वर्तमान में बिगड़ता ‘प्राकृतिक संतुलन' निर्विवाद रूप में मानव इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती बन के उभरा है। मानवजनित जलवायु परिवर्तन‚ जैव विविधता का क्षय‚ मरुस्थलीकरण‚ जलवायु और रासायनिक प्रदूषण‚ मिट्टी का क्षरण‚ जंगल का विनाश आदि का प्रभाव अब वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र‚ जो धरा पर जीवन के अंसख्य स्वरूपों में जिसमें मानव जीवन भी शामिल है‚ का मूल है‚ के ‘अमिट असंतुलन' के रूप में सामने आ रहा है। प्राकृतिक असुंतलन की विकराल होती समस्या की सुगबुगाहट पिछली सदी की शुरुआत से ही दिखने लगी और विज्ञान की सटीक व्याख्या के आधार पर जलवायु परिवर्तन सहित तमाम पर्यावरणीय मुद्दों को लगभग वैश्विक स्तर पर आधी सदी पहले ही स्टॉकहोम सम्मेलन‚ 1972 में प्रतिस्थापित भी किया *जा चुका था पर पिछली *आधी सदी में प्रकृति से तालमेल बनाने के प्रयोजन छिटपुट अपवाद जैसे ओजोन छिद्र में सकारात्मक बदलाव‚ को छोड़ दें तो नाकाफी साबित हुए हैं।
हालांकि मानव–प्रकृति के आपसी तालमेल को समझते हुए कुछेक सैद्धांतिक बातों को वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया गया‚ जैसे सतत विकास की अवधारणा‚ सर्कुलर इकॉनमी आदि पर उसपे अमल करने में तमाम तरह के असहमतियां खुल के सामने आइए, जिसके मूल में विकसित–विकासशील देश‚ आर्थिक‚ तकनीक आधारित मुद्दे शामिल हैं‚ जहां एक ओर औद्योगिक देश प्रदूषण‚ अम्ल वर्षा‚ जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित थे‚ जबकि विकासशील देश पारिस्थितिक तंत्र को अनावश्यक नुकसान पहुंचाए बिना गरीबी‚ भुखमरी‚ स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सहायता की उम्मीद कर रहे थे। 1972 से शुरू हुई मुहीम से चार दशक इस बात को स्वीकार करने में गंवा दिए गए कि इस वैश्विक असंतुलन का कारण सिर्फ और सिर्फ मानवजनित है (आइपीसीसी असेसमेंट रिपोर्ट‚ 2012) और साथ–साथ प्रकृति दोहन और क्षरण की खाई भी विकराल रूप से बढ़ती रही।
प्रथम पर्यावरण सम्मलेन से अब तक
एक तरह से स्टॉकहोम सम्मलेन के बाद पर्यावरण युग की शुरुûआत मानी जा सकती है पर इसके वावजूद पिछले पचास सालों में प्रकृति का मानवीय दोहन भी बेतहाशा बढ़ा‚ जिससे प्रकृति का संतुलन आश्चर्यजनक रूप से बिगड़ा‚ जो कृषि क्रांति के बाद से ही अस्तित्व में थी और मनुष्य की अब तक की प्रगति में सहायक रही। जहां हमें प्रकृति के घटकों के आपसी ‘अनुसंबंधों के विशाल जाल' को समझ कर ‘प्रकृति सम्मत सतत विकास' की अवधारणा को अपनाना था‚ पर हमने वही ‘केवल तकनीक' निर्धारित आर्थिक विकास के मॉडल को चुना‚ जिससे न सिर्फ प्राकृतिक घटक गुणात्मक रूप से प्रभावित हुए‚ बल्कि मूलभूत सारी प्राकृतिक प्रक्रिया और घटकों के अनुसंबंध भी उसके लपेटे में आए और नतीजा हमारे अनुमान से इतर वैश्विक तापमान में वृद्धि‚ जंगल की आग‚ जैव विविधता का क्षय‚ मरुस्थलीकरण‚ प्लास्टिक प्रदूषण‚ क्लाइमेट एक्सट्रीम‚ समुद्र जल स्तर में वृद्धि‚ समुद्र अमलीकरण‚ मानव स्वास्थ्य के रूप पे परिलक्षित हो रहे हैं।
पिछली आधी सदी में मानव जनसंख्या और आर्थिक प्रगति के आंकड़े भी मानव प्रेरित प्राकृतिक असंतुलन के भयावहता की तरफ इंगित कर रहे हैं। मानव जनसंख्या दो गुणी बढ़ी जिसमें 56 फीसद शहरी जनसंख्या शामिल है‚ और उसके साथ बेतहाशा बढ़ा है संसाधनों का असंतुलित रैखिक दोहन जो ऊर्जा खपत और खाद्य उत्पादन में आई तीन गुणी वृद्धि से साफ–साफ परिलक्षित है। जहां वैश्विक आर्थिक उत्पादकता 3.4 फीसद की दर से बढ़ी है‚ विश्व व्यापार का आंकड़ा दस गुणी और वैश्विक अर्थव्यवस्था पांच गुणी हो गई वहीं प्रकृति की मूल उत्पादकता इन पचास सालों में 0.7 फीसद वाÌषक दर से घटती रही और मानव–प्रकृति के अनुसंबंध तो पिछले 12000 सालों से मानव प्रगति की सहायक और साक्षी रहे‚ अब फिर से न ठीक होने के कगार तक बहुत तेजी से बढ़ते जा रहे हैं।
पर्यावरणीय ‘अनुसंबंधों का विशाल अंतरजाल'
पृथ्वी की उत्पत्ति से अब तक के 4.6 बिलियन सालों का जलवायु और पर्यावरण इतिहास काफी उतार–चढ़ाव वाला रहा है‚ पर आखिरी हिमयुग के बाद (12000 सालों में) से लगभग संतुलन की स्थिति रही‚ जो पिछले डेढ़ सौ सालों में खासकर पिछले पांच दशकों में अभूतपूर्व रूप से असंतुलित हो कर मानव जीवन के अस्तित्व के संकट का रूप ले चूकी है। पृथ्वी पर जीवन की उत्पति (3.८ बिलियन वर्ष पहले) के साथ पर्यावरणीय घटकों और जीवन की मूलभूत प्रक्रिया एक दूसरे को प्रभावित करते हुए वर्तमान स्वरूप तक पहुंचे हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति के समय की संरचना प्रक्रिया काफी उग्र थी पर घटक काफी सरल थे (केवल बारह मुख्य मिनरल थे)‚ जीवन की उत्पत्ति (मिनरल की संख्या 1500) भी ऑक्सीजन के बिना हुई‚ फिर एककोशीय प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से पहली बार ऑक्सीजन बनने लगी जो सबसे पहले अथाह समुद्र में घुली और धीरे–धीरे पृथ्वी की मूल संरचना को संतृप्त करने लगी जिससे मिनरल की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई‚ जिसकी संख्या आज लगभग 4300 है।
प्रकाश संश्लेषण वाले एककोशकीय जीवन की प्रचुरता ने वायुमंडल को भी ऑक्सीजन से संतृप कर दिया और 600 मिलियन साल पहले तक ओजोन की परत बननी शुरू हुई‚ जिसके कारण समुद्र के इतर जमीन का वातावरण जीवन के अनुकूल ठंडा हुआ। इसके बाद शुरू हुई जीवन की विविधता का दौर‚ ‘कैंब्रियन रिवोलुशन' से शुरू होके आज तक जीवन के क्रमिक विकास के रूप में गतिमान है‚ जिसके शिखर पे बुद्धिमान मानव (होमोसेपियंस) हैं। जीवन की उत्पति से अब तक प्रकृति के घटकों और असंख्य जीवों के बीच के आपसी अंर्तसंबंधों का एक गूढ़ परन्तु गतिशील संतुलन का जाल बुनता रहा जो बदलती परिस्थतियों में भी निरंतर अनुकूलनीय है‚ जिसमें हर एक घटक‚ हर घटक या प्रक्रिया से/को परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता/करता है।
स्वनामधन्य बुद्धिमान मानव/ होमोसेपियंस
मानव का प्रादुर्भाव (लगभग तीन लाख साल पहले) और विकासक्रम चार मुख्य क्रांति का दौर रहा है; चेतना क्रांति (पशु से इतर सोचने–समझने और संसाधनों का जरूरत के अनुरूप इस्तेमाल करना)‚ कृषि क्रांति (आखिरी हिमयुग के बाद उपजाऊ भूमि पर फसल उगाने से लेकर सभ्यता के विकास तक)‚ औद्योगिक क्रांति (मशीन आधारित बड़े पैमाने पर उत्पादन और त्वरित आर्थिक और शहरीकरण तक) और ज्ञान क्रांति (निर्बाध सुचना तंत्र‚ वैश्विीकणण‚ चरम उपभोक्तावाद और जलवायु–पारिस्थितिक आपदा तक)। कृषि क्रांति से औद्योगिक क्रांति का दौर मानव और प्रकृति के अंर्तसंबंधों के लिहाज से स्वर्ण युग माना जा सकता है‚ जिसमें मानव जाति न सिर्फ पृथ्वी के सुदूर कोनों तक फैली‚ बल्कि कठिनतम जलवायु–पारिस्थितिकी में अपने आप को ढाला‚ और ज्ञान और तकनीक के सम्यक उपयोग से छोटी–छोटी इकाई के रूप प्रकृति सम्मत सभ्यता के विकास का प्रतिमान गढ़ा। मानव जाति ने प्राकृतिक विविधता को बिना प्रभावित किए अपने कार्यकलाप को प्रकृति के घटकों के अंर्तसंबंधों के गूढ़ अंर्तजाल में अपने आप को समाहित किया‚ जिसकी झलक हम अलग–अलग भौगोलिक मानव बसावट में देख सकते हैं।
फिर अचानक से ‘केवल तकनीक' निर्धारित/आधारित उत्पादन और उपभोग का दौर आया‚ जिसके मूल में बाजारवाद और मुनाफा आधारित आर्थिक विकास था‚ साथ में थी प्रकृति को लेके दो मूलभूत भ्रांतियां‚ प्राकृतिक संसाधनों का अनंत विस्तार और प्रदूषण और अपशिष्ट को समाहित कर लेने की अपार क्षमता। पिछली सदी तक आते–आते ये दोनों भ्रांतियां निर्मूल साबित होने लगीं‚ इसके पहले कि हम चेत पाते‚ मुनाफा आधारित आर्थिक विकास बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और उपभोक्तावाद‚ वैश्वीकरण और सूचनाक्रांति पे सवार हो के कब प्राकृतिक घटकों के अंर्तसंबंधों के गूढ़ अंतरजाल को तोड़ के जलवायु–पारिस्थितिकी तबाही तक आ पहुंची‚ पता ही नहीं चला। अब हमारी जीवन शैली की जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारी एक पृथ्वी नाकाफी है। हमें 1.7 पृथ्वी की दरकार है‚ पर हमारे पास तो केवल एक पृथ्वी है।
आखिर‚ समाधान क्या है ॽ
समाधान केवल तकनीकी कतई नहीं हो सकता‚ जब तक हम सामाजिक व्यवहार जो कि व्यक्तिगत व्यवहार का जोड़ है‚ को प्रकृति के आधार तक नहीं बदल पाते हैं‚ हमारे प्रयास निर्मूल साबित होंगे। हमारे प्लास्टिक उपयोग (खासकर प्लास्टिक बोतल वाली पानी) की लत सारे समुद्र की सांसें रोक रही है‚ यहां तक कि माइक्रोप्लास्टिक के रूप में समुद्री नमक में मिल के हरेक के खाने की प्लेट में जहर बनके पहुंच रही है‚ और जब तक हम प्लास्टिक के वैकल्पिक पदार्थ या प्लास्टिक के निष्पादन की तकनीक ढूंढते रहेंगे तब तक हम समस्या को और विकराल करेंगे। जरूरत है सामाजिक व्यवहार को‚ सामाजिक जरूरतों को‚ मुनाफा आधारित विकास के आर्थिक मॉडल को प्राकृतिक घटकों के अंर्तसंबंधों पर पड़ने वाले अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभाव की कसौटी पर परखते हुए विकेंद्रित प्रबंधन पर जोर देने की‚ हालांकि यह तरीका वर्तमान में दुरूह है‚ पर आधुनिक तकनीक और परंपरागत ज्ञान प्रणालियों के मिलन से आसान बनाया जा सकता है।
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