस बात से होगी कि हम किस हद तक व्यापक समस्याओं और उनके व्यापक समाधानों की ओर बढ़ सकते हैं। विश्व के किसी एक भाग में होने वाली घटना पर समूचे विश्व को ध्यान देकर सामूहिक समाधान की ओर बढ़ना होगा। यही हमारे समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा भी है। ‘एक उठती लहर सभी नावों को ऊपर उठा सकती है।’ परंतु पिघलते ग्लेशियरों के इस युग में आने वाली प्रत्येक लहर और अधिक शरणार्थी लाएगी और यदि इस तथ्य की अवहेलना की गई तो यह पूरी मानवता को लील जाएगी।
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