बांग्लादेश के दक्षिणी तट स्थित कुतुबदिया नामक द्वीप अपने आकार में आज, एक शताब्दी पूर्व का मात्र 20 प्रतिशत रह गया है। इसका कारण है शक्तिशाली व ज्वार की लहरों, एवं समुद्री तूफानों के कारण होने वाला कटाव। समुद्र इस द्वीप में 15 कि.मी. तक घुस आया है। संयुक्त राष्ट्र की एक बसाहट रिपोर्ट में कहा गया है कि नदी डेल्टा वाले शहरों जैसे भारत में कोलकाता, म्यांमार की यंगून और वियतनाम के हाई पोंग जैसे शहर बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अत्यधिक बाढ़ का सामना कर रहे हैं। आने वाले वर्षों में समुद्र तटीय शहरों का भी यही हाल होने वाला है।
वर्ल्ड विजन रिपोर्ट के अनुसार अन्य शहरी क्षेत्रों को बढ़ते वैश्विक तापमान से सीधा खतरा तो नहीं है परंतु उपरोक्त प्रभावित शहरों से आनेवाले 'पर्यावरणीय शरणार्थी' इन शहरों के सम्मुख जबरदस्त चुनौती पैदा कर सकते हैं। अभी हमें जो दिखाई दे रहा है वह तो भविष्य की मात्र एक झलक ही है। विश्व में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर एशिया एवं प्रशांत क्षेत्रों में हैं क्योंकि इन क्षेत्रों की विशाल समुद्री सीमा है जिसके पास बड़ी मात्रा में भूमि आच्छादित है। यह भी विश्वास जताया जा रहा है कि इन इलाकों ने जो सामाजिक आर्थिक उन्नति की है आगामी दो-तीन दशकों में बढ़ता जलस्तर उसे लील जाएगा।
हिमालय, मध्य पश्चिम एशिया एवं दक्षिण भारत में वर्षा के व्यवहार में परिवर्तन आएगा जिससे कृषि उत्पादन एवं खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग भूख की चपेट में आ जाएंगे और बड़ी संख्या में लोग 'जलवायु शरणार्थी' बन जाएंगे। इसके परिणामस्वरूप प्रशांत, दक्षिण पूर्व एशिया हिंद महासागर के निचेल द्वीपों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। इसी के साथ ही साथ इस क्षेत्र में पानी की कमी बढ़ती जाएगी। वैसे यह क्षेत्र अभी भी लगातार सूखे की चपेट में रह रहा है।
पिछले दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचण्ड तूफानों, सूखा, गर्म हवाओं, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक विपदाओं में वृध्दि में बांग्लादेश, भारत, फिलिपीन्स, और वियतनाम जैसे देश अव्वल रहे हैं और यहां पर इस अवधि में इन हादसों के कारण होने वाला नुकसान 20 खरब डॉलर से अधिक है। भविष्य में बढ़ते तापमान के कारण समुद्र का स्तर बढ़ेगा, समुद्र अधिक गरम होगा और समुद्र की क्षारीयता में वृध्दि होगी। इससे तटीय क्षेत्रों में कटाव होगा और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचेगा। यही पारिस्थितिकी तंत्र प्रशांत एवं एशिया के देशों में लोगों की जीविका और पोषण तत्वों का मुख्य स्रोत है।
विश्व वन्यजीव कोष के अध्ययन के अनुसार इस सदी के अंत तक प्रशांत महासागर से कोरल विलुप्त हो जाएंगे जिससे 10 करोड़ से अधिक लोगों की जीविका और खाद्य आपूर्ति संकट में पड़ जाएगी। कोरल पर्यटकों को भी आकृष्ट करते हैं उनके न होने से पर्यटन से होने वाली आय पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन कृषि को भी प्रभावित करेगी। एशियाई विकास बैंक के अनुसार पानी की कमी के कारण थाईलैंड एवं वियतनाम में चावल का उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा। वहीं दक्षिण एशिया में वर्ष 2050 तक कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। वैसे उसके आसार अभी से नजर भी आने लगे हैं। जलवायु परिवर्तन मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा। परिणास्वरूप लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में बाढ़ एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं में वृध्दि होने से वायुजनित एवं गर्मी से संबंधित बीमारियों में भी वृध्दि होगी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पानी और खाद्य पदार्थों की कमी भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।
वास्तविकता यह है कि वर्ष 2004 से 2006 के मध्य आई प्राकृतिक विपदाओं में से 70 प्रतिशत एशिया, प्रशांत अफ्रीका और मध्यपूर्व में आई थी। इससे इस इलाके की संवेदनशीलता का भी पता चलता है। जलवायु परिवर्तन का सबसे गहरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। परंतु परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में भी उन्हें महारत हासिल है। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत की एक संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी दलित महिलाओं के बीच कार्य कर उन्हें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फसलों पर पड़ने वाले प्रभावों से बचने की तकनीक सिखा रही है।
वर्ल्ड विजन रिपोर्ट के अनुसार अन्य शहरी क्षेत्रों को बढ़ते वैश्विक तापमान से सीधा खतरा तो नहीं है परंतु उपरोक्त प्रभावित शहरों से आनेवाले 'पर्यावरणीय शरणार्थी' इन शहरों के सम्मुख जबरदस्त चुनौती पैदा कर सकते हैं। अभी हमें जो दिखाई दे रहा है वह तो भविष्य की मात्र एक झलक ही है। विश्व में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर एशिया एवं प्रशांत क्षेत्रों में हैं क्योंकि इन क्षेत्रों की विशाल समुद्री सीमा है जिसके पास बड़ी मात्रा में भूमि आच्छादित है। यह भी विश्वास जताया जा रहा है कि इन इलाकों ने जो सामाजिक आर्थिक उन्नति की है आगामी दो-तीन दशकों में बढ़ता जलस्तर उसे लील जाएगा।
हिमालय, मध्य पश्चिम एशिया एवं दक्षिण भारत में वर्षा के व्यवहार में परिवर्तन आएगा जिससे कृषि उत्पादन एवं खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग भूख की चपेट में आ जाएंगे और बड़ी संख्या में लोग 'जलवायु शरणार्थी' बन जाएंगे। इसके परिणामस्वरूप प्रशांत, दक्षिण पूर्व एशिया हिंद महासागर के निचेल द्वीपों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। इसी के साथ ही साथ इस क्षेत्र में पानी की कमी बढ़ती जाएगी। वैसे यह क्षेत्र अभी भी लगातार सूखे की चपेट में रह रहा है।
पिछले दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचण्ड तूफानों, सूखा, गर्म हवाओं, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक विपदाओं में वृध्दि में बांग्लादेश, भारत, फिलिपीन्स, और वियतनाम जैसे देश अव्वल रहे हैं और यहां पर इस अवधि में इन हादसों के कारण होने वाला नुकसान 20 खरब डॉलर से अधिक है। भविष्य में बढ़ते तापमान के कारण समुद्र का स्तर बढ़ेगा, समुद्र अधिक गरम होगा और समुद्र की क्षारीयता में वृध्दि होगी। इससे तटीय क्षेत्रों में कटाव होगा और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचेगा। यही पारिस्थितिकी तंत्र प्रशांत एवं एशिया के देशों में लोगों की जीविका और पोषण तत्वों का मुख्य स्रोत है।
विश्व वन्यजीव कोष के अध्ययन के अनुसार इस सदी के अंत तक प्रशांत महासागर से कोरल विलुप्त हो जाएंगे जिससे 10 करोड़ से अधिक लोगों की जीविका और खाद्य आपूर्ति संकट में पड़ जाएगी। कोरल पर्यटकों को भी आकृष्ट करते हैं उनके न होने से पर्यटन से होने वाली आय पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन कृषि को भी प्रभावित करेगी। एशियाई विकास बैंक के अनुसार पानी की कमी के कारण थाईलैंड एवं वियतनाम में चावल का उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा। वहीं दक्षिण एशिया में वर्ष 2050 तक कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। वैसे उसके आसार अभी से नजर भी आने लगे हैं। जलवायु परिवर्तन मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा। परिणास्वरूप लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में बाढ़ एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं में वृध्दि होने से वायुजनित एवं गर्मी से संबंधित बीमारियों में भी वृध्दि होगी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पानी और खाद्य पदार्थों की कमी भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।
वास्तविकता यह है कि वर्ष 2004 से 2006 के मध्य आई प्राकृतिक विपदाओं में से 70 प्रतिशत एशिया, प्रशांत अफ्रीका और मध्यपूर्व में आई थी। इससे इस इलाके की संवेदनशीलता का भी पता चलता है। जलवायु परिवर्तन का सबसे गहरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। परंतु परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में भी उन्हें महारत हासिल है। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत की एक संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी दलित महिलाओं के बीच कार्य कर उन्हें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फसलों पर पड़ने वाले प्रभावों से बचने की तकनीक सिखा रही है।
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